Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 41.

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समाधितंत्र७७
आत्मविभ्रमजं दुःखमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति
नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः ।।४१।।

टीकाआत्मविभ्रमजं आत्मनो विभ्रमोऽनात्मशरीरादावात्मेति ज्ञानं तस्माज्जातं यत् दुःखं तत्प्रशाम्यति कस्मात् ? आत्मज्ञानात् शरीरादिभ्यो भेदेनात्मस्वरूपवेदनात् ननु दुर्धरतपोऽनुष्ठानान्मुक्तिसिद्धेरतस्तद्दुःखोपशमो न भविष्यतीति वदन्तं प्रत्याहनेत्यादि तत्र आत्मस्वरूपे अयताः अयत्नपराः न निर्वान्ति न निर्वाणं गच्छंति सुखिनो वा न भवन्ति किं कृत्वापि तप्त्वाऽपि किं तत् परमं तपः दुर्द्धरानुष्ठानम् ।।४१।।

श्लोक ४१

अन्वयार्थ : (आत्मविभ्रमजं) आत्माना विभ्रमथी उत्पन्न थयेलुं (दुःख) दुःख (आत्मज्ञानात्) आत्मज्ञानथी (प्रशाम्यति) शान्त थाय छे. (तत्र) तेमां एटले भेदज्ञान द्वारा आत्मस्वरूपनी प्राप्ति करवामां (अयताः) जे प्रयत्न करता नथी ते (परमं) उत्कृष्ट दुर्द्धर (तपः) तप (कृत्वा अपि) करवा छतां (न निर्वान्ति) निर्वाणने प्राप्त करता नथी.

टीका : आत्मविभ्रमथी उत्पन्न थयेलुंअर्थात् अनात्मरूप शरीर वगेरेमां आत्मबुद्धि ते आत्मविभ्रम, तेनाथी उत्पन्न थयेलुं जे दुःख ते शान्त थाय छे. शानाथी? आत्मज्ञानथी एटले शरीरादिथी भेद करीने आत्मस्वरूपनुं वेदन करवाथी.

दुर्द्धर तपना अनुष्ठान (आचरण)थी तो मुक्तिनी सिद्धि थवाथी ते दुःखनो उपशम थशे नहिएवी आशंका करनारने कहे छेन इत्यादि.....तेमां एटले आत्मस्वरूपने विषे यत्न नहि करनारा निर्वाण पामता नथी अर्थात् सुखी थता नथी. शुं करीने पण?तपीने पण. शुं तपीने? परम तप एटले दुर्द्धर अनुष्ठान. (अर्थात् दुर्द्धर तप तपीने पण तेओ मोक्ष पामता नथी.)

भावार्थ : आत्मभ्रान्तिथी एटले शरीरादिमां आत्मबुद्धि करवाथी जे दुःख उत्पन्न थाय छे ते भेदज्ञानथी नाश पामे छे. भेदविज्ञान द्वारा आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे जे प्रयत्न करता नथी, ते घोर तप करवा छतां मोक्षमार्गनी के निर्वाणनी प्राप्ति करी शकता नथी.

विशेष

शरीरादि अने रागादिमां आत्मबुद्धि करवी ते विभ्रम छेआत्मभ्रान्ति छे. ते दुःखनुं

आत्मभ्रमोद्भव दुःख तो आत्मज्ञानथी जाय;
तत्र यत्न विण, घोर तप तपतां पण न मुकाय. ४१.