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एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः परात्मनोरविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य भाव्यभावकभावापन्न- योश्चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोऽहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽय- मात्मा क्रोधोऽहमिति भ्रान्त्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सविकारचैतन्य- परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । ‘जेम शीत-उष्णपणुं पुद्गलनी अवस्था छे तेम रागद्वेषादि पण पुद्गलनी अवस्था छे’ एवुं भेदज्ञान थाय, त्यारे पोताने ज्ञाता जाणे अने रागादिरूप पुद्गलने जाणे. एम थतां, रागादिनो कर्ता आत्मा थतो नथी, ज्ञाता ज रहे छे.
हवे पूछे छे के अज्ञानथी कर्म कई रीते उत्पन्न थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः —
गाथार्थः — [ त्रिविधः ] त्रण प्रकारनो [ एषः ] आ [ उपयोगः ] उपयोग [ अहम् क्रोधः ] ‘हुं क्रोध छुं’ एवो [ आत्मविकल्पं ] पोतानो विकल्प [ करोति ] करे छे; तेथी [ सः ] आत्मा [ तस्य उपयोगस्य ] ते उपयोगरूप [ आत्मभावस्य ] पोताना भावनो [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] थाय छे.
टीकाः — खरेखर आ सामान्यपणे अज्ञानरूप एवुं जे मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं सविकार चैतन्यपरिणाम ते, परना अने पोताना अविशेष दर्शनथी, अविशेष ज्ञानथी अने अविशेष रतिथी समस्त भेदने छुपावीने, भाव्यभावकभावने पामेलां एवां चेतन अने अचेतननुं सामान्य अधिकरणथी ( – जाणे के तेमनो एक आधार होय ए रीते) अनुभवन करवाथी, ‘हुं क्रोध छुं’ एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे; तेथी ‘हुं क्रोध छुं’ एवी भ्रांतिने लीधे जे सविकार (विकार सहित) छे एवा चैतन्यपरिणामे परिणमतो थको आ आत्मा ते सविकार चैतन्यपरिणामरूप पोताना भावनो कर्ता थाय छे.
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एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र- चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयान्यनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः परस्परमविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य ज्ञेयज्ञायकभावा- पन्नयोः परात्मनोः समानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्गलोऽहं
एवी ज रीते ‘क्रोध’ पद पलटावीने मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन अने स्पर्शननां सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां; अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
भावार्थः — अज्ञानरूप एटले के मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं जे सविकार चैतन्यपरिणाम ते पोतानो अने परनो भेद नहि जाणीने ‘हुं क्रोध छुं, हुं मान छुं’ इत्यादि माने छे; तेथी अज्ञानी जीव ते अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे अने ते अज्ञानरूप भाव तेनुं कर्म थाय छे.
हवे ए ज वातने विशेष कहे छेः —
गाथार्थः — [ त्रिविधः ] त्रण प्रकारनो [ एषः ] आ [ उपयोगः ] उपयोग [ धर्मादिकम् ] ‘हुं धर्मास्तिकाय आदि छुं’ एवो [ आत्मविकल्पं ] पोतानो विकल्प [ करोति ] करे छे; तेथी [ सः ] आत्मा [ तस्य उपयोगस्य ] ते उपयोगरूप [ आत्मभावस्य ] पोताना भावनो [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] थाय छे.
टीकाः — खरेखर आ सामान्यपणे अज्ञानरूप एवुं जे मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरतिरूप त्रण प्रकारनुं सविकार चैतन्यपरिणाम ते, परना अने पोताना अविशेष दर्शनथी, अविशेष ज्ञानथी अने अविशेष रतिथी (लीनताथी) समस्त भेदने छुपावीने ज्ञेयज्ञायकभावने पामेलां एवां स्व-परनुं सामान्य अधिकरणथी अनुभवन करवाथी, ‘हुं धर्म छुं, हुं अधर्म छुं, हुं
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जीवान्तरमहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽयमात्मा धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्गलोऽहं जीवान्तरमहमिति भ्रान्त्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सोपाधिचैतन्य- परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् ।
यत्किल क्रोधोऽहमित्यादिवद्धर्मोऽहमित्यादिवच्च परद्रव्याण्यात्मीकरोत्यात्मानमपि परद्रव्यी- आकाश छुं, हुं काळ छुं, हुं पुद्गल छुं, हुं अन्य जीव छुं’ एवो पोतानो विकल्प उत्पन्न करे छे; तेथी, ‘हुं धर्म छुं, हुं अधर्म छुं, हुं आकाश छुं, हुं काळ छुं, हुं पुद्गल छुं, हुं अन्य जीव छुं’ एवी भ्रांतिने लीधे जे सोपाधिक (उपाधि सहित) छे एवा चैतन्यपरिणामे परिणमतो थको आ आत्मा ते सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप पोताना भावनो कर्ता थाय छे.
भावार्थः — धर्मादिना विकल्प वखते जे, पोते शुद्ध चैतन्यमात्र होवानुं भान नहि राखतां, धर्मादिना विकल्पमां एकाकार थई जाय छे ते पोताने धर्मादिद्रव्यरूप माने छे.
आ प्रमाणे, अज्ञानरूप चैतन्यपरिणाम पोताने धर्मादिद्रव्यरूप माने छे तेथी अज्ञानी जीव ते अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे अने ते अज्ञानरूप भाव तेनुं कर्म थाय छे.
‘तेथी कर्तापणानुं मूळ अज्ञान ठर्युं’ एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [ एवं तु ] आ रीते [ मन्दबुद्धिः ] मंदबुद्धि अर्थात् अज्ञानी [ अज्ञानभावेन ] अज्ञानभावथी [ पराणि द्रव्याणि ] पर द्रव्योने [ आत्मानं ] पोतारूप [ करोति ] करे छे [ अपि च ] अने [ आत्मानम् ] पोताने [ परं ] पर [ करोति ] करे छे.
