हित मानी – सुख मानी – प्रवर्ते छे अने ज्ञान – वैराग्य जे आत्माने हितकर छे तेने अहितकर – कष्टरूप माने छे.
उघाड न्याय – नेत्रने, निहाळ रे! निहाळ तुं,
‘‘अहा! जे अनंतसुखनुं धाम छे एवा चैतन्य – स्वभावमां तो तने मित्रता न रही – तेमां उत्साह अने प्रेम न आव्यो अने अनंत दुःखनुं धाम एवा जे बाह्य विषयो – तेमां तने सुखबुद्धि थई – प्रेम आव्यो – उत्साह आव्यो, ए केवी विचित्रता छे! अरे जीव! हवे तारां ज्ञान – चक्षुने उघाडीने जो, रे जो, के, ‘तारो स्वभाव दुःखरूप नथी, पण बाह्य विषयो तरफनुं तारुं वलण एकांत दुःखरूप छे. तेमां स्वप्नेय सुख नथी.’ आम विवेकथी विचारी तारा अंतर स्वभाव तरफ वळ अने बाह्य विषयोमां सुख – बुद्धि छोडीने तेमनाथी निवृत्त था, नित्य निर्भय स्थान अने सुखनुं धाम तो तारो आत्मा ज छे.’’
तेथी शुद्धात्मस्वरूपना स्वसंवेदन सिवाय अन्य कोई अभय स्थान नथी. संसार – दुःखना त्रासना अभावनुं ते एक ज स्थान छे, अर्थात् सुखनुं ए एक ज स्थान छे, शरीर – पुत्रादि बाह्य पदार्थो – कोई सुखनुं स्थान नथी. २९.
ते आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय केवो छे ते कहे छेः — १. जुओः श्री दौलतरामजीकृत ‘छहढाला’ २// // /
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