Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 171-183 ; Kalash: 116-126 ; Samvar Adhikar.

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जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि
अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।।१७१।।
यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते
अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बन्धको भणितः ।।१७१।।

ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः तावत् तस्यान्तर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुनः पुनरन्य- तयास्ति परिणामः स तु, यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यम्भाविरागसद्भावात्, बन्धहेतुरेव स्यात्

एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्

जे ज्ञानगुणनी जघन्यतामां वर्ततो गुण ज्ञाननो,
फरीफरी प्रणमतो अन्यरूपमां, तेथी ते बंधक कह्यो. १७१.

गाथार्थः[ यस्मात् तु ] कारण के [ ज्ञानगुणः ] ज्ञानगुण, [ जघन्यात् ज्ञानगुणात् ] जघन्य ज्ञानगुणने लीधे [ पुनरपि ] फरीने पण [ अन्यत्वं ] अन्यपणे [ परिणमते ] परिणमे छे, [ तेन तु ] तेथी [ सः ] ते (ज्ञानगुण) [ बन्धकः ] कर्मनो बंधक [ भणितः ] कहेवामां आव्यो छे.

टीकाःज्ञानगुणनो ज्यां सुधी जघन्य भाव छे (क्षायोपशमिक भाव छे) त्यां सुधी ते (ज्ञानगुण) अंतर्मुहूर्तमां विपरिणाम पामतो होवाथी फरीफरीने तेनुं अन्यपणे परिणमन थाय छे. ते (ज्ञानगुणनुं जघन्य भावे परिणमन), यथाख्यातचारित्र-अवस्थानी नीचे अवश्यंभावी रागनो सद्भाव होवाथी, बंधनुं कारण ज छे.

भावार्थःक्षायोपशमिक ज्ञान एक ज्ञेय पर अंतर्मुहूर्त ज थंभे छे, पछी अवश्य अन्य ज्ञेयने अवलंबे छे; स्वरूपमां पण ते अंतर्मुहूर्त ज टकी शके छे, पछी विपरिणाम पामे छे. माटे एम अनुमान पण थई शके छे के सम्यग्द्रष्टि आत्मा सविकल्प दशामां हो के निर्विकल्प अनुभवदशामां होयथाख्यातचारित्र-अवस्था थया पहेलां तेने अवश्य रागभावनो सद्भाव होय छे; अने राग होवाथी बंध पण थाय छे. माटे ज्ञानगुणना जघन्य भावने बंधनो हेतु कहेवामां आव्यो छे.

हवे वळी फरी पूछे छे केजो आम छे (अर्थात् ज्ञानगुणनो जघन्य भाव बंधनुं कारण छे) तो पछी ज्ञानी निरास्रव कई रीते छे? तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः


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दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण
णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण ।।१७२।।
दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन
ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ।।१७२।।

यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकरागद्वेषमोहरूपास्रवभावाभावात् निरास्रव एव किन्तु सोऽपि यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वाऽशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति च तावत्तस्यापि, जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वककलङ्कविपाक- सद्भावात्, पुद्गलकर्मबन्धः स्यात् अतस्तावज्ज्ञानं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावज्ज्ञानस्य यावान् पूर्णो भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति ततः साक्षात् ज्ञानीभूतः सर्वथा निरास्रव एव स्यात्

चारित्र, दर्शन, ज्ञान जेथी जघन्य भावे परिणमे,
तेथी ज ज्ञानी विविध पुद्गलकर्मथी बंधाय छे. १७२.

गाथार्थः[ यत् ] कारण के [ दर्शनज्ञानचारित्रं ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [ जघन्यभावेन ] जघन्य भावे [ परिणमते ] परिणमे छे [ तेन तु ] तेथी [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ विविधेन ] अनेक प्रकारनां [ पुद्गलकर्मणा ] पुद्गलकर्मथी [ बध्यते ] बंधाय छे.

टीकाःजे खरेखर ज्ञानी छे ते, बुद्धिपूर्वक (इच्छापूर्वक) रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावोनो तेने अभाव होवाथी, निरास्रव ज छे. परंतु त्यां एटलुं विशेष छे केते ज्ञानी ज्यां सुधी ज्ञानने सर्वोत्कृष्ट भावे देखवाने, जाणवाने अने आचरवाने अशक्त वर्ततो थको जघन्य भावे ज ज्ञानने देखे छे, जाणे छे अने आचरे छे त्यां सुधी तेने पण, जघन्य भावनी अन्यथा अनुपपत्ति वडे (अर्थात् जघन्य भाव अन्य रीते नहि बनतो होवाने लीधे) जेनुं अनुमान थई शके छे एवा अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकना विपाकनो सद्भाव होवाथी, पुद्गलकर्मनो बंध थाय छे. माटे त्यां सुधी ज्ञानने देखवुं, जाणवुं अने आचरवुं के ज्यां सुधीमां ज्ञाननो जेवडो पूर्ण भाव छे तेवडो देखवामां, जाणवामां अने आचरवामां बराबर आवी जाय. त्यारथी साक्षात् ज्ञानी थयो थको (आत्मा) सर्वथा निरास्रव ज होय छे.

भावार्थःज्ञानीने बुद्धिपूर्वक (अज्ञानमय) रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी ज्ञानी निरास्रव ज छे. परंतु ज्यां सुधी क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी ते ज्ञानी ज्ञानने सर्वोत्कृष्ट


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(शार्दूलविक्रीडित)
संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं
वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन्
उच्छिन्दन्परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भव-
न्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा
।।११६।।

भावे देखी, जाणी अने आचरी शकतो नथीजघन्य भावे देखी, जाणी अने आचरी शके छे; तेथी एम जणाय छे के ते ज्ञानीने हजु अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकनो विपाक (अर्थात् चारित्र- मोहसंबंधी रागद्वेष) विद्यमान छे अने तेथी तेने बंध पण थाय छे. माटे तेने एम उपदेश छे केज्यां सुधी केवळज्ञान न ऊपजे त्यां सुधी ज्ञाननुं ज निरंतर ध्यान करवुं, ज्ञानने ज देखवुं, ज्ञानने ज जाणवुं अने ज्ञानने ज आचरवुं. आ ज मार्गे दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन वधतुं जाय छे अने एम करतां करतां केवळज्ञान प्रगटे छे. केवळज्ञान प्रगटे त्यारथी आत्मा साक्षात् ज्ञानी छे अने सर्व प्रकारे निरास्रव छे.

ज्यां सुधी क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी अबुद्धिपूर्वक (अर्थात् चारित्रमोहनो) राग होवा छतां, बुद्धिपूर्वक रागना अभावनी अपेक्षाए ज्ञानीने निरास्रवपणुं कह्युं अने अबुद्धिपूर्वक रागनो अभाव थतां अने केवळज्ञान प्रगटतां सर्वथा निरास्रवपणुं कह्युं. आ, विवक्षानुं विचित्रपणुं छे. अपेक्षाथी समजतां ए सर्व कथन यथार्थ छे.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य छेः

श्लोकार्थः[ आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा ] आत्मा ज्यारे ज्ञानी थाय त्यारे, [ स्वयं ] पोते [ निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं ] पोताना समस्त बुद्धिपूर्वक रागने [ अनिशं ] निरंतर [ संन्यस्यन् ] छोडतो थको अर्थात् नहि करतो थको, [ अबुद्धिपूर्वम् ] वळी जे अबुद्धिपूर्वक राग छे [ तं अपि ] तेने पण [ जेतुं ] जीतवाने [ वारंवारम् ] वारंवार [ स्वशक्तिं स्पृशन् ] (ज्ञानानुभवनरूप) स्वशक्तिने स्पर्शतो थको अने (ए रीते) [ सकलां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन् ] समस्त परवृत्तिनेपरपरिणतिने उखेडतो [ ज्ञानस्य पूर्णः भवन् ] ज्ञानना पूर्णभावरूप थतो थको, [ हि ] खरेखर [ नित्यनिरास्रवः भवति ] सदा निरास्रव छे.