टीकाः — खरेखर ए रीते, ‘हुं क्रोध छुं’ इत्यादिनी जेम अने ‘हुं धर्मद्रव्य छुं’ इत्यादिनी जेम आत्मा परद्रव्योने पोतारूप करे छे अने पोताने पण परद्रव्यरूप करे छे;
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करोत्येवमात्मा, तदयमशेषवस्तुसम्बन्धविधुरनिरवधिविशुद्धचैतन्यधातुमयोऽप्यज्ञानादेव सविकार- सोपाधीकृतचैतन्यपरिणामतया तथाविधस्यात्मभावस्य कर्ता प्रतिभातीत्यात्मनो भूताविष्टध्याना- विष्टस्येव प्रतिष्ठितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम् । तथाहि —
यथा खलु भूताविष्टोऽज्ञानाद्भूतात्मानावेकीकुर्वन्नमानुषोचितविशिष्टचेष्टावष्टम्भनिर्भर- भयङ्करारम्भगम्भीरामानुषव्यवहारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माप्यज्ञानादेव भाव्यभावकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नविकारानुभूतिमात्रभावकानुचितविचित्रभाव्यक्रोधादिविकारकरम्बित- चैतन्यपरिणामविकारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । यथा वाऽपरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽज्ञानान्महिषात्मानावेकीकुर्वन्नात्मन्यभ्रङ्कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात्प्रच्युत- मानुषोचितापवरकद्वारविनिस्सरणतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माऽप्यज्ञानाद् ज्ञेयज्ञायकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नात्मनि परद्रव्याध्यासान्नोइन्द्रियविषयीकृतधर्माधर्माकाशकाल- तेथी आ आत्मा, जोके ते समस्त वस्तुओना संबंधथी रहित बेहद शुद्ध चैतन्यधातुमय छे तोपण, अज्ञानने लीधे ज सविकार अने सोपाधिक करायेला चैतन्यपरिणामवाळो होवाथी ते प्रकारना पोताना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे. आ रीते, भूताविष्ट (जेना शरीरमां भूत प्रवेश्युं होय एवा) पुरुषनी जेम अने ध्यानाविष्ट (ध्यान करता) पुरुषनी जेम, आत्माने कर्तापणानुं मूळ अज्ञान ठर्युं. ते प्रगट द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छेः —
जेम भूताविष्ट पुरुष अज्ञानने लीधे भूतने अने पोताने एक करतो थको, मनुष्यने अनुचित एवी विशिष्ट चेष्टाना अवलंबन सहित भयंकर ✽आरंभथी भरेला अमानुष व्यवहारवाळो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे; तेवी रीते आ आत्मा पण अज्ञानने लीधे ज भाव्य-भावकरूप परने अने पोताने एक करतो थको, अविकार अनुभूतिमात्र जे भावक तेने अनुचित एवा विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोथी मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाळो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे. वळी जेम अपरीक्षक आचार्यना उपदेशथी महिषनुं (पाडानुं) ध्यान करतो कोई भोळो पुरुष अज्ञानने लीधे महिषने अने पोताने एक करतो थको, ‘हुं गगन साथे घसातां शिंगडांवाळो मोटो महिष छुं’ एवा अध्यासने लीधे मनुष्यने योग्य एवुं जे ओरडाना बारणामांथी बहार नीकळवुं तेनाथी च्युत थयो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे; तेवी रीते आ आत्मा पण अज्ञानने लीधे ज्ञेयज्ञायकरूप परने अने पोताने एक करतो थको, ‘हुं परद्रव्य छुं’ एवा अध्यासने लीधे मनना विषयरूप करवामां आवेलां धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, ✽आरंभ = कार्य; व्यापार; हिंसायुक्त व्यापार.
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पुद्गलजीवान्तरनिरुद्धशुद्धचैतन्यधातुतया तथेन्द्रियविषयीकृतरूपिपदार्थतिरोहितकेवलबोधतया मृतककलेवरमूर्च्छितपरमामृतविज्ञानघनतया च तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति ।
पुद्गल अने अन्य जीव वडे (पोतानी) शुद्ध चैतन्यधातु रोकायेली होवाथी तथा इंद्रियोना विषयरूप करवामां आवेला रूपी पदार्थो वडे (पोतानो) केवळ बोध ( – ज्ञान) ढंकायेल होवाथी अने मृतक कलेवर ( – शरीर) वडे परम अमृतरूप विज्ञानघन (पोते) मूर्छित थयो होवाथी ते प्रकारना भावनो कर्ता प्रतिभासे छे.
भावार्थः — आ आत्मा अज्ञानने लीधे, अचेतन कर्मरूप भावकनुं जे क्रोधादि भाव्य तेने चेतन भावक साथे एकरूप माने छे; वळी ते, पर ज्ञेयरूप धर्मादिद्रव्योने पण ज्ञायक साथे एकरूप माने छे. तेथी ते सविकार अने सोपाधिक चैतन्यपरिणामनो कर्ता थाय छे.
अहीं, क्रोधादिक साथे एकपणानी मान्यताथी उत्पन्न थतुं कर्तृत्व समजाववा भूताविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत कह्युं अने धर्मादिक अन्यद्रव्यो साथे एकपणानी मान्यताथी उत्पन्न थतुं कर्तृत्व समजाववा ध्यानाविष्ट पुरुषनुं द्रष्टांत कह्युं.
‘तेथी (पूर्वोक्त कारणथी) ए सिद्ध थयुं के ज्ञानथी कर्तापणानो नाश थाय छे’ एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [ एतेन तु ] आ (पूर्वोक्त) कारणथी [ निश्चयविद्भिः ] निश्चयना जाणनारा ज्ञानीओए [ सः आत्मा ] ते आत्माने [ कर्ता ] कर्ता [ परिकथितः ] कह्यो छे — [ एवं खलु ] आवुं निश्चयथी [ यः ] जे [ जानाति ] जाणे छे [ सः ] ते (ज्ञानी थयो थको) [ सर्वकर्तृत्वम् ] सर्व कर्तृत्वने [ मुञ्चति ] छोडे छे.
