Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 108-135 ; Kalash: 63-68.

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जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो
तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ।।१०८।।
यथा राजा व्यवहारात् दोषगुणोत्पादक इत्यालपितः
तथा जीवो व्यवहारात् द्रव्यगुणोत्पादको भणितः ।।१०८।।

यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापक- भावाभावेऽपि तदुत्पादको राजेत्युपचारः, तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः

गुणदोषउत्पादक कह्यो ज्यम भूपने व्यवहारथी,
त्यम द्रव्यगुणउत्पन्नकर्ता जीव कह्यो व्यवहारथी. १०८.

गाथार्थ[ यथा ] जेम [ राजा ] राजाने [ दोषगुणोत्पादकः इति ] प्रजाना दोष अने गुणनो उत्पन्न करनार [ व्यवहारात् ] व्यवहारथी [ आलपितः ] कह्यो छे, [ तथा ] तेम [ जीवः ] जीवने [ द्रव्यगुणोत्पादकः ] पुद्गलद्रव्यनां द्रव्य-गुणनो उत्पन्न करनार [ व्यवहारात् ] व्यवहारथी [ भणितः ] कह्यो छे.

टीकाजेम प्रजाना गुणदोषोने अने प्रजाने व्याप्यव्यापकभाव होवाने लीधे स्व- भावथी ज (प्रजाना पोताना भावथी ज) ते गुणदोषोनी उत्पत्ति थतांजोके ते गुणदोषोने अने राजाने व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे तोपण‘तेमनो उत्पादक राजा छे’ एवो उपचार करवामां आवे छे; तेवी रीते पुद्गलद्रव्यना गुणदोषोने अने पुद्गलद्रव्यने व्याप्यव्यापकभाव होवाने लीधे स्व-भावथी ज (पुद्गलद्रव्यना पोताना भावथी ज) ते गुणदोषोनी उत्पत्ति थतांजोके ते गुणदोषोने अने जीवने व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे तोपण‘तेमनो उत्पादक जीव छे’ एवो उपचार करवामां आवे छे.

भावार्थजगतमां कहेवाय छे के जेवो राजा तेवी प्रजा. आम कहीने प्रजाना गुणदोषनो उत्पन्न करनार राजाने कहेवामां आवे छे. एवी ज रीते पुद्गलद्रव्यना गुणदोषनो उत्पन्न करनार जीवने कहेवामां आवे छे. परमार्थद्रष्टिए जोतां ए सत्य नथी, उपचार छे.

हवे आगळनी गाथानी सूचनिकारूप काव्य कहे छे


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(वसन्ततिलका)
जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव
कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव
एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय
सङ्कीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ
।।६३।।
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।।१०९।।
तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो
मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ।।११०।।
एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा
ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा ।।१११।।

श्लोकार्थ[ यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति ] जो पुद्गलकर्मने जीव करतो नथी [ तर्हि ] तो [ तत् कः कुरुते ] तेने कोण करे छे?’ [ इति अभिशङ्कया एव ] एवी आशंका करीने, [ एतर्हि ] हवे [ तीव्र-रय-मोह-निवर्हणाय ] तीव्र वेगवाळा मोहनो (कर्ताकर्मपणाना अज्ञाननो) नाश करवा माटे, [ पुद्गलकर्मकर्तृ सङ्कीर्त्यते ] ‘पुद्गलकर्मनो कर्ता कोण छे’ ते कहीए छीए; [ शृणुत ] ते (हे ज्ञानना इच्छक पुरुषो!) तमे सांभळो. ६३.

पुद्गलकर्मनो कर्ता कोण छे ते हवे कहे छे

सामान्य प्रत्यय चार निश्चय बंधना कर्ता कह्या,
मिथ्यात्व ने अविरमण तेम कषाययोगो जाणवा. १०९.
वळी तेमनो पण वर्णव्यो आ भेद तेर प्रकारनो,
मिथ्यात्वथी आदि करीने चरम भेद सयोगीनो. ११०.
पुद्गलकरमना उदयथी उत्पन्न तेथी अजीव आ,
ते जो करे कर्मो भले, भोक्ताय तेनो जीव ना. १११.

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गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा
तम्हा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि ।।११२।।
सामान्यप्रत्ययाः खलु चत्वारो भण्यन्ते बन्धकर्तारः
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च बोद्धव्याः ।।१०९।।
तेषां पुनरपि चायं भणितो भेदस्तु त्रयोदशविकल्पः
मिथ्यादृष्टयादिः यावत् सयोगिनश्चरमान्तः ।।११०।।
एते अचेतनाः खलु पुद्गलकर्मोदयसम्भवा यस्मात्
ते यदि कुर्वन्ति कर्म नापि तेषां वेदक आत्मा ।।१११।।
गुणसंज्ञितास्तु एते कर्म कुर्वन्ति प्रत्यया यस्मात्
तस्माज्जीवोऽकर्ता गुणाश्च कुर्वन्ति कर्माणि ।।११२।।
जेथी खरे ‘गुण’ नामना आ प्रत्ययो कर्मो करे,
तेथी अकर्ता जीव छे, ‘गुणो’ करे छे कर्मने. ११२.

गाथार्थ[ चत्वारः ] चार [ सामान्यप्रत्ययाः ] सामान्य प्रत्ययो [ खलु ] निश्चयथी [ बन्धकर्तारः ] बंधना कर्ता [ भण्यन्ते ] कहेवामां आवे छे[ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व, [ अविरमणं ] अविरमण [ च ] तथा [ कषाययोगौ ] कषाय अने योग (ए चार) [ बोद्धव्याः ] जाणवा. [ पुनः अपि च ] अने वळी [ तेषां ] तेमनो, [ अयं ][ त्रयोदशविकल्पः ] तेर प्रकारनो [ भेदः तु ] भेद [ भणितः ] कहेवामां आव्यो छे[ मिथ्यादृष्टयादिः ] मिथ्याद्रष्टि(गुणस्थान)थी मांडीने [ सयोगिनः चरमान्तः यावत् ] सयोगकेवळी(गुणस्थान)ना चरम समय सुधीनो. [ एते ] (प्रत्ययो अथवा गुणस्थानो) [ खलु ] के जेओ निश्चयथी [ अचेतनाः ] अचेतन छे [ यस्मात् ] कारण के [ पुद्गलकर्मोदयसम्भवाः ] पुद्गलकर्मना उदयथी उत्पन्न थाय छे [ ते ] तेओ [ यदि ] जो [ कर्म ] कर्म [ कुर्वन्ति ] करे तो भले करे; [ तेषां ] तेमनो (कर्मोनो) [ वेदकः अपि ] भोक्ता पण [ आत्मा न ] आत्मा नथी. [ यस्मात् ] जेथी [ एते ][ गुणसंज्ञिताः तु ] ‘गुण’ नामना [ प्रत्ययाः ] प्रत्ययो [ कर्म ] कर्म [ कुर्वन्ति ] करे छे [ तस्मात् ] तेथी [ जीवः ] जीव तो [ अकर्ता ] कर्मनो अकर्ता छे [ च ] अने [ गुणाः ]गुणो’ ज [ कर्माणि ] कर्मोने [ कुर्वन्ति ] करे छे. प्रत्ययो = कर्मबंधनां कारणो अर्थात् आस्रवो


