Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 93-105 ; Punya-Pap Adhikar; Gatha: 145-155.

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(शार्दूलविक्रीडित)
आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना
सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम्
विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान्
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किञ्चनैकोऽप्ययम्
।।९३।।
(शार्दूलविक्रीडित)
दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात्
विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्माहरन्
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत्
।।९४।।

अने ‘सम्यग्ज्ञान’ एवां नाम पामे छे; सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कांई अनुभवथी जुदां नथी.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ नयानां पक्षैः विना ] नयोना पक्षो रहित, [ अचलं अविकल्पभावम् ] अचळ निर्विकल्पभावने [ आक्रामन् ] पामतो [ यः समयस्य सारः भाति ] जे समयनो (आत्मानो) सार प्रकाशे छे [ सः एषः ] ते आ समयसार (शुद्ध आत्मा)[ निभृतैः स्वयम् आस्वाद्यमानः ] के जे निभृत (निश्चळ, आत्मलीन) पुरुषो वडे स्वयं आस्वाद्यमान छे (आस्वाद लेवाय छे, अनुभवाय छे) ते[ विज्ञान-एक-रसः भगवान् ] विज्ञान ज जेनो एक रस छे एवो भगवान छे, [ पुण्यः पुराणः पुमान् ] पवित्र पुराण पुरुष छे; [ ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं ] ज्ञान कहो के दर्शन कहो ते आ (समयसार) ज छे; [ अथवा किम् ] अथवा वधारे शुं कहीए? [ यत् किञ्चन अपि अयम् एकः ] जे कांई छे ते आ एक ज छे (मात्र जुदां जुदां नामथी कहेवाय छे). ९३.

आ आत्मा ज्ञानथी च्युत थयो हतो ते ज्ञानमां ज आवी मळे छे एम हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[ तोयवत् ] जेम पाणी पोताना समूहथी च्युत थयुं थकुं दूर गहन वनमां भमतुं होय तेने दूरथी ज ढाळवाळा मार्ग द्वारा पोताना समूह तरफ बळथी वाळवामां आवे; पछी ते पाणी, पाणीने पाणीना समूह तरफ खेंचतुं थकुं प्रवाहरूप थईने, पोताना समूहमां आवी मळे; तेवी रीते [ अयं ] आ आत्मा [ निज-ओघात् च्युतः ] पोताना विज्ञानघनस्वभावथी च्युत थयो थको [ भूरि-विकल्प-जाल-गहने दूरं भ्राम्यन् ] प्रचुर विकल्पजाळना गहन वनमां दूर भमतो हतो तेने [ दूरात् एव ] दूरथी ज [ विवेक-निम्न-गमनात् ] विवेकरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा


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(अनुष्टुभ्)
विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम्
न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति ।।९५।।
(रथोद्धता)
यः करोति स करोति केवलं
यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम्
यः करोति न हि वेत्ति स क्वचित्
यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित्
।।९६।।

[ निज-ओघं बलात् नीतः ] पोताना विज्ञानघनस्वभाव तरफ बळथी वाळवामां आव्यो; [ तद्-एक- रसिनाम् ] केवळ विज्ञानघनना ज रसीला पुरुषोने [ विज्ञान-एक-रसः आत्मा ] जे एक विज्ञानरसवाळो ज अनुभवाय छे एवो ते आत्मा, [ आत्मानम् आत्मनि एव आहरन् ] आत्माने आत्मामां ज खेंचतो थको (अर्थात् ज्ञान ज्ञानने खेंचतुं थकुं प्रवाहरूप थईने), [ सदा गतानुगतताम् आयाति ] सदा विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे.

भावार्थःजेम जळ, जळना निवासमांथी कोई मार्गे बहार नीकळी वनमां अनेक जग्याए भमे; पछी कोई ढाळवाळा मार्ग द्वारा, जेम हतुं तेम पोताना निवासस्थानमां आवी मळे; तेवी रीते आत्मा पण मिथ्यात्वना मार्गे स्वभावथी बहार नीकळी विकल्पोना वनमां भ्रमण करतो थको कोई भेदज्ञानरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा पोते ज पोताने खेंचतो पोताना विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे. ९४.

हवे कर्ताकर्म अधिकारनो उपसंहार करतां, केटलांक कळशरूप काव्यो कहे छे; तेमां प्रथम कळशमां कर्ता अने कर्मनुं संक्षिप्त स्वरूप कहे छेः

श्लोकार्थः[ विकल्पकः परं कर्ता ] विकल्प करनार ज केवळ कर्ता छे अने [ विकल्पः केवलम् कर्म ] विकल्प ज केवळ कर्म छे; (बीजां कोई कर्ता-कर्म नथी;) [ सविकल्पस्य ] जे जीव विकल्पसहित छे तेनुं [ कर्तृकर्मत्वं ] कर्ताकर्मपणुं [ जातु ] कदी [ नश्यति न ] नाश पामतुं नथी.

भावार्थःज्यां सुधी विकल्पभाव छे त्यां सुधी कर्ताकर्मभाव छे; ज्यारे विकल्पनो अभाव थाय त्यारे कर्ताकर्मभावनो पण अभाव थाय छे. ९५.

जे करे छे ते करे ज छे, जे जाणे छे ते जाणे ज छेएम हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[ यः करोति सः केवलं करोति ] जे करे छे ते केवळ करे ज छे


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(इन्द्रवज्रा)
ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः
ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः
ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने
ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च
।।९७।।

[ तु ] अने [ यः वेत्ति सः तु केवलम् वेत्ति ] जे जाणे छे ते केवळ जाणे ज छे; [ यः करोति सः क्वचित् न हि वेत्ति ] जे करे छे ते कदी जाणतो नथी [ तु ] अने [ यः वेत्ति सः क्वचित् न करोति ] जे जाणे छे ते कदी करतो नथी.

भावार्थःकर्ता छे ते ज्ञाता नथी अने ज्ञाता छे ते कर्ता नथी. ९६.

एवी ज रीते करवारूप क्रिया अने जाणवारूप क्रिया बन्ने भिन्न छे एम हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[ करोतौ अन्तः ज्ञप्तिः न हि भासते ] करवारूप क्रियानी अंदरमां जाणवारूप क्रिया भासती नथी [ च ] अने [ ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते ] जाणवारूप क्रियानी अंदरमां करवारूप क्रिया भासती नथी; [ ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने ] माटे ज्ञप्तिक्रिया अने ‘करोति’- क्रिया बन्ने भिन्न छे; [ च ततः इति स्थितं ] अने तेथी एम ठर्युं के [ ज्ञाता क र्ता न ] जे ज्ञाता छे ते कर्ता नथी.