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येनायमज्ञानात्परात्मनोरेकत्वविकल्पमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयतः कर्ता प्रतिभाति, यस्त्वेवं जानाति स समस्तं कर्तृत्वमुत्सृजति, ततः स खल्वकर्ता प्रतिभाति । तथाहि — इहायमात्मा किलाज्ञानी सन्नज्ञानादासंसारप्रसिद्धेन मिलितस्वादस्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात्; ततः परात्मानावेकत्वेन जानाति; ततः क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मनः करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकविकल्पैः परिणमन् कर्ता प्रतिभाति । ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिध्यता प्रत्येक स्वादस्वादनेनोन्मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिः स्यात्; ततोऽनादिनिधनानवरतस्वदमाननिखिलरसान्तरविविक्तात्यन्तमधुरचैतन्यैकरसोऽयमात्मा भिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति; ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं, न पुनः कृतकोऽनेकः क्रोधादिरपीति क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मनो
टीकाः — कारण के आ आत्मा अज्ञानने लीधे परना अने पोताना एकपणानो आत्मविकल्प करे छे तेथी ते निश्चयथी कर्ता प्रतिभासे छे — आवुं जे जाणे छे ते समस्त कर्तृत्वने छोडे छे तेथी ते निश्चयथी अकर्ता प्रतिभासे छे. ते स्पष्ट समजाववामां आवे छेः —
आ आत्मा अज्ञानी थयो थको, अज्ञानने लीधे अनादि संसारथी मांडीने मिलित ( – एकमेक मळी गयेला) स्वादनुं स्वादन – अनुभवन होवाथी (अर्थात् पुद्गलकर्मना अने पोताना स्वादनुं भेळसेळपणे – एकरूपे अनुभवन होवाथी), जेनी भेदसंवेदननी (भेदज्ञाननी) शक्ति बिडाई गयेली छे एवो अनादिथी ज छे; तेथी ते परने अने पोताने एकपणे जाणे छे; तेथी ‘हुं क्रोध छुं’ इत्यादि आत्मविकल्प (पोतानो विकल्प) करे छे; अने तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन(स्वभाव)थी भ्रष्ट थयो थको वारंवार अनेक विकल्परूपे परिणमतो थको कर्ता प्रतिभासे छे.
अने ज्यारे आत्मा ज्ञानी थाय त्यारे, ज्ञानने लीधे ज्ञानना आदिथी मांडीने पृथक् पृथक् स्वादनुं स्वादन – अनुभवन होवाथी (अर्थात् पुद्गलकर्मना अने पोताना स्वादनुं — एकरूपे नहि पण — भिन्नभिन्नपणे अनुभवन होवाथी), जेनी भेदसंवेदनशक्ति ऊघडी गई छे एवो होय छे; तेथी ते जाणे छे के ‘‘अनादिनिधन, निरंतर स्वादमां आवतो, समस्त अन्य रसथी विलक्षण (भिन्न), अत्यंत मधुर जे चैतन्यरस ते ज एक जेनो रस छे एवो आ आत्मा छे अने कषायो तेनाथी भिन्न रसवाळा (कषायला – बेस्वाद) छे; तेमनी साथे जे एकपणानो विकल्प करवो ते अज्ञानथी छे;’’ आ रीते परने अने पोताने भिन्नपणे जाणे छे; तेथी ‘अकृत्रिम (नित्य), एक ज्ञान ज हुं छुं परंतु कृत्रिम (अनित्य), अनेक जे क्रोधादिक
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मनागपि न करोति; ततः समस्तमपि कर्तृत्वमपास्यति; ततो नित्यमेवोदासीनावस्थो जानन् एवास्ते; ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यन्तमकर्ता प्रतिभाति ।
ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः ।
गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम् ।।५७।।
ते हुं नथी’ एम जाणतो थको ‘हुं क्रोध छुं’ इत्यादि आत्मविकल्प जरा पण करतो नथी; तेथी समस्त कर्तृत्वने छोडी दे छे; तेथी सदाय उदासीन अवस्थावाळो थयो थको मात्र जाण्या ज करे छे; अने तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन थयो थको अत्यंत अकर्ता प्रतिभासे छे.
भावार्थः — जे परद्रव्यना अने परद्रव्यना भावोना कर्तृत्वने अज्ञान जाणे ते पोते कर्ता शा माटे बने? अज्ञानी रहेवुं होय तो परद्रव्यनो कर्ता बने! माटे ज्ञान थया पछी परद्रव्यनुं कर्तापणुं रहेतुं नथी.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ किल ] निश्चयथी [ स्वयं ज्ञानं भवन् अपि ] स्वयं ज्ञानस्वरूप होवा छतां [ अज्ञानतः तु ] अज्ञानने लीधे [ यः ] जे जीव, [ सतृणाभ्यवहारकारी ] घास साथे भेळसेळ सुंदर आहारने खानारा हाथी आदि तिर्यंचनी माफक, [ रज्यते ] राग करे छे (अर्थात् रागनो अने पोतानो भेळसेळ स्वाद ले छे) [ असौ ] ते, [ दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया ] दहीं- खांडना अर्थात् शिखंडना खाटा-मीठा रसनी अति लोलुपताथी [ रसालम् पीत्वा ] शिखंडने पीतां छतां [ गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम् ] पोते गायना दूधने पीए छे एवुं माननार पुरुषना जेवो छे.
भावार्थः — जेम हाथीने घासना अने सुंदर आहारना भिन्न स्वादनुं भान नथी तेम अज्ञानीने पुद्गलकर्मना अने पोताना भिन्न स्वादनुं भान नथी; तेथी ते एकाकारपणे रागादिमां वर्ते छे. जेम शिखंडनो गृद्धी माणस, स्वादभेद नहि पारखतां, शिखंडना स्वादने मात्र दूधनो स्वाद जाणे तेम अज्ञानी जीव स्व-परना भेळसेळ स्वादने पोतानो स्वाद जाणे छे. ५७.
