Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४०समाधितंत्र

कुतः पुनर्बहिरन्तर्वाचस्त्यागः कर्तव्य इत्याह एवो अर्थ छे.

भावार्थ : बाह्य वचनप्रवृत्तिना विकल्पो तेम ज अंतरंग विकल्पोनो सर्वथा त्याग करीने चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थवुं ते योग छे समाधि छे. आ योग परमात्मानो प्रकाशक प्रदीप छे.

‘स्त्री, पुत्र, धन, धान्यादि मारां छे’ एवो मिथ्या प्रलाप ते बाह्य वचनव्यापार बहिर्जल्प छे अने ‘हुं सुखी, हुं दुःखी, हुं रंक, हुं राय, हुं गुरु, हुं शिष्य’ इत्यादि अंतरंग वचनप्रवृत्ति ते अंतर्जल्प छे. ते बंने बहिरंग अने अंतरंग वचनप्रवृत्तिने छोडी आत्मस्वरूपमां एकाग्रता प्राप्त करवी ते योग अथवा समाधि छे. आ योग ज परमात्मस्वरूपने प्रकाशवा माटे दीपक समान छे.

आचार्ये योगने प्रदीप कह्यो छे, कारण के जेम दीवो निश्चयथी पोताना स्वरूपने प्रकाशे छे, ते योग अंदर बिराजेला निज आत्माना स्वरूपने प्रकाशे छे.

जे समये आत्मा आ बाह्यअभ्यन्तर संकल्पविकल्पोनो परित्याग करे छे ते समये ते इन्द्रियोनी प्रवृत्तिथी हठी निज स्वरूपमां लीन थई जाय छे अने पोताना शुद्ध आत्मस्वरूपनो अनुभव करे छे.

विशेष

‘हुं सिद्ध समान छुं, हुं केवलज्ञानमय छुं, वगेरे’एवा विकल्पो मनमां कर्या करे अने उपयोगने शुद्धात्मस्वरूपमां न जोडे तो ते कल्पनाजाळ छे. तेमां ज फसाई रहे तो शुद्ध स्वात्मानो अनुभव थाय नहि, कारण के आवुं अंतर्जल्पन आत्मानुभवमां बाधक छे. ज्यां सुधी अंतर्जल्पनरूप अंतरंग प्रवृत्ति छे, त्यां सुधी सविकल्प दशा छे. अतीन्द्रिय ज्ञान स्वरूपमां उपयोगने जोडवा माटे ज्ञानी सविकल्प दशानो त्याग करे छे. निर्विकल्प दशामां जसमाधिमां ज शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे. तेथी ग्रन्थकारे अंतर्जल्परूप सविकल्प दशानो पण पूर्णपणे त्याग करवानुं सूचव्युं छे.

‘अंतरंगमां जे वचनव्यापारवाळी अनेक प्रकारनी कल्पनाजाळ छे ते आत्माने दुःखनुं मूल कारण छे. तेनो नाश थतां हितकारी परम पदनी प्राप्ति थाय छे.१७.

वळी अंतरंग अने बहिरंग वचनप्रवृत्तिनो त्याग केवी रीते करवो? ते कहे छे १. जुओप्रस्तुत ग्रन्थनो श्लोक ८५.