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पुद्गलकर्मणः किल पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ; तद्विशेषाः मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा बन्धस्य सामान्यहेतुतया चत्वारः कर्तारः ते एव विकल्प्यमाना मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवल्यन्तास्त्रयोदश कर्तारः अथैते पुद्गलकर्मविपाकविकल्पत्वादत्यन्तमचेतनाः सन्तस्त्रयोदश कर्तारः केवला एव यदि व्याप्यव्यापकभावेन किञ्चनापि पुद्गलकर्म कुर्युस्तदा कुर्युरेव; किं जीवस्यात्रापतितम् ? अथायं तर्कःपुद्गलमयमिथ्यात्वादीन् वेदयमानो जीवः स्वयमेव मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा पुद्गलकर्म करोति स किलाविवेकः, यतो न खल्वात्मा भाव्यभावकभावाभावात् पुद्गलद्रव्यमयमिथ्यात्वादि- वेदकोऽपि, कथं पुनः पुद्गलकर्मणः कर्ता नाम ? अथैतदायातम्यतः पुद्गलद्रव्यमयानां चतुर्णां सामान्यप्रत्ययानां विकल्पास्त्रयोदश विशेषप्रत्यया गुणशब्दवाच्याः केवला एव कुर्वन्ति कर्माणि, ततः पुद्गलकर्मणामकर्ता जीवो, गुणा एव तत्कर्तारः ते तु पुद्गलद्रव्यमेव ततः स्थितं पुद्गलकर्मणः पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ

टीकाःखरेखर पुद्गलकर्मनो, पुद्गलद्रव्य ज एक कर्ता छे; तेना विशेषोमिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग बंधना सामान्य हेतुओ होवाथी चार कर्ता छे; तेओ ज भेदरूप करवामां आवतां (अर्थात् तेमना ज भेद पाडवामां आवतां), मिथ्याद्रष्टिथी मांडीने सयोगकेवळी सुधीना तेर कर्ता छे. हवे, जेओ पुद्गलकर्मना विपाकना प्रकारो होवाथी अत्यंत अचेतन छे एवा आ तेर कर्ताओ ज केवळ व्याप्यव्यापकभावे कांई पण पुद्गलकर्मने जो करे तो भले करे; तेमां जीवने शुं आव्युं? (कांई ज नहि.) अहीं आ तर्क छे के ‘‘पुद्गलमय मिथ्यात्वादिने वेदतो (भोगवतो) जीव पोते ज मिथ्याद्रष्टि थईने पुद्गलकर्मने करे छे’’. (तेनुं समाधान ) आ तर्क खरेखर अविवेक छे, कारण के भाव्यभावकभावनो अभाव होवाथी आत्मा निश्चयथी पुद्गल- द्रव्यमय मिथ्यात्वादिनो भोक्ता पण नथी, तो पछी पुद्गलकर्मनो कर्ता केम होय? माटे एम फलित थयुं केजेथी पुद्गलद्रव्यमय चार सामान्यप्रत्ययोना भेदरूप तेर विशेषप्रत्ययो के जेओ ‘गुण’ शब्दथी कहेवामां आवे छे (अर्थात् जेमनुं नाम गुणस्थान छे) तेओ ज केवळ कर्मोने करे छे, तेथी जीव पुद्गलकर्मोनो अकर्ता छे, ‘गुणो’ ज तेमना कर्ता छे; अने ते ‘गुणो’ तो पुद्गलद्रव्य ज छे; तेथी एम ठर्युं के पुद्गलकर्मनो पुद्गलद्रव्य ज एक कर्ता छे.

भावार्थःशास्त्रमां प्रत्ययोने बंधना कर्ता कहेवामां आव्या छे. गुणस्थानो पण विशेष प्रत्ययो ज छे तेथी ए गुणस्थानो बंधना कर्ता छे अर्थात् पुद्गलकर्मना कर्ता छे. वळी मिथ्यात्वादि सामान्य प्रत्ययो के गुणस्थानरूप विशेष प्रत्ययो अचेतन पुद्गलद्रव्यमय ज छे, तेथी एम सिद्ध थयुं के पुद्गलद्रव्य ज पुद्गलकर्मनुं कर्ता (करनारुं) छे; जीव कर्ता नथी. जीवने पुद्गलकर्मनो कर्ता मानवो ते अज्ञान छे.

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न च जीवप्रत्यययोरेकत्वम्
जह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो
जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं ।।११३।।
एवमिह जो दु जीवो सो चेव दु णियमदो तहाऽजीवो
अयमेयत्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं ।।११४।।
अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा
जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ।।११५।।
यथा जीवस्यानन्य उपयोगः क्रोधोऽपि तथा यद्यनन्यः
जीवस्याजीवस्य चैवमनन्यत्वमापन्नम् ।।११३।।
एवमिह यस्तु जीवः स चैव तु नियमतस्तथाऽजीवः
अयमेकत्वे दोषः प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम् ।।११४।।
अथ ते अन्यः क्रोधोऽन्यः उपयोगात्मको भवति चेतयिता
यथा क्रोधस्तथा प्रत्ययाः कर्म नोकर्माप्यन्यत् ।।११५।।

वळी जीवने अने ते प्रत्ययोने एकपणुं नथी एम हवे कहे छे

उपयोग जेम अनन्य जीवनो, क्रोध तेम अनन्य जो,
तो दोष आवे जीव तेम अजीवना एकत्वनो. ११३.
तो जगतमां जे जीव ते ज अजीव पण निश्चय ठरे;
नोकर्म, प्रत्यय, कर्मना एकत्वमां पण दोष ए. ११४.
जो क्रोध ए रीत अन्य, जीव उपयोगआत्मक अन्य छे,
तो क्रोधवत् नोकर्म, प्रत्यय, कर्म ते पण अन्य छे. ११५.