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अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः ।
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः ।।५८।।
जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषम् ।
जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि ।।५९।।
अज्ञानथी ज जीवो कर्ता थाय छे एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ अज्ञानात् ] अज्ञानने लीधे [ मृगतृष्णिकां जलधिया ] मृगजळमां जळनी बुद्धि थवाथी [ मृगाः पातुं धावन्ति ] हरणो तेने पीवा दोडे छे; [ अज्ञानात् ] अज्ञानने लीधे [ तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन ] अंधकारमां पडेली दोरडीमां सर्पनो अध्यास थवाथी [ जनाः द्रवन्ति ] लोको (भयथी) भागी जाय छे; [ च ] अने (तेवी रीते) [ अज्ञानात् ] अज्ञानने लीधे [ अमी ] आ जीवो, [ वातोत्तरङ्गाब्धिवत् ] पवनथी तरंगवाळा समुद्रनी माफक [ विकल्पचक्रकरणात् ] विकल्पोना समूह करता होवाथी — [ शुद्धज्ञानमयाः अपि ] जोके तेओ शुद्धज्ञानमय छे तोपण — [ आकुलाः ] आकुळता बनता थता [ स्वयम् ] पोतानी मेळे [ कर्त्रीभवन्ति ] कर्ता थाय छे.
भावार्थः — अज्ञानथी शुं शुं नथी थतुं? हरणो झांझवांने जळ जाणी पीवा दोडे छे अने ए रीते खेदखिन्न थाय छे. अंधारामां पडेला दोरडाने सर्प मानीने माणसो डरीने भागे छे. तेवी ज रीते आ आत्मा, पवनथी क्षुब्ध थयेला समुद्रनी माफक, अज्ञानने लीधे अनेक विकल्पो करतो थको क्षुब्ध थाय छे अने ए रीते — जोके परमार्थे ते शुद्धज्ञानघन छे तोपण — अज्ञानथी कर्ता थाय छे. ५८.
ज्ञानथी आत्मा कर्ता थतो नथी एम हवे कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ हंसः वाःपयसोः इव ] जेम हंस दूध अने पाणीना विशेषने (तफावतने) जाणे छे तेम [ यः ] जे जीव [ ज्ञानात् ] ज्ञानने लीधे [ विवेचकतया ] विवेकवाळो (भेदज्ञानवाळो) होवाथी [ परात्मनोः तु ] परना अने पोताना [ विशेषम् ] विशेषने [ जानाति ]
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ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः ।
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम् ।।६०।।
जाणे छे [ सः ] ते (जेम हंस मिश्रित थयेलां दूधजळने जुदां करीने दूध ग्रहण करे छे तेम) [ अचलं चैतन्यधातुम् ] अचळ चैतन्यधातुमां [ सदा ] सदा [ अधिरूढः ] आरूढ थयो थको (अर्थात् तेनो आश्रय करतो थको) [ जानीत एव हि ] मात्र जाणे ज छे, [ किञ्चन अपि न करोति ] कांई पण करतो नथी (अर्थात् ज्ञाता ज रहे छे, कर्ता थतो नथी).
भावार्थः — जे स्व-परनो भेद जाणे ते ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. ५९.
हवे, जे कांई जणाय छे ते ज्ञानथी ज जणाय छे एम कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ ज्वलन-पयसोः औष्ण्य-शैत्य-व्यवस्था ] (गरम पाणीमां) अग्निनी उष्णतानो अने पाणीनी शीतळतानो भेद [ ज्ञानात् एव ] ज्ञानथी ज प्रगट थाय छे. [ लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति ] लवणना स्वादभेदनुं निरसन ( – निराकरण, अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञानथी ज थाय छे (अर्थात् ज्ञानथी ज शाक वगेरेमांना लवणनो सामान्य स्वाद तरी आवे छे अने तेनो स्वादविशेष निरस्त थाय छे). [ स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादेः भिदा ] निज रसथी विकसती नित्य चैतन्यधातुनो अने क्रोधादि भावोनो भेद, [ कर्तृभावम् भिन्दती ] कर्तृत्वने (कर्तापणाना भावने) भेदतो थको — तोडतो थको, [ ज्ञानात् एव प्रभवति ] ज्ञानथी ज प्रगट थाय छे. ६०.
हवे, अज्ञानी पण पोताना ज भावने करे छे परंतु पुद्गलना भावने कदी करतो नथी — एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ एवं ] आ रीते [ अञ्जसा ] खरेखर [ आत्मानम् ] पोताने [ अज्ञानं ज्ञानम् अपि ] अज्ञानरूप के ज्ञानरूप [ कुर्वन् ] करतो [ आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात् ] आत्मा पोताना ज भावनो कर्ता छे, [ परभावस्य ] परभावनो (पुद्गलना भावोनो) कर्ता तो [ क्वचित् न ] कदी नथी. ६१.
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व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पव्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म कुर्वन् प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकं च समस्तमन्तःकर्मापि करोत्यविशेषादि-
ए ज वातने द्रढ करे छेः —
श्लोकार्थः — [ आत्मा ज्ञानं ] आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, [ स्वयं ज्ञानं ] पोते ज्ञान ज छे; [ ज्ञानात् अन्यत् किम् करोति ] ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? [ आत्मा परभावस्य कर्ता ] आत्मा परभावनो कर्ता छे [ अयं ] एम मानवुं (तथा कहेवुं) ते [ व्यवहारिणाम् मोहः ] व्यवहारी जीवोनो मोह (अज्ञान) छे. ६२.
