Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समाधितंत्र७१

शरीर जड छे, अपवित्र छे, अस्थिर छे ने पर छे. तेमां आत्मानी कल्पना करी तेने पवित्र, स्थिर ने पोतानुं मानवुं तथा ज्ञान अने रागने एक मानवा अर्थात् शुभ भावथी लाभ मानवो ते अविद्या छेअज्ञान छे. आ अज्ञानतानेऊंधी मान्यता अने ऊंधा ज्ञानने वारंवार अंदर घूंटवाथी अने तदनुसार आचरण करवाथी वासनारूप संस्कारो उत्पन्न थाय छे. आ संस्कारोथी मन पोताने वशस्वाधीन वर्ततुं नथी, परंतु परवश बने छेअर्थात् विषयो अने इन्द्रियोने आधीन थई क्षुब्ध थाय छेविक्षिप्त थाय छे. आवुंरागद्वेष आकुलित मन बाह्य विषयोमां ज प्रवर्ते छे, ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थतुं नथी.

हुं शरीरादिथी अने रागद्वेषादि विकारोथी भिन्न, पवित्र, स्थिर अने ज्ञायकस्वरूप छुंएवा स्वपरना भेदविज्ञान द्वारा उत्पन्न थयेला ज्ञानसंस्कारोथी ते ज मन स्वयं स्वाधीनपणेपोतानी ज मेळे रागद्वेषादिथी रहित थाय छेअविक्षिप्त थाय छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे.

विशेष

शुद्धात्मानी वारंवार भावनाथी ज्ञानना संस्कारो उत्पन्न थाय छे. तेनाथ मन राग द्वेष रहित थई समाधिमां ठरे छे.

‘हुं शुद्धज्ञानस्वरूप परमात्मा छुं; शरीरमनवाणीरूप हुं नथी. हुं तेनाथी भिन्न छुं’एवी वारंवार भावना भाववाथी तेना संस्कारो द्रढ थाय छे अने तेवा संस्कारोथी चैतन्यस्वरूपमां स्थिरता प्राप्त थाय छे.

माटे ज्ञानसंस्कार समाधिनुं कारण छे अने अविद्याना संस्कार असमाधिनुं कारण छे.

ज्ञानसंस्कारो द्वारा जेम जेम स्वरूपमां स्थिरता वधती जाय छे, तेम तेम राग द्वेषादि भावो छूटता जाय छे अने वीतरागता वधती जाय छे. माटे ज्यां सुधी मन (ज्ञाननो उपयोग) बाह्य विषयोथी छूटी आत्मस्वरूपमां स्थिर न थाय त्यां सुधी आत्मतत्त्वनी भावना कर्या ज करवी.

श्री समयसार कलश१३०मां कह्युं छे केः

भावयेद्भेदविज्ञानमिदमछिन्नधारया।
तावद्यावत् पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।१३०।।

१. जुओसमाधितंत्र श्लोक २८२