गाथार्थ [यथा] जेम [जीवस्य] जीवने [उपयोगः] उपयोग [अनन्यः] अनन्य अर्थात् एकरूप छे [तथा] तेम [यदि] जो [क्रोधः अपि] क्रोध पण [अनन्यः] अनन्य होय तो [एवम्] ए रीते [जीवस्य] जीवने [] अने [अजीवस्य] अजीवने [अनन्यत्वम्] अनन्यपणुं


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यदि यथा जीवस्य तन्मयत्वाज्जीवादनन्य उपयोगस्तथा जडः क्रोधोऽप्यनन्य एवेति प्रतिपत्तिस्तदा चिद्रूपजडयोरनन्यत्वाज्जीवस्योपयोगमयत्ववज्जडक्रोधमयत्वापत्तिः तथा सति तु य एव जीवः स एवाजीव इति द्रव्यान्तरलुप्तिः एवं प्रत्ययनोकर्मकर्मणामपि जीवादनन्यत्वप्रतिपत्तावयमेव दोषः अथैतद्दोषभयादन्य एवोपयोगात्मा जीवोऽन्य एव जडस्वभावः क्रोधः इत्यभ्युपगमः, तर्हि यथोपयोगात्मनो जीवादन्यो जडस्वभावः क्रोधः तथा प्रत्ययनोकर्मकर्माण्यप्यन्यान्येव, जड- स्वभावत्वाविशेषात् नास्ति जीवप्रत्यययोरेकत्वम् [आपन्नम्] आवी पड्युं. [एवम् च] एम थतां, [इह] आ जगतमां [यः तु] जे [जीवः] जीव


छे [सः एव तु] ते ज [नियमतः] नियमथी [तथा] तेवी ज रीते [अजीवः] अजीव ठर्यो; (बन्नेनुं अनन्यपणुं होवामां आ दोष आव्यो;) [प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम्] प्रत्यय, नोकर्म अने कर्मना [एकत्वे] एकपणामां अर्थात् अनन्यपणामां पण [अयम् दोषः] आ ज दोष आवे छे. [अथ] हवे जो (आ दोषना भयथी) [ते] तारा मतमां [क्रोधः] क्रोध [अन्यः] अन्य छे अने [उपयोगात्मकः] उपयोगस्वरूप [चेतयिता] आत्मा [अन्यः] अन्य [भवति] छे, तो [यथा क्रोधः] जेम क्रोध [तथा] तेम [प्रत्ययाः] प्रत्ययो [कर्म] कर्म अने [नोकर्म अपि] नोकर्म पण [अन्यत्] आत्माथी अन्य ज छे.

टीकाःजेम जीवना उपयोगमयपणाने लीधे जीवथी उपयोग अनन्य छे तेम जड क्रोध पण अनन्य ज छे एवी जो प्रतिपत्ति करवामां आवे, तो चिद्रूपना अने जडना अनन्यपणाने लीधे जीवने उपयोगमयपणानी माफक जड क्रोधमयपणुं पण आवी पडे. एम थतां तो जे जीव ते ज अजीव ठरे,ए रीते अन्य द्रव्यनो लोप थाय. आ प्रमाणे प्रत्यय, नोकर्म अने कर्म पण जीवथी अनन्य छे एवी प्रतिपत्तिमां पण आ ज दोष आवे छे. हवे जो आ दोषना भयथी एम स्वीकारवामां आवे के उपयोगात्मक जीव अन्य ज छे अने जडस्वभाव क्रोध अन्य ज छे, तो जेम उपयोगात्मक जीवथी जडस्वभाव क्रोध अन्य छे तेम प्रत्यय, नोकर्म अने कर्म पण अन्य ज छे कारण के तेमना जडस्वभावपणामां तफावत नथी (अर्थात् जेम क्रोध जड छे तेम प्रत्यय, नोकर्म अने कर्म पण जड छे). आ रीते जीवने अने प्रत्ययने एकपणुं नथी.

भावार्थःमिथ्यात्वादि आस्रव तो जडस्वभाव छे अने जीव चेतनस्वभाव छे. जो जड अने चेतन एक थई जाय तो भिन्न द्रव्यनो लोप थई जाय ए मोटो दोष आवे. माटे आस्रवने अने आत्माने एकपणुं नथी ए निश्चयनयनो सिद्धांत छे. १. प्रतिपत्ति = प्रतीति; प्रतिपादन. २. चिद्रूप = जीव


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अथ पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वं साधयति सांख्यमतानुयायिशिष्यं प्रति
जीवे ण सयं बद्धं ण सयं परिणमदि कम्मभावेण
जदि पोग्गलदव्वमिणं अप्परिणामी तदा होदि ।।११६।।
कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ।।११७।।
जीवो परिणामयदे पोग्गलदव्वाणि कम्मभावेण
ते सयमपरिणमंते कहं णु परिणामयदि चेदा ।।११८।।
अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पोग्गलं दव्वं
जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा ।।११९।।
णियमा कम्मपरिणदं कम्मं चिय होदि पोग्गलं दव्वं
तह तं णाणावरणाइपरिणदं मुणसु तच्चेव ।।१२०।।

हवे सांख्यमतना अनुयायी शिष्य प्रति पुद्गलद्रव्यनुं परिणामस्वभावपणुं सिद्ध करे छे (अर्थात् सांख्यमती प्रकृति-पुरुषने अपरिणामी माने छे तेने समजावे छे)ः

जीवमां स्वयं नहि बद्ध, न स्वयं कर्मभावे परिणमे,
तो एवुं पुद्गलद्रव्य आ परिणमनहीन बने अरे! ११६.
जो वर्गणा कार्मण तणी नहि कर्मभावे परिणमे,
संसारनो ज अभाव अथवा समय सांख्य तणो ठरे! ११७.
जो कर्मभावे परिणमावे जीव पुद्गलद्रव्यने,
क्यम जीव तेने परिणमावे जे स्वयं नहि परिणमे? ११८.
स्वयमेव पुद्गलद्रव्य वळी जो कर्मभावे परिणमे,
जीव परिणमावे कर्मने कर्मत्वमांमिथ्या बने. ११९.
पुद्गलदरव जे कर्मपरिणत, निश्चये कर्म ज बने;
ज्ञानावरणइत्यादिपरिणत, ते ज जाणो तेहने. १२०.

