५२समाधितंत्र
तत्स्वरूप केवा प्रकारनुं छे? ते अतीन्द्रिय छे अर्थात् इन्द्रियजन्य नथी, इन्द्रियग्राह्य नथी अने वचन – अगोचर अर्थात् शब्द – विकल्पोथी अगोचर होवाथी (शब्दो द्वारा कहेवामां नहि आवतुं होवाथी) आ के ते स्वरूपादिरूपे कही शकाय तेवुं नथी. तो एवा प्रकारनुं स्वरूप क्यांथी सिद्ध थाय ते कहे छे – ‘‘ते स्वसंवेद्य स्वरूप अर्थात् ते उक्त प्रकारनुं स्वसंवेदनथी ग्राह्य स्वरूप ते हुं छुं.’’
भावार्थ : जे शुद्धात्मस्वरूप अतीन्द्रिय, वचन – अगोचर अने स्वानुभवगम्य छे ते हुं छुं – एवुं ज्यां सुधी जीवने ज्ञान न हतुं त्यां सुधी ते अज्ञान – निद्रामां सूतो हतो, परंतु ज्यारे तेने पोताना उक्त प्रकारना स्वरूपनुं यथावत् भान थयुं त्यारे ते वास्तवमां जागृत थयो अर्थात् तेना परिज्ञानरूपे परिणम्यो.
जेने शुद्धात्मानी उपलब्धि छे ते ज जागे छे अने जेने शुद्धात्मानी उपलब्धि नथी ते ऊंघे छे. ज्यारथी ते चिदानंद – स्वरूपने स्वसंवेदन द्वारा अनुभवे छे, त्यारथी ते सदाय जागृत ज छे एम समजवुं. २४
ते स्वरूपनुं स्वसंवेदन करनारने रागादिनो विशेष क्षय थवाथी क्वचित् पण शत्रुमित्रनी व्यवस्था (कल्पना) रहेती नथी ते दर्शावतां कहे छेः —
अन्वयार्थ : (यतः) कारण के (बोधात्मानं) शुद्ध ज्ञानस्वरूप एवा (मां) अने – मारा आत्माने (तत्त्वतः प्रपश्यतः) वास्तवमां अनुभव करनार जीवने (अत्र एव) अहीं ज (रागाद्याः) रागादि दोषो (क्षीयन्ते) नाश पामे छे; (ततः) तेथी (मे) मारो (न कः चित्) न कोई (शत्रुः) शत्रु छे (न च) अने न कोई (प्रियः) मित्र छे.
टीका : अहीं ज — नहीं के केवळ आगळ (बीजा जन्ममां) ज परंतु आ ज जन्ममां