भावार्थःज्ञानीए समस्त रागने हेय जाण्यो छे. ते रागने मटाडवाने उद्यम कर्या करे छे; तेने आस्रवभावनी भावनानो अभिप्राय नथी; तेथी ते सदा निरास्रव ज कहेवाय छे.

परवृत्ति (परपरिणति) बे प्रकारनी छेअश्रद्धारूप अने अस्थिरतारूप. ज्ञानीए अश्रद्धारूप परवृत्ति छोडी छे अने अस्थिरतारूप परवृत्ति जीतवा माटे ते निज शक्तिने वारंवार


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(अनुष्टुभ्)
सर्वस्यामेव जीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ
कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः ।।११७।।
सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स
उवओगप्पाओगं बंधंते कम्मभावेण ।।१७३।।

स्पर्शे छे अर्थात् परिणतिने स्वरूप प्रति वारंवार वाळ्या करे छे. ए रीते सकळ परवृत्तिने उखेडीने केवळज्ञान प्रगटावे छे.

‘बुद्धिपूर्वक’ अने ‘अबुद्धिपूर्वक’नो अर्थ आ प्रमाणे छेःजे रागादिपरिणाम इच्छा सहित थाय ते बुद्धिपूर्वक छे अने जे रागादिपरिणाम इच्छा विना परनिमित्तनी बळजोरीथी थाय ते अबुद्धिपूर्वक छे. ज्ञानीने जे रागादिपरिणाम थाय छे ते बधाय अबुद्धिपूर्वक ज छे; सविकल्प दशामां थता रागादिपरिणामो ज्ञानीनी जाणमां छे तोपण अबुद्धिपूर्वक छे कारण के इच्छा विना थाय छे.

(राजमल्लजीए आ कळशनी टीका करतां ‘बुद्धिपूर्वक’ अने ‘अबुद्धिपूर्वक’नो आ प्रमाणे अर्थ लीधो छेःजे रागादिपरिणाम मन द्वारा, बाह्य विषयोने अवलंबीने, प्रवर्ते छे अने जेओ प्रवर्तता थका जीवने पोताने जणाय छे तेम ज बीजाने पण अनुमानथी जणाय छे ते परिणामो बुद्धिपूर्वक छे; अने जे रागादिपरिणाम इंद्रियमनना व्यापार सिवाय केवळ मोहना उदयना निमित्ते थाय छे अने जीवने जणाता नथी ते अबुद्धिपूर्वक छे. आ अबुद्धिपूर्वक परिणामने प्रत्यक्ष ज्ञानी जाणे छे अने तेमना अविनाभावी चिह्न वडे तेओ अनुमानथी पण जणाय छे.) ११६.

हवे शिष्यनी आशंकानो श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[ सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां ] ज्ञानीने समस्त द्रव्यास्रवनी संतति विद्यमान होवा छतां [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ नित्यम् एव ] सदाय [ निरास्रवः ] निरास्रव छे [ कुतः ] एम शा कारणे कह्युं?’[ इति चेत् मतिः ] एम जो तारी बुद्धि छे (अर्थात् जो तने एवी आशंका थाय छे) तो हवे तेनो उत्तर कहेवामां आवे छे. ११७.

हवे, पूर्वोक्त आशंकाना उत्तरनी गाथा कहे छेः

जे सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय वर्तता सुद्रष्टिने,
उपयोगने प्रायोग्य बंधन कर्मभाव वडे करे. १७३.
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होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा
सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं ।।१७४।।
संता दु णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स
बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स ।।१७५।।
एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिदो
आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा ।।१७६।।
सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययाः सन्ति सम्यग्दृष्टेः
उपयोगप्रायोग्यं बध्नन्ति कर्मभावेन ।।१७३।।
भूत्वा निरुपभोग्यानि तथा बध्नाति यथा भवन्त्युपभोग्यानि
सप्ताष्टविधानि भूतानि ज्ञानावरणादिभावैः ।।१७४।।
सन्ति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यथेह पुरुषस्य
बध्नाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य ।।१७५।।
एतेन कारणेन तु सम्यग्दृष्टिरबन्धको भणितः
आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बन्धका भणिताः ।।१७६।।
अणभोग्य बनी उपभोग्य जे रीत थाय ते रीत बांधता,
ज्ञानावरण इत्यादि कर्मो सप्त-अष्ट प्रकारनां. १७४.
सत्ता विषे ते निरुपभोग्य ज, बाळ स्त्री ज्यम पुरुषने;
उपभोग्य बनतां तेह बांधे, युवती जेम पुरुषने. १७५.
आ कारणे सम्यक्त्वसंयुत जीव अणबंधक कह्या,
आसरवभावअभावमां नहि प्रत्ययो बंधक कह्या. १७६.

गाथार्थः[ सम्यग्दृष्टेः ] सम्यग्द्रष्टिने [ सर्वे ] बधा [ पूर्वनिबद्धाः तु ] पूर्वे बंधायेला [ प्रत्ययाः ] प्रत्ययो (द्रव्य आस्रवो) [ सन्ति ] सत्तारूपे मोजूद छे तेओ [ उपयोगप्रायोग्यं ] उपयोगना प्रयोग अनुसार, [ कर्मभावेन ] कर्मभाव वडे (रागादिक वडे) [ बध्नन्ति ] नवो बंध करे छे. ते प्रत्ययो, [ निरुपभोग्यानि ] निरुपभोग्य [ भूत्वा ] रहीने पछी [ यथा ] जे रीते


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यतः सदवस्थायां तदात्वपरिणीतबालस्त्रीवत् पूर्वमनुपभोग्यत्वेऽपि विपाकावस्थायां प्राप्त- यौवनपूर्वपरिणीतस्त्रीवत् उपभोग्यत्वात् उपयोगप्रायोग्यं पुद्गलकर्मद्रव्यप्रत्ययाः सन्तोऽपि कर्मोदय- कार्यजीवभावसद्भावादेव बध्नन्ति ततो ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वबद्धाः सन्ति, सन्तु; तथापि स तु निरास्रव एव, कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामबन्ध- हेतुत्वात् [ उपभोग्यानि ] उपभोग्य [ भवन्ति ] थाय छे [ तथा ] ते रीते, [ ज्ञानावरणादिभावैः ] ज्ञानावरणादि


भावे [ सप्ताष्टविधानि भूतानि ] सात-आठ प्रकारनां थयेलां एवां कर्मोने [ बध्नाति ] बांधे छे. [ सन्ति तु ] सत्ता-अवस्थामां तेओ [ निरुपभोग्यानि ] निरुपभोग्य छे अर्थात् भोगववायोग्य नथी [ यथा ] जेम [ इह ] जगतमां [ बाला स्त्री ] बाळ स्त्री [ पुरुषस्य ] पुरुषने निरुपभोग्य छे तेम; [ तानि ] तेओ [ उपभोग्यानि ] उपभोग्य अर्थात् भोगववायोग्य थतां [ बध्नाति ] बंधन करे छे [ यथा ] जेम [ तरुणी स्त्री ] तरुण स्त्री [ नरस्य ] पुरुषने बांधे छे तेम. [ एतेन तु कारणेन ] कारणथी [ सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्द्रष्टिने [ अबन्धकः ] अबंधक [ भणितः ] कह्यो छे, कारण के [ आस्रवभावाभावे ] आस्रवभावना अभावमां [ प्रत्ययाः ] प्रत्ययोने [ बन्धकाः ] (कर्मना) बंधक [ न भणिताः ] कह्या नथी.