भावार्थः‘हुं परद्रव्यने करुं छुं’ एम ज्यारे आत्मा परिणमे छे त्यारे तो कर्ताभावरूप परिणमनक्रिया करतो होवाथी अर्थात् ‘करोति’क्रिया करतो होवाथी कर्ता ज छे अने ज्यारे ‘हुं परद्रव्यने जाणुं छुं’ एम परिणमे छे त्यारे ज्ञाताभावे परिणमतो होवाथी अर्थात् ज्ञप्तिक्रिया करतो होवाथी ज्ञाता ज छे.

अहीं कोई पूछे छे के अविरत-सम्यग्द्रष्टि आदिने ज्यां सुधी चारित्रमोहनो उदय छे त्यां सुधी ते कषायरूपे परिणमे छे तो तेने कर्ता कहेवाय के नहि? तेनुं समाधानःअविरत

सम्यग्द्रष्टि वगेरेने श्रद्धा-ज्ञानमां परद्रव्यना स्वामीपणारूप कर्तापणानो अभिप्राय नथी;

कषायरूप परिणमन छे ते उदयनी बळजोरीथी छे; तेनो ते ज्ञाता छे; तेथी अज्ञान संबंधी कर्तापणुं तेने नथी. निमित्तनी बळजोरीथी थता परिणमननुं फळ किंचित् होय छे ते संसारनुं कारण नथी. जेम वृक्षनी जड काप्या पछी ते वृक्ष किंचित् काळ रहे अथवा न रहेक्षणे क्षणे तेनो नाश ज थतो जाय छे, तेम अहीं समजवुं. ९७.


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(शार्दूलविक्रीडित)
कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि
द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः
ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति-
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम्
।।९८।।
अथवा नानटयतां, तथापि
(मन्दाक्रान्ता)
कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव
ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि
ज्ञानज्योतिर्ज्वलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथोच्चै-
श्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत्
।।९९।।

फरीने ए ज वातने द्रढ करे छेः

श्लोकार्थः[ कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति ] कर्ता नक्की कर्ममां नथी, अने कर्म छे ते पण नक्की कर्तामां नथी[ यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते ] एम जो बन्नेनो परस्पर निषेध करवामां आवे छे [ तदा कर्तृकर्मस्थितिः का ] तो कर्ताकर्मनी स्थिति शी? (अर्थात् जीव-पुद्गलने कर्ताकर्मपणुं न ज होई शके.) [ ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि ] आ प्रमाणे ज्ञाता सदा ज्ञातामां ज छे अने कर्म सदा कर्ममां ज छे [ इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता ] एवी वस्तुस्थिति प्रगट छे [ तथापि बत ] तोपण अरे! [ नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति ] नेपथ्यमां आ मोह केम अत्यंत जोरथी नाची रह्यो छे? (एम आचार्यने खेद अने आश्चर्य थाय छे.)

भावार्थःकर्म तो पुद्गल छे, तेनो कर्ता जीवने कहेवामां आवे ते असत्य छे. ते बन्नेने अत्यंत भेद छे, जीव पुद्गलमां नथी अने पुद्गल जीवमां नथी; तो पछी तेमने कर्ताकर्मभाव केम होई शके? माटे जीव तो ज्ञाता छे ते ज्ञाता ज छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता नथी; अने पुद्गलकर्म छे ते पुद्गल ज छे, ज्ञातानुं कर्म नथी. आचार्ये खेदपूर्वक कह्युं छे केआम प्रगट भिन्न द्रव्यो छे तोपण ‘हुं कर्ता छुं अने आ पुद्गल मारुं कर्म छे’ एवो अज्ञानीनो आ मोह (अज्ञान) केम नाचे छे? ९८.

अथवा जो मोह नाचे छे तो भले नाचो; तथापि वस्तुस्वरूप तो जेवुं छे तेवुं ज छेएम हवे कहे छेः

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इति जीवाजीवौ कर्तृकर्मवेषविमुक्तौ निष्क्रान्तौ

इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ कर्तृकर्मप्ररूपकः द्वितीयोऽङ्कः ।।

श्लोकार्थः[ अचलं ] अचळ, [ व्यक्तं ] व्यक्त अने [ चित्-शक्तीनां निकर-भरतः अत्यन्त- गम्भीरम् ] चित्शक्तिओना (ज्ञानना अविभागपरिच्छेदोना) समूहना भारथी अत्यंत गंभीर [ एतत् ज्ञानज्योतिः ] आ ज्ञानज्योति [ अन्तः ] अंतरंगमां [ उच्चैः ] उग्रपणे [ तथा ज्वलितम् ] एवी रीते जाज्वल्यमान थई के[ यथा कर्ता कर्ता न भवति ] आत्मा अज्ञानमां कर्ता थतो हतो ते हवे कर्ता थतो नथी अने [ कर्म कर्म अपि न एव ] अज्ञानना निमित्ते पुद्गल कर्मरूप थतुं हतुं ते कर्मरूप थतुं नथी; [ यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च ] वळी ज्ञान ज्ञानरूप ज रहे छे अने [ पुद्गलः पुद्गलः अपि ] पुद्गल पुद्गलरूप ज रहे छे.

भावार्थःआत्मा ज्ञानी थाय त्यारे ज्ञान तो ज्ञानरूप ज परिणमे छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता थतुं नथी; वळी पुद्गल पुद्गल ज रहे छे, कर्मरूपे परिणमतुं नथी. आम यथार्थ ज्ञान थये बन्ने द्रव्यना परिणामने निमित्तनैमित्तिकभाव थतो नथी. आवुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टिने होय छे. ९९.

टीकाःआ प्रमाणे जीव अने अजीव कर्ताकर्मनो वेश छोडीने बहार नीकळी गया.

भावार्थःजीव अने अजीव बन्ने कर्ता-कर्मनो वेश धारण करी एक थईने रंगभूमिमां दाखल थया हता. सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान के जे यथार्थ देखनारुं छे तेणे ज्यारे तेमनां जुदां जुदां लक्षणथी एम जाणी लीधुं के तेओ एक नथी पण बे छे, त्यारे तेओ वेश दूर करी रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गया. बहुरूपीनुं एवुं प्रवर्तन होय छे के देखनार ज्यां सुधी ओळखे नहि त्यां सुधी चेष्टा कर्या करे, परंतु ज्यारे यथार्थ ओळखी ले त्यारे निज रूप प्रगट करी चेष्टा करवी छोडी दे. तेवी रीते अहीं पण जाणवुं.

जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय बणै करता सो,
ताकरि बंधन आन तणूं फल ले सुख दुःख भवाश्रमवासो;
ज्ञान भये करता न बने तब बंध न होय खुलै परपासो,
आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां कर्ताकर्मनो प्ररूपक बीजो अंक समाप्त थयो.

