Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 198-209 ; Kalash: 137-145.

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सम्यग्दृष्टिः सामान्येन स्वपरावेवं तावज्जानाति
उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं
ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को ।।१९८।।
उदयविपाको विविधः कर्मणां वर्णितो जिनवरैः
न तु ते मम स्वभावाः ज्ञायकभावस्त्वहमेकः ।।१९८।।

ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावाः एष टङ्कोत्कीर्णैक- ज्ञायकभावोऽहम्

सम्यग्दृष्टिर्विशेषेण तु स्वपरावेवं जानाति परथीरागना योगथी[ सर्वतः ] सर्व प्रकारे [ विरमति ] विरमे छे. (आ रीत ज्ञानवैराग्यनी शक्ति विना होई शके नहि.) १३६.

हवे प्रथम, सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छेएम गाथामां कहे छेः

कर्मो तणो जे विविध उदयविपाक जिनवर वर्णव्यो,
ते मुज स्वभावो छे नहीं, हुं एक ज्ञायकभाव छुं. १९८.

गाथार्थः[ कर्मणां ] कर्मोना [ उदयविपाकः ] उदयनो विपाक (फळ) [ जिनवरैः ] जिनवरोए [ विविधः ] अनेक प्रकारनो [ वर्णितः ] वर्णव्यो छे [ ते ] ते [ मम स्वभावाः ] मारा स्वभावो [ न तु ] नथी; [ अहम् तु ] हुं तो [ एकः ] एक [ ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव छुं.

टीकाःजे कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला अनेक प्रकारना भावो छे ते मारा स्वभावो नथी; हुं तो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं.

भावार्थःआ प्रमाणे सामान्यपणे समस्त कर्मजन्य भावोने सम्यग्द्रष्टि पर जाणे छे अने पोताने एक ज्ञायकस्वभाव ज जाणे छे.

हवे सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने अने परने आ प्रमाणे जाणे छेएम कहे छेः


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पोग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हवदि एसो
ण दु एस मज्झ भावो जाणगभावो हु अहमेक्को ।।१९९।।
पुद्गलकर्म रागस्तस्य विपाकोदयो भवति एषः
न त्वेष मम भावो ज्ञायकभावः खल्वहमेकः ।।१९९।।

अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदयविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भावः, न पुनर्मम स्वभावः एष टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम्

एवमेव च रागपदपरिवर्तनेन द्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकाय- श्रोत्रचक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि, अनया दिशा अन्यान्यप्यूह्यानि

एवं च सम्यग्दृष्टिः स्वं जानन् रागं मुञ्चंश्च नियमाज्ज्ञानवैराग्यसम्पन्नो भवति

पुद्गलकरमरूप रागनो ज विपाकरूप छे उदय आ,
आ छे नहीं मुज भाव, निश्चय एक ज्ञायकभाव छुं. १९९.

गाथार्थः[ रागः ] राग [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्म छे, [ तस्य ] तेनो [ विपाकोदयः ] विपाकरूप उदय [ एषः भवति ] आ छे, [ एषः ][ मम भावः ] मारो भाव [ न तु ] नथी; [ अहम् ] हुं तो [ खलु ] निश्चयथी [ एकः ] एक [ ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव छुं.

टीकाःखरेखर राग नामनुं पुद्गलकर्म छे, तेना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेलो आ रागरूप भाव छे, मारो स्वभाव नथी; हुं तो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव छुं. (आ रीते सम्यग्द्रष्टि विशेषपणे स्वने अने परने जाणे छे.)

वळी आ ज प्रमाणे ‘राग’पद बदलीने तेनी जग्याए द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काया, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन अने स्पर्शन ए शब्दो मूकी सोळ सूत्रो व्याख्यानरूप करवां (कहेवां) अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.

आ रीते सम्यग्द्रष्टि पोताने जाणतो अने रागने छोडतो थको नियमथी ज्ञान- वैराग्यसंपन्न होय छेएम हवेनी गाथामां कहे छेः


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एवं सम्मद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं
उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो ।।२००।।
एवं सम्यग्दृष्टिः आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावम्
उदयं कर्मविपाकं च मुञ्चति तत्त्वं विजानन् ।।२००।।

एवं सम्यग्दृष्टिः सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्योऽपि विविच्य टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति तथा तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावो- पादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुञ्चति ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसम्पन्नो भवति

सुद्रष्टि ए रीत आत्मने ज्ञायकस्वभाव ज जाणतो,
ने उदय कर्मविपाकरूप ते तत्त्वज्ञायक छोडतो. २००.

गाथार्थः[ एवं ] आ रीते [ सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्द्रष्टि [ आत्मानं ] आत्माने (पोताने) [ ज्ञायकस्वभावम् ] ज्ञायकस्वभाव [ जानाति ] जाणे छे [ च ] अने [ तत्त्वं ] तत्त्वने अर्थात् यथार्थ स्वरूपने [ विजानन् ] जाणतो थको [ कर्मविपाकं ] कर्मना विपाकरूप [ उदयं ] उदयने [ मुञ्चति ] छोडे छे.

टीकाःआ रीते सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे अने विशेषपणे परभावस्वरूप सर्व भावोथी विवेक (भेदज्ञान, भिन्नता) करीने, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवुं जे आत्मानुं तत्त्व तेने (सारी रीते) जाणे छे; अने ए रीते तत्त्वने जाणतो, स्वभावना ग्रहण अने परभावना त्यागथी नीपजवायोग्य पोताना वस्तुत्वने विस्तारतो (प्रसिद्ध करतो), कर्मना उदयना विपाकथी उत्पन्न थयेला समस्त भावोने छोडे छे. तेथी ते (सम्यग्द्रष्टि) नियमथी ज्ञानवैराग्यसंपन्न होय छे (एम सिद्ध थयुं).

भावार्थःज्यारे पोताने तो ज्ञायकभावरूप सुखमय जाणे अने कर्मना उदयथी थयेला भावोने आकुळतारूप दुःखमय जाणे त्यारे ज्ञानरूप रहेवुं अने परभावोथी विरागता ए बन्ने अवश्य होय ज छे. आ वात प्रगट अनुभवगोचर छे. ए (ज्ञानवैराग्य) ज सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न छे.