टीकाःजेम प्रथम तो तत्काळनी परणेली बाळ स्त्री अनुपभोग्य छे परंतु यौवनने पामेली एवी ते पहेलांनी परणेली स्त्री यौवन-अवस्थामां उपभोग्य थाय छे अने जे रीते उपभोग्य थाय ते अनुसारे, पुरुषना रागभावने लीधे ज, पुरुषने बंधन करे छेवश करे छे, तेवी रीते जेओ प्रथम तो सत्ता-अवस्थामां अनुपभोग्य छे परंतु विपाक-अवस्थामां उपभोगयोग्य थाय छे एवा पुद्गलकर्मरूप द्रव्यप्रत्ययो होवा छतां तेओ उपयोगना प्रयोग अनुसारे (अर्थात् द्रव्यप्रत्ययना उपभोगमां उपयोग जोडाय तेना प्रमाणमां), कर्मोदयना कार्यरूप जीवभावना सद्भावने लीधे ज, बंधन करे छे. माटे ज्ञानीने जो पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्ययो विद्यमान छे, तो भले हो; तथापि ते (ज्ञानी) तो निरास्रव ज छे, कारण के कर्मोदयनुं कार्य जे रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव तेना अभावमां द्रव्यप्रत्ययो बंधनां कारण नथी. (जेम पुरुषने रागभाव होय तो ज जुवानी पामेली स्त्री तेने वश करी शके छे तेम जीवने आस्रवभाव होय तो ज उदयप्राप्त द्रव्यप्रत्ययो नवो बंध करी शके छे.)

भावार्थःद्रव्यास्रवोना उदयने अने जीवना रागद्वेषमोहभावोने निमित्त-नैमित्तिक- भाव छे. द्रव्यास्रवोना उदय विना जीवने आस्रवभाव थई शके नहि अने तेथी बंध पण थई शके नहि. द्रव्यास्रवोनो उदय थतां जीव जे प्रकारे तेमां जोडाय अर्थात् जे प्रकारे तेने भावास्रव थाय ते प्रकारे द्रव्यास्रवो नवीन बंधनां कारण थाय छे. जीव भावास्रव न करे तो तेने नवो बंध थतो नथी.


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(मालिनी)
विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः
समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः
तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासा-
दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः
।।११८।।

सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वनो अने अनंतानुबंधी कषायनो उदय नहि होवाथी तेने ते प्रकारना भावास्रवो तो थता ज नथी अने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषाय संबंधी बंध पण थतो नथी. (क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने सत्तामांथी मिथ्यात्वनो क्षय थती वखते ज अनंतानुबंधी कषायनो तथा ते संबंधी अविरति अने योगभावनो पण क्षय थई गयो होय छे तेथी तेने ते प्रकारनो बंध थतो नथी; औपशमिक सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषायो मात्र उपशममांसत्तामांज होवाथी सत्तामां रहेलुं द्रव्य उदयमां आव्या विना ते प्रकारना बंधनुं कारण थतुं नथी; अने क्षायोपशमिक सम्यग्द्रष्टिने पण सम्यक्त्वमोहनीय सिवायनी छ प्रकृतिओ विपाक-उदयमां आवती नथी तेथी ते प्रकारनो बंध थतो नथी.)

अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने जे चारित्रमोहनो उदय वर्ते छे तेमां जे प्रकारे जीव जोडाय छे ते प्रकारे तेने नवो बंध थाय छे; तेथी गुणस्थानोना वर्णनमां अविरतसम्यग्द्रष्टि आदि गुणस्थानोए अमुक अमुक प्रकृतिनो बंध कह्यो छे. परंतु आ बंध अल्प होवाथी तेने सामान्य संसारनी अपेक्षाए बंधमां गणवामां आवतो नथी. सम्यग्द्रष्टि चारित्रमोहना उदयमां स्वामित्वभावे तो जोडातो ज नथी, मात्र अस्थिरतारूपे जोडाय छे; अने अस्थिरतारूप जोडाण ते निश्चयद्रष्टिमां जोडाण ज नथी. माटे सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोहनो अभाव कहेवामां आव्यो छे. ज्यां सुधी कर्मनुं स्वामीपणुं राखीने कर्मना उदयमां जीव परिणमे छे त्यां सुधी ज जीव कर्मनो कर्ता छे; उदयनो ज्ञाताद्रष्टा थईने परना निमित्तथी मात्र अस्थिरतारूपे परिणमे त्यारे कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे. आ अपेक्षाए, सम्यग्द्रष्टि थया पछी चारित्रमोहना उदयरूप परिणमवा छतां तेने ज्ञानी अने अबंधक कहेवामां आव्यो छे. ज्यां सुधी मिथ्यात्वनो उदय छे अने तेमां जोडाईने जीव रागद्वेषमोहभावे परिणमे छे त्यां सुधी ज तेने अज्ञानी अने बंधक कहेवामां आवे छे. ज्ञानी-अज्ञानीनो अने बंध-अबंधनो आ विशेष जाणवो. वळी शुद्ध स्वरूपमां लीन रहेवाना अभ्यास द्वारा केवळज्ञान प्रगटवाथी ज्यारे जीव साक्षात् संपूर्णज्ञानी थाय छे त्यारे तो ते सर्वथा निरास्रव थई जाय छे एम पहेलां कहेवाई गयुं छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ यद्यपि ] जोके [ समयम् अनुसरन्तः ] पोतपोताना समयने अनुसरता


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(अनुष्टुभ्)
रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः
तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणम् ।।११९।।
रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स
तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति ।।१७७।।
हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति ।।१७८।।

(अर्थात् पोतपोताना समये उदयमां आवता) एवा [ पूर्वबद्धाः ] पूर्वबद्ध (पूर्वे अज्ञान- अवस्थामां बंधायेला) [ द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः ] द्रव्यरूप प्रत्ययो [ सत्तां ] पोतानी सत्ता [ न हि विजहति ] छोडता नथी (अर्थात् सत्तामां छेहयात छे), [ तदपि ] तोपण [ सकलरागद्वेष- मोहव्युदासात् ] सर्व रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीने [ कर्मबन्धः ] कर्मबंध [ जातु ] कदापि [ अवतरति न ] अवतार धरतो नथीथतो नथी.