हवे कहे छे के व्यवहारी जीवो आम कहे छेः —
गाथार्थः — [ व्यवहारेण तु ] व्यवहारथी अर्थात् व्यवहारी लोको माने छे के [ इह ] जगतमां [ आत्मा ] आत्मा [ घटपटरथान् द्रव्याणि ] घडो, कपडुं, रथ इत्यादि वस्तुओने, [ च ] वळी [ करणानि ] इंद्रियोने, [ विविधानि ] अनेक प्रकारनां [ कर्माणि ] क्रोधादि द्रव्यकर्मोने [ च नोकर्माणि ] अने शरीरादि नोकर्मोने [ करोति ] करे छे.
टीकाः — जेथी पोताना (इच्छारूप) विकल्प अने (हस्तादिनी क्रियारूप) व्यापार वडे आ आत्मा घट आदि परद्रव्यस्वरूप बाह्यकर्मने करतो (व्यवहारीओने) प्रतिभासे छे तेथी तेवी रीते (आत्मा) क्रोधादि परद्रव्यस्वरूप समस्त अंतरंग कर्मने पण — बन्ने कर्मो परद्रव्यस्वरूप
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त्यस्ति व्यामोहः ।
यदि खल्वयमात्मा परद्रव्यात्मकं कर्म कुर्यात् तदा परिणामपरिणामिभावान्यथानुप-
पत्तेर्नियमेन तन्मयः स्यात्; न च द्रव्यान्तरमयत्वे द्रव्योच्छेदापत्तेस्तन्मयोऽस्ति । ततो व्याप्य-
व्यापकभावेन न तस्य कर्तास्ति ।
होईने तेमनामां तफावत नहि होवाथी — करे छे, एवो व्यवहारी जीवोनो व्यामोह (भ्रांति, अज्ञान) छे.
भावार्थः — घट-पट, कर्म-नोकर्म इत्यादि परद्रव्योने आत्मा करे छे एम मानवुं ते व्यवहारी लोकोनो व्यवहार छे, अज्ञान छे.
व्यवहारी लोकोनी ए मान्यता सत्यार्थ नथी एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [ यदि च ] जो [ सः ] आत्मा [ परद्रव्याणि ] परद्रव्योने [ कुर्यात् ] करे तो ते [ नियमेन ] नियमथी [ तन्मयः ] तन्मय अर्थात् परद्रव्यमय [ भवेत् ] थई जाय; [ यस्मात् न तन्मयः ] परंतु तन्मय नथी [ तेन ] तेथी [ सः ] ते [ तेषां ] तेमनो [ कर्ता ] कर्ता [ न भवति ] नथी.
टीकाः — जो निश्चयथी आ आत्मा परद्रव्यस्वरूप कर्मने करे तो, परिणाम-परिणामीपणुं बीजी कोई रीते बनी शकतुं नहि होवाथी, ते (आत्मा) नियमथी तन्मय (परद्रव्यमय) थई जाय; परंतु ते तन्मय तो नथी, कारण के कोई द्रव्य अन्यद्रव्यमय थई जाय तो ते द्रव्यना नाशनी आपत्ति (दोष) आवे. माटे आत्मा व्याप्य-व्यापकभावथी परद्रव्यस्वरूप कर्मनो कर्ता नथी.
भावार्थः — एक द्रव्यनो कर्ता अन्य द्रव्य थाय तो बन्ने द्रव्यो एक थई जाय, कारण के कर्ताकर्मपणुं अथवा परिणाम-परिणामीपणुं एक द्रव्यमां ज होई शके. आ रीते जो एक
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यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषङ्गात्
व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात् ।
अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ । योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः
द्रव्य बीजा द्रव्यरूप थई जाय, तो ते द्रव्यनो ज नाश थाय ए मोटो दोष आवे. माटे एक द्रव्यने अन्य द्रव्यनो कर्ता कहेवो उचित नथी.
आत्मा (व्याप्यव्यापकभावथी तो कर्ता नथी परंतु) निमित्तनैमित्तिकभावथी पण कर्ता नथी एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [ जीवः ] जीव [ घटं ] घटने [ न करोति ] करतो नथी, [ पटं न एव ] पटने करतो नथी, [ शेषकानि ] बाकीनां कोई [ द्रव्याणि ] द्रव्योने (वस्तुओने) [ न एव ] करतो नथी; [ च ] परंतु [ योगोपयोगौ ] जीवना योग अने उपयोग [ उत्पादकौ ] घटादिने उत्पन्न करनारां निमित्त छे [ तयोः ] तेमनो [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] जीव थाय छे.
टीकाः — खरेखर जे घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप कर्म छे तेने आ आत्मा व्याप्यव्यापकभावे तो करतो नथी कारण के जो एम करे तो तन्मयपणानो प्रसंग आवे; वळी निमित्तनैमित्तिकभावे पण तेने करतो नथी कारण के जो एम करे तो नित्यकर्तृत्वनो (अर्थात् सर्व अवस्थाओमां कर्तापणुं रहेवानो) प्रसंग आवे. अनित्य (अर्थात् जे सर्व अवस्थाओमां व्यापता नथी एवा) योग अने उपयोग ज निमित्तपणे तेना ( – परद्रव्यस्वरूप कर्मना) कर्ता छे. (रागादिविकारवाळा चैतन्यपरिणामरूप) पोताना विकल्पने अने (आत्माना प्रदेशोना चलनरूप) पोताना व्यापारने कदाचित् अज्ञानथी आत्मा करतो होवाथी योग अने उपयोगनो
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कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्ताऽस्तु तथापि न परद्रव्यात्मककर्मकर्ता स्यात् ।
तो आत्मा पण कर्ता (कदाचित्) भले हो तथापि परद्रव्यस्वरूप कर्मनो कर्ता तो (निमित्तपणे पण कदी) नथी.
भावार्थः — योग एटले (मन-वचन-कायना निमित्तवाळुं) आत्मप्रदेशोनुं चलन अने उपयोग एटले ज्ञाननुं कषायो साथे उपयुक्त थवुं – जोडावुं. आ योग अने उपयोग घटादिक तथा क्रोधादिकने निमित्त छे तेथी तेमने तो घटादिक तथा क्रोधादिकना निमित्तकर्ता कहेवाय परंतु आत्माने तेमनो कर्ता न कहेवाय. आत्माने संसारअवस्थामां अज्ञानथी मात्र योग – उपयोगनो कर्ता कही शकाय.