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जीवे न स्वयं बद्धं न स्वयं परिणमते कर्मभावेन
यदि पुद्गलद्रव्यमिदमपरिणामि तदा भवति ।।११६।।
कार्मणवर्गणासु चापरिणममानासु कर्मभावेन
संसारस्याभावः प्रसजति सांख्यसमयो वा ।।११७।।
जीवः परिणामयति पुद्गलद्रव्याणि कर्मभावेन
तानि स्वयमपरिणममानानि कथं नु परिणामयति चेतयिता ।।११८।।
अथ स्वयमेव हि परिणमते कर्मभावेन पुद्गलं द्रव्यम्
जीवः परिणामयति कर्म कर्मत्वमिति मिथ्या ।।११९।।
नियमात्कर्मपरिणतं कर्म चैव भवति पुद्गलं द्रव्यम्
तथा तद्ज्ञानावरणादिपरिणतं जानीत तच्चैव ।।१२०।।

गाथार्थः[इदम् पुद्गलद्रव्यम्] आ पुद्गलद्रव्य [जीवे] जीवमां [स्वयं] स्वयं [बद्धं न] बंधायुं नथी अने [कर्मभावेन] कर्मभावे [स्वयं] स्वयं [न परिणमते] परिणमतुं नथी [यदि] एम जो मानवामां आवे [तदा] तो ते [अपरिणामी] अपरिणामी [भवति] ठरे छे; [] अने [कार्मणवर्गणासु] कार्मणवर्गणाओ [कर्मभावेन] कर्मभावे [अपरिणममानासु] नहि परिणमतां, [संसारस्य] संसारनो [अभावः] अभाव [प्रसजति] ठरे छे [वा] अथवा [सांख्यसमयः] सांख्यमतनो प्रसंग आवे छे.

वळी [जीवः] जीव [पुद्गलद्रव्याणि] पुद्गलद्रव्योने [कर्मभावेन] कर्मभावे [परिणामयति] परिणमावे छे एम मानवामां आवे तो ए प्रश्न थाय छे के [स्वयम् अपरिणममानानि] स्वयं नहि परिणमती एवी [तानि] ते वर्गणाओने [चेतयिता] चेतन आत्मा [कथं नु] केम [परिणामयति] परिणमावी शके? [अथ] अथवा जो [पुद्गलम् द्रव्यम्] पुद्गलद्रव्य [स्वयमेव हि] पोतानी मेळे ज [कर्मभावेन] कर्मभावे [परिणमते] परिणमे छे एम मानवामां आवे, तो [जीवः] जीव [कर्म] कर्मने अर्थात् पुद्गलद्रव्यने [कर्मत्वम्] कर्मपणे [परिणामयति] परिणमावे छे [इति] एम कहेवुं [मिथ्या] मिथ्या ठरे छे.

[नियमात्] माटे जेम नियमथी [कर्मपरिणतं] *कर्मरूपे परिणमेलुं [पुद्गलम् द्रव्यम्] पुद्गलद्रव्य [कर्म चैव] कर्म ज [भवति] छे [तथा] तेवी रीते [ज्ञानावरणादिपरिणतं] ज्ञानावरणादि- रूपे परिणमेलुं [तत्] पुद्गलद्रव्य [तत् च एव] ज्ञानावरणादि ज [जानीत] जाणो. * कर्म = कर्तानुं कार्य, जेम केमाटीनुं कर्म घडो.


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यदि पुद्गलद्रव्यं जीवे स्वयमबद्धं सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिणमेत, तदा तदपरिणाम्येव स्यात् तथा सति संसाराभावः अथ जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयति ततो न संसाराभावः इति तर्कः किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् ? न तावत्तत्स्वयमपरिणममानं परेण परिणमयितुं पार्येत; न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत; न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते ततः पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं कलश इव जडस्वभावज्ञानावरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म स्यात् इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वम्

(उपजाति)
स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य
स्वभावभूता परिणामशक्तिः
तस्यां स्थितायां स करोति भावं
यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता
।।६४।।

टीकाःजो पुद्गलद्रव्य जीवमां स्वयं नहि बंधायुं थकुं कर्मभावे स्वयमेव न परिणमे, तो ते अपरिणामी ज ठरे. एम थतां, संसारनो अभाव थाय. (कारण के पुद्गलद्रव्य कर्मरूपे न परिणमे तो जीव कर्मरहित ठरे; तो पछी संसार कोनो?) अहीं जो एम तर्क करवामां आवे के ‘‘जीव पुद्गलद्रव्यने कर्मभावे परिणमावे छे तेथी संसारनो अभाव थतो नथी’’, तो तेनुं निराकरण बे पक्ष लईने करवामां आवे छेशुं जीव स्वयं अपरिणमता पुद्गलद्रव्यने कर्मभावे परिणमावे के स्वयं परिणमताने? प्रथम, स्वयं अपरिणमताने पर वडे परिणमावी शकाय नहि; कारण के (वस्तुमां) जे शक्ति स्वतः (पोताथी ज) न होय तेने अन्य कोई करी शके नहि. (माटे प्रथम पक्ष असत्य छे.) अने स्वयं परिणमताने तो पर (अन्य) परिणमावनारनी अपेक्षा न होय; कारण के वस्तुनी शक्तिओ परनी अपेक्षा राखती नथी. (माटे बीजो पक्ष पण असत्य छे.) तेथी पुद्गलद्रव्य परिणमनस्वभाववाळुं स्वयमेव हो. एम होतां (होवाथी), जेम घडारूपे परिणमेली माटी ज पोते घडो छे तेम, जड स्वभाववाळा ज्ञानावरणादिकर्मरूपे परिणमेलुं पुद्गलद्रव्य ज पोते ज्ञानावरणादिकर्म छे. आ रीते पुद्गलद्रव्यनुं परिणामस्वभावपणुं सिद्ध थयुं.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छे

श्लोकार्थ[इति] आ रीते [पुद्गलस्य] पुद्गलद्रव्यनी [स्वभावभूता परिणामशक्तिः] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [खलु अविघ्ना स्थिता] निर्विघ्न सिद्ध थई. [तस्यां स्थितायां]


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जीवस्य परिणामित्वं साधयति
ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं
जदि एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि ।।१२१।।
अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ।।१२२।।
पोग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं
तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो ।।१२३।।
अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी
कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा ।।१२४।।

सिद्ध थतां, [सः आत्मनः यम् भावं करोति] पुद्गलद्रव्य पोताना जे भावने करे छे [तस्य सः एव कर्ता] तेनो ते पुद्गलद्रव्य ज कर्ता छे.

भावार्थसर्व द्रव्यो परिणमनस्वभाववाळां छे तेथी पोतपोताना भावना पोते ज कर्ता छे. पुद्गलद्रव्य पण पोताना जे भावने करे छे तेनो पोते ज कर्ता छे. ६४.

हवे जीवनुं परिणामीपणुं सिद्ध करे छे

कर्मे स्वयं नहि बद्ध, न स्वयं क्रोधभावे परिणमे,
तो जीव आ तुज मत विषे परिणमनहीन बने अरे! १२१.
क्रोधादिभावे जो स्वयं नहि जीव पोते परिणमे,
संसारनो ज अभाव अथवा समय सांख्य तणो ठरे! १२२.
जो क्रोधपुद्गलकर्मजीवने परिणमावे क्रोधमां,
क्यम क्रोध तेने परिणमावे जे स्वयं नहि परिणमे? १२३.
अथवा स्वयं जीव क्रोधभावे परिणमेतुज बुद्धि छे,
तो क्रोध जीवने परिणमावे क्रोधमांमिथ्या बने. १२४.