भावार्थःज्ञानीने पण पूर्वे अज्ञान-अवस्थामां बंधायेला द्रव्यास्रवो सत्ता-अवस्थामां हयात छे अने तेमना उदयकाळे उदयमां आवता जाय छे. परंतु ते द्रव्यास्रवो ज्ञानीने कर्मबंधनुं कारण थता नथी, केम के ज्ञानीने सकळ रागद्वेषमोहभावोनो अभाव छे. अहीं सकळ रागद्वेषमोहनो अभाव बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोहनी अपेक्षाए समजवो. ११८.

हवे आ ज अर्थ द्रढ करनारी बे गाथाओ आवे छे तेनी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[ यत् ] कारण के [ ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः ] ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो असंभव छे [ ततः एव ] तेथी [ अस्य बन्धः न ] तेने बंध नथी; [ हि ] केम के [ ते बन्धस्य कारणम् ] ते (रागद्वेषमोह) ज बंधनुं कारण छे. ११९.

हवे आ अर्थना समर्थननी बे गाथाओ कहे छेः

नहि रागद्वेष, न मोहए आस्रव नथी सुद्रष्टिने,
तेथी ज आस्रवभाव विण नहि प्रत्ययो हेतु बने; १७७.
हेतु चतुर्विध अष्टविध कर्मो तणां कारण कह्या,
तेनांय रागादिक कह्या, रागादि नहि त्यां बंध ना. १७८.

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रागो द्वेषो मोहश्च आस्रवा न सन्ति सम्यग्दृष्टेः
तस्मादास्रवभावेन विना हेतवो न प्रत्यया भवन्ति ।।१७७।।
हेतुश्चतुर्विकल्पः अष्टविकल्पस्य कारणं भणितम्
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते ।।१७८।।

रागद्वेषमोहा न सन्ति सम्यग्दृष्टेः, सम्यग्दृष्टित्वान्यथानुपपत्तेः तदभावे न तस्य द्रव्य- प्रत्ययाः पुद्गलकर्महेतुत्वं बिभ्रति, द्रव्यप्रत्ययानां पुद्गलकर्महेतुत्वस्य रागादिहेतुत्वात् ततो हेतुहेत्वभावे हेतुमदभावस्य प्रसिद्धत्वात् ज्ञानिनो नास्ति बन्धः

गाथार्थः[ रागः ] राग, [ द्वेषः ] द्वेष [ च मोहः ] अने मोह[ आस्रवाः ] आस्रवो [ सम्यग्दृष्टेः ] सम्यग्द्रष्टिने [ न सन्ति ] नथी [ तस्मात् ] तेथी [ आस्रवभावेन विना ] आस्रवभाव विना [ प्रत्ययाः ] द्रव्यप्रत्ययो [ हेतवः ] कर्मबंधनां कारण [ न भवन्ति ] थता नथी.

[ चतुर्विकल्प हेतुः ] (मिथ्यात्वादि) चार प्रकारना हेतुओ [ अष्टविकल्पस्य ] आठ प्रकारनां कर्मोनां [ कारणं ] कारण [ भणितम् ] कहेवामां आव्या छे, [ च ] अने [ तेषाम् अपि ] तेमने पण [ रागादयः ] (जीवना) रागादि भावो कारण छे; [ तेषाम् अभावे ] तेथी रागादि भावोना अभावमां [ न बध्यन्ते ] कर्म बंधातां नथी. (माटे सम्यग्द्रष्टिने बंध नथी.)

टीकाःसम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोह नथी कारण के सम्यग्द्रष्टिपणानी अन्यथा अनुपपत्ति छे (अर्थात् रागद्वेषमोहना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं बनी शकतुं नथी); रागद्वेषमोहना अभावमां तेने (सम्यग्द्रष्टिने) द्रव्यप्रत्ययो पुद्गलकर्मनुं (अर्थात् पुद्गलकर्मना बंधननुं) हेतुपणुं धारता नथी कारण के द्रव्यप्रत्ययोने पुद्गलकर्मना हेतुपणाना हेतुओ रागादिक छे; माटे हेतुना हेतुना अभावमां हेतुमाननो (अर्थात् कारणनुं जे कारण तेना अभावमां कार्यनो) अभाव प्रसिद्ध होवाथी ज्ञानीने बंध नथी.

भावार्थःअहीं, रागद्वेषमोहना अभाव विना सम्यग्द्रष्टिपणुं होई शके नहि एवो अविनाभावी नियम कह्यो त्यां मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकनो अभाव समजवो. मिथ्यात्वसंबंधी रागादिकने ज अहीं रागादिक गणवामां आव्या छे. सम्यग्द्रष्टि थया पछी कांईक चारित्रमोहसंबंधी राग रहे छे तेने अहीं गण्यो नथी; ते गौण छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने भावास्रवनो अर्थात् रागद्वेषमोहनो अभाव छे. द्रव्यास्रवोने बंधना हेतु थवामां हेतुभूत एवा रागद्वेषमोहनो सम्यग्द्रष्टिने अभाव होवाथी द्रव्यास्रवो बंधना हेतु थता नथी, अने द्रव्यास्रवो बंधना हेतु नहि थता होवाथी सम्यग्द्रष्टिनेज्ञानीनेबंध थतो नथी.


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(वसन्ततिलका)
अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्न-
मैकाग्य्रमेव कलयन्ति सदैव ये ते
रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः
पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्
।।१२०।।

सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कहेवामां आवे छे ते योग्य ज छे. ‘ज्ञानी’ शब्द मुख्यपणे त्रण अपेक्षाए वपराय छेः(१) प्रथम तो, जेने ज्ञान होय ते ज्ञानी कहेवाय; आम सामान्य ज्ञाननी अपेक्षाए तो सर्व जीवो ज्ञानी छे. (२) सम्यक् ज्ञान अने मिथ्या ज्ञाननी अपेक्षा लेवामां आवे तो सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्ज्ञान होवाथी ते अपेक्षाए ते ज्ञानी छे अने मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे. (३) संपूर्ण ज्ञान अने अपूर्ण ज्ञाननी अपेक्षा लेवामां आवे तो केवळी भगवान ज्ञानी छे अने छद्मस्थ अज्ञानी छे कारण के सिद्धांतमां पांच भावोनुं कथन करतां बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञानभाव कह्यो छे. आ प्रमाणे अनेकांतथी अपेक्षा वडे विधिनिषेध निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे; सर्वथा एकांतथी कांई पण सिद्ध थतुं नथी.

हवे, ज्ञानीने बंध थतो नथी ए शुद्धनयनुं माहात्म्य छे माटे शुद्धनयना महिमानुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य ] उद्धत ज्ञान (कोईनुं दबाव्युं दबाय नहि एवुं उन्नत ज्ञान) जेनुं लक्षण छे एवा शुद्धनयमां रहीने अर्थात् शुद्धनयनो आश्रय करीने [ ये ] जेओ [ सदा एव ] सदाय [ ऐकाग्य्रम् एव ] एकाग्रपणानो ज [ कलयन्ति ] अभ्यास करे छे [ ते ] तेओ, [ सततं ] निरंतर [ रागादिमुक्तमनसः भवन्तः ] रागादिथी रहित चित्तवाळा वर्तता थका, [ बन्धविधुरं समयस्य सारम् ] बंधरहित एवा समयना सारने (अर्थात् पोताना शुद्ध आत्मस्वरूपने) [ पश्यन्ति ] देखे छेअनुभवे छे.