अहीं तात्पर्य आ प्रमाणे जाणवुंः — द्रव्यद्रष्टिथी तो कोई द्रव्य अन्य कोई द्रव्यनुं कर्ता नथी; परंतु पर्यायद्रष्टिथी कोई द्रव्यनो पर्याय कोई वखते कोई अन्य द्रव्यना पर्यायने निमित्त थाय छे तेथी आ अपेक्षाए एक द्रव्यना परिणाम अन्य द्रव्यना परिणामना निमित्तकर्ता कहेवाय छे. परमार्थे द्रव्य पोताना ज परिणामनुं कर्ता छे, अन्यना परिणामनुं अन्यद्रव्य कर्ता नथी.
हवे ज्ञानी ज्ञाननो ज कर्ता छे एम कहे छेः —
गाथार्थः — [ ये ] जे [ ज्ञानावरणानि ] ज्ञानावरणादिक [ पुद्गलद्रव्याणां ] पुद्गलद्रव्योना [ परिणामाः ] परिणाम [ भवन्ति ] छे [ तानि ] तेमने [ यः आत्मा ] जे आत्मा [ न करोति ] करतो नथी परंतु [ जानाति ] जाणे छे [ सः ] ते [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ भवति ] छे.
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ये खलु पुद्गलद्रव्याणां परिणामा गोरसव्याप्तदधिदुग्धमधुराम्लपरिणामवत्पुद्गलद्रव्यव्याप्तत्वेन भवन्तो ज्ञानावरणानि भवन्ति तानि तटस्थगोरसाध्यक्ष इव न नाम करोति ज्ञानी, किन्तु यथा स गोरसाध्यक्षस्तद्दर्शनमात्मव्याप्तत्वेन प्रभवद्वयाप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणामनिमित्तं ज्ञानमात्मव्याप्यत्वेन प्रभवद्वयाप्य जानात्येव । एवं ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात् ।
एवमेव च ज्ञानावरणपदपरिवर्तनेन कर्मसूत्रस्य विभागेनोपन्यासाद्दर्शनावरणवेदनीय- मोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायसूत्रैः सप्तभिः सह मोहरागद्वेषक्रोधमानमायालोभनोकर्ममनोवचनकाय- श्रोत्रचक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
टीकाः — जेवी रीते दहीं-दूध के जेओ गोरस वडे व्याप्त थईने ( – व्यपाईने) ऊपजता गोरसना खाटा-मीठा परिणाम छे, तेमने गोरसनो तटस्थ जोनार पुरुष करतो नथी, तेवी रीते ज्ञानावरण इत्यादि के जेओ खरेखर पुद्गलद्रव्य वडे व्याप्त थईने ऊपजता पुद्गलद्रव्यना परिणाम छे, तेमने ज्ञानी करतो नथी; परंतु जेवी रीते ते गोरसनो जोनार, पोताथी (जोनारथी) व्याप्त थईने ऊपजतुं जे गोरस-परिणामनुं दर्शन (जोवापणुं) तेमां व्यापीने, मात्र जुए ज छे, तेवी रीते ज्ञानी, पोताथी (ज्ञानीथी) व्याप्त थईने ऊपजतुं, पुद्गलद्रव्य-परिणाम जेनुं निमित्त छे एवुं जे ज्ञान तेमां व्यापीने, मात्र जाणे ज छे. आ रीते ज्ञानी ज्ञाननो ज कर्ता छे.
वळी एवी ज रीते ‘ज्ञानावरण’ पद पलटीने कर्म-सूत्रनुं (कर्मनी गाथानुं) विभाग पाडीने कथन करवाथी दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतरायना सात सूत्रो तथा तेमनी साथे मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन अने स्पर्शननां सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां; अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
वळी अज्ञानी पण परद्रव्यना भावनो कर्ता नथी एम हवे कहे छेः —
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इह खल्वनादेरज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेन पुद्गलकर्मविपाकदशाभ्यां मन्दतीव्रस्वादाभ्याम- चलितविज्ञानघनैकस्वादस्याप्यात्मनः स्वादं भिन्दानः शुभमशुभं वा यो यं भावमज्ञानरूपमात्मा करोति स आत्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य व्यापकत्वाद्भवति कर्ता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो व्याप्यत्वाद्भवति कर्म; स एव चात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य भावकत्वाद्भवत्यनुभविता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाव्यत्वाद्भवत्यनुभाव्यः । एवमज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात् ।
गाथार्थः — [ आत्मा ] आत्मा [ यं ] जे [ शुभम् अशुभम् ] शुभ के अशुभ [ भावं ] (पोताना) भावने [ करोति ] करे छे [ तस्य ] ते भावनो [ सः ] ते [ खलु ] खरेखर [ कर्ता ] कर्ता थाय छे, [ तत् ] ते (भाव) [ तस्य ] तेनुं [ कर्म ] कर्म [ भवति ] थाय छे [ सः आत्मा तु ] अने ते आत्मा [ तस्य ] तेनो (ते भावरूप कर्मनो) [ वेदकः ] भोक्ता थाय छे.