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कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्तो य माणमेवादा
माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो ।।१२५।।
न स्वयं बद्धः कर्मणि न स्वयं परिणमते क्रोधादिभिः
यद्येषः तव जीवोऽपरिणामी तदा भवति ।।१२१।।
अपरिणममाने स्वयं जीवे क्रोधादिभिः भावैः
संसारस्याभावः प्रसजति सांख्यसमयो वा ।।१२२।।
पुद्गलकर्म क्रोधो जीवं परिणामयति क्रोधत्वम्
तं स्वयमपरिणममानं कथं नु परिणामयति क्रोधः ।।१२३।।
अथ स्वयमात्मा परिणमते क्रोधभावेन एषा ते बुद्धिः
क्रोधः परिणामयति जीवं क्रोधत्वमिति मिथ्या ।।१२४।।
क्रोधोपयुक्तः क्रोधो मानोपयुक्तश्च मान एवात्मा
मायोपयुक्तो माया लोभोपयुक्तो भवति लोभः ।।१२५।।
क्रोधोपयोगी क्रोध, जीव मानोपयोगी मान छे,
मायोपयुत माया अने लोभोपयुत लोभ ज बने. १२५.

गाथार्थःसांख्यमतना अनुयायी शिष्य प्रति आचार्य कहे छे के हे भाई! [एषः] [जीवः] जीव [कर्मणि] कर्ममां [स्वयं] स्वयं [बद्धः न] बंधायो नथी अने [क्रोधादिभिः] क्रोधादिभावे [स्वयं] स्वयं [न परिणमते] परिणमतो नथी [यदि तव] एम जो तारो मत होय [तदा] तो ते (जीव) [अपरिणामी] अपरिणामी [भवति] ठरे छे; अने [जीवे] जीव [स्वयं] पोते [क्रोधादिभिः भावैः] क्रोधादिभावे [अपरिणममाने] नहि परिणमतां, [संसारस्य] संसारनो [अभावः] अभाव [प्रसजति] ठरे छे [वा] अथवा [सांख्यसमयः] सांख्यमतनो प्रसंग आवे छे.

[पुद्गलकर्म क्रोधः] वळी पुद्गलकर्म जे क्रोध ते [जीवं] जीवने [क्रोधत्वम्] क्रोधपणे [परिणामयति] परिणमावे छे एम तुं माने तो ए प्रश्न थाय छे के [स्वयम् अपरिणममानं] स्वयं नहि परिणमता एवा [तं] ते जीवने [क्रोधः] क्रोध [कथं नु] केम [परिणामयति] परिणमावी शके? [अथ] अथवा जो [आत्मा] आत्मा [स्वयम्] पोतानी मेळे [क्रोधभावेन] क्रोधभावे [परिणमते] परिणमे छे [एषा ते बुद्धिः] एम तारी बुद्धि होय, तो [क्रोधः] क्रोध [जीवं] जीवने


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यदि कर्मणि स्वयमबद्धः सन् जीवः क्रोधादिभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा स किलापरिणाम्येव स्यात् तथा सति संसाराभावः अथ पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयति ततो न संसाराभाव इति तर्कः किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयेत् ? न तावत्स्वयमपरिणममानः परेण परिणमयितुं पार्येत; न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते स्वयं परिणममानस्तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत; न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते ततो जीवः परिणामस्वभावः स्वयमेवास्तु तथा सति गरुड- ध्यानपरिणतः साधकः स्वयं गरुड इवाज्ञानस्वभावक्रोधादिपरिणतोपयोगः स एव स्वयं क्रोधादिः स्यात् इति सिद्धं जीवस्य परिणामस्वभावत्वम् [क्रोधत्वम्] क्रोधपणे [परिणामयति] परिणमावे छे [इति] एम कहेवुं [मिथ्या] मिथ्या ठरे छे.

माटे ए सिद्धांत छे के [क्रोधोपयुक्तः] क्रोधमां उपयुक्त (अर्थात् जेनो उपयोग क्रोधाकारे परिणम्यो छे एवो) [आत्मा] आत्मा [क्रोधः] क्रोध ज छे, [मानोपयुक्तः] मानमां उपयुक्त आत्मा [मानः एव] मान ज छे, [मायोपयुक्तः] मायामां उपयुक्त आत्मा [माया] माया छे [] अने [लोभोपयुक्तः] लोभमां उपयुक्त आत्मा [लोभः] लोभ [भवति] छे.

टीकाःजो जीव कर्ममां स्वयं नहि बंधायो थको क्रोधादिभावे स्वयमेव न परिणमे तो ते खरेखर अपरिणामी ज ठरे. एम थतां संसारनो अभाव थाय. अहीं जो एम तर्क करवामां आवे के ‘‘पुद्गलकर्म जे क्रोधादिक ते जीवने क्रोधादिभावे परिणमावे छे तेथी संसारनो अभाव थतो नथी’’, तो तेनुं निराकरण बे पक्ष लईने करवामां आवे छेःपुद्गलकर्म क्रोधादिक छे ते स्वयं अपरिणमता जीवने क्रोधादिभावे परिणमावे के स्वयं परिणमताने? प्रथम, स्वयं अपरिणमताने पर वडे परिणमावी शकाय नहि; कारण के (वस्तुमां) जे शक्ति स्वतः न होय तेने अन्य कोई करी शके नहि. अने स्वयं परिणमताने तो पर (अन्य) परिणमावनारनी अपेक्षा न होय; कारण के वस्तुनी शक्तिओ परनी अपेक्षा राखती नथी. (आ रीते बन्ने पक्ष असत्य छे.) तेथी जीव परिणमनस्वभाववाळो स्वयमेव हो. एम होतां (होवाथी), जेम गरुडना ध्यानरूपे परिणमेलो मंत्रसाधक पोते गरुड छे तेम, अज्ञानस्वभाववाळा क्रोधादिरूपे जेनो उपयोग परिणम्यो छे एवो जीव ज पोते क्रोधादि छे. आ रीते जीवनुं परिणामस्वभावपणुं सिद्ध थयुं.

भावार्थःजीव परिणामस्वभाव छे. ज्यारे पोतानो उपयोग क्रोधादिरूपे परिणमे छे त्यारे पोते क्रोधादिरूप ज थाय छे एम जाणवुं.