❋ ❋ ❋

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-३-
पुण्य-पाप अधिकार
अथैकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति
(द्रुतविलम्बित)
तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो
द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन्
ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं
स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः
।।१००।।
पुण्य-पाप बन्ने करम, बंधरूप र्दु मानी;
शुद्धात्मा जेणे लह्यो, नमुं चरण हित जाणी.

प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे एक ज कर्म बे पात्ररूप थईने पुण्य-पापरूपे प्रवेश करे छे’.

जेम नृत्यना अखाडामां एक ज पुरुष पोताने बे रूपे बतावी नाचतो होय तेने यथार्थ जाणनार ओळखी ले छे अने एक ज जाणे छे, तेवी रीते जोके कर्म एक ज छे तोपण पुण्य-पापना भेदे बे प्रकारनां रूप करी नाचे छे तेने, सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान के जे यथार्थ छे ते एकरूप जाणी ले छे. ते ज्ञानना महिमानुं काव्य आ अधिकारनी शरूआतमां टीकाकार आचार्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ अथ ] हवे (कर्ताकर्म अधिकार पछी), [ शुभ-अशुभ-भेदतः ] शुभ अने अशुभना भेदने लीधे [ द्वितयतां गतम् तत् कर्म ] बे-पणाने पामेला ते कर्मने [ ऐक्यम् उपानयन् ] एकरूप करतो, [ ग्लपित-निर्भर-मोहरजा ] जेणे अत्यंत मोहरजने दूर करी छे एवो [ अयं अवबोध-सुधाप्लवः ] आ (प्रत्यक्षअनुभवगोचर) ज्ञान-सुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चंद्रमा) [ स्वयम् ] स्वयं [ उदेति ] उदय पामे छे.


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(मन्दाक्रान्ता)
एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना-
दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव
द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण
।।१०१।।
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं
कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ।।१४५।।

भावार्थःअज्ञानथी एक ज कर्म बे प्रकारनुं देखातुं हतुं तेने ज्ञाने एक प्रकारनुं बताव्युं. ज्ञानमां मोहरूपी रज लागी रही हती ते दूर करवामां आवी त्यारे यथार्थ ज्ञान थयुं; जेम चंद्रने वादळां तथा धुम्मसनुं पटल आडुं आवे त्यारे यथार्थ प्रकाश थतो नथी परंतु आवरण दूर थतां चंद्र यथार्थ प्रकाशे छे, तेवी रीते अहीं पण जाणवुं. १००.

हवे पुण्य-पापना स्वरूपना द्रष्टांतरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः(शूद्राणीना एकीसाथे जन्मेला बे पुत्रोमांथी एक ब्राह्मणने त्यां ऊछर्यो अने बीजो शूद्रना घेर ज रह्यो.) [ एकः ] एक तो [ ब्राह्मणत्व-अभिमानात् ] ‘हुं ब्राह्मण छुं’ एम ब्राह्मणत्वना अभिमानने लीधे [ मदिरां ] मदिराने [ दूरात् ] दूरथी ज [ त्यजति ] छोडे छे अर्थात् स्पर्शतो पण नथी; [ अन्यः ] बीजो [ अहम् स्वयम् शूद्रः इति ] ‘हुं पोते शूद्र छुं’ एम मानीने [ तया एव ] मदिराथी ज [ नित्यं ] नित्य [ स्नाति ] स्नान करे छे अर्थात् तेने पवित्र गणे छे. [ एतौ द्वौ अपि ] आ बन्ने पुत्रो [ शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ ] शूद्राणीना उदरथी एकीसाथे जन्म्या छे तेथी [ साक्षात् शूद्रौ ] (परमार्थे) बन्ने साक्षात् शूद्र छे, [ अपि च ] तोपण [ जातिभेद- भ्रमेण ] जातिभेदना भ्रम सहित [ चरतः ] तेओ प्रवर्ते छेआचरण करे छे. (आ प्रमाणे पुण्य- पापनुं पण जाणवुं.)

भावार्थःपुण्य-पाप बन्ने विभावपरिणतिथी ऊपज्यां होवाथी बन्ने बंधरूप ज छे. व्यवहारद्रष्टिए भ्रमने लीधे तेमनी प्रवृत्ति जुदी जुदी भासवाथी, सारुं अने खराबएम बे प्रकारे तेओ देखाय छे. परमार्थद्रष्टि तो तेमने एकरूप ज, बंधरूप ज, खराब ज जाणे छे. १०१.

हवे शुभाशुभ कर्मना स्वभावनुं वर्णन गाथामां करे छेः

छे कर्म अशुभ कुशील ने जाणो सुशील शुभकर्मने!
ते केम होय सुशील जे संसारमां दाखल करे? १४५.

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कर्म अशुभं कुशीलं शुभकर्म चापि जानीथ सुशीलम्
कथं तद्भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति ।।१४५।।

शुभाशुभजीवपरिणामनिमित्तत्वे सति कारणभेदात्, शुभाशुभपुद्गलपरिणाममयत्वे सति स्वभावभेदात्, शुभाशुभफलपाकत्वे सत्यनुभवभेदात्, शुभाशुभमोक्षबन्धमार्गाश्रितत्वे सत्याश्रय- भेदात् चैकमपि कर्म किञ्चिच्छुभं किञ्चिदशुभमिति केषाञ्चित्किल पक्षः स तु सप्रतिपक्षः तथाहिशुभोऽशुभो वा जीवपरिणामः केवलाज्ञानमयत्वादेकः, तदेकत्वे सति कारणाभेदात् एकं कर्म शुभोऽशुभो वा पुद्गलपरिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकः, तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म शुभोऽशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलमयत्वादेकः, तदेकत्वे सत्यनुभावाभेदादेकं कर्म

गाथार्थः[ अशुभं कर्म ] अशुभ कर्म [ कुशीलं ] कुशील छे (खराब छे) [ अपि च ] अने [ शुभकर्म ] शुभ कर्म [ सुशीलम् ] सुशील छे (सारुं छे) एम [ जानीथ ] तमे जाणो छो! [ तत् ] ते [ सुशीलं ] सुशील [ कथं ] केम [ भवति ] होय [ यत् ] के जे [ संसारं ] (जीवने) संसारमां [ प्रवेशयति ] प्रवेश करावे छे?

