Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 23.

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समाधितंत्र४९
अथेदानीमात्मनि स्त्र्यादिलिङ्गैकत्वादिसंख्याविभ्रमनिवृत्त्यर्थतद्विविक्तासाधारणस्वरूपं दर्शयन्नाह
येनात्मनाऽनुभूयेहमात्मनैवात्मनात्मनि
सोऽहं न तन्न सा नासौ नैका न द्वौ वा बहुः ।।२३।।

करी जे उपकारअपकारादिनी कल्पनारूप चेष्टा करतो हतो ते बंध थई जाय छे; तेम अन्तरात्माने भेदविज्ञान द्वारा शरीर अने आत्मानी एकतानो भ्रम दूर थतां शरीरादिमां उपकारअपकाररूप बुद्धि रहेती नथी अने तेथी तेना प्रत्ये उदासीन रहे छे.

विशेष

ज्ञानी पोताना आत्माने शरीरथी भिन्न अने तद्दन जुदी जातनो माने छे; कारण के शरीर रूपी, आत्मा अरूपी; शरीर जड, आत्मा चेतन; शरीर संयोगी, आत्मा असंयोगी; शरीर विनाशी, आत्मा अविनाशी; शरीर आंधळुं, आत्मा देखतो; शरीर इन्द्रियग्राह्य, आत्मा अतीन्द्रियग्राह्य; शरीर बाह्य परतत्त्व, आत्मा अंतरंग स्वतत्त्व, इत्यादि प्रकारे बंने एकबीजाथी भिन्न छे.

आवा अत्यंत भिन्नपणाना विवेकथी जीवने ज्यारे भेदज्ञान थाय छे त्यारे शरीरादिमां आत्मबुद्धिनी भ्रमणा छूटी जाय छे, शरीरना सुधारबगाडथी आत्मा सुधरेबगडे एवो भ्रम टळी जाय छे. देहादि पर पदार्थो प्रत्ये कर्ताबुद्धिना स्थाने ज्ञाताबुद्धि ऊपजे छे अने ते आत्म सन्मुख वळी चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थवा लागे छे.

आम जीवने ज्यारे भेदविज्ञानद्वारा स्वपरनुं भान थाय छे, त्यारे ते पर भावथी हटी स्वसन्मुख थाय छे. २२

हवे आत्मामां स्त्री आदि लिंग ने एकत्वादि संख्या संबंधी विभ्रमनी निवृत्ति माटे तेनाथी विविक्त (भिन्न) असाधारण स्वरूप बतावतां कहे छेः

श्लोक २३

अन्वयार्थ : (येन आत्मना) जे आत्माथीचैतन्यस्वरूपथी (अहम्) हुं (आत्मनि) पोताना आत्मामां (आत्मना) आत्माद्वारास्वसंवेदनज्ञानद्वारा (आत्मना एव) पोताना

जे रूपे हुं अनुभवुं निज निजथी निजमांही,
ते हुं, नर-स्त्री-इतर नहि, एक-बहु-द्विक नाहि. २३.