Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 20.

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४४समाधितंत्र

तदेव विकल्पातीतं स्वरूपं निरूपयन्नाह
यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुंचति
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्संवेद्यमस्म्यहम् ।।२०।।
उन्मत्तता संबंधी स्पष्टता
उन्मत्तता बे प्रकारनी छेएक श्रद्धा अपेक्षाए अने बीजी चारित्र अपेक्षाए.
(१) श्री तत्त्वार्थसूत्रमां जे उन्मत्तता दर्शावी छे ते श्रद्धा अपेक्षाए छे. मिथ्याद्रष्टि

सत अने असत्नो भेद जाणतो नथी. ते उन्मत्त पुरुषनी माफक पोतानी रुचि अनुसार वस्तुने समजे छे. जेम मदिरा पीने उन्मत्त थयेलो पुरुष मातापत्नीनो भेद जाणतो नहि होवाथी कदी माताने पत्नी अने पत्नीने माता कहे छे अने कोई वखत ते पत्नीने पत्नी अने माताने माता कहे छे, छतां ते ठीक समजीने तेम कहे छे एम नथी. तेवी रीते मिथ्याद्रष्टिने पण वस्तुस्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान नहि होवाथी तेना विकल्पो मिथ्या मान्यताना कारणे उन्मत्त पुरुषना जेवा होय छे.

(२) प्रस्तुत श्लोकमां जे उन्मत्तता दर्शावी छे ते अंतरात्मानी चारित्र अपेक्षाए छे, श्रद्धा अपेक्षाए नथी; केमके ज्ञानीने पण अस्थिरताना कारणे तेवा विकल्पो ऊठे छे, पण अभिप्रायमां तेने तेनो आदर नथी. ज्यां सुधी विकल्प ऊठे त्यां सुधी निर्विकल्प थई शकातुं नथी. तेथी आचार्ये विकल्प तोडीने आत्मस्वरूपमां लीन थवा माटे निर्देश कर्यो छे; अने अंतरात्मानी भूमिकाना विकल्पोने चारित्र अपेक्षाए उन्मत्तपणुं कह्युं छे. १९.

ते ज विकल्पातीत (निर्विकल्प) स्वरूपनुं निरूपण करतां कहे छेः

श्लोक २०

अन्वयार्थ : (यत्) जे एटले शुद्ध आत्मस्वरूप (अग्राह्यं) अग्राह्यने अर्थात् क्रोधादिस्वरूपने (न गृह्णाति) ग्रहण करतुं नथी अने (गृहीतं अपि) ग्रहण करेलाने अर्थात् २. जुओतत्त्वार्थसूत्रअ. १, सूत्र ३२.

जो णिय भाउ ण परिहरइ जो परभाउ ण लेइ
जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ ।।१८।। (परमात्मप्रकाशअ. १//
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१८)
ग्रहे नहीं अग्राह्यने, छोडे नहीं ग्रहेल,
जाणे सौने सर्वथा, ते हुं छुं निजवेद्य. २०.