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(मन्दाक्रान्ता)
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्या-
दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु

‘‘जे जीव परद्रव्यमां आसक्तरागी छे अने सम्यग्द्रष्टिपणानुं अभिमान करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे ज नहि, वृथा अभिमान करे छे’’ एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः‘‘[ अयम् अहं स्वयम् सम्यग्दृष्टिः, मे जातुः बन्धः न स्यात् ] आ हुं पोते सम्यग्द्रष्टि छुं, मने कदी बंध थतो नथी (कारण के शास्त्रमां सम्यग्द्रष्टिने बंध कह्यो नथी)’’ [ इति ] एम मानीने [ उत्तान-उत्पुलक-वदनाः ] जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित (रोमांचित) थयुं छे एवा [ रागिणः ] रागी जीवो (परद्रव्य प्रत्ये रागद्वेषमोहभाववाळा जीवो) [ अपि ] भले [ आचरन्तु ] महाव्रतादिनुं आचरण करो तथा [ समितिपरतां आलम्बन्तां ] *समितिनी उत्कृष्टतानुं आलंबन करो [ अद्य अपि ] तोपण हजु [ ते पापाः ] तेओ पापी (मिथ्याद्रष्टि) ज छे, [ यतः ] कारण के [ आत्म-अनात्म-अवगम-विरहात् ] आत्मा अने अनात्माना ज्ञानथी रहित होवाथी [ सम्यक्त्व-रिक्ताः सन्ति ] तेओ सम्यक्त्वथी रहित छे.

भावार्थःपरद्रव्य प्रत्ये राग होवा छतां जे जीव ‘हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध थतो नथी’ एम माने छे तेने सम्यक्त्व केवुं? ते व्रत-समिति पाळे तोपण स्वपरनुं ज्ञान नहि होवाथी ते पापी ज छे. पोताने बंध नथी थतो एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्ते ते वळी सम्यग्द्रष्टि केवो? कारण के ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्र न थाय त्यां सुधी चारित्रमोहना रागथी बंध तो थाय ज छे अने ज्यां सुधी राग रहे त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि तो पोतानी निंदा-गर्हा करतो ज रहे छे. ज्ञान थवामात्रथी बंधथी छुटातुं नथी, ज्ञान थया पछी तेमां ज लीनतारूप शुद्धोपयोगरूपचारित्रथी बंध कपाय छे. माटे राग होवा छतां, ‘बंध थतो नथी’ एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्तनार जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे.

अहीं कोई पूछे के ‘‘व्रत-समिति तो शुभ कार्य छे, तो पछी व्रत-समिति पाळतां छतां ते जीवने पापी केम कह्यो?’’ तेनुं समाधानःसिद्धांतमां पाप मिथ्यात्वने ज कह्युं छे; ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ-अशुभ सर्व क्रियाने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे. वळी व्यवहारनयनी प्रधानतामां, व्यवहारी जीवोने अशुभ छोडावी शुभमां लगाडवा शुभ क्रियाने कथंचित् पुण्य पण कहेवाय छे. आम कहेवाथी स्याद्वादमतमां कांई विरोध नथी.

40

* समिति = विहार, वचन, आहार वगेरेनी क्रियामां जतनाथी प्रवर्तवुं ते


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आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः
।।१३७।।

वळी कोई पूछे छे के‘‘परद्रव्यमां राग रहे त्यां सुधी जीवने मिथ्याद्रष्टि कह्यो ते वातमां अमे समज्या नहि. अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने चारित्रमोहना उदयथी रागादिभाव तो होय छे, तेमने सम्यक्त्व केम छे?’’ तेनुं समाधानःअहीं मिथ्यात्व सहित अनंतानुबंधी राग प्रधानपणे कह्यो छे. जेने एवो राग होय छे अर्थात् जेने परद्रव्यमां तथा परद्रव्यथी थता भावोमां आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति थाय छे, तेने स्वपरनुं ज्ञानश्रद्धान नथीभेदज्ञान नथी एम समजवुं. जीव मुनिपद लई व्रत-समिति पाळे तोपण ज्यां सुधी (व्रत-समिति पाळतां) पर जीवोनी रक्षा, शरीर संबंधी जतनाथी प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी तथा परद्रव्यना निमित्ते थता पोताना शुभ भावोथी पोतानो मोक्ष माने छे अने पर जीवोनो घात थवो, अयत्नाचाररूपे प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी तथा परद्रव्यना निमित्ते थता पोताना अशुभ भावोथी ज पोताने बंध थतो माने छे त्यां सुधी तेने स्वपरनुं ज्ञान थयुं नथी एम जाणवुं; कारण के बंध-मोक्ष तो पोताना अशुद्ध तथा शुद्ध भावोथी ज थता हता, शुभाशुभ भावो तो बंधनां ज कारण हता अने परद्रव्य तो निमित्तमात्र ज हतुं, तेमां तेणे विपर्ययरूप मान्युं. आ रीते ज्यां सुधी जीव परद्रव्यथी ज भलुंबूरुं मानी रागद्वेष करे छे त्यां सुधी ते सम्यग्द्रष्टि नथी. सम्यग्द्रष्टि जीव तो ज्यां सुधी पोताने चारित्रमोहसंबंधी रागादिक रहे छे त्यां सुधी ते रागादिक विषे तथा रागादिकनी प्रेरणाथी जे परद्रव्यसंबंधी शुभाशुभ क्रियामां ते प्रवर्ते छे ते प्रवृत्तिओ विषे एम माने छे के आ कर्मनुं जोर छे; तेनाथी निवृत्त थये ज मारुं भलुं छे. ते तेमने रोगवत् जाणे छे. पीडा सही शकाती नथी तेथी तेमनो इलाज करवारूपे प्रवर्ते छे तोपण तेने तेमना प्रत्ये राग कही शकातो नथी; कारण के जेने रोग माने तेना प्रत्ये राग केवो? ते तेने मटाडवानो ज उपाय करे छे अने ते मटवुं पण पोताना ज ज्ञानपरिणामरूप परिणमनथी माने छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने राग नथी. आ प्रमाणे परमार्थ अध्यात्मद्रष्टिथी अहीं व्याख्यान जाणवुं. अहीं मिथ्यात्व सहित रागने ज राग कह्यो छे, मिथ्यात्व विना चारित्रमोहसंबंधी उदयना परिणामने राग कह्यो नथी; माटे सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होय ज छे. मिथ्यात्व सहित राग सम्यग्द्रष्टिने होतो नथी अने मिथ्यात्व सहित राग होय ते सम्यग्द्रष्टि नथी. आवा (मिथ्याद्रष्टिना अने सम्यग्द्रष्टिना भावोना) तफावतने सम्यग्द्रष्टि ज जाणे छे. मिथ्याद्रष्टिनो अध्यात्मशास्त्रमां प्रथम तो प्रवेश नथी अने जो प्रवेश करे तो विपरीत समजे छेव्यवहारने सर्वथा छोडी भ्रष्ट थाय छे अथवा तो निश्चयने सारी रीते जाण्या विना व्यवहारथी ज मोक्ष माने छे, परमार्थ तत्त्वमां मूढ रहे छे. जो कोई विरल जीव यथार्थ


