७२समाधितंत्र
टीका — अपमानो महत्त्वखंडनं अवज्ञा च स आदिर्येषां मदेर्ष्यामात्सर्यादिनां ते अपमानादयो भवन्ति । यस्य चेतसो विक्षेपो रागादिपरिणतिर्भवति । यस्य पुनश्चेतसो न क्षेपो विक्षेपो
‘‘आ भेदविज्ञान अछिन्न – धाराथी – अर्थात् जेमां विच्छेद न पडे एवा अखंड प्रवाहरूपे – त्यां सुधी भाववुं, के ज्यां सुधी परभावोथी छूटी ज्ञान ज्ञानमां ज (पोताना स्वरूपमां ज) ठरी जाय.’’
अहीं ज्ञाननुं ज्ञानमां ठरवुं बे प्रकारे जाणवुं. एक तो, मिथ्यात्वनो अभाव थई सम्यग्ज्ञान थाय अने फरी मिथ्यात्व न आवे, त्यारे ज्ञान ज्ञानमां ठर्युं कहेवाय; बीजुं ज्यारे ज्ञान शुद्धोपयोगरूपे स्थिर थई जाय अने फरी अन्य विकाररूपे न परिणमे त्यारे ते ज्ञानमां ठरी गयुं कहेवाय. ज्यां सुधी बन्ने प्रकारे ज्ञान ज्ञानमां न ठरी जाय त्यां सुधी भेदविज्ञान भाव्या करवुं.’’१
आ श्लोकमां ‘स्वतः’ शब्द ए सूचवे छे के जीव स्वयं पोताना सम्यक् पुरुषार्थथी पोताना स्वरूपमां स्थिर थाय छे, बीजा कोई कारणे नहि. ३७.
मनना विक्षेपनुं अने अविक्षेपनुं फल बतावी कहे छेः —
अन्वयार्थ : (यस्य चेतसः) जेना मनमां (विक्षेपः) विक्षेप – रागादि परिणाम थाय छे, (तस्य) तेने (अपमानादयः) अपमानादिक होय छे, पण (यस्य चेतसः) जेना मनमां (क्षेपः न) क्षेप – रागादिरूप परिणाम थतां नथी (तस्य) तेने (अपमानादयः न) अपमान – तिरस्कारादि होतां नथी.
टीका : जेनुं मन विक्षेप पामे छे अर्थात् रागादिरूपे परिणमे छे, तेने अपमानादि – अर्थात् अपमान एटले पोताना महत्त्वनुं खंडन – अवज्ञा, मद, इर्ष्या, मात्सर्य, वगेरे थाय १. जुओः श्री समयसार कलश – १३०. गु. आवृत्तिमां भावार्थ