७६समाधितंत्र अन्तर्दृष्टया । ततः किं भवति ? प्रेम नश्यति कायस्नेहो न भवति ।।४०।।
भावार्थ : अन्तरात्माने चारित्र मोहवश बाह्य शरीरादि तथा इन्द्रियोना विषयोमां राग थाय तो भेदविज्ञान द्वारा उपयोगने त्यांथी हठावी शुद्धात्मस्वरूपमां जोडवो. तेम करवाथी शरीरादि प्रत्येनो प्रेम नाश पामे छे.
जेनो उपयोग चैतन्यना आनंदमां लागे छे तेने जगतना बधाय पदार्थो नीरस लागे छे, शरीरादि बाह्य पदार्थो प्रत्येनो उत्साह उडी जाय छे अने ते तरफ ते उदासीन रहे छे.
‘‘चैतन्यस्वरूपमां उपयोगने जोडवो ते ज राग – द्वेषने टाळवानो उपाय छे. आ सिवाय बाह्य पदार्थो तरफ वलण राखीने राग – द्वेष टाळवा मागे तो ते कदी टळी शके नहि. पहेलां तो देहादिथी भिन्न ने रागादिथी पण परमार्थे भिन्न – एवा चिदानंदस्वरूपनुं भान कर्युं होय तेने ज तेमां उपयोगनी लीनता थाय, परंतु जे जीव देहादिनी क्रियाने पोतानी मानतो होय के रागथी लाभ मानतो होय, तेनो उपयोग ते देहथी ने रागथी पाछो खसीने चैतन्यमां वळे ज क्यांथी? ज्यां लाभ माने त्यांथी पोताना उपयोगने केम खसेडे? न ज खसेडे.
माटे उपयोगने पोताना चिदानंदस्वरूपमां एकाग्र करवा इच्छनारे प्रथम तो पोताना स्वरूपने देहादिथी ने रागादिथी अत्यंत भिन्न जाणवुं जोईए. जगतना कोई पण बाह्य विषयोमां के ते तरफना रागमां क्यांय स्वप्नेय मारुं सुख के शान्ति नथी, अनंतकाल बहारना भावो कर्या पण मने किंचित् सुख न मळ्युं. जगतमां क्यांय मारुं सुख होय तो ते मारा निज स्वरूपमां ज छे, बीजे क्यांय नथी. माटे हवे हुं बहारनो उपयोग छोडीने मारा स्वरूपमां ज उपयोगने जोडुं छुं. आवा द्रढ निर्णयपूर्वक, धर्मी जीव वारंवार पोताना उपयोगने अंतर स्वरूपमां जोडे छे.
‘‘चैतन्य – स्वभावनी महत्ता अने बाह्य इन्द्रिय – विषयोनी तुच्छता जाणीने पोताना उपयोगने वारंवार चैतन्य – भावनामां जोडवाथी पर प्रत्येनो प्रेम नाश पामे छे ने वीतरागी आनंदनो अनुभव थाय छे........’’१ ४०.
ते (प्रेम) नाश पामतां शुं थाय छे ते कहे छेः — १. आत्मधर्म.