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कथं रागी न भवति सम्यग्दृष्टिरिति चेत्
परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स
ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि ।।२०१।।
अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो
कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो ।।२०२।।
परमाणुमात्रमपि खलु रागादीनां तु विद्यते यस्य
नापि स जानात्यात्मानं तु सर्वागमधरोऽपि ।।२०१।।
आत्मानमजानन् अनात्मानं चापि सोऽजानन्
कथं भवति सम्यग्दृष्टिर्जीवाजीवावजानन् ।।२०२।।

यस्य रागादीनामज्ञानमयानां भावानां लेशस्यापि सद्भावोऽस्ति स श्रुतकेवलिकल्पोऽपि स्याद्वादन्यायथी सत्यार्थ समजी जाय तो तेने अवश्य सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय ज छे ते अवश्य सम्यग्द्रष्टि बनी जाय छे. १३७.

हवे पूछे छे के रागी (जीव) केम सम्यग्द्रष्टि न होय? तेनो उत्तर कहे छेः

अणुमात्र पण रागादिनो सद्भाव वर्ते जेहने,
ते सर्वआगमधर भले पण जाणतो नहि आत्मने; २०१.
नहि जाणतो ज्यां आत्मने ज, अनात्म पण नहि जाणतो,
ते केम होय सुद्रष्टि जे जीव-अजीवने नहि जाणतो? २०२.

गाथार्थः[ खलु ] खरेखर [ यस्य ] जे जीवने [ रागादीनां तु परमाणुमात्रम् अपि ] परमाणुमात्रलेशमात्रपण रागादिक [ विद्यते ] वर्ते छे [ सः ] ते जीव [ सर्वागमधरः अपि ] भले सर्व आगम भणेलो होय तोपण [ आत्मानं तु ] आत्माने [ न अपि जानाति ] नथी जाणतो; [ च ] अने [ आत्मानम् ] आत्माने [ अजानन् ] नहि जाणतो थको [ सः ] ते [ अनात्मानं अपि ] अनात्माने (परने) पण [ अजानन् ] नथी जाणतो; [ जीवाजीवौ ] ए रीते जे जीव अने अजीवने [ अजानन् ] नथी जाणतो ते [ सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्द्रष्टि [ कथं भवति ] केम होई शके?

टीकाःजेने रागादि अज्ञानमय भावोना लेशमात्रनो पण सद्भाव छे ते भले


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ज्ञानमयस्य भावस्याभावादात्मानं न जानाति यस्त्वात्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न जानाति, स्वरूपपररूपसत्तासत्ताभ्यामेकस्य वस्तुनो निश्चीयमानत्वात् ततो य आत्मानात्मानौ न जानाति स जीवाजीवौ न जानाति यस्तु जीवाजीवौ न जानाति स सम्यग्दृष्टिरेव न भवति ततो रागी ज्ञानाभावान्न भवति सम्यग्दृष्टिः


श्रुतकेवळी जेवो हो तोपण ज्ञानमय भावना अभावने लीधे आत्माने नथी जाणतो; अने जे आत्माने नथी जाणतो ते अनात्माने पण नथी जाणतो कारण के स्वरूपे सत्ता अने पररूपे असत्ताए बन्ने वडे एक वस्तुनो निश्चय थाय छे; (जेने अनात्मानोरागनोनिश्चय थयो होय तेने अनात्मा अने आत्माबन्नेनो निश्चय होवो जोईए.) ए रीते जे आत्मा अने अनात्माने नथी जाणतो ते जीव अने अजीवने नथी जाणतो; अने जे जीव-अजीवने नथी जाणतो ते सम्यग्द्रष्टि ज नथी. माटे रागी (जीव) ज्ञानना अभावने लीधे सम्यग्द्रष्टि होतो नथी.

भावार्थःअहीं ‘राग’ शब्दथी अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहेवामां आव्या छे. त्यां ‘अज्ञानमय’ कहेवाथी मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीथी थयेला रागादिक समजवा, मिथ्यात्व विना चारित्रमोहना उदयनो राग न लेवो; कारण के अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने चारित्रमोहना उदय संबंधी राग छे ते ज्ञानसहित छे; ते रागने सम्यग्द्रष्टि कर्मोदयथी थयेलो रोग जाणे छे अने तेने मटाडवा ज इच्छे छे; ते राग प्रत्ये तेने राग नथी. वळी सम्यग्द्रष्टिने रागनो लेशमात्र सद्भाव नथी एम कह्युं छे तेनुं कारण आ प्रमाणे छेःसम्यग्द्रष्टिने अशुभ राग तो अत्यंत गौण छे अने जे शुभ राग थाय छे तेने ते जराय भलो (सारो) समजतो नथीतेना प्रत्ये लेशमात्र राग करतो नथी. वळी निश्चयथी तो तेने रागनुं स्वामित्व ज नथी. माटे तेने लेशमात्र राग नथी.

जो कोई जीव रागने भलो जाणी तेना प्रत्ये लेशमात्र राग करे तोभले ते सर्व शास्त्रो भणी चूक्यो होय, मुनि होय, व्यवहारचारित्र पण पाळतो होय तोपणएम समजवुं के तेणे पोताना आत्मानुं परमार्थस्वरूप नथी जाण्युं, कर्मोदयजनित रागने ज सारो मान्यो छे अने तेनाथी ज पोतानो मोक्ष मान्यो छे. आ रीते पोताना अने परना परमार्थ स्वरूपने नहि जाणतो होवाथी जीव-अजीवना परमार्थ स्वरूपने जाणतो नथी. अने ज्यां जीव अने अजीवबे पदार्थोने ज जाणतो नथी त्यां सम्यग्द्रष्टि केवो? माटे रागी जीव सम्यग्द्रष्टि होई शके नहि.