टीकाः — पोतानो अचलित विज्ञानघनरूप एक स्वाद होवा छतां पण आ लोकमां जे आ आत्मा अनादि काळना अज्ञानने लीधे परना अने पोताना एकपणाना अध्यासथी मंद अने तीव्र स्वादवाळी पुद्गलकर्मना विपाकनी बे दशाओ वडे पोताना (विज्ञानघनरूप) स्वादने भेदतो थको अज्ञानरूप शुभ के अशुभ भावने करे छे, ते आत्मा ते वखते तन्मयपणे ते भावनो व्यापक होवाथी तेनो कर्ता थाय छे अने ते भाव पण ते वखते तन्मयपणे ते आत्मानुं व्याप्य होवाथी तेनुं कर्म थाय छे; वळी ते ज आत्मा ते वखते तन्मयपणे ते भावनो भावक होवाथी तेनो अनुभवनार (अर्थात् भोक्ता) थाय छे अने ते भाव पण ते वखते तन्मयपणे ते आत्मानुं भाव्य होवाथी तेनुं अनुभाव्य (अर्थात् भोग्य) थाय छे. आ रीते अज्ञानी पण परभावनो कर्ता नथी.
भावार्थः — पुद्गलकर्मनो उदय थतां, ज्ञानी तेने जाणे ज छे अर्थात् ज्ञाननो ज कर्ता थाय छे अने अज्ञानी अज्ञानने लीधे कर्मोदयना निमित्ते थता पोताना अज्ञानरूप शुभाशुभ भावोनो कर्ता थाय छे. आ रीते ज्ञानी पोताना ज्ञानरूप भावनो कर्ता छे अने अज्ञानी पोताना अज्ञानरूप भावनो कर्ता छे; परभावनो कर्ता तो ज्ञानी के अज्ञानी कोई नथी.
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इह किल यो यावान् कश्चिद्वस्तुविशेषो यस्मिन् यावति कस्मिंश्चिच्चिदात्मन्यचिदात्मनि वा द्रव्ये गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः, स खल्वचलितस्य वस्तुस्थितिसीम्नो भेत्तुमशक्यत्वात्त- स्मिन्नेव वर्तेत, न पुनः द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वा सङ्क्रामेत । द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वाऽसङ्क्रामंश्च कथं त्वन्यं वस्तुविशेषं परिणामयेत् ? अतः परभावः केनापि न कर्तुं पार्येत ।
परभावने कोई (द्रव्य) करी शके नहि एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [ यः ] जे वस्तु (अर्थात् द्रव्य) [ यस्मिन् द्रव्ये ] जे द्रव्यमां अने [ गुणे ] गुणमां वर्ते छे [ सः ] ते [ अन्यस्मिन् तु ] अन्य [ द्रव्ये ] द्रव्यमां तथा गुणमां [ न सङ्क्रामति ] संक्रमण पामती नथी ( अर्थात् बदलाईने अन्यमां भळी जती नथी); [ अन्यत् असङ्क्रान्तः ] अन्यरूपे संक्रमण नहि पामी थकी [ सः ] ते (वस्तु), [ तत् द्रव्यम् ] अन्य वस्तुने [ कथं ] केम [ परिणामयति ] परिणमावी शके?
टीकाः — जगतमां जे कोई जेवडी वस्तु जे कोई जेवडा चैतन्यस्वरूप के अचैतन्यस्वरूप द्रव्यमां अने गुणमां निज रसथी ज अनादिथी ज वर्ते छे ते, खरेखर अचलित वस्तुस्थितिनी मर्यादाने तोडवी अशक्य होवाथी, तेमां ज (पोताना तेवडा द्रव्य-गुणमां ज) वर्ते छे परंतु द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण पामती नथी; अने द्रव्यांतर के गुणांतररूपे नहि संक्रमती ते, अन्य वस्तुने केम परिणमावी शके? (कदी न परिणमावी शके.) माटे परभाव कोईथी करी शकाय नहि.
भावार्थः — जे द्रव्यस्वभाव छे तेने कोई पण पलटावी शकतुं नथी, ए वस्तुनी मर्यादा छे.
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यथा खलु मृण्मये कलशे कर्मणि मृद्द्रव्यमृद्गुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणान्तर- सङ्क्रमस्य वस्तुस्थित्यैव निषिद्धत्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधत्ते स कलशकारः; द्रव्यान्तर- सङ्क्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । तथा पुद्गलमये ज्ञानावरणादौ कर्मणि पुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणान्तरसङ्क्रमस्य विधातुमशक्यत्वादात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न
आ (उपर कहेला) कारणे आत्मा खरेखर पुद्गलकर्मोनो अकर्ता ठर्यो एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [ आत्मा ] आत्मा [ पुद्गलमये कर्मणि ] पुद्गलमय कर्ममां [ द्रव्यगुणस्य च ] द्रव्यने तथा गुणने [ न करोति ] करतो नथी; [ तस्मिन् ] तेमां [ तद् उभयम् ] ते बन्नेने [ अकुर्वन् ] नहि करतो थको [ सः ] ते [ तस्य कर्ता ] तेनो कर्ता [ कथं ] केम होय?
टीकाः — जेवी रीते — माटीमय घडारूपी कर्म के जे माटीरूपी द्रव्यमां अने माटीना गुणमां निज रसथी ज वर्ते छे तेमां कुंभार पोताने के पोताना गुणने नाखतो – मूकतो – भेळवतो नथी कारण के (कोई वस्तुनुं) द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण थवानो वस्तुस्थितिथी ज निषेध छे; द्रव्यांतररूपे (अर्थात् अन्यद्रव्यरूपे) संक्रमण पाम्या विना अन्य वस्तुने परिणमाववी अशक्य होवाथी, पोतानां द्रव्य अने गुण – बन्नेने ते घडारूपी कर्ममां नहि नाखतो एवो ते कुंभार परमार्थे तेनो कर्ता प्रतिभासतो नथी; तेवी रीते — पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म के जे पुद्गलद्रव्यमां अने पुद्गलना गुणमां निज रसथी ज वर्ते छे तेमां आत्मा पोताना द्रव्यने के पोताना गुणने खरेखर नाखतो – मूकतो – भेळवतो नथी कारण के (कोई वस्तुनुं) द्रव्यांतर के गुणांतररूपे संक्रमण थवुं अशक्य छे; द्रव्यांतररूपे संक्रमण पाम्या विना अन्य वस्तुने
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खल्वाधत्ते; द्रव्यान्तरसङ्क्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वात्तदुभयं तु तस्मिन्न- नादधानः कथं नु तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् ? ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता ।
इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तभूतेना-
ज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्प- विज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः । स तूपचार एव, न तु परमार्थः ।
परिणमाववी अशक्य होवाथी, पोतानां द्रव्य अने गुण – बन्नेने ते ज्ञानावरणादि कर्ममां नहि नाखतो एवो ते आत्मा परमार्थे तेनो कर्ता केम होई शके? (कदी न होई शके.) माटे खरेखर आत्मा पुद्गलकर्मोनो अकर्ता ठर्यो.
