Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 20 of 170
PDF/HTML Page 49 of 199

 

समाधितंत्र३३

दीर्धसंसारिणं करोतीत्यर्थः केन ? एतेन देहेन निश्चयात् परमार्थेन स्वात्मन्येव जीवस्वरूपे एव आत्मधीरन्तरात्मा निश्चयाद्वियोजयति असम्बद्धं करोति देहिनं ।।१३।।


आत्माने (शरीर साथे) जोडे छे(तेनी साथे) संबंध करे छे; तेने दीर्घ संसारी करे छे एवो अर्थ छे. कोनी साथे (जोडे छे)? निश्चयथी एटले नक्की ते शरीर साथे (जोडे छे); पण आत्मामां ज एटले जीवस्वरूपमां ज आत्मबुद्धिवाळो अंतरात्मा निश्चयथी तेने (आत्माने) तेनाथी (शरीरथी) पृथक् (अलग) करे छे(शरीर साथे) असंबंध करे छे.

भावार्थः अज्ञानी बहिरात्मा पोताना शरीरमां स्व-बुद्धि-आत्मबुद्धि करे छे अर्थात् शरीर अने आत्माने एकरूप माने छे, ज्यारे ज्ञानी अंतरात्मा पोताना आत्माने शरीरथी भिन्न समजे छे.

‘‘........आ जीव ए शरीरने पोतानुं अंग जाणी पोताने अने शरीरने एकरूप माने छे, पण शरीर तो कर्मोदय आधीन कोई वेळा कृश थाय, कोई वेळा स्थूल थाय, कोई वेळा नष्ट थाय अने कोई वेळा नवीन ऊपजे, इत्यादि चरित्र थाय छे. ए प्रमाणे तेनी पराधीन क्रिया थवा छतां आ जीव तेने पोताने आधीन जाणी महा खेदखिन्न थाय छे.....’’

देहाध्यासथी मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा शरीरने ज आत्मा मानतो होवाथी तेने नवां नवां शरीरोनो संबंध थतो रहे छे अने तेथी ते अनंतकाल सुधी आ गहन संसारवनमां भटकतो फरे छे तथा संसारना तीव्र तापथी सदा बळतो रहे छे.

अन्तरात्माने शरीरादिमां आत्मबुद्धि (ममत्वबुद्धि) होती नथी; पण तेने पोताना ज्ञानदर्शनस्वरूप आत्मामां ज आत्मबुद्धि होय छे; तेथी ते शरीरने, पोताना चैतन्यस्वरूपथी भिन्न, पुद्गलनो पिंड समजे छे. भेदज्ञानना बळे ते ध्यानद्वारास्वरूपलीनता द्वारा पोताना आत्माने शरीरादिना बंधनथी सर्वथा पृथक् करे छे अने सदाने माटे मुक्त थई जाय छे.

आवी रीते द्रष्टिफेरने लीधे बहिरात्मा पर साथे एकत्वबुद्धि करी संसारमां रखडे छे, ज्यारे अंतरात्मा पर साथेनो संबंध तोडी तथा स्व साथे संबंध जोडी अंते संसारना दुःखोथी सर्वथा मुक्त थाय छे.

अनादि कालथी शरीरने आत्मा मानवानी भूल जीवे पोते ज पोतानी अज्ञानताथी करी छे अने आत्मज्ञान वडे ते ज पोतानी भूल सुधारी शके छे.

‘शरीरादिमां आत्मबुद्धिरूप विभ्रमथी उत्पन्न थयेलुं दुःख आत्मज्ञानथी ज शान्त थाय छे’ १३. १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ५२ २. जुओः ‘समाधितंत्र’श्लोक ४१.