टीका – परैरुपाध्यायादिभिरहं यत्प्रतिपाद्यः परान् शिष्यादीनहं यत्प्रतिपादये तत्सर्वं मे उन्मत्तचेष्टितं मोहवशादुन्मत्तस्येवाखिलं विकल्पजालात्मकं विजृम्भितमित्यर्थः । कुत एतत् ? यदहं निर्विकल्पको यद्यस्मादहमात्मा निर्विकल्पक एतैर्वचनविकल्पैरग्राह्यः ।।१९।।
अन्वयार्थ : (अहं) हुं (परैः) बीजाओथी – अध्यापकादिथी (यत् प्रतिपाद्यः) जे कांई शीखववा योग्य छुं तथा (परान्) बीजाओने शिष्यादिकने (यत् प्रतिपादये) हुं जे कांई शीखवुं (तत्) ते (मे) मारी (उन्मत्तचेष्टितं) उन्मत्त (पागल) चेष्टा छे; (यद् अहं) कारण के (वास्तवमां) हुं (निर्विकल्पकः) निर्विकल्पक अर्थात् वचन – विकल्पोथी अग्राह्य छुं.
टीका : पर वडे अर्थात् उपाध्यायादि वडे मने जे शीखवाडवामां आवे छे अने बीजाओने – शिष्यो वगेरेने हुं जे शीखवुं छुं ते बधी मारी उन्मत्त (पागल) चेष्टा छे – मोहवशात् उन्मत्तना (पागलना) जेवी ज ते बधी विकल्पजालरूप चेष्टा प्रवर्ते छे, एवो अर्थ छे. शाथी ते (उन्मत्त चेष्टा) छे? कारण के हुं (आत्मा) तो निर्विकल्पक अर्थात् वचनविकल्पोथी अग्राह्य छुं.
भावार्थ : अध्यापकादि मने शीखवे छे तथा हुं शिष्यादि बीजाओने शीखवुं छुं – एवो संकल्प करुं ते मारुं उन्मत्तपणुं – पागलपणुं छे, कारण के मारुं वास्तविक स्वरूप तो निर्विकल्प छे अर्थात् बधा विकल्पोथी हुं अग्राह्य छुं – पर छुं.
आत्मानो स्वभाव तो ज्ञाता – द्रष्टा छे. कोईने शीखववुं या तेनुं भलुं – बूरुं करवुं ए वास्तवमां आत्मानो स्वभाव नथी, कारण के ‘कोई द्रव्य अन्य कोई द्रव्यनो कर्ता छे ज नहि, पण सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावे परिणमे छे’ एम विचारी सम्यग्द्रष्टि अंतरात्मा अंतरना विकल्पोने तोडी स्वरूपमां लीन थवा प्रयत्न करे छे.
विकल्पो दूर करी परमात्मतत्त्वमां लीन थवा माटे उपदेश आपतां श्री अमितगति आचार्य कहे छे के —
‘‘संसाररूपी भयानक जंगलमां पटकवाना हेतूभूत सर्व विकल्पोने दूर करीने तारा आत्माने सर्वथी (द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मथी) भिन्न अनुभव करतां तुं परमात्मतत्त्वमां लीन थई जईश.’’१ १. सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं, संसारकान्तारनिपातहेतुम् ।