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(मन्दाक्रान्ता)
आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः
सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः
एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति
।।१३८।।

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छे, जे काव्य द्वारा आचार्यदेव अनादिथी रागादिकने पोतानुं पद जाणी सूतेलां रागी प्राणीओने उपदेश करे छेः

श्लोकार्थः(श्री गुरु संसारी भव्य जीवोने संबोधे छे केः) [ अन्धाः ] हे अंध प्राणीओ! [ आसंसारात् ] अनादि संसारथी मांडीने [ प्रतिपदम् ] पर्याये पर्याये [ अमी रागिणः ] आ रागी जीवो [ नित्यमत्ताः ] सदाय मत्त वर्तता थका [ यस्मिन् सुप्ताः ] जे पदमां सूता छे ऊंघे छे [ तत् ] ते पद अर्थात् स्थान [ अपदम् अपदं ] अपद छेअपद छे, (तमारुं स्थान नथी,) [ विबुध्यध्वम् ] एम तमे समजो. (बे वार कहेवाथी अति करुणाभाव सूचित थाय छे.) [ इतः एत एत ] आ तरफ आवोआ तरफ आवो, (अहीं निवास करो,) [ पदम् इदम् इदं ] तमारुं पद आ छेआ छे [ यत्र ] ज्यां [ शुद्धः शुद्धः चैतन्यधातुः ] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु [ स्व- रस-भरतः ] निज रसनी अतिशयताने लीधे [ स्थायिभावत्वम् एति ] स्थायीभावपणाने प्राप्त छे अर्थात् स्थिर छेअविनाशी छे. (अहीं ‘शुद्ध’ शब्द बे वार कह्यो छे ते द्रव्य अने भाव बन्नेनी शुद्धता सूचवे छे. सर्व अन्यद्रव्योथी जुदो होवाने लीधे आत्मा द्रव्ये शुद्ध छे अने परना निमित्ते थता पोताना भावोथी रहित होवाने लीधे भावे शुद्ध छे.)

भावार्थःजेम कोई महान पुरुष मद्य पीने मलिन जग्यामां सूतो होय तेने कोई आवीने जगाडेसंबोधन करे के ‘‘तारी सूवानी जग्या आ नथी; तारी जग्या तो शुद्ध सुवर्णमय धातुनी बनेली छे, अन्य कुधातुना भेळथी रहित शुद्ध छे अने अति मजबूत छे; माटे हुं तने बतावुं छुं त्यां आव, त्यां शयन आदि करी आनंदित था’’; तेवी रीते आ प्राणीओ अनादि संसारथी मांडीने रागादिकने भला जाणी, तेमने ज पोतानो स्वभाव जाणी, तेमां ज निश्चिंत सूतां छेस्थित छे, तेमने श्री गुरु करुणापूर्वक संबोधे छेजगाडे छेसावधान करे छे के ‘‘हे अंध प्राणीओ! तमे जे पदमां सूतां छो ते तमारुं पद नथी; तमारुं पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय छे, बहारमां अन्य द्रव्योना भेळ विनानुं तेम ज अंतरंगमां विकार विनानुं शुद्ध छे अने स्थायी छे; ते पदने प्राप्त थाओशुद्ध चैतन्यरूप पोताना भावनो आश्रय करो’’. १३८.


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किं नाम तत्पदमित्याह
आदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं
थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण ।।२०३।।
आत्मनि द्रव्यभावानपदानि मुक्त्वा गृहाण तथा नियतम्
स्थिरमेकमिमं भावमुपलभ्यमानं स्वभावेन ।।२०३।।

इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभावेनोपलभ्यमानाः, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षणिकाः, व्यभिचारिणो भावाः, ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः यस्तु तत्स्वभावेनोपलभ्यमानः, नियतत्वावस्थः, एकः, नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः

हवे पूछे छे के (हे गुरुदेव!) ते पद कयुं छे? (ते तमे बतावो). ते प्रश्ननो उत्तर कहे छेः

जीवमां अपदभूत द्रव्यभावो छोडीने ग्रह तुं यथा,
स्थिर, नियत, एक ज भाव जेह स्वभावरूप उपलभ्य आ. २०३.

गाथार्थः[ आत्मनि ] आत्मामां [ अपदानि ] अपदभूत [ द्रव्यभावान् ] द्रव्य-भावोने [ मुक्त्वा ] छोडीने [ नियतम् ] निश्चित, [ स्थिरम् ] स्थिर, [ एकम् ] एक [ इमं ] आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) [ भावम् ] भावने[ स्वभावेन उपलभ्यमानं ] के जे (आत्माना) स्वभावरूपे अनुभवाय छे तेने[ तथा ] (हे भव्य!) जेवो छे तेवो [ गृहाण ] ग्रहण कर. (ते तारुं पद छे.)

टीकाःखरेखर आ भगवान आत्मामां बहु द्रव्य-भावो मध्ये (द्रव्यभावरूप घणा भावो मध्ये), जे अतत्स्वभावे अनुभवाता (अर्थात् आत्माना स्वभावरूपे नहि परंतु परस्वभावरूपे अनुभवाता), अनियत अवस्थावाळा, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे, ते बधाय पोते अस्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण नहि थई शकवा योग्य होवाथी अपदभूत छे; अने जे तत्स्वभावे (अर्थात् आत्माना स्वभावरूपे) अनुभवातो, नियत अवस्थावाळो, एक, नित्य, अव्यभिचारी भाव (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव) छे, ते एक ज पोते स्थायी होवाने लीधे स्थातानुं स्थान अर्थात् रहेनारनुं रहेठाण थई शकवा योग्य होवाथी पदभूत छे. तेथी समस्त अस्थायी भावोने छोडी, जे स्थायीभावरूप छे एवुं परमार्थरसपणे


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ततः सर्वानेवास्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यम्

(अनुष्टुभ्)
एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्
अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ।।१३९।।
(शार्दूलविक्रीडित)
एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन्
स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्
आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं
सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्
।।१४०।।

स्वादमां आवतुं आ ज्ञान एक ज आस्वादवायोग्य छे.

भावार्थःपूर्वे वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भावो कह्या हता ते बधाय, आत्मामां अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भावो छे. आत्मा स्थायी छे (सदा विद्यमान छे) अने ते बधा भावो अस्थायी छे (नित्य टकता नथी), तेथी तेओ आत्मानुं स्थानरहेठाणथई शकता नथी अर्थात् तेओ आत्मानुं पद नथी. जे आ स्वसंवेदनरूप ज्ञान छे ते नियत छे, एक छे, नित्य छे, अव्यभिचारी छे. आत्मा स्थायी छे अने आ ज्ञान पण स्थायी भाव छे तेथी ते आत्मानुं पद छे. ते एक ज ज्ञानीओ वडे आस्वाद लेवा योग्य छे.

हवे आ अर्थनो कळशरूप श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[ तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं ] ते एक ज पद आस्वादवायोग्य छे [ विपदाम् अपदं ] के जे विपत्तिओनुं अपद छे (अर्थात् जेमां आपदाओ स्थान पामी शकती नथी) अने [ यत्पुरः ] जेनी आगळ [ अन्यानि पदानि ] अन्य (सर्व) पदो [ अपदानि एव भासन्ते ] अपद ज भासे छे.