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(उपजाति)
स्थितेति जीवस्य निरन्तराया
स्वभावभूता परिणामशक्तिः
तस्यां स्थितायां स करोति भावं
यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता
।।६५।।
तथाहि
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स
णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ।।१२६।।
यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य कर्मणः
ज्ञानिनः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः ।।१२६।।

एवमयमात्मा स्वयमेव परिणामस्वभावोऽपि यमेव भावमात्मनः करोति तस्यैव

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थ [इति ] आ रीते [ जीवस्य ] जीवनी [ स्वभावभूता परिणामशक्तिः ] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [निरन्तराया स्थिता ] निर्विघ्न सिद्ध थई. [तस्यां स्थितायां ] ए सिद्ध थतां, [सः स्वस्य यं भावं करोति ] जीव पोताना जे भावने करे छे [तस्य एव सः कर्ता भवेत् ] तेनो ते कर्ता थाय छे.

भावार्थ जीव पण परिणामी छे; तेथी पोते जे भावरूपे परिणमे छे तेनो कर्ता थाय छे. ६५.

ज्ञानी ज्ञानमय भावनो अने अज्ञानी अज्ञानमय भावनो कर्ता छे एम हवे कहे छे

जे भावने आत्मा करे, कर्ता बने ते कर्मनो;
ते ज्ञानमय छे ज्ञानीनो, अज्ञानमय अज्ञानीनो. १२६.

गाथार्थ [ आत्मा ] आत्मा [ यं भावम् ] जे भावने [ करोति ] करे छे [ तस्य कर्मणः ] ते भावरूप कर्मनो [ सः ] ते [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] थाय छे; [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीने तो [ सः ] ते भाव [ ज्ञानमयः ] ज्ञानमय छे अने [ अज्ञानिनः ] अज्ञानीने [ अज्ञानमयः ] अज्ञानमय छे.

टीका आ रीते आ आत्मा स्वयमेव परिणामस्वभाववाळो छे तोपण पोताना जे


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कर्मतामापद्यमानस्य कर्तृत्वमापद्येत स तु ज्ञानिनः सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्म- ख्यातित्वात् ज्ञानमय एव स्यात् अज्ञानिनः तु सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमित- विविक्तात्मख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात्

किं ज्ञानमयभावात्किमज्ञानमयाद्भवतीत्याह
अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि
णाणमओ णाणिस्स दु ण कुणदि तम्हा दु कम्माणि ।।१२७।।
अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि
ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि ।।१२७।।

अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मादज्ञानमय भावने करे छे ते भावनो जकर्मपणाने पामेलानोकर्ता ते थाय छे (अर्थात् ते भाव आत्मानुं कर्म छे अने आत्मा तेनो कर्ता छे). ते भाव ज्ञानीने ज्ञानमय ज छे कारण के तेने सम्यक् प्रकारे स्वपरना विवेक वडे (सर्व परद्रव्यभावोथी) भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत उदय पामी छे. अने ते भाव अज्ञानीने तो अज्ञानमय ज छे कारण के तेने सम्यक् प्रकारे स्वपरनो विवेक नहि होवाने लीधे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत अस्त थई गई छे.

भावार्थ ज्ञानीने तो स्वपरनुं भेदज्ञान थयुं छे तेथी तेने पोताना ज्ञानमय भावनुं ज कर्तापणुं छे; अने अज्ञानीने स्वपरनुं भेदज्ञान नथी तेथी तेने अज्ञानमय भावनुं ज कर्तापणुं छे.

ज्ञानमय भावथी शुं थाय छे अने अज्ञानमय भावथी शुं थाय छे ते हवे कहे छेः

अज्ञानमय अज्ञानीनो, तेथी करे ते कर्मने;
पण ज्ञानमय छे ज्ञानीनो, तेथी करे नहि कर्मने. १२७.

गाथार्थ [ अज्ञानिनः ] अज्ञानीने [ अज्ञानमयः ] अज्ञानमय [ भावः ] भाव छे [ तेन ] तेथी अज्ञानी [ कर्माणि ] कर्मोने [ करोति ] करे छे, [ ज्ञानिनः तु ] अने ज्ञानीने तो [ ज्ञानमयः ] ज्ञानमय (भाव) छे [ तस्मात् तु ] तेथी ज्ञानी [ कर्माणि ] कर्मोने [ न करोति ] करतो नथी.

टीका अज्ञानीने, सम्यक् प्रकारे स्वपरनो विवेक नहि होवाने लीधे भिन्न


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एव भावः स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयोरेकत्वाध्यासेन ज्ञानमात्रात्स्वस्मात्प्रभ्रष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रवर्तिताहङ्कारः स्वयं किलैषोऽहं रज्ये रुष्यामीति रज्यते रुष्यति च; तस्मादज्ञानमयभावादज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति कर्माणि

ज्ञानिनस्तु सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मात् ज्ञानमय एव भावः स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयोर्नानात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहङ्कारः स्वयं किल केवलं जानात्येव, न रज्यते, न च रुष्यति; तस्मात् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानमकुर्वन्न करोति कर्माणि


आत्मानी ख्याति अत्यंत अस्त थई गई होवाथी, अज्ञानमय भाव ज होय छे, अने ते होतां (होवाथी), स्वपरना एकत्वना अध्यासने लीधे ज्ञानमात्र एवा पोतामांथी (आत्मस्वरूपमांथी) भ्रष्ट थयेलो, पर एवा रागद्वेष साथे एक थईने जेने अहंकार प्रवर्त्यो छे एवो पोते ‘आ हुं खरेखर रागी छुं, द्वेषी छुं (अर्थात् आ हुं राग करुं छुं, द्वेष करुं छुं)’ एम (मानतो थको) रागी अने द्वेषी थाय छे; तेथी अज्ञानमय भावने लीधे अज्ञानी पोताने पर एवा रागद्वेषरूप करतो थको कर्मोने करे छे.

ज्ञानीने तो, सम्यक् प्रकारे स्वपरना विवेक वडे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत उदय पामी होवाथी, ज्ञानमय भाव ज होय छे, अने ते होतां, स्वपरना नानात्वना विज्ञानने लीधे ज्ञानमात्र एवा पोतामां सुनिविष्ट (सम्यक् प्रकारे स्थिति) थयेलो, पर एवा रागद्वेषथी पृथग्भूतपणाने ( भिन्नपणाने) लीधे निजरसथी ज जेने अहंकार निवृत्त थयो छे एवो पोते खरेखर केवळ जाणे ज छे, रागी अने द्वेषी थतो नथी (अर्थात् राग अने द्वेष करतो नथी); तेथी ज्ञानमय भावने लीधे ज्ञानी पोताने पर एवा रागद्वेषरूप नहि करतो थको कर्मोने करतो नथी.

