दृश्यमानादभेदाध्यवसायेन । यः पुनरवबुद्धोऽन्तरात्मा स इदमात्मतत्त्वमित्येवं मन्यते । न पुनस्त्रिलिङ्गत्तया । तस्याः शरीरधर्मतया आत्मस्वरूपत्वाभावात् । कथम्भूतमिदमात्मस्वरूपं निष्पन्नमनादिसंसिद्धम् तथा शब्दवर्जितं विकल्पाभिधानाऽगोचरम् ।।४४।।
ननु यद्यन्तरात्मैवात्मानं प्रतिपद्यते तदा कथं पुमानहं गौरोऽहमित्यादिरूपा तस्य कदाचिदभेदभ्रांतिः स्यात् इति वदन्तं प्रत्याह —
मान्यताने लीधे आ आत्म – तत्त्वने त्रिलिंगरूप माने छे;
पण जे ज्ञानी अन्तरात्मा छे, ते ‘आ आत्म – तत्त्व छे, ते त्रिलिंगरूपे नथी’ एवुं माने छे, कारण के शरीरधर्मपणाना कारणे तेनो (त्रिलिंगपणानो) आत्मस्वरूपपणामां अभाव छे. आ आत्मस्वरूप केवुं छे? ते निष्पन्न अर्थात् अनादि संसिद्ध छे तथा शब्दवर्जित एटले नामादि विकल्पोथी अगोचर छे.
भावार्थ : बहिरात्माने शरीरादि साथे एकताबुद्धि – अभेदबुद्धि होवाथी, स्त्री – पुरुष – नपुंसक ए त्रिलिंगरूप शरीर जे द्रष्टिगोचर छे तेने आत्मा माने छे; परंतु अन्तरात्मा माने छे के, ‘‘आ आत्मा तो अनादि संसिद्ध तथा नामादि विकल्पोथी रहित छे. स्त्री – पुरुषादि त्रिलिंग ए शरीरना धर्म छे, अर्थात् पौद्गलिक छे. ते आत्मस्वरूपमां नथी.’’
अज्ञानी जीवने शरीरथी भिन्न आत्म – तत्त्वनी प्रतीति नथी; ते स्त्री – पुरुष – नपुंसकरूप त्रिलिंगात्मक द्रश्यमान शरीरने ज आत्मा माने छे.
सम्यग्द्रष्टिने वस्तुस्वरूपनुं ज्ञान छे अने शरीरथी भिन्न चैतन्यरूप आत्म – तत्त्वनी प्रतीत छे, तेथी ते पोताना आत्माने तद्रूप ज अनुभवे छे, पण तेने त्रिलिंगरूप अनुभवतो नथी, तेने तो ते अनादि सिद्ध तथा निर्विकल्प समजे छे.
ए रीते ज्ञानी अने अज्ञानीनी शरीर संबंधी मान्यता एकबीजाथी विपरीत छे. ४४. जो अन्तरात्मा ज आत्माने अनुभवे छे, तो पछी ‘हुं पुरुष, हुं गोरो’ इत्यादि अभेदरूप भ्रान्ति तेने कदाचित् केम थाय छे? एवुं बोलनार प्रति कहे छेः —