शरीर जड छे, अपवित्र छे, अस्थिर छे ने पर छे. तेमां आत्मानी कल्पना करी तेने पवित्र, स्थिर ने पोतानुं मानवुं तथा ज्ञान अने रागने एक मानवा अर्थात् शुभ भावथी लाभ मानवो ते अविद्या छे – अज्ञान छे. आ अज्ञानताने – ऊंधी मान्यता अने ऊंधा ज्ञानने वारंवार अंदर घूंटवाथी अने तदनुसार आचरण करवाथी वासनारूप संस्कारो उत्पन्न थाय छे. आ संस्कारोथी मन पोताने वश – स्वाधीन वर्ततुं नथी, परंतु परवश बने छे – अर्थात् विषयो अने इन्द्रियोने आधीन थई क्षुब्ध थाय छे – विक्षिप्त थाय छे. आवुं – राग – द्वेष आकुलित मन बाह्य विषयोमां ज प्रवर्ते छे, ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थतुं नथी.
हुं शरीरादिथी अने राग – द्वेषादि विकारोथी भिन्न, पवित्र, स्थिर अने ज्ञायक – स्वरूप छुं – एवा स्वपरना भेदविज्ञान द्वारा उत्पन्न थयेला ज्ञान – संस्कारोथी ते ज मन स्वयं – स्वाधीनपणे – पोतानी ज मेळे राग – द्वेषादिथी रहित थाय छे – अविक्षिप्त थाय छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे.
शुद्धात्मानी वारंवार भावनाथी ज्ञानना संस्कारो उत्पन्न थाय छे. तेनाथ मन राग – द्वेष रहित थई समाधिमां ठरे छे.
‘हुं शुद्धज्ञानस्वरूप परमात्मा छुं; शरीर – मन – वाणीरूप हुं नथी. हुं तेनाथी भिन्न छुं’ – एवी वारंवार भावना भाववाथी तेना संस्कारो द्रढ थाय छे अने तेवा संस्कारोथी चैतन्यस्वरूपमां स्थिरता प्राप्त थाय छे.१
माटे ज्ञान – संस्कार समाधिनुं कारण छे अने अविद्याना संस्कार असमाधिनुं कारण छे.
ज्ञान – संस्कारो द्वारा जेम जेम स्वरूपमां स्थिरता वधती जाय छे, तेम तेम राग – द्वेषादि भावो छूटता जाय छे अने वीतरागता वधती जाय छे. माटे ज्यां सुधी मन (ज्ञाननो उपयोग) बाह्य विषयोथी छूटी आत्मस्वरूपमां स्थिर न थाय त्यां सुधी आत्म – तत्त्वनी भावना कर्या ज करवी.
श्री समयसार कलश – १३०मां कह्युं छे केः —
तावद्यावत् पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।१३०।।
१. जुओ – समाधितंत्र श्लोक २८२