Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 60 of 170
PDF/HTML Page 89 of 199

 

समाधितंत्र७३

नास्ति तस्य नापमानादयो भवन्ति ।।३८।।

अपमानादिनां चापगम उपायमाह छे, परंतु जेना मनमां विक्षेप थतो नथी, तेने अपमानादि थतां नथी.

भावार्थ : जेनुं मन रागद्वेषादि विकारोथी विक्षिप्त थाय छे, तेने ज मान अपमानादिनी लागणी थाय छे, परंतु जेनुं मन रागद्वेषरूपे परिणमतुं नथी तेने अपमानादिनी लागणी उद्भवती नथी. ते मानअपमानमां समभावे वर्ते छे.

मोहरागद्वेषादि विभावोमां वर्ततो जीव ज मानअपमाननी कल्पनाथी दुःखी थाय छे, परंतु जेनुं चित्त रागद्वेषमोहादि विभावोथी रहित थई पोताना ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थाय छे तेने मानअपमाननी कल्पनाओ उत्पन्न थती नथी, कारण के ज्ञानानंदमां लीन थतां कोण बहुमान करे छे कोण अपमान करे छेएवो विकल्प ज ऊठतो नथी. ते ज्ञाताद्रष्टापणे रहे छे.

विशेष

ज्ञानीने शत्रुमित्र प्रत्ये, मानअपमानना प्रसंगे, जीवन के मरणना विषयमां अने संसार के मोक्षमां समभावसमदर्शिता वर्ते छे.

‘‘ज्ञानभावना छोडीने अज्ञानथी जे जीव पर संयोगमां मानअपमाननी बुद्धि करे छे ते अज्ञानी छे. जेने ज्ञानस्वभावनी भावना नथी एवा अज्ञानीने ज बाह्यद्रष्टिथी एकांत मानअपमानरूप परिणमन थाय छे. ज्ञानस्वभावनी भावनामां ज्ञानीने ज्ञाननुं ज परिणमन थाय छे, मानअपमानरूप परिणमन थतुं नथी; जराक रागद्वेषनी वृत्ति थाय, त्यां ते वृत्तिने पण ज्ञानथी भिन्नरूप ज जाणे छे ने ज्ञानस्वभावनी ज भावना वडे ज्ञाननी अधिकतारूपे ज परिणमे छे.’’ ३८.

अपमानादिने दूर करवानो उपायः १. ‘‘शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता,

मानअमाने वर्ते ते ज स्वभाव जो;
जीवित के मरणे नहि न्यूनाधिकता,
भव
मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो......अपूर्व०’’......१०
(श्रीमद् राजचंद्र‘अपूर्व अवसर’)

२. जुओ‘आत्मधर्म’.