भावार्थ आ आत्माने क्रोधादिक मोहनीय कर्मनी प्रकृतिनो (अर्थात् रागद्वेषनो) उदय आवतां, पोताना उपयोगमां तेनो रागद्वेषरूप मलिन स्वाद आवे छे. अज्ञानीने स्वपरनुं भेदज्ञान नहि होवाथी ते एम माने छे के ‘‘आ रागद्वेषरूप मलिन उपयोग छे ते ज मारुं स्वरूप छेते ज हुं छुं’’. आम रागद्वेषमां अहंबुद्धि करतो अज्ञानी पोताने रागीद्वेषी करे छे; तेथी ते कर्मोने करे छे. आ प्रमाणे अज्ञानमय भावथी कर्मबंध थाय छे.

ज्ञानीने भेदज्ञान होवाथी ते एम जाणे छे के ‘‘ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग छे ते ज मारुं स्वरूप छेते ज हुं छुं; रागद्वेष छे ते कर्मनो रस छेमारुं स्वरूप नथी’’. आम रागद्वेषमां अहंबुद्धि नहि करतो ज्ञानी पोताने रागीद्वेषी करतो नथी, केवळ ज्ञाता ज रहे छे; तेथी ते


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(आर्या)
ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेत् ज्ञानिनो न पुनरन्यः
अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः ।।६६।।
णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो
जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया ।।१२८।।
अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो
जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ।।१२९।।
ज्ञानमयाद्भावात् ज्ञानमयश्चैव जायते भावः
यस्मात्तस्माज्ज्ञानिनः सर्वे भावाः खलु ज्ञानमयाः ।।१२८।।

कर्मोने करतो नथी. आ प्रमाणे ज्ञानमय भावथी कर्मबंध थतो नथी.

हवे आगळनी गाथाना अर्थनी सूचनारूप काव्य कहे छे

श्लोकार्थ[ ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत् ] अहीं प्रश्न छे के ज्ञानीने केम ज्ञानमय ज भाव होय [ पुनः ] अने [ अन्यः न ] अन्य (अर्थात् अज्ञानमय) न होय? [ अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः ] वळी अज्ञानीने केम सर्व भाव अज्ञानमय ज होय अने [ अन्यः न ] अन्य (अर्थात् ज्ञानमय) न होय? ६६.

आ ज प्रश्नना उत्तररूप गाथा कहे छे

वळी ज्ञानमय को भावमांथी ज्ञानभाव ज ऊपजे,
ते कारणे ज्ञानी तणा सौ भाव ज्ञानमयी खरे; १२८.
अज्ञानमय को भावथी अज्ञानभाव ज ऊपजे,
ते कारणे अज्ञानीना अज्ञानमय भावो बने. १२९.

गाथार्थः[ यस्मात् ] कारण के [ ज्ञानमयात् भावात् च ] ज्ञानमय भावमांथी [ ज्ञानमयः एव ] ज्ञानमय ज [ भावः ] भाव [ जायते ] उत्पन्न थाय छे [ तस्मात् ] तेथी [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीना [ सर्वे भावाः ] सर्व भावो [ खलु ] खरेखर [ ज्ञानमयाः ] ज्ञानमय ज होय छे. [ च ] अने, [ यस्मात् ] कारण के [ अज्ञानमयात् भावात् ] अज्ञानमय भावमांथी [ अज्ञानः एव ] अज्ञानमय


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अज्ञानमयाद्भावादज्ञानश्चैव जायते भावः
यस्मात्तस्माद्भावा अज्ञानमया अज्ञानिनः ।।१२९।।

यतो ह्यज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽप्यज्ञानमयत्वमनति- वर्तमानोऽज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एवाज्ञानमया अज्ञानिनो भावाः यतश्च ज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽपि ज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानो ज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एव ज्ञानमया ज्ञानिनो भावाः

(अनुष्टुभ्)
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि
सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ।।६७।।

[ भावः ] भाव [ जायते ] उत्पन्न थाय छे [ तस्मात् ] तेथी [ अज्ञानिनः ] अज्ञानीना [ भावाः ] भावो [ अज्ञानमयाः ] अज्ञानमय ज होय छे.

टीकाःखरेखर अज्ञानमय भावमांथी जे कोई पण भाव थाय छे ते सघळोय अज्ञानमयपणाने नहि उल्लंघतो थको अज्ञानमय ज होय छे, तेथी अज्ञानीना भावो बधाय अज्ञानमय होय छे. अने ज्ञानमय भावमांथी जे कोई पण भाव थाय छे ते सघळोय ज्ञानमयपणाने नहि उल्लंघतो थको ज्ञानमय ज होय छे, तेथी ज्ञानीना भावो बधाय ज्ञानमय होय छे.

भावार्थःज्ञानीनुं परिणमन अज्ञानीना परिणमन करतां जुदी ज जातनुं छे. अज्ञानीनुं परिणमन अज्ञानमय छे, ज्ञानीनुं ज्ञानमय छे; तेथी अज्ञानीना क्रोध, मान, व्रत, तप इत्यादि सर्व भावो अज्ञानजातिने उल्लंघता नहि होवाथी अज्ञानमय ज छे अने ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानजातिने उल्लंघता नहि होवाथी ज्ञानमय ज छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ ज्ञानिनः ] ज्ञानीना [ सर्वे भावाः ] सर्व भावो [ ज्ञाननिर्वृत्ताः हि ] ज्ञानथी नीपजेला (रचायेला) [ भवन्ति ] होय छे [ तु ] अने [ अज्ञानिनः ] अज्ञानीना [ सर्वे अपि ते ] सर्व भावो [ अज्ञाननिर्वृत्ताः ] अज्ञानथी नीपजेला (रचायेला) [ भवन्ति ] होय छे. ६७.


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अथैतदेव दृष्टान्तेन समर्थयते
कणयमया भावादो जायंते कुंडलादओ भावा
अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी ।।१३०।।
अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायंते
णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति ।।१३१।।
कनकमयाद्भावाज्जायन्ते कुण्डलादयो भावाः
अयोमयकाद्भावाद्यथा जायन्ते तु कटकादयः ।।१३०।।
अज्ञानमया भावा अज्ञानिनो बहुविधा अपि जायन्ते
ज्ञानिनस्तु ज्ञानमयाः सर्वे भावास्तथा भवन्ति ।।१३१।।

यथा खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, कारणानुविधायित्वात् कार्याणां, जाम्बूनदमयाद्भावाज्जाम्बूनदजातिमनतिवर्तमाना जाम्बूनदकुण्डलादय एव भावा

हवे आ अर्थने द्रष्टांतथी द्रढ करे छेः

ज्यम कनकमय को भावमांथी कुंडलादिक ऊपजे,
पण लोहमय को भावथी कटकादि भावो नीपजे; १३०.
त्यम भाव बहुविध ऊपजे अज्ञानमय अज्ञानीने,
पण ज्ञानीने तो सर्व भावो ज्ञानमय एम ज बने. १३१.