भावार्थःअहीं शुद्धनय वडे एकाग्रतानो अभ्यास करवानुं कह्युं छे. ‘हुं केवळ ज्ञानस्वरूप छुं, शुद्ध छुं’एवुं जे आत्मद्रव्यनुं परिणमन ते शुद्धनय. आवा परिणमनने लीधे वृत्ति ज्ञानमां वळ्या करे अने स्थिरता वधती जाय ते एकाग्रतानो अभ्यास.

शुद्धनय श्रुतज्ञाननो अंश छे अने श्रुतज्ञान तो परोक्ष छे तेथी ते अपेक्षाए शुद्धनय द्वारा थतो शुद्ध स्वरूपनो अनुभव पण परोक्ष छे. वळी ते अनुभव एकदेश शुद्ध छे ते अपेक्षाए तेने व्यवहारथी प्रत्यक्ष पण कहेवामां आवे छे. साक्षात् शुद्धनय तो केवळज्ञान थये थाय छे. १२०.


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(वसन्ततिलका)
प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु
रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः
ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध-
द्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्
।।१२१।।

हवे कहे छे के जेओ शुद्धनयथी च्युत थाय तेओ कर्म बांधे छेः

श्लोकार्थः[ इह ] जगतमां [ ये ] जेओ [ शुद्धनयतः प्रच्युत्य ] शुद्धनयथी च्युत थईने [ पुनः एव तु ] फरीने [ रागादियोगम् ] रागादिना संबंधने [ उपयान्ति ] पामे छे [ ते ] एवा जीवो, [ विमुक्तबोधाः ] जेमणे ज्ञानने छोड्युं छे एवा थया थका, [ पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः ] पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवो वडे [ कर्मबन्धम् ] कर्मबंधने [ विभ्रति ] धारण करे छे (कर्मोने बांधे छे)[ कृत-विचित्र- विकल्प-जालम् ] के जे कर्मबंध विचित्र भेदोना समूहवाळो होय छे (अर्थात् जे कर्मबंध अनेक प्रकारनो होय छे).

भावार्थःशुद्धनयथी च्युत थवुं एटले ‘हुं शुद्ध छुं’ एवा परिणमनथी छूटीने अशुद्धरूपे परिणमवुं ते अर्थात् मिथ्याद्रष्टि बनी जवुं ते. एम थतां, जीवने मिथ्यात्व संबंधी रागादिक उत्पन्न थाय छे, तेथी द्रव्यास्रवो कर्मबंधनां कारण थाय छे अने तेथी अनेक प्रकारनां कर्म बंधाय छे. आ रीते अहीं शुद्धनयथी च्युत थवानो अर्थ शुद्धताना भानथी (सम्यक्त्वथी) च्युत थवुं एम करवो. उपयोगनी अपेक्षा अहीं गौण छे, अर्थात् शुद्धनयथी च्युत थवुं एटले शुद्ध उपयोगथी च्युत थवुं एवो अर्थ अहीं मुख्य नथी; कारण के शुद्धोपयोगरूप रहेवानो काळ अल्प होवाथी मात्र अल्प काळ शुद्धोपयोगरूप रहीने पछी तेनाथी छूटी ज्ञान अन्य ज्ञेयोमां उपयुक्त थाय तोपण मिथ्यात्व विना जे रागनो अंश छे ते अभिप्रायपूर्वक नहि होवाथी ज्ञानीने मात्र अल्प बंध थाय छे अने अल्प बंध संसारनुं कारण नथी. माटे अहीं उपयोगनी अपेक्षा मुख्य नथी.

हवे जो उपयोगनी अपेक्षा लईए तो आ प्रमाणे अर्थ घटेःजीव शुद्धस्वरूपना निर्विकल्प अनुभवथी छूटे परंतु सम्यक्त्वथी न छूटे तो तेने चारित्रमोहना रागथी कांईक बंध थाय छे. ते बंध जोके अज्ञानना पक्षमां नथी तोपण ते बंध तो छे ज. माटे तेने मटाडवाने सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीने शुद्धनयथी न छूटवानो अर्थात् शुद्धोपयोगमां लीन रहेवानो उपदेश छे. केवळज्ञान थतां साक्षात् शुद्धनय थाय छे. १२१.


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जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं
मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो ।।१७९।।
तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं
बज्झंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा ।।१८०।।
यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधम्
मांसवसारुधिरादीन् भावान् उदराग्निसंयुक्तः ।।१७९।।
तथा ज्ञानिनस्तु पूर्वं ये बद्धाः प्रत्यया बहुविकल्पम्
बध्नन्ति कर्म ते नयपरिहीनास्तु ते जीवाः ।।१८०।।

यदा तु शुद्धनयात् परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात्, पूर्वबद्धाः द्रव्यप्रत्ययाः, स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमद्भावस्यानिवार्यत्वात्, ज्ञानावरणादिभावैः पुद्गलकर्म बन्धं परिणमयन्ति न चैतदप्रसिद्धं, पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः

हवे आ ज अर्थने द्रष्टांत द्वारा द्रढ करे छेः

पुरुषे ग्रहेल अहार जे, उदराग्निने संयोग ते
बहुविध मांस, वसा अने रुधिरादि भावे परिणमे; १७९.
त्यम ज्ञानीने पण प्रत्ययो जे पूर्वकाळनिबद्ध त
बहुविध बांधे कर्म, जो जीव शुद्धनयपरिच्युत बने. १८०.

गाथार्थः[ यथा ] जेम [ पुरुषेण ] पुरुष वडे [ गृहीतः ] ग्रहायेलो [ आहारः ] जे आहार [ सः ] ते [ उदराग्निसंयुक्तः ] उदराग्निथी संयुक्त थयो थको [ अनेकविधम् ] अनेक प्रकारे [ मांसवसा- रुधिरादीन् ] मांस, वसा, रुधिर आदि [ भावान् ] भावोरूपे [ परिणमति ] परिणमे छे, [ तथा तु ] तेम [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीने [ पूर्वं बद्धाः ] पूर्वे बंधायेला [ ये प्रत्ययाः ] जे द्रव्यास्रवो छे [ ते ] ते [ बहुविकल्पम् ] बहु प्रकारनां [ कर्म ] कर्म [ बध्नन्ति ] बांधे छे;[ ते जीवाः ] एवा जीवो [ नयपरि- हीनाः तु ] शुद्धनयथी च्युत थयेला छे. (ज्ञानी शुद्धनयथी च्युत थाय तो तेने कर्म बंधाय छे.)

टीकाःज्यारे ज्ञानी शुद्धनयथी च्युत थाय त्यारे तेने रागादिभावोनो सद्भाव थवाथी, पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्ययो, पोताने (द्रव्यप्रत्ययोने) कर्मबंधना हेतुपणाना हेतुनो सद्भाव थतां हेतुमान भावनुं (कार्यभावनुं) अनिवार्यपणुं होवाथी, ज्ञानावरणादि भावे पुद्गलकर्मने

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परिणामकरणस्य दर्शनात्

(अनुष्टुभ्)
इदमेवात्र तात्पर्यं हेयः शुद्धनयो न हि
नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि ।।१२२।।
(शार्दूलविक्रीडित)
धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिं
त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वङ्कषः कर्मणाम्
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्बहिः
पूर्णं ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः
।।१२३।।

बंधरूपे परिणमावे छे. अने आ अप्रसिद्ध पण नथी (अर्थात् आनुं द्रष्टांत जगतमां प्रसिद्ध जाणीतुं छे); कारण के उदराग्नि, पुरुषे ग्रहेला आहारने रस, रुधिर, मांस आदि भावे परिणमावे छे एम जोवामां आवे छे.