टीकाःकोई कर्मने शुभ जीवपरिणाम निमित्त होवाथी अने कोई कर्मने अशुभ जीवपरिणाम निमित्त होवाथी कर्मना कारणमां भेदतफावत छे (अर्थात् कारण जुदां जुदां छे); कोई कर्म शुभ पुद्गलपरिणाममय अने कोई कर्म अशुभ पुद्गलपरिणाममय होवाथी कर्मना स्वभावमां भेद छे; कोई कर्मनो शुभ फळरूपे अने कोई कर्मनो अशुभ फळरूपे विपाक थतो होवाथी कर्मना अनुभवमां (स्वादमां) भेद छे; कोई कर्म शुभ (सारा) एवा मोक्षमार्गने आश्रित होवाथी अने कोई कर्म अशुभ (खराब) एवा बंधमार्गने आश्रित होवाथी कर्मना आश्रयमां भेद छे. माटेजोके (परमार्थे) कर्म एक ज छे तोपणकेटलाकनो एवो पक्ष छे के कोई कर्म शुभ छे अने कोई कर्म अशुभ छे. परंतु ते (पक्ष) प्रतिपक्ष सहित छे. ते प्रतिपक्ष (अर्थात् व्यवहारपक्षनो निषेध करनार निश्चयपक्ष) आ प्रमाणे छेः

शुभ के अशुभ जीवपरिणाम केवळ अज्ञानमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना कारणमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे. शुभ के अशुभ पुद्गलपरिणाम केवळ पुद्गलमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना स्वभावमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे. शुभ के अशुभ फळरूपे थतो विपाक केवळ पुद्गलमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना अनुभवमां (स्वादमां) भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे. शुभ (सारो) एवो मोक्षमार्ग तो केवळ जीवमय होवाथी अने अशुभ (खराब) एवो बंधमार्ग तो केवळ पुद्गलमय होवाथी


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शुभाशुभौ मोक्षबन्धमार्गौ तु प्रत्येकं केवलजीवपुद्गलमयत्वादनेकौ, तदनेकत्वे सत्यपि केवल- पुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म


तेओ अनेक (जुदां जुदां, बे) छे; तेओ अनेक होवा छतां कर्म तो केवळ पुद्गलमय एवा बंधमार्गने ज आश्रित होवाथी कर्मना आश्रयमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे.

भावार्थःकोई कर्म तो अरहंतादिमां भक्ति-अनुराग, जीवो प्रत्ये अनुकंपाना परिणाम, मंद कषायथी चित्तनी उज्ज्वळता इत्यादि शुभ परिणामोना निमित्ते थाय छे अने कोई कर्म तीव्र क्रोधादिक अशुभ लेश्या, निर्दयपणुं, विषयासक्ति, देव-गुरु आदि पूज्य पुरुषो प्रत्ये विनयभावे न प्रवर्तवुं इत्यादि अशुभ परिणामोना निमित्तथी थाय छे; आम हेतुनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे. शातावेदनीय, शुभ-आयु, शुभनाम अने शुभगोत्रए कर्मोना परिणाम(प्रकृति वगेरे)मां तथा चार घातिकर्मो, अशातावेदनीय, अशुभ-आयु, अशुभनाम, अशुभगोत्रए कर्माेना परिणाम(प्रकृति वगेरेमां)मां भेद छे; आम स्वभावनो भेद होवाथी कर्मना शुभ ने अशुभ एवा बे भेद छे. कोई कर्मना फळनो अनुभव सुखरूप छे अने कोई कर्मना फळनो अनुभव दुःखरूप छे; आम अनुभवनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे. कोई कर्म मोक्षमार्गने आश्रित छे (अर्थात् मोक्षमार्गमां बंधाय छे) अने कोई कर्म बंधमार्गना आश्रये छे; आम आश्रयनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे. आ प्रमाणे हेतु, स्वभाव, अनुभव अने आश्रय ए चार प्रकारे कर्ममां भेद होवाथी कोई कर्म शुभ छे अने कोई अशुभ छे एम केटलाकनो पक्ष छे.

हवे ए भेदपक्षनो निषेध करवामां आवे छेःजीवना शुभ अने अशुभ परिणाम बन्ने अज्ञानमय छे तेथी कर्मनो हेतु एक अज्ञान ज छे; माटे कर्म एक ज छे. शुभ अने अशुभ पुद्गलपरिणामो बन्ने पुद्गलमय ज छे तेथी कर्मनो स्वभाव एक पुद्गलपरिणामरूप ज छे; माटे कर्म एक ज छे. सुखरूप अने दुःखरूप अनुभव बन्ने पुद्गलमय ज छे तेथी कर्मनो अनुभव एक पुद्गलमय ज छे; माटे कर्म एक ज छे. मोक्षमार्ग अने बंधमार्गमां, मोक्षमार्ग तो केवळ जीवना परिणाममय ज छे अने बंधमार्ग केवळ पुद्गलना परिणाममय ज छे तेथी कर्मनो आश्रय केवळ बंधमार्ग ज छे (अर्थात् कर्म एक बंधमार्गना आश्रये ज थाय छेमोक्षमार्गमां थतां नथी); माटे कर्म एक ज छे.

आ प्रमाणे कर्मना शुभाशुभ भेदना पक्षने गौण करी तेनो निषेध कर्यो; कारण के अहीं अभेदपक्ष प्रधान छे, अने अभेदपक्षथी जोवामां आवे तो कर्म एक ज छेबे नथी.


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(उपजाति)
हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां
सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः
तद्बन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं
स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः
।।१०२।।
अथोभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति
सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं
बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।१४६।।
सौवर्णिकमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम्
बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ।।१४६।।

शुभमशुभं च कर्माविशेषेणैव पुरुषं बध्नाति, बन्धत्वाविशेषात्, काञ्चनकालायसनिगलवत्

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ हेतु-स्वभाव-अनुभव-आश्रयाणां ] हेतु, स्वभाव, अनुभव अने आश्रय ए चारनो (अर्थात् ए चार प्रकारे) [ सदा अपि ] सदाय [ अभेदात् ] अभेद होवाथी [ न हि कर्मभेदः ] कर्ममां निश्चयथी भेद नथी; [ तद् समस्तं स्वयं ] माटे समस्त कर्म पोते [ खलु ] निश्चयथी [ बन्धमार्ग-आश्रितम् ] बंधमार्गने आश्रित होवाथी अने [ बन्धहेतुः ] बंधनुं कारण होवाथी, [ एकम् इष्टं ] कर्म एक ज मानवामां आव्युं छेएक ज मानवुं योग्य छे. १०२.

हवे, (शुभ-अशुभ) बन्ने कर्मो अविशेषपणे (कांई तफावत विना) बंधनां कारण छे एम सिद्ध करे छेः

ज्यम लोहनुं त्यम कनकनुं जंजीर जकडे पुरुषने,
एवी रीते शुभ के अशुभ कृत कर्म बांधे जीवने. १४६.

गाथार्थः[ यथा ] जेम [ सौवर्णिकम् ] सुवर्णनी [ निगलं ] बेडी [ अपि ] पण [ पुरुषम् ] पुरुषने [ बध्नाति ] बांधे छे अने [ कालायसम् ] लोखंडनी [ अपि ] पण बांधे छे, [ एवं ] तेवी रीते [ शुभम् वा अशुभम् ] शुभ तेम ज अशुभ [ कृतं कर्म ] करेलुं कर्म [ जीवं ] जीवने [ बध्नाति ] (अविशेषपणे) बांधे छे.