भावार्थःएक ज्ञान ज आत्मानुं पद छे. तेमां कोई पण आपदा प्रवेशी शकती नथी अने तेनी आगळ अन्य सर्व पदो अपदस्वरूप भासे छे (कारण के तेओ आकुळतामय छेआपत्तिरूप छे). १३९.

वळी कहे छे के आत्मा ज्ञाननो अनुभव करे छे त्यारे आम करे छेः

श्लोकार्थः[ एक-ज्ञायकभाव-निर्भर-महास्वादं समासादयन् ] एक ज्ञायकभावथी भरेला महास्वादने लेतो, (ए रीते ज्ञानमां ज एकाग्र थतां बीजो स्वाद आवतो नथी माटे) [ द्वन्द्वमयं


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तथाहि
आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं
सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि ।।२०४।।
आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च तद्भवत्येकमेव पदम्
स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृत्तिं याति ।।२०४।।

स्वादं विधातुम् असहः ] द्वंद्वमय स्वादने लेवा असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक, रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञानना भेदोनो स्वाद लेवाने असमर्थ ), [ आत्म-अनुभव-अनुभाव-विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ] आत्माना अनुभवनास्वादना प्रभावने आधीन थयो होवाथी निज वस्तुवृत्तिने (आत्मानी शुद्धपरिणतिने) जाणतोआस्वादतो ( अर्थात् आत्माना अद्वितीय स्वादना अनुभवनमांथी बहार नहि आवतो) [ एषः आत्मा ] आ आत्मा [ विशेष-उदयं भ्रश्यत् ] ज्ञानना विशेषोना उदयने गौण करतो, [ सामान्यं कलयन् किल ] सामान्यमात्र ज्ञानने अभ्यासतो, [ सकलं ज्ञानं ] सकळ ज्ञानने [ एकताम् नयति ] एकपणामां लावे छेएकरूपे प्राप्त करे छे.

भावार्थःआ एक स्वरूपज्ञानना रसीला स्वाद आगळ अन्य रस फिक्का छे. वळी स्वरूपज्ञानने अनुभवतां सर्व भेदभावो मटी जाय छे. ज्ञानना विशेषो ज्ञेयना निमित्ते थाय छे. ज्यारे ज्ञानसामान्यनो स्वाद लेवामां आवे त्यारे ज्ञानना सर्व भेदो पण गौण थई जाय छे, एक ज्ञान ज ज्ञेयरूप थाय छे.

अहीं प्रश्न थाय छे के छद्मस्थने पूर्णरूप केवळज्ञाननो स्वाद कई रीते आवे? आ प्रश्ननो उत्तर पहेलां शुद्धनयनुं कथन करतां देवाई गयो छे के शुद्धनय आत्मानुं शुद्ध पूर्ण स्वरूप जणावतो होवाथी शुद्धनय द्वारा पूर्णरूप केवळज्ञाननो परोक्ष स्वाद आवे छे. १४०.

हवे, ‘कर्मना क्षयोपशमना निमित्ते ज्ञानमां भेद होवा छतां तेनुं स्वरूप विचारवामां आवे तो ज्ञान एक ज छे अने ते ज्ञान ज मोक्षनो उपाय छे’ एवा अर्थनी गाथा कहे छेः

मति, श्रुत, अवधि, मनः, केवल तेह पद एक ज खरे,
आ ज्ञानपद परमार्थ छे जे पामी जीव मुक्ति लहे. २०४.

गाथार्थः[ आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च ] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अने केवळज्ञान[ तत् ] ते [ एकम् एव ] एक ज [ पदम् भवति ] पद छे (कारण के ज्ञानना सर्व भेदो ज्ञान ज छे); [ सः एषः परमार्थः ] ते आ परमार्थ छे (शुद्धनयना


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आत्मा किल परमार्थः, तत्तु ज्ञानम्; आत्मा च एक एव पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव पदं; यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थः साक्षान्मोक्षोपायः न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिन्दन्ति, किन्तु तेऽपीदमेवैकं पदमभिनन्दन्ति तथाहियथात्र सवितुर्घनपटलावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकटयमासादयतः प्रकाशनातिशयभेदा न तस्य प्रकाशस्वभावं भिन्दन्ति, तथा आत्मनः कर्मपटलोदयावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकटयमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिन्द्युः, किन्तु प्रत्युत तमभिनन्देयुः ततो निरस्तसमस्तभेदमात्मस्वभावभूतं ज्ञानमेवैकमालम्ब्यम् तदालम्बनादेव भवति पदप्राप्तिः, नश्यति भ्रान्तिः, भवत्यात्मलाभः, सिध्यत्यनात्मपरिहारः, न कर्म मूर्छति, न रागद्वेषमोहा उत्प्लवन्ते, न पुनः कर्म आस्रवति, न पुनः कर्म बध्यते, प्राग्बद्धं कर्म उपभुक्तं निर्जीर्यते,


विषयभूत ज्ञानसामान्य ज आ परमार्थ छे) [ यं लब्ध्वा ] के जेने पामीने [ निर्वृतिं याति ] आत्मा निर्वाणने प्राप्त थाय छे.

टीकाःआत्मा खरेखर परमार्थ ( परम पदार्थ ) छे अने ते (आत्मा) ज्ञान छे; वळी आत्मा एक ज पदार्थ छे; तेथी ज्ञान पण एक ज पद छे. जे आ ज्ञान नामनुं एक पद छे ते आ परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष-उपाय छे. अहीं, मतिज्ञान आदि (ज्ञानना) भेदो आ एक पदने भेदता नथी परंतु तेओ पण आ ज एक पदने अभिनंदे छे (टेको आपे छे). ते द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छे जेवी रीते आ जगतमां वादळांना पटलथी ढंकायेलो सूर्य के जे वादळांना *विघटन अनुसारे प्रगटपणुं पामे छे, तेना (अर्थात् सूर्यना) प्रकाशननी (प्रकाशवानी) हीनाधिकतारूप भेदो तेना (सामान्य) प्रकाशस्वभावने भेदता नथी, तेवी रीते कर्मपटलना उदयथी ढंकायेलो आत्मा के जे कर्मना विघटन (क्षयोपशम) अनुसारे प्रगटपणुं पामे छे, तेना ज्ञाननी हीनाधिकतारूप भेदो तेना (सामान्य) ज्ञानस्वभावने भेदता नथी परंतु ऊलटा तेने अभिनंदे छे. माटे जेमां समस्त भेद दूर थया छे एवा आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं. तेना आलंबनथी ज (निज) पदनी प्राप्ति थाय छे, भ्रांतिनो नाश थाय छे, आत्मानो लाभ थाय छे, अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे, (एम थवाथी) कर्म जोरावर थई शकतुं नथी, रागद्वेषमोह उत्पन्न थता नथी, (रागद्वेषमोह विना) फरी कर्म आस्रवतुं नथी, (आस्रव विना) फरी कर्म बंधातुं नथी, पूर्वे बंधायेलुं कर्म भोगवायुं थकुं निर्जरी जाय छे, समस्त कर्मनो अभाव थवाथी साक्षात् मोक्ष

41

* विघटन = छूटुं पडवुं ते; विखराई जवुं ते; नाश.


