Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 45.

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समाधितंत्र८३

दृश्यमानादभेदाध्यवसायेन यः पुनरवबुद्धोऽन्तरात्मा स इदमात्मतत्त्वमित्येवं मन्यते पुनस्त्रिलिङ्गत्तया तस्याः शरीरधर्मतया आत्मस्वरूपत्वाभावात् कथम्भूतमिदमात्मस्वरूपं निष्पन्नमनादिसंसिद्धम् तथा शब्दवर्जितं विकल्पाभिधानाऽगोचरम् ।।४४।।

ननु यद्यन्तरात्मैवात्मानं प्रतिपद्यते तदा कथं पुमानहं गौरोऽहमित्यादिरूपा तस्य कदाचिदभेदभ्रांतिः स्यात् इति वदन्तं प्रत्याह

जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि
पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्तिं भूयोपि गच्छति ।।४५।।

मान्यताने लीधे आ आत्मतत्त्वने त्रिलिंगरूप माने छे;

पण जे ज्ञानी अन्तरात्मा छे, ते ‘आ आत्मतत्त्व छे, ते त्रिलिंगरूपे नथी’ एवुं माने छे, कारण के शरीरधर्मपणाना कारणे तेनो (त्रिलिंगपणानो) आत्मस्वरूपपणामां अभाव छे. आ आत्मस्वरूप केवुं छे? ते निष्पन्न अर्थात् अनादि संसिद्ध छे तथा शब्दवर्जित एटले नामादि विकल्पोथी अगोचर छे.

भावार्थ : बहिरात्माने शरीरादि साथे एकताबुद्धिअभेदबुद्धि होवाथी, स्त्रीपुरुष नपुंसक ए त्रिलिंगरूप शरीर जे द्रष्टिगोचर छे तेने आत्मा माने छे; परंतु अन्तरात्मा माने छे के, ‘‘आ आत्मा तो अनादि संसिद्ध तथा नामादि विकल्पोथी रहित छे. स्त्रीपुरुषादि त्रिलिंग ए शरीरना धर्म छे, अर्थात् पौद्गलिक छे. ते आत्मस्वरूपमां नथी.’’

अज्ञानी जीवने शरीरथी भिन्न आत्मतत्त्वनी प्रतीति नथी; ते स्त्रीपुरुषनपुंसकरूप त्रिलिंगात्मक द्रश्यमान शरीरने ज आत्मा माने छे.

सम्यग्द्रष्टिने वस्तुस्वरूपनुं ज्ञान छे अने शरीरथी भिन्न चैतन्यरूप आत्मतत्त्वनी प्रतीत छे, तेथी ते पोताना आत्माने तद्रूप ज अनुभवे छे, पण तेने त्रिलिंगरूप अनुभवतो नथी, तेने तो ते अनादि सिद्ध तथा निर्विकल्प समजे छे.

ए रीते ज्ञानी अने अज्ञानीनी शरीर संबंधी मान्यता एकबीजाथी विपरीत छे. ४४. जो अन्तरात्मा ज आत्माने अनुभवे छे, तो पछी ‘हुं पुरुष, हुं गोरो’ इत्यादि अभेदरूप भ्रान्ति तेने कदाचित् केम थाय छे? एवुं बोलनार प्रति कहे छेः

यद्यपि आत्म जणाय ने भिन्नपणे वेदाय,
पूर्वभ्रान्ति-संस्कारथी पुनरपि विभ्रम थाय. ४५.
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