टीकाःजेम सुवर्णनी अने लोखंडनी बेडी कांई पण तफावत विना पुरुषने बांधे छे


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अथोभयं कर्म प्रतिषेधयति
तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुणह मा व संसग्गं
साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ।।१४७।।
तस्मात्तु कुशीलाभ्यां च रागं मा कुरुत मा वा संसर्गम्
स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलसंसर्गरागेण ।।१४७।।

कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ, बन्धहेतुत्वात्, कुशीलमनोरमा- मनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत्

अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टान्तेन समर्थयते कारण के बंधनपणानी अपेक्षाए तेमनामां तफावत नथी, तेवी रीते शुभ अने अशुभ कर्म कांई पण तफावत विना पुरुषने (जीवने) बांधे छे कारण के बंधपणानी अपेक्षाए तेमनामां तफावत नथी.

हवे बन्ने कर्मोनो निषेध करे छेः

तेथी करो नहि राग के संसर्ग ए कुशीलो तणो,
छे कुशीलना संसर्ग-रागे नाश स्वाधीनता तणो. १४७.

गाथार्थः[ तस्मात् तु ] माटे [ कुशीलाभ्यां ] ए बन्ने कुशीलो साथे [ रागं ] राग [ मा कुरुत ] न करो [ वा ] अथवा [ संसर्गम् च ] संसर्ग पण [ मा ] न करो [ हि ] कारण के [ कुशीलसंसर्गरागेण ] कुशील साथे संसर्ग अने राग करवाथी [ स्वाधीनः विनाशः ] स्वाधीनतानो नाश थाय छे (अथवा तो पोतानो घात पोताथी ज थाय छे).

टीकाःजेम कुशील (खराब) एवी मनोरम अने अमनोरम हाथणीरूप कूटणी साथे राग अने संसर्ग (हाथीने) बंधनां कारण थाय छे तेवी रीते कुशील एवां शुभ अने अशुभ कर्म साथे राग अने संसर्ग बंधनां कारण होवाथी, शुभाशुभ कर्मो साथे राग अने संसर्गनो निषेध करवामां आव्यो छे.

हवे, बन्ने कर्म निषेधवायोग्य छे ए वातनुं भगवान कुंदकुंदाचार्य पोते ज द्रष्टांतथी समर्थन करे छेः


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जह णाम को वि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता
वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च ।।१४८।।
एमेव कम्मपयडीसीलसहावं च कुच्छिदं णादुं
वज्जंति परिहरंति य तस्संसग्गं सहावरदा ।।१४९।।
यथा नाम कोऽपि पुरुषः कुत्सितशीलं जनं विज्ञाय
वर्जयति तेन समकं संसर्गं रागकरणं च ।।१४८।।
एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं च कुत्सितं ज्ञात्वा
वर्जयन्ति परिहरन्ति च तत्संसर्गं स्वभावरताः ।।१४९।।

यथा खलु कुशलः कश्चिद्वनहस्ती स्वस्य बन्धाय उपसर्प्पन्तीं चटुलमुखीं मनोरमाममनोरमां वा करेणुकुट्टनीं तत्त्वतः कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसर्गौ प्रतिषेधयति, तथा किलात्माऽरागो ज्ञानी स्वस्य बन्धाय उपसर्प्पन्तीं मनोरमाममनोरमां वा सर्वामपि कर्मप्रकृतिं

जेवी रीते को पुरुष कुत्सितशील जनने जाणीने,
संसर्ग तेनी साथ तेम ज राग करवो परितजे; १४८.
एम ज करमप्रकृतिशीलस्वभाव कुत्सित जाणीने,
निज भावमां रत राग ने संसर्ग तेनो परिहरे. १४९.

गाथार्थः[ यथा नाम ] जेम [ कोऽपि पुरुषः ] कोई पुरुष [ कुत्सितशीलं ] कुत्सित शीलवाळा अर्थात् खराब स्वभाववाळा [ जनं ] पुरुषने [ विज्ञाय ] जाणीने [ तेन समकं ] तेनी साथे [ संसर्गं च रागकरणं ] संसर्ग अने राग करवो [ वर्जयति ] छोडी दे छे, [ एवम् एव च ] तेवी ज रीते [ स्वभावरताः ] स्वभावमां रत पुरुषो [ कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं ] कर्मप्रकृतिना शील- स्वभावने [ कुत्सितं ] कुत्सित अर्थात् खराब [ ज्ञात्वा ] जाणीने [ तत्संसर्गं ] तेनी साथे संसर्ग [ वर्जयन्ति ] छोडी दे छे [ परिहरन्ति च ] अने राग छोडी दे छे.

टीकाःजेम कोई कुशळ वन-हस्ती पोताना बंधने माटे समीप आवती सुंदर मुखवाळी मनोरम के अमनोरम हाथणीरूपी कूटणीने परमार्थे बूरी जाणीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी, तेवी रीते आत्मा अरागी ज्ञानी थयो थको पोताना बंधने माटे समीप आवती (उदयमां आवती) मनोरम के अमनोरम (शुभ के अशुभ)बधीये कर्मप्रकृतिने

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तत्त्वतः कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसर्गौ प्रतिषेधयति

अथोभयं कर्म बन्धहेतुं प्रतिषेध्यं चागमेन साधयति
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।।१५०।।
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसम्प्राप्तः
एषो जिनोपदेशः तस्मात् कर्मसु मा रज्यस्व ।।१५०।।

यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बध्नीयात् विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः स सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति च


परमार्थे बूरी जाणीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी.

भावार्थःहाथीने पकडवा हाथणी राखवामां आवे छे; हाथी कामांध थयो थको ते हाथणीरूपी कूटणी साथे राग तथा संसर्ग करे छे तेथी पकडाई जईने पराधीन थईने दुःख भोगवे छे, अने जो चतुर हाथी होय तो तेनी साथे राग तथा संसर्ग करतो नथी; तेवी रीते अज्ञानी जीव कर्मप्रकृतिने सारी समजीने तेनी साथे राग तथा संसर्ग करे छे तेथी बंधमां पडी पराधीन थईने संसारनां दुःख भोगवे छे, अने जो ज्ञानी होय तो तेनी साथे राग तथा संसर्ग कदी करतो नथी.

हवे, बन्ने कर्मो बंधनां कारण छे अने निषेधवायोग्य छे एम आगमथी सिद्ध करे छेः

जीव रक्त बांधे कर्मने, वैराग्यप्राप्त मुकाय छे,
ए जिन तणो उपदेश; तेथी न राच तुं कर्मो विषे. १५०.