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कृत्स्नकर्माभावात् साक्षान्मोक्षो भवति

(शार्दूलविक्रीडित)
अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो
निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव
यस्याभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन्
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः
।।१४१।।

किञ्च थाय छे. (आवुं ज्ञानना आलंबननुं माहात्म्य छे.)

भावार्थःकर्मना क्षयोपशम अनुसार ज्ञानमां जे भेदो थया छे ते कांई ज्ञानसामान्यने अज्ञानरूप नथी करता, ऊलटा ज्ञानने प्रगट करे छे; माटे भेदोने गौण करी, एक ज्ञानसामान्यनुं आलंबन लई आत्मानुं ध्यान धरवुं; तेनाथी सर्व सिद्धि थाय छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ निष्पीत-अखिल-भाव-मण्डल-रस-प्राग्भार-मत्ताः इव ] पी जवामां आवेलो जे समस्त पदार्थोना समूहरूपी रस तेनी अतिशयताथी जाणे के मत्त थई गई होय एवी [ यस्य इमाः अच्छ-अच्छाः संवेदनव्यक्तयः ] जेनी आ निर्मळथी पण निर्मळ संवेदनव्यक्तिओ (ज्ञानपर्यायो, अनुभवमां आवता ज्ञानना भेदो) [ यद् स्वयम् उच्छलन्ति ] आपोआप ऊछळे छे, [ सः एषः भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः ] ते आ भगवान अद्भुत निधिवाळो चैतन्यरत्नाकर, [ अभिन्नरसः ] ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो साथे जेनो रस अभिन्न छे एवो, [ एकः अपि अनेकीभवन् ] एक होवा छतां अनेक थतो, [ उत्कलिकाभिः ] ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगो वडे [ वल्गति ] दोलायमान थाय छेऊछळे छे.

भावार्थःजेम घणां रत्नोवाळो समुद्र एक जळथी ज भरेलो छे अने तेमां नाना मोटा अनेक तरंगो ऊछळे छे ते एक जळरूप ज छे, तेम घणा गुणोनो भंडार आ ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजळथी ज भरेलो छे अने कर्मना निमित्तथी ज्ञानना अनेक भेदो व्यक्तिओ आपोआप प्रगट थाय छे ते व्यक्तिओ एक ज्ञानरूप ज जाणवी, खंडखंडरूपे न अनुभववी. १४१.

हवे वळी विशेष कहे छेः


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(शार्दूलविक्रीडित)
क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्
साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि
।।१४२।।
णाणगुणेण विहीणा एदं तु पदं बहू वि ण लहंते
तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ।।२०५।।
ज्ञानगुणेन विहीना एतत्तु पदं बहवोऽपि न लभन्ते
तद् गृहाण नियतमेतद् यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षम् ।।२०५।।

श्लोकार्थः[ दुष्करतरैः ] कोई जीवो तो अति दुष्कर (महा दुःखे करी शकाय एवां) अने [ मोक्ष-उन्मुखैः ] मोक्षथी पराङ्मुख एवां [ कर्मभिः ] कर्मो वडे [ स्वयमेव ] स्वयमेव (अर्थात् जिनाज्ञा विना) [ क्लिश्यन्तां ] क्लेश पामे तो पामो [ च ] अने [ परे ] बीजा कोई जीवो [ महाव्रत-तपः-भारेण ] (मोक्षनी संमुख अर्थात् कथंचित् जिनाज्ञामां कहेलां) महाव्रत अने तपना भारथी [ चिरम् ] घणा वखत सुधी [ भग्नाः ] भग्न थया थका (तूटी मरता थका) [ क्लिश्यन्तां ] क्लेश पामे तो पामो; (परंतु) [ साक्षात् मोक्षः ] जे साक्षात् मोक्षस्वरूप छे, [ निरामयपदं ] निरामय (रोगादि समस्त क्लेश विनानुं) पद छे अने [ स्वयं संवेद्यमानं ] स्वयं संवेद्यमान छे (अर्थात् पोतानी मेळे पोते वेदवामां आवे छे) एवुं [ इदं ज्ञानं ] आ ज्ञान तो [ ज्ञानगुणं विना ] ज्ञानगुण विना [ कथम् अपि ] कोई पण रीते [ प्राप्तुं न हि क्षमन्ते ] तेओ प्राप्त करी शकता ज नथी.

भावार्थःज्ञान छे ते साक्षात् मोक्ष छे; ते ज्ञानथी ज मळे छे, अन्य कोई क्रियाकांडथी तेनी प्राप्ति थती नथी. १४२.

हवे आ ज उपदेश गाथामां करे छेः

बहु लोक ज्ञानगुणे रहित आ पद नहीं पामी शके;
रे! ग्रहण कर तुं नियत आ, जो कर्ममोक्षेच्छा तने. २०५.

गाथार्थः[ ज्ञानगुणेन विहीनाः ] ज्ञानगुणथी रहित [ बहवः अपि ] घणाय लोको (घणा प्रकारनां कर्म करवा छतां) [ एतत् पदं तु ] आ ज्ञानस्वरूप पदने [ न लभन्ते ] पामता नथी;


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यतो हि सकलेनापि कर्मणा, कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनात्, ज्ञानस्यानुपलम्भः केवलेन ज्ञानेनैव, ज्ञान एव ज्ञानस्य प्रकाशनात्, ज्ञानस्योपलम्भः ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा ज्ञानशून्या नेदमुपलभन्ते, इदमनुपलभमानाश्च कर्मभिर्न मुच्यन्ते ततः कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञानावष्टम्भेन नियतमेवेदमेकं पदमुपलम्भनीयम्

(द्रुतविलम्बित)
पदमिदं ननु कर्मदुरासदं
सहजबोधकलासुलभं किल
तत इदं निजबोधकलाबलात्
कलयितुं यततां सततं जगत्
।।१४३।।

[ तद् ] माटे हे भव्य! [ यदि ] जो तुं [ कर्मपरिमोक्षम् ] कर्मथी सर्वथा मुक्त थवा [ इच्छसि ] इच्छतो हो तो [ नियतम् एतत् ] नियत एवा आने (ज्ञानने) [ गृहाण ] ग्रहण कर.

