Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 21.

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४६समाधितंत्र

इत्थंभूतात्मपरिज्ञानात्पूर्वं कीदृशं मम चेष्टितमित्याह
उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः स्थाणौ यद्वद्विचेष्टितम्
तद्वन्मे चेष्टितं पूर्वं देहादिष्वात्मविभ्रमात् ।।२१।।

आत्माने पर द्रव्यनो ग्रहणत्याग कहेवो ए तो व्यवहारनयनुं कथनमात्र छे. निश्चयनये तो ते पर द्रव्यनो ग्रहणत्याग करी शकतो ज नथी. ज्यारे जीव आत्मस्वरूपमां लीन थाय छे, त्यारे रागादि विकारो स्वयं छूटी जाय छे; तेने छोडवा पडता नथी. अने आत्मिक गुणो स्वयं प्रगट थाय छे.

वळी आत्मस्वरूप संपूर्णपणे प्रगट थाय त्यारे आत्माना ज्ञानगुणनी पर्याय पण केवळज्ञानरूपे प्रगटे छे. आ केवळज्ञाननो एवो अनंत महिमा छे के ते अनंत द्रव्योना अनंत गुणोने अने तेमनी त्रिकालवर्ती विकारीअविकारी अनंत पर्यायोने संपूर्णपणे एक ज समयमां सर्वथा प्रत्यक्ष जाणे छे.

ज्ञान पर पदार्थोने जाणे छेएम कहेवुं ते पण व्यवहारनयनुं कथन छे. वास्तवमां तो आत्मा पोताने जाणतां समस्त पर पदार्थो जणाई जाय छे एवी ज्ञाननी निर्मळता स्वच्छता छे.

वळी ते आत्मस्वरूप स्वसंवेद्य छे अर्थात् पोताना आत्माना ज अनुभवमां आवे तेवुं छे. गुरु, तेमनी वाणी के तीर्थंकर भगवाननी दिव्यध्वनि पण तेनो अनुभव करावी शके तेम नथी. जीव अनुभव करे तो ते निमित्तमात्र कहेवाय. ते स्वानुभवगोचर छे. आत्मा पोते ज तेने ओळखी, अनुभव करी शके.

ए रीते वास्तवमां आत्माने परद्रव्यनां तथा रागादिनां ग्रहणत्याग नथी; ते सर्वज्ञ छे अने मात्र स्वानुभवगोचर छे. २०.

आवा आत्मपरिज्ञाननी पूर्वे मारी चेष्टा केवी हती ते कहे छेः

श्लोक २१

अन्वयार्थ : (स्थाणौ) झाडना ठूंठामां (उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः) जेने पुरुषनी भ्रान्ति १. जुओः श्री प्रवचनसार गाथा३७, ३८, ३९, ४१, ४७, ४८, ४९, ५१.

स्थाणु विषे नरभ्रान्तिथी थाय विचेष्टा जेम;
आत्मभ्रमे देहादिमां वर्तन हतुं मुज तेम. २१.