गाथार्थः[ रक्तः जीवः ] रागी जीव [ कर्म ] कर्म [ बध्नाति ] बांधे छे अने [ विरागसम्प्राप्तः ] वैराग्यने पामेलो जीव [ मुच्यते ] कर्मथी छूटे छे[ एषः ][ जिनोपदेशः ] जिनभगवाननो उपदेश छे; [ तस्मात् ] माटे (हे भव्य जीव!) तुं [ कर्मसु ] कर्मोमां [ मा रज्यस्व ] प्रीतिराग न कर.

टीकाः‘‘रक्त अर्थात् रागी अवश्य कर्म बांधे अने विरक्त अर्थात् विरागी ज कर्मथी छूटे’’ एवुं जे आ आगमवचन छे ते, सामान्यपणे रागीपणाना निमित्तपणाने लीधे शुभ अने अशुभ बन्ने कर्मने अविशेषपणे बंधनां कारण तरीके सिद्ध करे छे अने


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(स्वागता)
कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद्
बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात्
तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं
ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः
।।१०३।।
(शिखरिणी)
निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः
तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः
।।१०४।।

तेथी बन्ने कर्मने निषेधे छे.

आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ यद् ] कारण के [ सर्वविदः ] सर्वज्ञदेवो [ सर्वम् अपि कर्म ] समस्त (शुभ तेम ज अशुभ) कर्मने [ अविशेषात् ] अविशेषपणे [ बन्धसाधनम् ] बंधनुं साधन (कारण) [ उशन्ति ] कहे छे [ तेन ] तेथी (एम सिद्ध थयुं के सर्वज्ञदेवोए) [ सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं ] समस्त कर्मने निषेध्युं छे अने [ ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं ] ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे. १०३.

जो समस्त कर्म निषेधवामां आव्युं छे तो पछी मुनिओने शरण कोनुं रह्युं ते हवेना कळशमां कहे छेः

श्लोकार्थः[ सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् कर्मणि किल निषिद्धे ] शुभ आचरणरूप कर्म अने अशुभ आचरणरूप कर्मएवा समस्त कर्मनो निषेध करवामां आवतां अने [ नैष्कर्म्ये प्रवृत्ते ] ए रीते निष्कर्म अवस्था प्रवर्ततां, [ मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति ] मुनिओ कांई अशरण नथी; [ तदा ] (कारण के) ज्यारे निष्कर्म अवस्था (निवृत्तिअवस्था) प्रवर्ते छे त्यारे [ ज्ञाने प्रतिचरितम् ज्ञानं हि ] ज्ञानमां आचरण करतुंरमण करतुंपरिणमतुं ज्ञान ज [ एषां ] ते मुनिओने [ शरणं ] शरण छे; [ एते ] तेओ [ तत्र निरताः ] ते ज्ञानमां लीन थया थका [ परमम् अमृतं ] परम अमृतने [ स्वयं ] पोते [ विन्दन्ति ] अनुभवे छेआस्वादे छे.

भावार्थः‘सुकृत के दुष्कृतबन्नेनो निषेध करवामां आव्यो छे तो पछी मुनिओने कंई पण करवानुं नहि रहेवाथी तेओ मुनिपणुं शाना आश्रये, शा आलंबन वडे पाळी


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अथ ज्ञानं मोक्षहेतुं साधयति
परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी
तम्हि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।।१५१।।
परमार्थः खलु समयः शुद्धो यः केवली मुनिर्ज्ञानी
तस्मिन् स्थिताः स्वभावे मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ।।१५१।।

ज्ञानं हि मोक्षहेतुः, ज्ञानस्य शुभाशुभकर्मणोरबन्धहेतुत्वे सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तेः तत्तु सकलकर्मादिजात्यन्तरविविक्तचिज्जातिमात्रः परमार्थ आत्मेति यावत् स तु युगपदेकीभाव- प्रवृत्तज्ञानगमनमयतया समयः, सकलनयपक्षासङ्कीर्णैकज्ञानतया शुद्धः, केवलचिन्मात्रवस्तुतया केवली, मननमात्रभावतया मुनिः, स्वयमेव ज्ञानतया ज्ञानी, स्वस्य भवनमात्रतया स्वभावः


शके?’एम कोईने शंका थाय तो तेनुं समाधान आचार्यदेवे कर्युं छे केःसर्व कर्मनो त्याग थये ज्ञाननुं महा शरण छे. ते ज्ञानमां लीन थतां सर्व आकुळता रहित परमानंदनो भोगवटो होय छेजेनो स्वाद ज्ञानी ज जाणे छे. अज्ञानी कषायी जीव कर्मने ज सर्वस्व जाणी तेमां लीन थई रह्यो छे, ज्ञानानंदनो स्वाद नथी जाणतो. १०४.

हवे, ज्ञान मोक्षनुं कारण छे एम सिद्ध करे छेः

परमार्थ छे नकी, समय छे, शुध, केवळी, मुनि, ज्ञानी छे,
एवा स्वभावे स्थित मुनिओ मोक्षनी प्राप्ति करे. १५१.

गाथार्थः[ खलु ] निश्चयथी [ यः ] जे [ परमार्थः ] परमार्थ (परम पदार्थ) छे, [ समयः ] समय छे, [ शुद्धः ] शुद्ध छे, [ केवली ] केवळी छे, [ मुनिः ] मुनि छे, [ ज्ञानी ] ज्ञानी छे, [ तस्मिन् स्वभावे ] ते स्वभावमां [ स्थिताः ] स्थित [ मुनयः ] मुनिओ [ निर्वाणं ] निर्वाणने [ प्राप्नुवन्ति ] पामे छे.

टीकाःज्ञान मोक्षनुं कारण छे, केम के ज्ञान शुभाशुभ कर्मोना बंधनुं कारण नहि होवाथी तेने ए रीते मोक्षनुं कारणपणुं बने छे. ते ज्ञान, समस्त कर्म आदि अन्य जातिओथी भिन्न चैतन्य-जातिमात्र परमार्थ (परम पदार्थ) छेआत्मा छे. ते (आत्मा) एकीसाथे (युगपद्) एकीभावे (एकत्वपूर्वक) प्रवर्ततां एवां जे ज्ञान अने गमन (परिणमन) ते-स्वरूप होवाथी समय छे, सकळ नयपक्षोथी अमिलित (अमिश्रित) एवा एक ज्ञानस्वरूप होवाथी शुद्ध छे, केवळ चिन्मात्र वस्तुस्वरूप होवाथी केवळी छे, फक्त मननमात्र (ज्ञानमात्र) भावस्वरूप


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स्वतश्चितो भवनमात्रतया सद्भावो वेति शब्दभेदेऽपि न च वस्तुभेदः

अथ ज्ञानं विधापयति
परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि
तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू ।।१५२।।
परमार्थे त्वस्थितः यः करोति तपो व्रतं च धारयति
तत्सर्वं बालतपो बालव्रतं ब्रुवन्ति सर्वज्ञाः ।।१५२।।

ज्ञानमेव मोक्षस्य कारणं विहितं, परमार्थभूतज्ञानशून्यस्याज्ञानकृतयोर्व्रततपःकर्मणोः बन्धहेतुत्वाद्बालव्यपदेशेन प्रतिषिद्धत्वे सति तस्यैव मोक्षहेतुत्वात्


होवाथी मुनि छे, पोते ज ज्ञानस्वरूप होवाथी ज्ञानी छे, ‘स्व’ना भवनमात्रस्वरूप होवाथी स्वभाव छे अथवा स्वतः (पोताथी ज) चैतन्यना ❋भवनमात्रस्वरूप होवाथी सद्भाव छे (कारण के जे स्वतः होय ते सत्-स्वरूप ज होय). आ प्रमाणे शब्दभेद होवा छतां वस्तुभेद नथी (नाम जुदां जुदां छे छतां वस्तु एक ज छे).