टीकाःकर्ममां (कर्मकांडमां) ज्ञाननुं प्रकाशवुं नहि होवाथी सघळांय कर्मथी ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी; ज्ञानमां ज ज्ञाननुं प्रकाशवुं होवाथी केवळ (एक) ज्ञानथी ज ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. माटे ज्ञानशून्य घणाय जीवो, पुष्कळ (घणा प्रकारनां) कर्म करवाथी पण आ ज्ञानपदने पामता नथी अने आ पदने नहि पामता थका तेओ कर्मोथी मुक्त थता नथी; माटे कर्मथी मुक्त थवा इच्छनारे केवळ (एक) ज्ञानना आलंबनथी, नियत ज एवुं आ एक पद प्राप्त करवायोग्य छे.

भावार्थःज्ञानथी ज मोक्ष थाय छे, कर्मथी नहि; माटे मोक्षार्थीए ज्ञाननुं ज ध्यान करवुं एम उपदेश छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ इदं पदम् ] आ (ज्ञानस्वरूप) पद [ ननु कर्मदुरासदं ] कर्मथी खरेखर दुरासद छे अने [ सहज-बोध-कला-सुलभं किल ] सहज ज्ञाननी कळा वडे खरेखर सुलभ छे; [ ततः ] माटे [ निज-बोध-कला-बलात् ] निजज्ञाननी कळाना बळथी [ इदं कलयितुं ] आ पदने अभ्यासवाने [ जगत् सततं यततां ] जगत सतत प्रयत्न करो.

भावार्थःसर्व कर्मने छोडावीने ज्ञानकळाना बळ वडे ज ज्ञाननो अभ्यास करवानो

१. दुरासद = दुष्प्राप्य; अप्राप्य; न जीती शकाय एवुं.
२. अहीं ‘अभ्यासवाने’ एवा अर्थने बदले ‘अनुभववाने’, ‘प्राप्त करवाने’ एम अर्थ पण थाय छे.


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किञ्च
एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि
एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।।२०६।।
एतस्मिन् रतो नित्यं सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन्
एतेन भव तृप्तो भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम् ।।२०६।।

एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि एतावत्येव सत्याशीः यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव सन्तोषमुपैहि एतावदेव सत्यमनुभवनीयं यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि अथैवं तव नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसन्तुष्टस्य, आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति तत्तु तत्क्षण


आचार्यदेवे उपदेश कर्यो छे. ज्ञाननी ‘कळा’ कहेवाथी एम सूचन थाय छे केःज्यां सुधी पूर्ण कळा (केवळज्ञान) प्रगट न थाय त्यां सुधी ज्ञान हीनकळास्वरूपमतिज्ञानादिरूप छे; ज्ञाननी ते कळाना आलंबन वडे ज्ञाननो अभ्यास करवाथी केवळज्ञान अर्थात् पूर्ण कळा प्रगटे छे. १४३.

हवेनी गाथामां आ ज उपदेश विशेष करे छेः

आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे. २०६.

गाथार्थः(हे भव्य प्राणी!) तुं [ एतस्मिन् ] आमां (ज्ञानमां) [ नित्यं ] नित्य [ रतः ] रत अर्थात् प्रीतिवाळो था, [ एतस्मिन् ] आमां [ नित्यं ] नित्य [ सन्तुष्टः भव ] संतुष्ट था अने [ एतेन ] आनाथी [ तृप्तः भव ] तृप्त था; (आम करवाथी) [ तव ] तने [ उत्तमं सौख्यम् ] उत्तम सुख [ भविष्यति ] थशे.

टीकाः(हे भव्य!) एटलो ज सत्य (परमार्थस्वरूप) आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छेएम निश्चय करीने ज्ञानमात्रमां ज सदाय रति (प्रीति, रुचि) पाम; एटलुं ज सत्य कल्याण छे जेटलुं आ ज्ञान छेएम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी ज सदाय संतोष पाम; एटलुं ज सत्य अनुभवनीय (अनुभव करवायोग्य) छे जेटलुं आ ज्ञान छेएम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी ज सदाय तृप्ति पाम. एम सदाय आत्मामां रत, आत्माथी संतुष्ट अने आत्माथी


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एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि, मा अन्यान् प्राक्षीः

(उपजाति)
अचिन्त्यशक्ति : स्वयमेव देव-
श्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात्
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते
ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण
।।१४४।।

कुतो ज्ञानी परं न परिगृह्णातीति चेत् तृप्त एवा तने वचनथी अगोचर एवुं सुख थशे; अने ते सुख ते क्षणे ज तुं ज स्वयमेव देखशे, *बीजाओने न पूछ. (ते सुख पोताने ज अनुभवगोचर छे, बीजाने शा माटे पूछवुं पडे?)

भावार्थःज्ञानमात्र आत्मामां लीन थवुं, तेनाथी ज संतुष्ट थवुं अने तेनाथी ज तृप्त थवुंए परम ध्यान छे. तेनाथी वर्तमान आनंद अनुभवाय छे अने थोडा ज काळमां ज्ञानानंदस्वरूप केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. आवुं करनार पुरुष ज ते सुखने जाणे छे, बीजानो एमां प्रवेश नथी.

हवे ज्ञानानुभवना महिमानुं अने आगळनी गाथानी सूचनानुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ यस्मात् ] कारण के [ एषः ] आ (ज्ञानी) [ स्वयम् एव ] पोते ज [ अचिन्त्यशक्तिः देवः ] अचिंत्य शक्तिवाळो देव छे अने [ चिन्मात्र-चिन्तामणिः ] चिन्मात्र चिंतामणि छे (अर्थात् चैतन्यरूप चिंतामणि रत्न छे), माटे [ सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया ] जेना सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध छे एवा स्वरूपे होवाथी [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ अन्यस्य परिग्रहेण ] अन्यना परिग्रहथी [ किम् विधत्ते ] शुं करे? (कांई ज करवानुं नथी.)

भावार्थःआ ज्ञानमूर्ति आत्मा पोते ज अनंत शक्तिनो धारक देव छे अने पोते ज चैतन्यरूपी चिंतामणि होवाथी वांछित कार्यनी सिद्धि करनारो छे; माटे ज्ञानीने सर्व प्रयोजन सिद्ध होवाथी तेने अन्य परिग्रहनुं सेवन करवाथी शुं साध्य छे? अर्थात् कांई ज साध्य नथी. आम निश्चयनयनो उपदेश छे. १४४.

