Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 38.

< Previous Page   Next Page >


Page 59 of 170
PDF/HTML Page 88 of 199

 

७२समाधितंत्र

चित्तस्य विक्षेपेऽविक्षेपे च फलं दर्शयन्नाह
अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः
नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः ।।३८।।

टीकाअपमानो महत्त्वखंडनं अवज्ञा च स आदिर्येषां मदेर्ष्यामात्सर्यादिनां ते अपमानादयो भवन्ति यस्य चेतसो विक्षेपो रागादिपरिणतिर्भवति यस्य पुनश्चेतसो न क्षेपो विक्षेपो

‘‘आ भेदविज्ञान अछिन्नधाराथीअर्थात् जेमां विच्छेद न पडे एवा अखंड प्रवाहरूपेत्यां सुधी भाववुं, के ज्यां सुधी परभावोथी छूटी ज्ञान ज्ञानमां ज (पोताना स्वरूपमां ज) ठरी जाय.’’

अहीं ज्ञाननुं ज्ञानमां ठरवुं बे प्रकारे जाणवुं. एक तो, मिथ्यात्वनो अभाव थई सम्यग्ज्ञान थाय अने फरी मिथ्यात्व न आवे, त्यारे ज्ञान ज्ञानमां ठर्युं कहेवाय; बीजुं ज्यारे ज्ञान शुद्धोपयोगरूपे स्थिर थई जाय अने फरी अन्य विकाररूपे न परिणमे त्यारे ते ज्ञानमां ठरी गयुं कहेवाय. ज्यां सुधी बन्ने प्रकारे ज्ञान ज्ञानमां न ठरी जाय त्यां सुधी भेदविज्ञान भाव्या करवुं.’’

आ श्लोकमां ‘स्वतः’ शब्द ए सूचवे छे के जीव स्वयं पोताना सम्यक् पुरुषार्थथी पोताना स्वरूपमां स्थिर थाय छे, बीजा कोई कारणे नहि. ३७.

मनना विक्षेपनुं अने अविक्षेपनुं फल बतावी कहे छेः

श्लोक ३८

अन्वयार्थ : (यस्य चेतसः) जेना मनमां (विक्षेपः) विक्षेपरागादि परिणाम थाय छे, (तस्य) तेने (अपमानादयः) अपमानादिक होय छे, पण (यस्य चेतसः) जेना मनमां (क्षेपः न) क्षेपरागादिरूप परिणाम थतां नथी (तस्य) तेने (अपमानादयः न) अपमान तिरस्कारादि होतां नथी.

टीका : जेनुं मन विक्षेप पामे छे अर्थात् रागादिरूपे परिणमे छे, तेने अपमानादि अर्थात् अपमान एटले पोताना महत्त्वनुं खंडनअवज्ञा, मद, इर्ष्या, मात्सर्य, वगेरे थाय १. जुओः श्री समयसार कलश१३०. गु. आवृत्तिमां भावार्थ

अपमानादिक तेहने, जस मनने विक्षेप;
अपमानादि न तेहने, जस मन नहि विक्षेप. ३८.