Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समाधितंत्र४७

टीकाउत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः पुरुषोऽयमित्युत्पन्ना भ्रान्तिर्यस्य प्रतिपत्तुस्तस्य स्थाणौ स्थाणुविषये यद्वद्यत्प्रकारेण विचेष्टितंविविधमुपकारापकारादिरूपं चेष्टितं विपरीतं वा चेष्टितं तद्वत् तत्प्रकारेण मे चेष्टितं क्व ? देहादिषु कस्मात् आत्मविभ्रमात् आत्मविपर्यासात् कदा ? पूर्वम् उक्तप्रकारात्मस्वरूपपरिज्ञानात् प्राक् ।।२१।। उत्पन्न थई तेवा मनुष्यने (यद्वत्) जेवी (विचेष्टितम्) विपरीत या विविध चेष्टा होय छे (तद्वत्) तेवी (देहादिषु) शरीरादिमां (आत्मविभ्रमात्) आत्मविभ्रमने लीधे (पूर्वं) पहेलां (मे) मारी (चेष्टितम्) चेष्टा हती.

टीका : पुरुषनी भ्रान्ति जेने उत्पन्न थई छेतेनी अर्थात् ‘आ पुरुष छे’ एवी जेने भ्रान्ति उत्पन्न थई छे तेनीएवुं माननारनीस्थाणुमां (ठूंठाना विषयमां) जे रीते जे प्रकारे विचेष्टा थाय छेविविध प्रकारनी चेष्टा थाय छेअर्थात् उपकारअपकारादिरूप चेष्टा वा विपरीत चेष्टा थाय छेते प्रमाणेते प्रकारे में चेष्टा करी. कोना विषे? देहादि विषे. शा कारणथी? आत्मविभ्रमआत्मविपर्यासना कारणे. क्यारे? पूर्वे अर्थात् उक्त प्रकारना आत्मस्वरूपना परिज्ञान पूर्वे.

भावार्थ : अंतरात्मा विचारे छे के, ‘जेवी रीते कोई पुरुष भ्रमथी वृक्षना ठूंठाने पुरुष समजी तेनाथी पोताने उपकारअपकारादिनी कल्पना करी सुखीदुःखी थाय छे, तेवी रीते हुं पण मिथ्यात्वावस्थामां भ्रमथी शरीरादिने आत्मा समजी तेनाथी पोताने उपकार अपकारादिनी कल्पना करी सुखीदुःखी थयोए मारी मूर्खाई भरेली चेष्टा हती. कोई ठूंठाने पुरुष माने अने हुं शरीरादिने आत्मा मानुंएम बंनेना विभ्रममां अने चेष्टामां कांई फेर नथी.’

विशेष

‘‘जेम एक नारीए काष्टनी पूतळी बनावीने तेने अलंकारवस्त्र पहेरावीने पोताना महेलमां पथारीमां सुवाडी राखी अने लूगडांथी ढांकी दीधी. त्यां, ते नारीनो पति आव्यो. एणे एम जाण्युं के मारी नारी शयन करे छे. ते तेने हलावे, पवन नाखे, परंतु ते (पूतळी) तो बोले नहि. आखी रात बहु सेवा करी; प्रभात थयुं त्यारे तेणे जाण्युं के आ तो काष्टनी पूतळी छे, त्यारे ते पस्तायो के में जूठी सेवा करी. तेम अनादिथी आत्मा पर अचेतननी सेवा वृथा करे छे. ज्ञान थतां ते जाणे छे के जड छे, त्यारे तेनो स्नेह त्यागे छे अने स्वरूपानंदी थई सुख पामे छे.’’ २१. १. ‘अनुभव प्रकाशक’गु. बीजी आवृत्ति, पृ. २२२३.