करी जे उपकार – अपकारादिनी कल्पनारूप चेष्टा करतो हतो ते बंध थई जाय छे; तेम अन्तरात्माने भेद – विज्ञान द्वारा शरीर अने आत्मानी एकतानो भ्रम दूर थतां शरीरादिमां उपकार – अपकाररूप बुद्धि रहेती नथी अने तेथी तेना प्रत्ये उदासीन रहे छे.
ज्ञानी पोताना आत्माने शरीरथी भिन्न अने तद्दन जुदी जातनो माने छे; कारण के शरीर रूपी, आत्मा अरूपी; शरीर जड, आत्मा चेतन; शरीर संयोगी, आत्मा असंयोगी; शरीर विनाशी, आत्मा अविनाशी; शरीर आंधळुं, आत्मा देखतो; शरीर इन्द्रिय – ग्राह्य, आत्मा अतीन्द्रिय – ग्राह्य; शरीर बाह्य परतत्त्व, आत्मा अंतरंग स्वतत्त्व, इत्यादि प्रकारे बंने एकबीजाथी भिन्न छे.
आवा अत्यंत भिन्नपणाना विवेकथी जीवने ज्यारे भेदज्ञान थाय छे त्यारे शरीरादिमां आत्मबुद्धिनी भ्रमणा छूटी जाय छे, शरीरना सुधार – बगाडथी आत्मा सुधरे – बगडे एवो भ्रम टळी जाय छे. देहादि पर पदार्थो प्रत्ये कर्ता – बुद्धिना स्थाने ज्ञाता – बुद्धि ऊपजे छे अने ते आत्म सन्मुख वळी चैतन्य – स्वरूपमां एकाग्र थवा लागे छे.
आम जीवने ज्यारे भेद – विज्ञानद्वारा स्व – परनुं भान थाय छे, त्यारे ते पर भावथी हटी स्वसन्मुख थाय छे. २२
हवे आत्मामां स्त्री आदि लिंग ने एकत्वादि संख्या संबंधी विभ्रमनी निवृत्ति माटे तेनाथी विविक्त (भिन्न) असाधारण स्वरूप बतावतां कहे छेः —
अन्वयार्थ : (येन आत्मना) जे आत्माथी – चैतन्यस्वरूपथी (अहम्) हुं (आत्मनि) पोताना आत्मामां (आत्मना) आत्माद्वारा – स्वसंवेदनज्ञानद्वारा (आत्मना एव) पोताना