भावार्थःमोक्षनुं उपादान तो आत्मा ज छे. वळी परमार्थे आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; ज्ञान छे ते आत्मा छे अने आत्मा छे ते ज्ञान छे. माटे ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कहेवुं योग्य छे.

हवे, आगममां पण ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे एम बतावे छेः

परमार्थमां अणस्थित जे तपने करे, व्रतने धरे,
सघळुंय ते तप बाळ ने व्रत बाळ सर्वज्ञो कहे. १५२.

गाथार्थः[ परमार्थे तु ] परमार्थमां [ अस्थितः ] अस्थित [ यः ] एवो जे जीव [ तपः करोति ] तप करे छे [ च ] तथा [ व्रतं धारयति ] व्रत धारण करे छे, [ तत्सर्वं ] तेनां ते सर्व तप अने व्रतने [ सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञो [ बालतपः ] बाळतप अने [ बालव्रतं ] बाळव्रत [ ब्रुवन्ति ] कहे छे.

टीकाःआगममां पण ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण फरमाव्युं छे (एम सिद्ध थाय छे); कारण के जे जीव परमार्थभूत ज्ञानथी रहित छे तेनां, अज्ञानपूर्वक करवामां आवेलां व्रत, भवन = होवुं ते.


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अथ ज्ञानाज्ञाने मोक्षबन्धहेतू नियमयति
वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता
परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति ।।१५३।।
व्रतनियमान् धारयन्तः शीलानि तथा तपश्च कुर्वन्तः
परमार्थबाह्या ये निर्वाणं ते न विन्दन्ति ।।१५३।।

ज्ञानमेव मोक्षहेतुः, तदभावे स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनामन्तर्व्रतनियमशीलतपःप्रभृति- शुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात् अज्ञानमेव बन्धहेतुः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां बहिर्व्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात्


तप आदि कर्मो बंधनां कारण होवाने लीधे ते कर्मोने ‘बाळ’ एवी संज्ञा आपीने निषेध्यां होवाथी ज्ञान ज मोक्षनुं कारण ठरे छे.

भावार्थःज्ञान विना करायेलां तप तथा व्रतने सर्वज्ञदेवे बाळतप तथा बाळव्रत (अर्थात् अज्ञानतप तथा अज्ञानव्रत) कह्यां छे, माटे मोक्षनुं कारण ज्ञान ज छे.

ज्ञान ज मोक्षनो हेतु छे अने अज्ञान ज बंधनो हेतु छे एवो नियम छे एम हवे कहे छेः

व्रतनियमने धारे भले, तपशीलने पण आचरे,
परमार्थथी जे बाह्य ते निर्वाणप्राप्ति नहीं करे. १५३.

गाथार्थः[ व्रतनियमान् ] व्रत अने नियमो [ धारयन्तः ] धारण करता होवा छतां [ तथा ] तेम ज [ शीलानि च तपः ] शील अने तप [ कुर्वन्तः ] करता होवा छतां [ ये ] जेओ [ परमार्थबाह्याः ] परमार्थथी बाह्य छे (अर्थात् परम पदार्थरूप ज्ञाननुं एटले के ज्ञानस्वरूप आत्मानुं जेमने श्रद्धान नथी) [ ते ] तेओ [ निर्वाणं ] निर्वाणने [ न विन्दन्ति ] पामता नथी.

टीकाःज्ञान ज मोक्षनो हेतु छे; कारण के तेना (ज्ञानना) अभावमां, पोते ज अज्ञानरूप थयेला अज्ञानीओने अंतरंगमां व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मोनो सद्भाव (हयाती) होवा छतां मोक्षनो अभाव छे. अज्ञान ज बंधनो हेतु छे; कारण के तेना अभावमां, पोते ज ज्ञानरूप थयेला ज्ञानीओने बाह्य व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मोनो असद्भाव होवा छतां मोक्षनो सद्भाव छे.


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(शिखरिणी)
यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं
शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति
अतोऽन्यद्बन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत्
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम्
।।१०५।।
अथ पुनरपि पुण्यकर्मपक्षपातिनः प्रतिबोधनायोपक्षिपति
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति
संसारगमणहेदुं पि मोक्खहेदुं अजाणंता ।।१५४।।
परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छन्ति
संसारगमनहेतुमपि मोक्षहेतुमजानन्तः ।।१५४।।

भावार्थःज्ञानरूप परिणमन ज मोक्षनुं कारण छे अने अज्ञानरूप परिणमन ज बंधनुं कारण छे; व्रत, नियम, शील, तप आदि शुभ भावरूप शुभ कर्मो कांई मोक्षनां कारण नथी, ज्ञानरूपे परिणमेला ज्ञानीने ते शुभ कर्मो न होवा छतां ते मोक्षने पामे छे; अज्ञानरूपे परिणमेला अज्ञानीने ते शुभ कर्मो होवा छतां ते बंधने पामे छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति ] जे आ ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवपणे अने अचळपणे ज्ञानस्वरूपे थतोपरिणमतो भासे छे [ अयं शिवस्य हेतुः ] ते ज मोक्षनो हेतु छे [ यतः ] कारण के [ तत् स्वयम् अपि शिवः इति ] ते पोते पण मोक्षस्वरूप छे; [ अतः अन्यत् ] तेना सिवाय जे अन्य कांई छे [ बन्धस्य ] ते बंधनो हेतु छे [ यतः ] कारण के [ तत् स्वयम् अपि बन्धः इति ] ते पोते पण बंधस्वरूप छे. [ ततः ] माटे [ ज्ञानात्मत्वं भवनम् ] ज्ञानस्वरूप थवानुं (ज्ञानस्वरूप परिणमवानुं) एटले के [ अनुभूतिः हि ] अनुभूति करवानुं ज [ विहितम् ] आगममां विधान अर्थात् फरमान छे. १०५.

