Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 30.

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समाधितंत्र५९
तस्यात्मनः कीदृशः तत् प्रतिपत्त्युपाय इत्याह
सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना
यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मनः ।।३०।।
आत्महितहेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपकुं कष्टदान.’’(२/६)
रागादि विषयकषायो आत्माने अहितरूप छेदुःखदायक छे, छतां अज्ञानी तेमां

हित मानीसुख मानीप्रवर्ते छे अने ज्ञानवैराग्य जे आत्माने हितकर छे तेने अहितकर कष्टरूप माने छे.

वळी अज्ञानी जीवने उद्देशीने श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के‘‘अरे जीव!
‘‘अनंत सुख नाम दुःख, त्यां रही न मित्रता,
अनंत दुःख नाम सुख, प्रेम त्यां विचित्रता!
उघाड न्याय
नेत्रने, निहाळ रे! निहाळ तुं,
निवृत्ति शीघ्रमेव धारी, ते प्रवृत्ति बाळ तुं.’’

‘‘अहा! जे अनंतसुखनुं धाम छे एवा चैतन्यस्वभावमां तो तने मित्रता न रही तेमां उत्साह अने प्रेम न आव्यो अने अनंत दुःखनुं धाम एवा जे बाह्य विषयोतेमां तने सुखबुद्धि थईप्रेम आव्योउत्साह आव्यो, ए केवी विचित्रता छे! अरे जीव! हवे तारां ज्ञानचक्षुने उघाडीने जो, रे जो, के, ‘तारो स्वभाव दुःखरूप नथी, पण बाह्य विषयो तरफनुं तारुं वलण एकांत दुःखरूप छे. तेमां स्वप्नेय सुख नथी.’ आम विवेकथी विचारी तारा अंतर स्वभाव तरफ वळ अने बाह्य विषयोमां सुखबुद्धि छोडीने तेमनाथी निवृत्त था, नित्य निर्भय स्थान अने सुखनुं धाम तो तारो आत्मा ज छे.’’

तेथी शुद्धात्मस्वरूपना स्वसंवेदन सिवाय अन्य कोई अभय स्थान नथी. संसार दुःखना त्रासना अभावनुं ते एक ज स्थान छे, अर्थात् सुखनुं ए एक ज स्थान छे, शरीर पुत्रादि बाह्य पदार्थोकोई सुखनुं स्थान नथी. २९.

ते आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय केवो छे ते कहे छेः १. जुओः श्री दौलतरामजीकृत ‘छहढाला’ २// // /

५; २//
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इन्द्रिय सर्व निरोधीने, मन करीने स्थिररूप,
क्षणभर जोतां जे दीसे, ते परमात्मस्वरूप. ३०.
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