८०समाधितंत्र
.......‘‘ते कर्मथी छूटवाना निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ (सत्यार्थ) धर्मने नथी श्रद्धतो भोगना निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे; तेथी ज ते अभूतार्थ धर्ममां श्रद्धान, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शनथी उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोग – मात्रने पामे छे, परंतु कदापि कर्मथी छूटतो नथी.......’’१
ज्ञानी तो शुद्धात्मस्वरूपनी ज भावना करे छे. ते विषय – सुखोनी स्वप्ने पण भावना करतो नथी. तेने व्रत – तपादिनो शुभ राग भूमिकानुसार आवे, पण तेने तेनी वांछना नथी, अभिप्रायमां तेनो निषेध वर्ते छे. जेने रागनी भावना ज न होय तेने रागना फलरूप विषयोनी पण इच्छा केम होय? न ज होय.
‘‘जेम कोईने घणो दंड थतो हतो ते हवे थोडो दंड आपवानो उपाय राखे छे तथा थोडो दंड आपीने हर्ष पण माने छे, परंतु श्रद्धानमां तो दंड आपवो अनिष्ट माने छे; तेम सम्यग्द्रष्टिने पापरूप घणो कषाय थतो हतो, ते हवे पुण्यरूप थोडो कषाय करवानो उपाय राखे छे तथा थोडो कषाय थतां हर्ष पण माने छे, परंतु श्रद्धानमां तो कषायने हेय ज माने छे. वळी जेम कोई कमाणीनुं कारण जाणी व्यापारादिकनो उपाय राखे छे, उपाय बनी आवतां हर्ष पण माने छे, तेम द्रव्यलिंगी मोक्षनुं कारण जाणी प्रशस्त रागनो उपाय राखे छे, उपाय बनी आवतां हर्ष पण माने छे. ए प्रमाणे प्रशस्त रागना उपायमां वा तेना हर्षमां समानता होवा छतां पण सम्यग्द्रष्टिने तो दंड समान तथा मिथ्याद्रष्टिने व्यापार समान श्रद्धान होय छे. माटे ए बंनेना अभिप्रायमां भेद थयो.’’
तत्त्वज्ञानी (अन्तरात्मा) अने इतर (बहिरात्मा)मां (अनुक्रमे) कर्मनुं अबंधपणुं अने कर्मनुं बंधपणुं दर्शावी कहे छेः — १. ते धर्मने श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शन करे,
२. मोक्षमार्ग प्रकाशक – गु. आवृत्ति – पृ. २५२