टीका — रूपं शरीरादिरूपं यद् दृश्यते इन्द्रियैः परिच्छिद्यते मया तदचेतनत्वात् उक्तमपि वचनं सर्वथा न जानाति । जानता च समं वचनव्यवहारो युक्तो नान्येनातिप्रसङ्गात् । यच्च जानद् रूपं चेतनमास्वरूपं तन्न दृश्यते इन्द्रियैर्न परिच्छिद्यते । तत एवं ततः केन सह ब्रवीम्यहम् ।।१८।।
अन्वयार्थ : (मया) मारावडे (यत् रूपं) जे रूप – शरीरादिरूपी पदार्थ (दृश्यते) देखाय छे (तत्) ते – अचेतन पदार्थ (सर्वथा) सर्वथा (न जानाति) कोईने जाणतो नथी अने (जानत् रूपं) जे जाणवावाळो चैतन्यरूप आत्मा छे ते (न दृश्यते) देखातो नथी. (ततः) तो (अहं) हुं (केन) कोनी साथे (बव्रीमि) बोलुं – वातचीत करुं?
टीका : रूप एटले शरीरादिरूप जे देखाय छे अर्थात् इन्द्रियो द्वारा माराथी जणाय छे, ते अचेतन (जड) होवाथी (मारा) बोलेला वचनने पण सर्वथा जाणतुं नथी; जे जाणतो होय (समजतो होय) तेनी साथे वचन – व्यवहार योग्य छे; बीजानी साथे (वचन – व्यवहार) योग्य नथी कारण के अति प्रसंग आवे छे, अने जे रूप अर्थात् चेतन – आत्मस्वरूप – जाणे छे ते तो इन्द्रियोद्वारा देखातुं नथी – जणातुं नथी; जो एम छे तो हुं कोनी साथे बोलुं?
भावार्थ : जे शरीरादिरूपी पदार्थो इन्द्रियोथी देखाय छे ते अचेतन होवाथी बोलेलुं वचन सर्वथा जाणता नथी – समजता नथी अने जेनामां जाणवानी शक्ति छे ते चैतन्यस्वरूप आत्मा अरूपी होवाथी इन्द्रियोद्वारा देखातो नथी; तेथी अंतरात्मा विचारे छे के ‘कोईनी साथे बोलवुं या वचन – व्यवहारनी प्रवृत्ति करवी ते निरर्थक छे, कारण जे परनुं जाणवावाळुं चैतन्य – द्रव्य छे ते तो मने देखातुं नथी अने इन्द्रियोद्वारा जे रूपी शरीरादिक जड पदार्थो देखाय छे ते चेतनारहित होवाथी कांई पण जाणता नथी; तो हुं कोनी साथे वात करुं? कोईनी पण साथे वातचीत करवानुं बनतुं नथी, माटे हवे तो मारे मारा स्वरूपमां रहेवुं ✽