गाथार्थः[ यथा ] जेम [ कनकमयात् भावात् ] सुवर्णमय भावमांथी [ कुण्डलादयः भावाः ] सुवर्णमय कुंडळ वगेरे भावो [ जायन्ते ] थाय छे [ तु ] अने [ अयोमयकात् भावात् ] लोहमय भावमांथी [ कटकादयः ] लोहमय कडां वगेरे भावो [ जायन्ते ] थाय छे, [ तथा ] तेम [ अज्ञानिनः ] अज्ञानीने (अज्ञानमय भावमांथी) [ बहुविधाः अपि ] अनेक प्रकारना [ अज्ञानमयाः भावाः ] अज्ञानमय भावो [ जायन्ते ] थाय छे [ तु ] अने [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीने (ज्ञानमय भावमांथी) [ सर्वे ] सर्व [ ज्ञानमयाः भावाः ] ज्ञानमय भावो [ भवन्ति ] थाय छे.

टीकाःजेवी रीते पुद्गल स्वयं परिणामस्वभाववाळुं होवा छतां, कारण जेवां कार्यो थतां होवाथी, सुवर्णमय भावमांथी, सुवर्णजातिने नहि उल्लंघता एवा सुवर्णमय कुंडळ आदि


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भवेयुः, न पुनः कालायसवलयादयः, कालायसमयाद्भावाच्च कालायसजातिमनतिवर्तमानाः कालायसवलयादय एव भवेयुः, न पुनर्जाम्बूनदकुण्डलादयः तथा जीवस्य स्वयं परिणाम- स्वभावत्वे सत्यपि, कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां, अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भावादज्ञान- जातिमनतिवर्तमाना विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनर्ज्ञानमयाः, ज्ञानिनश्च स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमानाः सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनरज्ञानमयाः


भावो ज थाय परंतु लोखंडमय कडां आदि भावो न थाय, अने लोखंडमय भावमांथी, लोखंडजातिने नहि उल्लंघता एवा लोखंडमय कडां आदि भावो ज थाय परंतु सुवर्णमय कुंडळ आदि भावो न थाय; तेवी रीते जीव स्वयं परिणामस्वभाववाळो होवा छतां, कारण जेवां ज कार्यो थतां होवाथी, अज्ञानीनेके जे पोते अज्ञानमय भाव छे तेनेअज्ञानमय भावमांथी, अज्ञानजातिने नहि उल्लंघता एवा अनेक प्रकारना अज्ञानमय भावो ज थाय परंतु ज्ञानमय भावो न थाय, अने ज्ञानीनेके जे पोते ज्ञानमय भाव छे तेनेज्ञानमय भावमांथी, ज्ञाननी जातिने नहि उल्लंघता एवा सर्व ज्ञानमय भावो ज थाय परंतु अज्ञानमय भावो न थाय.

भावार्थः‘जेवुं कारण होय तेवुं ज कार्य थाय छे’ ए न्याये जेम लोखंडमांथी लोखंडमय कडां वगेरे वस्तुओ थाय छे अने सुवर्णमांथी सुवर्णमय आभूषणो थाय छे, तेम अज्ञानी पोते अज्ञानमय भाव होवाथी तेने (अज्ञानमय भावमांथी) अज्ञानमय भावो ज थाय छे अने ज्ञानी पोते ज्ञानमय भाव होवाथी तेने (ज्ञानमय भावमांथी) ज्ञानमय भावो ज थाय छे.

अज्ञानीने शुभाशुभ भावोमां आत्मबुद्धि होवाथी तेना सर्व भावो अज्ञानमय ज छे.

अविरत सम्यग्द्रष्टि(ज्ञानी)ने जोके चारित्रमोहना उदये क्रोधादिक भावो प्रवर्ते छे तोपण तेने ते भावोमां आत्मबुद्धि नथी, ते तेमने परना निमित्तथी थयेली उपाधि माने छे. तेने क्रोधादिक कर्मो उदयमां आवीने खरी जाय छेआगामी एवो बंध करतां नथी के जेथी संसारनुं भ्रमण वधे; कारण के (ज्ञानी) पोते उद्यमी थईने क्रोधादिभावरूपे परिणमतो नथी अने जोके उदयनी बळजोरीथी परिणमे छे तोपण ज्ञातापणुं चूकीने परिणमतो नथी; ज्ञानीनुं स्वामित्व निरंतर ज्ञानमां ज वर्ते छे तेथी ते क्रोधादिभावोनो अन्य ज्ञेयोनी माफक ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. आ रीते ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानमय ज छे.


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(अनुष्टुभ्)
अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकाम्
द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम् ।।६८।।
अण्णाणस्स स उदओ जा जीवाणं अतच्चउवलद्धी
मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असद्दहाणत्तं ।।१३२।।
उदओ असंजमस्स दु जं जीवाणं हवेइ अविरमणं
जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ ।।१३३।।
तं जाण जोगउदयं जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो
सोहणमसोहणं वा कायव्वो विरदिभावो वा ।।१३४।।
एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु
परिणमदे अट्ठविहं णाणावरणादिभावेहिं ।।१३५।।

हवे आगळनी गाथानी सूचनाना अर्थरूप श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[ अज्ञानी ] अज्ञानी [ अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाम् ] (पोताना) अज्ञानमय भावोनी भूमिकामां [ व्याप्य ] व्यापीने [ द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम् ] (आगामी) द्रव्यकर्मनां निमित्त जे (अज्ञानादिक) भावो तेमना [ हेतुताम् एति ] हेतुपणाने पामे छे (अर्थात् द्रव्यकर्मनां निमित्तरूप भावोनो हेतु बने छे). ६८.

आ ज अर्थ पांच गाथाओथी कहे छेः

अज्ञान तत्त्व तणुं जीवोने, उदय ते अज्ञाननो,
अप्रतीत तत्त्वनी जीवने जे, उदय ते मिथ्यात्वनो; १३२.
जीवने अविरतभाव जे, ते उदय अणसंयम तणो,
जीवने कलुष उपयोग जे, ते उदय जाण कषायनो; १३३.
शुभ के अशुभ प्रवृत्ति के निवृत्तिनी चेष्टा तणो
उत्साह वर्ते जीवने, ते उदय जाण तुं योगनो. १३४.
आ हेतुभूत ज्यां थाय, त्यां कार्मणवरगणारूप जे,
ते अष्टविध ज्ञानावरणइत्यादिभावे परिणमे; १३५.
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