माटे आ सिवाय बीजो — एटले के आत्माने पुद्गलकर्मोनो कर्ता कहेवो ते — उपचार छे, एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [ जीवे ] जीव [ हेतुभूते ] निमित्तभूत बनतां [ बन्धस्य तु ] कर्मबंधनुं [ परिणामम् ] परिणाम थतुं [ दृष्टवा ] देखीने, ‘[ जीवेन ] जीवे [ कर्म कृतं ] कर्म कर्युं’ एम [ उपचारमात्रेण ] उपचारमात्रथी [ भण्यते ] कहेवाय छे.
टीकाः — आ लोकमां खरेखर आत्मा स्वभावथी पौद्गलिक कर्मने निमित्तभूत नहि होवा छतां पण, अनादि अज्ञानने लीधे पौद्गलिक कर्मने निमित्तरूप थता एवा अज्ञानभावे परिणमतो होवाथी निमित्तभूत थतां, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न थाय छे, तेथी ‘पौद्गलिक कर्म आत्माए कर्युं’ एवो निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावथी, भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानीओनो विकल्प छे; ते विकल्प उपचार ज छे, परमार्थ नथी.
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यथा युद्धपरिणामेन स्वयं परिणममानैः योधैः कृते युद्धे युद्धपरिणामेन स्वयमपरिणम- मानस्य राज्ञो राज्ञा किल कृतं युद्धमित्युपचारो, न परमार्थः । तथा ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयं परिणममानेन पुद्गलद्रव्येण कृते ज्ञानावरणादिकर्मणि ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्यात्मनः किलात्मना कृतं ज्ञानावरणादिकर्मेत्युपचारो, न परमार्थः ।
भावार्थः — कदाचित् थता निमित्तनैमित्तिकभावमां कर्ताकर्मभाव कहेवो ते उपचार छे.
हवे, ए उपचार कई रीते छे ते द्रष्टांतथी कहे छेः —
गाथार्थः — [ योधैः ] योद्धाओ वडे [ युद्धे कृते ] युद्ध करवामां आवतां, ‘[ राज्ञा कृतम् ] राजाए युद्ध कर्युं’ [ इति ] एम [ लोकः ] लोक [ जल्पते ] (व्यवहारथी) कहे छे [ तथा ] तेवी रीते ‘[ ज्ञानावरणादि ] ज्ञानावरणादि कर्म [ जीवेन कृतं ] जीवे कर्युं’ [ व्यवहारेण ] एम व्यवहारथी कहेवाय छे.
टीकाः — जेम युद्धपरिणामे पोते परिणमता एवा योद्धाओ वडे युद्ध करवामां आवतां, युद्धपरिणामे पोते नहि परिणमता एवा राजा विषे ‘राजाए युद्ध कर्युं’ एवो उपचार छे, परमार्थ नथी; तेम ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामे पोते परिणमता एवा पुद्गलद्रव्य वडे ज्ञानावरणादि कर्म करवामां आवतां, ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामे पोते नहि परिणमता एवा आत्मा विषे ‘आत्माए ज्ञानावरणादि कर्म कर्युं’ एवो उपचार छे, परमार्थ नथी.
भावार्थः — योद्धाओए युद्ध कर्युं होवा छतां ‘राजाए युद्ध कर्युं’ एम उपचारथी कहेवाय छे तेम पुद्गलद्रव्ये ज्ञानावरणादि कर्म कर्युं होवा छतां ‘जीवे कर्म कर्युं’ एम उपचारथी कहेवाय छे.
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अयं खल्वात्मा न गृह्णाति, न परिणमयति, नोत्पादयति, न करोति, न बध्नाति, व्याप्य- व्यापकभावाभावात्, प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म । यत्तु व्याप्यव्यापक- भावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिणमयति उत्पादयति करोति बध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोपचारः ।
कथमिति चेत् —
हवे कहे छे के उपरना हेतुथी आम ठर्युंः —
गाथार्थः — [ आत्मा ] आत्मा [ पुद्गलद्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्यने [ उत्पादयति ] उपजावे छे, [ करोति च ] करे छे, [ बध्नाति ] बांधे छे, [ परिणामयति ] परिणमावे छे [ च ] अने [ गृह्णाति ] ग्रहण करे छे — ए [ व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयनुं [ वक्तव्यम् ] कथन छे.
टीकाः — आ आत्मा खरेखर, व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे, प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य – एवा पुद्गलद्रव्यात्मक ( – पुद्गलद्रव्यस्वरूप) कर्मने ग्रहतो नथी, परिणमावतो नथी, उपजावतो नथी, करतो नथी, बांधतो नथी; अने व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवा छतां पण, ‘‘प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य – एवा पुद्गलद्रव्यात्मक कर्मने आत्मा ग्रहे छे, परिणमावे छे, उपजावे छे, करे छे अने बांधे छे’’ एवो जे विकल्प ते खरेखर उपचार छे.
भावार्थः — व्याप्यव्यापकभाव विना कर्ताकर्मपणुं कहेवुं ते उपचार छे; माटे आत्मा पुद्गलद्रव्यने ग्रहे छे, परिणमावे छे, उपजावे छे, इत्यादि कहेवुं ते उपचार छे.
हवे पूछे छे के ए उपचार कई रीते छे? तेनो उत्तर द्रष्टांतथी कहे छेः —