भावार्थःज्ञानी शुद्धनयथी छूटे त्यारे तेने रागादिभावोनो सद्भाव थाय छे, रागादिभावोना निमित्ते द्रव्यास्रवो अवश्य कर्मबंधनां कारण थाय छे अने तेथी कार्मणवर्गणा बंधरूपे परिणमे छे. टीकामां जे एम कह्युं छे के ‘‘द्रव्यप्रत्ययो पुद्गलकर्मने बंधरूपे परिणमावे छे’’, ते निमित्तथी कह्युं छे. त्यां एम समजवुं के ‘‘द्रव्यप्रत्ययो निमित्तभूत थतां कार्मणवर्गणा स्वयं बंधरूपे परिणमे छे’’.

हवे आ सर्व कथनना तात्पर्यरूप श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[ अत्र ] अहीं [ इदम् एव तात्पर्यं ] आ ज तात्पर्य छे के [ शुद्धनयः न हि हेयः ] शुद्धनय त्यागवायोग्य नथी; [ हि ] कारण के [ तत्-अत्यागात् बन्धः नास्ति ] तेना अत्यागथी (कर्मनो) बंध थतो नथी अने [ तत्-त्यागात् बन्धः एव ] तेना त्यागथी बंध ज थाय छे. १२२.

फरी, ‘शुद्धनय छोडवायोग्य नथी’ एवा अर्थने द्रढ करनारुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ धीर-उदार-महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृतिं निबध्नन् शुद्धनयः ] धीर (चळाचळता रहित) अने उदार (सर्व पदार्थोमां विस्तारयुक्त) जेनो महिमा छे एवा अनादिनिधन ज्ञानमां स्थिरता बांधतो (अर्थात् ज्ञानमां परिणतिने स्थिर राखतो) शुद्धनय [ कर्मणाम् सर्वंकषः ] के जे कर्मोने मूळथी नाश करनारो छे ते[ कृतिभिः ] पवित्र धर्मी (सम्यग्द्रष्टि) पुरुषोए [ जातु ] कदी पण [ न त्याज्यः ] छोडवायोग्य नथी. [ तत्रस्थाः ] शुद्धनयमां स्थित ते पुरुषो, [ बहिः निर्यत् स्व-मरीचि-चक्रम् अचिरात् संहृत्य ] बहार नीकळता एवा पोतानां


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(मन्दाक्रान्ता)
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां
नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः
स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्वभावा-
नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत्
।।१२४।।

ज्ञानकिरणोना समूहने (अर्थात् कर्मना निमित्ते परमां जती ज्ञाननी विशेष व्यक्तिओने) अल्प काळमां समेटीने, [ पूर्णं ज्ञान-घन-ओघम् एक म् अचलं शान्तं महः ] पूर्ण, ज्ञानघनना पुंजरूप, एक, अचळ, शांत तेजनेतेजःपुंजने[ पश्यन्ति ] देखे छे अर्थात् अनुभवे छे.

भावार्थःशुद्धनय, ज्ञानना समस्त विशेषोने गौण करी तथा परनिमित्तथी थता समस्त भावोने गौण करी, आत्माने शुद्ध, नित्य, अभेदरूप, एक चैतन्यमात्र ग्रहण करे छे अने तेथी परिणति शुद्धनयना विषयस्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मामां एकाग्रस्थिरथती जाय छे. ए प्रमाणे शुद्धनयनो आश्रय करनारा जीवो अल्प काळमां बहार नीकळती ज्ञाननी विशेष व्यक्तिओने संकेलीने, शुद्धनयमां (आत्मानी शुद्धताना अनुभवमां) निर्विकल्पपणे ठरतां सर्व कर्मोथी भिन्न केवळ ज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप पोताना आत्माने देखे छे अने शुक्लध्यानमां प्रवृत्ति करीने अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान प्रगटावे छे. शुद्धनयनुं आवुं माहात्म्य छे. माटे शुद्धनयना आलंबन वडे ज्यां सुधी केवळज्ञान ऊपजे नहि त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि जीवोए शुद्धनय छोडवायोग्य नथी एम श्री गुरुओनो उपदेश छे. १२३.

हवे, आस्रवोनो सर्वथा नाश करवाथी जे ज्ञान प्रगट थयुं ते ज्ञानना महिमानुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ नित्य-उद्योतं ] जेनो उद्योत (प्रकाश) नित्य छे एवी [ किम् अपि परमं वस्तु ] कोई परम वस्तुने [ अन्तः सम्पश्यतः ] अंतरंगमां देखनारा पुरुषने, [ रागादीनां आस्रवाणां ] रागादिक आस्रवोनो [ झगिति ] शीघ्र [ सर्वतः अपि ] सर्व प्रकारे [ विगमात् ] नाश थवाथी, [ एतत् ज्ञानम् ] आ ज्ञान [ उन्मग्नम् ] प्रगट थयुं[ स्फारस्फारैः ] के जे ज्ञान अत्यंत अत्यंत (अनंत अनंत) विस्तार पामता [ स्वरसविसरैः ] निजरसना फेलावथी [ आ-लोक-अन्तात् ] लोकना अंत सुधीना [ सर्वभावान् ] सर्व भावोने [ प्लावयत् ] तरबोळ करी दे छे अर्थात् सर्व पदार्थोने जाणे छे, [ अचलम् ] जे ज्ञान प्रगट थयुं त्यारथी सदाकाळ अचळ छे अर्थात् प्रगट्या पछी सदा एवुं ने एवुं ज रहे छेचळतुं नथी, अने [ अतुलं ] जे ज्ञान अतुल छे अर्थात् जेना तुल्य बीजुं कोई नथी.

भावार्थःजे पुरुष अंतरंगमां चैतन्यमात्र परम वस्तुने देखे छे अने शुद्धनयना


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इति आस्रवो निष्क्रान्तः

इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ आस्रवप्ररूपकः चतुर्थोऽङ्कः ।। आलंबन वडे तेमां एकाग्र थतो जाय छे ते पुरुषने, तत्काळ सर्व रागादिक आस्रवभावोनो सर्वथा अभाव थईने, सर्व अतीत, अनागत ने वर्तमान पदार्थोने जाणनारुं निश्चळ, अतुल केवळज्ञान प्रगट थाय छे. ते ज्ञान सर्वथी महान छे, तेना समान अन्य कोई नथी. १२४.

टीकाःआ रीते आस्रव (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो.
भावार्थःआस्रवनो स्वांग रंगभूमिमां आव्यो हतो तेने ज्ञाने तेना यथार्थ स्वरूपे

जाणी लीधो तेथी ते बहार नीकळी गयो.

योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्यत आगम गाये,
राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये;
जे मुनिराज करै इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये,
काय नवाय नमूं चित लाय कहूं जय पाय लहूं मन भाये.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां आस्रवनो प्ररूपक चोथो अंक समाप्त थयो.