हवे फरीने पण, पुण्यकर्मना पक्षपातीने समजाववा माटे तेनो दोष बतावे छेः

परमार्थबाह्य जीवो अरे! जाणे न हेतु मोक्षनो,
अज्ञानथी ते पुण्य इच्छे हेतु जे संसारनो. १५४.

गाथार्थः[ ये ] जेओ [ परमार्थबाह्यः ] परमार्थथी बाह्य छे [ ते ] तेओ [ मोक्षहेतुम् ]


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इह खलु केचिन्निखिलकर्मपक्षक्षयसम्भावितात्मलाभं मोक्षमभिलषन्तोऽपि, तद्धेतुभूतं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्रमैकाग्य्रालक्षणं समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि, दुरन्तकर्मचक्रोत्तरणक्लीबतया परमार्थभूतज्ञानभवनमात्रं सामायिकमात्मस्वभाव- मलभमानाः, प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेशपरिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्थूलतमविशुद्धपरिणामकर्माणः, कर्मानुभवगुरुलाघवप्रतिपत्तिमात्रसन्तुष्टचेतसः, स्थूललक्ष्यतया सकलं कर्मकाण्डमनुन्मूलयन्तः, स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवलं बन्धहेतुमध्यास्य च, व्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्म बन्धहेतुमप्य- जानन्तो, मोक्षहेतुमभ्युपगच्छन्ति

मोक्षना हेतुने [ अजानन्तः ] नहि जाणता थका[ संसारगमनहेतुम् अपि ] जोके पुण्य संसारगमननो हेतु छे तोपण[ अज्ञानेन ] अज्ञानथी [ पुण्यम् ] पुण्यने (मोक्षनो हेतु जाणीने) [ इच्छन्ति ] इच्छे छे.

टीकाःसमस्त कर्मना पक्षनो नाश करवाथी ऊपजतो जे आत्मलाभ (निज स्वरूपनी प्राप्ति) ते आत्मलाभस्वरूप मोक्षने आ जगतमां केटलाक जीवो इच्छता होवा छतां, मोक्षना कारणभूत सामायिकनीके जे सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाळा परमार्थभूत ज्ञानना भवनमात्र छे, एकाग्रतालक्षणवाळुं छे अने समयसारस्वरूप छे तेनी प्रतिज्ञा लईने पण, दुरंत कर्मचक्रने पार ऊतरवानी नामर्दाईने लीधे (असमर्थताने लीधे) परमार्थभूत ज्ञानना भवनमात्र जे सामायिक ते सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावने नहि पामता थका, जेमने अत्यंत स्थूल संक्लेशपरिणामरूप कर्मो निवृत्त थयां छे अने अत्यंत स्थूल विशुद्ध- परिणामरूप कर्मो प्रवर्ते छे एवा तेओ, कर्मना अनुभवना गुरुपणा-लघुपणानी प्राप्तिमात्रथी ज संतुष्ट चित्तवाळा थया थका, (पोते) स्थूल लक्ष्यवाळा होईने (संक्लेशपरिणामोने छोडता होवा छतां) समस्त कर्मकांडने मूळथी उखेडता नथी. आ रीते तेओ, पोते पोताना अज्ञानथी केवळ अशुभ कर्मने ज बंधनुं कारण मानीने, व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मो पण बंधनां कारण होवा छतां तेमने बंधनां कारण नहि जाणता थका, मोक्षना कारण तरीके तेमने अंगीकार करे छेमोक्षना कारण तरीके तेमनो आश्रय करे छे.

भावार्थःकेटलाक अज्ञानी लोको दीक्षा लेती वखते सामायिकनी प्रतिज्ञा ले छे परंतु सूक्ष्म एवा आत्मस्वभावनी श्रद्धा, लक्ष तथा अनुभव नहि करी शकवाथी, स्थूल लक्ष्यवाळा ते जीवो स्थूल संक्लेशपरिणामोने छोडीने एवा ज स्थूल विशुद्धपरिणामोमां (शुभ परिणामोमां) राचे छे. (संक्लेशपरिणामो तेम ज विशुद्धपरिणामो बन्ने अत्यंत स्थूल छे; आत्मस्वभाव ज भवन = थवुं ते; परिणमन.


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अथ परमार्थमोक्षहेतुं तेषां दर्शयति
जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं
रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ।।१५५।।
जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं तेषामधिगमो ज्ञानम्
रागादिपरिहरणं चरणं एषस्तु मोक्षपथः ।।१५५।।

मोक्षहेतुः किल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम् रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं चारित्रम् तदेवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् ततो ज्ञानमेव परमार्थमोक्षहेतुः


सूक्ष्म छे.) आ रीते तेओजोके वास्तविक रीते सर्वकर्मरहित आत्मस्वभावनुं अनुभवन ज मोक्षनुं कारण छे तोपणकर्मानुभवना बहुपणा-थोडापणाने ज बंध-मोक्षनुं कारण मानीने, व्रत, नियम, शील, तप वगेरे शुभ कर्मोनो मोक्षना हेतु तरीके आश्रय करे छे.

हवे एवा जीवोने परमार्थ मोक्षकारण (खरुं मोक्षनुं कारण) बतावे छेः

जीवादिनुं श्रद्धान समकित, ज्ञान तेमनुं ज्ञान छे,
रागादि-वर्जन चरण छे, ने आ ज मुक्तिपंथ छे. १५५.

गाथार्थः[ जीवादिश्रद्धानं ] जीवादि पदार्थोनुं श्रद्धान [ सम्यक्त्वं ] सम्यक्त्व छे, [ तेषाम् अधिगमः ] ते जीवादि पदार्थोनो अधिगम [ ज्ञानम् ] ज्ञान छे अने [ रागादिपरिहरणं ] रागादिनो त्याग [ चरणं ] चारित्र छे;[ एषः तु ] आ ज [ मोक्षपथः ] मोक्षनो मार्ग छे.

टीकाःमोक्षनुं कारण खरेखर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे. तेमां सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थोना श्रद्धानस्वभावे ज्ञाननुं थवुंपरिणमवुं ते छे; जीवादि पदार्थोना ज्ञानस्वभावे ज्ञाननुं थवुंपरिणमवुं ते ज्ञान छे; रागादिना त्यागस्वभावे ज्ञाननुं थवुंपरिणमवुं ते चारित्र छे. तेथी ए रीते एम फलित थयुं के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणे एकलुं ज्ञाननुं भवन (परिणमन) ज छे. माटे ज्ञान ज परमार्थ मोक्षकारण छे.

भावार्थःआत्मानुं असाधारण स्वरूप ज्ञान ज छे. वळी आ प्रकरणमां ज्ञानने ज प्रधान करीने व्याख्यान छे. तेथी ‘सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्रए त्रणेय स्वरूपे ज्ञान ज परिणमे छे’ एम कहीने ज्ञानने ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे. ज्ञान छे ते अभेद विवक्षामां आत्मा

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