नास्ति । तस्य नापमानादयो भवन्ति ।।३८।।
अपमानादिनां चापगम उपायमाह — छे, परंतु जेना मनमां विक्षेप थतो नथी, तेने अपमानादि थतां नथी.
भावार्थ : जेनुं मन राग – द्वेषादि विकारोथी विक्षिप्त थाय छे, तेने ज मान – अपमानादिनी लागणी थाय छे, परंतु जेनुं मन रागद्वेषरूपे परिणमतुं नथी तेने अपमानादिनी लागणी उद्भवती नथी. ते मान – अपमानमां समभावे वर्ते छे.
मोह – राग – द्वेषादि विभावोमां वर्ततो जीव ज मान – अपमाननी कल्पनाथी दुःखी थाय छे, परंतु जेनुं चित्त राग – द्वेष – मोहादि विभावोथी रहित थई पोताना ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थाय छे तेने मान – अपमाननी कल्पनाओ उत्पन्न थती नथी, कारण के ज्ञानानंदमां लीन थतां कोण बहुमान करे छे कोण अपमान करे छे – एवो विकल्प ज ऊठतो नथी. ते ज्ञाता – द्रष्टापणे रहे छे.
ज्ञानीने शत्रु – मित्र प्रत्ये, मान – अपमानना प्रसंगे, जीवन के मरणना विषयमां अने संसार के मोक्षमां समभाव – समदर्शिता वर्ते छे.१
‘‘ज्ञानभावना छोडीने अज्ञानथी जे जीव पर संयोगमां मान – अपमाननी बुद्धि करे छे ते अज्ञानी छे. जेने ज्ञानस्वभावनी भावना नथी एवा अज्ञानीने ज बाह्यद्रष्टिथी एकांत मानअपमानरूप परिणमन थाय छे. ज्ञानस्वभावनी भावनामां ज्ञानीने ज्ञाननुं ज परिणमन थाय छे, मान – अपमानरूप परिणमन थतुं नथी; जराक राग – द्वेषनी वृत्ति थाय, त्यां ते वृत्तिने पण ज्ञानथी भिन्नरूप ज जाणे छे ने ज्ञानस्वभावनी ज भावना वडे ज्ञाननी अधिकतारूपे ज परिणमे छे.’’२ ३८.
अपमानादिने दूर करवानो उपायः — १. ‘‘शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता,
भव – मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो......अपूर्व०’’......१०
२. जुओ – ‘आत्मधर्म’.