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-५-
संवर अधिकार

अथ प्रविशति संवरः

(शार्दूलविक्रीडित)
आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रव-
न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम्
व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक्स्वरूपे स्फु र-
ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते
।।१२५।।
मोहरागरुष दूर करी, समिति गुप्ति व्रत पाळी;
संवरमय आत्मा कर्यो, नमुं तेह, मन धारी.

प्रथम टीकाकार आचार्यमहाराज कहे छे के ‘‘हवे संवर प्रवेश करे छे’’. आस्रव रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गया पछी हवे संवर रंगभूमिमां प्रवेशे छे.

त्यां प्रथम तो टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वांगने जाणनारा सम्यग्ज्ञानना महिमारूप मंगळ करे छेः

श्लोकार्थः[ आसंसार - विरोधि - संवर - जय - एकान्त - अवलिप्त - आस्रव - न्यक्कारात् ] अनादि संसारथी मांडीने पोताना विरोधी संवरने जीतवाथी जे एकांत-गर्वित (अत्यंत अहंकारयुक्त) थयो छे एवो जे आस्रव तेनो तिरस्कार करवाथी [ प्रतिलब्ध-नित्य-विजयं संवरम् ] जेणे सदा विजय मेळव्यो छे एवा संवरने [ सम्पादयत् ] उत्पन्न करती, [ पररूपतः व्यावृत्तं ] पररूपथी जुदी (अर्थात् परद्रव्य अने परद्रव्यना निमित्ते थता भावोथी जुदी), [ सम्यक्-स्वरूपे नियमितं स्फु रत् ] पोताना सम्यक् स्वरूपमां निश्चळपणे प्रकाशती, [ चिन्मयम् ] चिन्मय, [ उज्ज्वलं ] उज्ज्वळ (निराबाध, निर्मळ, देदीप्यमान) अने [ निज-रस-प्राग्भारम् ] निजरसना (पोताना चैतन्यरसना) भारवाळी अतिशयपणावाळी [ ज्योतिः ] ज्योति [ उज्जृम्भते ] प्रगट थाय छे, फेलाय छे.


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तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपायं भेदविज्ञानमभिनन्दति
उवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो
कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो ।।१८१।।
अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो
उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि ।।१८२।।
एदं तु अविवरीदं णाणं जइया दु होदि जीवस्स
तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा ।।१८३।।
उपयोगे उपयोगः क्रोधादिषु नास्ति कोऽप्युपयोगः
क्रोधः क्रोधे चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः ।।१८१।।

भावार्थःअनादि काळथी जे आस्रवनो विरोधी छे एवा संवरने जीतीने आस्रव मदथी गर्वित थयो छे. ते आस्रवनो तिरस्कार करीने तेना पर जेणे हंमेशने माटे जय मेळव्यो छे एवा संवरने उत्पन्न करतो, समस्त पररूपथी जुदो अने पोताना स्वरूपमां निश्चळ एवो आ चैतन्यप्रकाश निजरसनी अतिशयतापूर्वक निर्मळपणे उदय पामे छे. १२५.

त्यां (संवर अधिकारनी) शरूआतमां ज, (भगवान कुंदकुंदाचार्य) सकळ कर्मनो संवर करवानो उत्कृष्ट उपाय जे भेदविज्ञान तेनी प्रशंसा करे छेः

उपयोगमां उपयोग, को उपयोग नहि क्रोधादिमां,
छे क्रोध क्रोध महीं ज, निश्चय क्रोध नहि उपयोगमां. १८१.
उपयोग छे नहि अष्टविध कर्मो अने नोकर्ममां,
कर्मो अने नोकर्म कंई पण छे नहि उपयोगमां. १८२.
आवुं अविपरीत ज्ञान ज्यारे उद्भवे छे जीवने,
त्यारे न कंई पण भाव ते उपयोगशुद्धात्मा करे. १८३.

गाथार्थः[ उपयोगः ] उपयोग [ उपयोगे ] उपयोगमां छे, [ क्रोधादिषु ] क्रोधादिकमां [ कोऽपि उपयोगः ] कोई उपयोग [ नास्ति ] नथी; [ च ] वळी [ क्रोधः ] क्रोध [ क्रोधे एव हि ] क्रोधमां ज छे, [ उपयोगे ] उपयोगमां [ खलु ] निश्चयथी [ क्रोधः ] क्रोध [ नास्ति ] नथी.


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अष्टविकल्पे कर्मणि नोकर्मणि चापि नास्त्युपयोगः
उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नो अस्ति ।।१८२।।
एतत्त्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य
तदा न किञ्चित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा ।।१८३।।

न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति, द्वयोर्भिन्नप्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्तेः तदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसम्बन्धोऽपि नास्त्येव ततः स्वरूपप्रतिष्ठत्वलक्षण एवाधाराधेयसम्बन्धोऽवतिष्ठते तेन ज्ञानं जानत्तायां स्वरूपे प्रतिष्ठितं, जानत्ताया ज्ञानादपृथग्भूतत्वात्, ज्ञाने एव स्यात् क्रोधादीनि क्रुध्यत्तादौ स्वरूपे प्रतिष्ठितानि, क्रुध्यत्तादेः क्रोधादिभ्योऽपृथग्भूतत्वात्, क्रोधादिष्वेव स्युः पुनः क्रोधादिषु कर्मणि नोकर्मणि वा ज्ञानमस्ति, न च ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा सन्ति, [ अष्टविकल्पे कर्मणि ] आठ प्रकारनां कर्म [ च अपि ] तेम ज [ नोकर्मणि ] नोकर्ममां [ उपयोगः ]


उपयोग [ नास्ति ] नथी [ च ] अने [ उपयोगे ] उपयोगमां [ कर्म ] कर्म [ च अपि ] तेम ज [ नोकर्म ] नोकर्म [ नो अस्ति ] नथी.[ एतत् तु ] आवुं [ अविपरीतं ] अविपरीत [ ज्ञानं ] ज्ञान [ यदा तु ] ज्यारे [ जीवस्य ] जीवने [ भवति ] थाय छे, [ तदा ] त्यारे [ उपयोगशुद्धात्मा ] ते उपयोगस्वरूप शुद्धात्मा [ किञ्चित् भावम् ] उपयोग सिवाय अन्य कोई पण भावने [ न करोति ] करतो नथी.

टीकाःखरेखर एक वस्तुनी बीजी वस्तु नथी (अर्थात् एक वस्तुनी बीजी वस्तु कांई संबंधी नथी) कारण के बन्नेना प्रदेशो भिन्न होवाथी तेमने एक सत्तानी अनुपपत्ति छे (अर्थात् बन्नेनी सत्ता जुदी जुदी छे); अने ए रीते एक वस्तुनी बीजी वस्तु नहि होवाथी एक साथे बीजीने आधाराधेयसंबंध पण नथी ज. तेथी (दरेक वस्तुने) पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठारूप (द्रढपणे रहेवारूप) ज आधाराधेयसंबंध छे. माटे ज्ञान के जे जाणनक्रियारूप पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठित (रहेलुं) छे ते, जाणनक्रियानुं ज्ञानथी अभिन्नपणुं होवाने लीधे, ज्ञानमां ज छे; क्रोधादिक के जे क्रोधादिक्रियारूप पोताना स्वरूपमां प्रतिष्ठित छे ते, क्रोधादिक्रियानुं क्रोधादिथी अभिन्नपणुं होवाने लीधे, क्रोधादिकमां ज छे. (ज्ञाननुं स्वरूप जाणनक्रिया छे, माटे ज्ञान आधेय अने जाणनक्रिया आधार छे. जाणनक्रिया आधार होवाथी एम ठर्युं के ज्ञान ज आधार छे, कारण के जाणनक्रिया अने ज्ञान जुदां नथी. आ रीते एम सिद्ध थयुं के ज्ञान ज्ञानमां ज छे. एवी ज रीते क्रोध क्रोधमां ज छे.) वळी क्रोधादिकमां, कर्ममां के नोकर्ममां ज्ञान नथी अने ज्ञानमां क्रोधादिक, कर्म के नोकर्म नथी कारण के तेमने परस्पर अत्यंत स्वरूप-


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परस्परमत्यन्तं स्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसम्बन्धशून्यत्वात् न च यथा ज्ञानस्य जानत्ता स्वरूपं तथा कुध्यत्तादिरपि, क्रोधादीनां च यथा क्रुध्यत्तादि स्वरूपं तथा जानत्तापि क थञ्चनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रुध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एवेति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वम्

किञ्च यदा किलैकमेवाकाशं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेष- द्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्ना- काश एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति एवं यदैकमेव ज्ञानं स्वबुद्धि- मधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति तदप्रभवे चैकं ज्ञानमेवैकस्मिन् ज्ञान एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव, क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्धं भेदविज्ञानम्


विपरीतता होवाथी (अर्थात् ज्ञाननुं स्वरूप अने क्रोधादिक तेम ज कर्म-नोकर्मनुं स्वरूप अत्यंत विरुद्ध होवाथी) तेमने परमार्थभूत आधाराधेयसंबंध नथी. वळी ज्ञाननुं स्वरूप जेम जाणनक्रिया छे तेम (ज्ञाननुं स्वरूप) क्रोधादिक्रिया पण छे एम, अने क्रोधादिकनुं स्वरूप जेम क्रोधादिक्रिया छे तेम (क्रोधादिकनुं स्वरूप) जाणनक्रिया पण छे एम कोई रीते स्थापी शकातुं नथी; कारण के जाणनक्रिया अने क्रोधादिक्रिया भिन्न भिन्न स्वभावे प्रकाशे छे अने ए रीते स्वभावो भिन्न होवाथी वस्तुओ भिन्न ज छे. आ रीते ज्ञानने अने अज्ञानने (क्रोधादिकने) आधाराधेयपणुं नथी.

वळी विशेष समजाववामां आवे छेःज्यारे एक ज आकाशने पोतानी बुद्धिमां स्थापीने (आकाशनो) आधाराधेयभाव विचारवामां आवे त्यारे आकाशने बाकीनां अन्य द्रव्योमां आरोपवानो निरोध ज होवाथी (अर्थात् अन्य द्रव्योमां स्थापवानुं अशक्य ज होवाथी) बुद्धिमां भिन्न आधारनी अपेक्षा प्रभवती नथी (फावी शकती नथी, ठरी जाय छे, उद्भवती नथी); अने ते नहि प्रभवतां, ‘एक आकाश ज एक आकाशमां ज प्रतिष्ठित छे’ एम बराबर समजी जवाय छे अने तेथी एवुं समजी जनारने पर-आधाराधेयपणुं भासतुं नथी. एवी रीते ज्यारे एक ज ज्ञानने पोतानी बुद्धिमां स्थापीने (ज्ञाननो) आधाराधेयभाव विचारवामां आवे त्यारे ज्ञानने बाकीनां अन्य द्रव्योमां आरोपवानो निरोध ज होवाथी बुद्धिमां भिन्न आधारनी अपेक्षा प्रभवती नथी; अने ते नहि प्रभवतां, ‘एक ज्ञान ज एक ज्ञानमां ज प्रतिष्ठित छे’ एम बराबर समजी जवाय छे अने तेथी एवुं समजी जनारने पर-आधाराधेयपणुं भासतुं नथी. माटे ज्ञान ज ज्ञानमां ज छे, क्रोधादिक ज क्रोधादिकमां ज छे.


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(शार्दूलविक्रीडित)
चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभागं द्वयो-
रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च
भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः
।।१२६।।

आ प्रमाणे (ज्ञाननुं अने क्रोधादिक तेम ज कर्म-नोकर्मनुं) भेदविज्ञान भली रीते सिद्ध थयुं.

भावार्थःउपयोग तो चैतन्यनुं परिणमन होवाथी ज्ञानस्वरूप छे अने क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्मए बधांय पुद्गलद्रव्यना परिणाम होवाथी जड छे; तेमने अने ज्ञानने प्रदेशभेद होवाथी अत्यंत भेद छे. माटे उपयोगमां क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नथी अने क्रोधादिकमां, कर्ममां तथा नोकर्ममां उपयोग नथी. आ रीते तेमने पारमार्थिक आधाराधेयसंबंध नथी; दरेक वस्तुने पोतपोतानुं आधाराधेयपणुं पोतपोतामां ज छे. माटे उपयोग उपयोगमां ज छे, क्रोध क्रोधमां ज छे. आ रीते भेदविज्ञान बराबर सिद्ध थयुं. (भावकर्म वगेरेनो अने उपयोगनो भेद जाणवो ते भेदविज्ञान छे.)

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च ] चिद्रूपता (चैतन्यरूपता) धरतुं ज्ञान अने जडरूपता धरतो राग[ द्वयोः ] ए बन्नेनो, [ अन्तः ] अंतरंगमां [ दारुण- दारणेन ] दारुण विदारण वडे (अर्थात् भेद पाडवाना उग्र अभ्यास वडे), [ परितः विभागं कृत्वा ] चोतरफथी विभाग करीने (समस्त प्रकारे बन्नेने जुदां करीने), [ इदं निर्मलम् भेदज्ञानम् उदेति ] आ निर्मळ भेदज्ञान उदय पाम्युं छे; [ अधुना ] माटे हवे [ एकम् शुद्ध-ज्ञानघन- ओघम् अध्यासिताः ] एक शुद्ध विज्ञानघनना पुंजमां स्थित अने [ द्वितीय-च्युताः ] बीजाथी एटले रागथी रहित एवा [ सन्तः ] हे सत्पुरुषो! [ मोदध्वम् ] तमे मुदित थाओ.

भावार्थःज्ञान तो चेतनास्वरूप छे अने रागादिक पुद्गलविकार होवाथी जड छे; परंतु अज्ञानथी, जाणे के ज्ञान पण रागादिरूप थई गयुं होय एम भासे छे अर्थात् ज्ञान अने रागादिक बन्ने एकरूपजडरूपभासे छे. ज्यारे अंतरंगमां ज्ञान अने रागादिनो भेद पाडवानो तीव्र अभ्यास करवाथी भेदज्ञान प्रगट थाय छे त्यारे एम जणाय छे के ज्ञाननो स्वभाव तो मात्र जाणवानो ज छे, ज्ञानमां जे रागादिकनी कलुषताआकुळतारूप संकल्प- विकल्पभासे छे ते सर्व पुद्गलविकार छे, जड छे. आम ज्ञान अने रागादिकना भेदनो

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