हवे पूछे छे के ज्ञानी परने केम ग्रहतो नथी? तेनो उत्तर कहे छेः

*मा अन्यान् प्राक्षीः (बीजाओने न पूछ) नो पाठान्तरमाऽतिप्राक्षीः (अतिप्रश्नो न कर)


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को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं
अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो ।।२०७।।
को नाम भणेद्बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यम्
आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन् ।।२०७।।

यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्वो भावः स तस्य स्वः स तस्य स्वामी इति खरतरतत्त्वद्रष्टयवष्टम्भात्, आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियमेन विजानाति, ततो न ममेदं स्वं, नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृह्णाति

अतोऽहमपि न तत् परिगृह्णामि
‘परद्रव्य आ मुज द्रव्य’ एवुं कोण ज्ञानी कहे अरे!
निज आत्मने निजनो परिग्रह जाणतो जे निश्चये? २०७.

गाथार्थः[ आत्मानम् तु ] पोताना आत्माने ज [ नियतं ] नियमथी [ आत्मनः परिग्रहं ] पोतानो परिग्रह [ विजानन् ] जाणतो थको [ कः नाम बुधः ] कयो ज्ञानी [ भणेत् ] एम कहे के [ इदं परद्रव्यं ] आ परद्रव्य [ मम द्रव्यम् ] मारुं द्रव्य [ भवति ] छे?

टीकाःजे जेनो स्वभाव छे ते तेनुं ‘स्व’ छे अने ते तेनो (स्व भावनो) स्वामी छेएम सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी ज्ञानी (पोताना) आत्माने ज आत्मानो परिग्रह नियमथी जाणे छे, तेथी ‘‘आ मारुं ‘स्व’ नथी, हुं आनो स्वामी नथी’’ एम जाणतो थको परद्रव्यने परिग्रहतो नथी (अर्थात् परद्रव्यने पोतानो परिग्रह करतो नथी).

भावार्थःलोकमां एवी रीत छे के समजदार डाह्यो माणस परनी वस्तुने पोतानी जाणतो नथी, तेने ग्रहण करतो नथी. तेवी ज रीते परमार्थज्ञानी पोताना स्वभावने ज पोतानुं धन जाणे छे, परना भावने पोतानो जाणतो नथी, तेने ग्रहण करतो नथी. आ रीते ज्ञानी परनुं ग्रहणसेवन करतो नथी.

‘‘माटे हुं पण परद्रव्यने नहि परिग्रहुं’’ एम हवे (मोक्षाभिलाषी जीव) कहे छेः

१. स्व = धन; मिलकत; मालिकीनी चीज.


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मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज
णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।।२०८।।
मम परिग्रहो यदि ततोऽहमजीवतां तु गच्छेयम्
ज्ञातैवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम ।।२०८।।

यदि परद्रव्यमजीवमहं परिगृह्णीयां तदावश्यमेवाजीवो ममासौ स्वः स्यात्, अहमप्य- वश्यमेवाजीवस्यामुष्य स्वामी स्याम् अजीवस्य तु यः स्वामी, स किलाजीव एव एवमवशेनापि ममाजीवत्वमापद्येत मम तु एको ज्ञायक एव भावः यः स्वः, अस्यैवाहं स्वामी; ततो मा भून्ममाजीवत्वं, ज्ञातैवाहं भविष्यामि, न परद्रव्यं परिगृह्णामि

अयं च मे निश्चयः
परिग्रह कदी मारो बने तो हुं अजीव बनुं खरे,
हुं तो खरे ज्ञाता ज, तेथी नहि परिग्रह मुज बने. २०८.

गाथार्थः[ यदि ] जो [ परिग्रहः ] परद्रव्य-परिग्रह [ मम ] मारो होय [ ततः ] तो [ अहम् ] हुं [ अजीवतां तु ] अजीवपणाने [ गच्छेयम् ] पामुं. [ यस्मात् ] कारण के [ अहं ] हुं तो [ ज्ञाता एव ] ज्ञाता ज छुं [ तस्मात् ] तेथी [ परिग्रहः ] (परद्रव्यरूप) परिग्रह [ मम न ] मारो नथी.

टीकाःजो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं ‘स्व’ थाय, हुं पण अवश्यमेव ते अजीवनो स्वामी थाउं; अने अजीवनो जे स्वामी ते खरेखर अजीव ज होय. ए रीते अवशे (लाचारीथी) पण मने अजीवपणुं आवी पडे. मारुं तो एक ज्ञायक भाव ज जे ‘स्व’ छे, तेनो ज हुं स्वामी छुं; माटे मने अजीवपणुं न हो, हुं तो ज्ञाता ज रहीश, परद्रव्यने नहि परिग्रहुं.

भावार्थःनिश्चयनयथी ए सिद्धांत छे के जीवनो भाव जीव ज छे, तेनी साथे जीवने स्व-स्वामी संबंध छे; अने अजीवनो भाव अजीव ज छे, तेनी साथे अजीवने स्व- स्वामी संबंध छे. जो जीवने अजीवनो परिग्रह मानवामां आवे तो जीव अजीवपणाने पामे; माटे जीवने अजीवनो परिग्रह परमार्थे मानवो ते मिथ्याबुद्धि छे. ज्ञानीने एवी मिथ्याबुद्धि होय नहि. ज्ञानी तो एम माने छे के परद्रव्य मारो परिग्रह नथी, हुं तो ज्ञाता छुं.

‘वळी आ (नीचे प्रमाणे) मारो निश्चय छे’ एम हवे कहे छेः


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छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं
जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ ।।२०९।।
छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वाथवा यातु विप्रलयम्
यस्मात्तस्मात् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम ।।२०९।।

छिद्यतां वा, भिद्यतां वा, नीयतां वा, विप्रलयं यातु वा, यतस्ततो गच्छतु वा, तथापि न परद्रव्यं परिगृह्णामि; यतो न परद्रव्यं मम स्वं, नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वं, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम स्वं, अहमेव मम स्वामी इति जानामि

(वसन्ततिलका)
इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव
सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम्
अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद्
भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः
।।१४५।।
छेदाव, वा भेदाव, को लई जाव, नष्ट बनो भले,
वा अन्य को रीत जाव, पण परिग्रह नथी मारो खरे. २०९.

गाथार्थः[ छिद्यतां वा ] छेदाई जाओ, [ भिद्यतां वा ] अथवा भेदाई जाओ, [ नीयतां वा ] अथवा कोई लई जाओ, [ अथवा विप्रलयम् यातु ] अथवा नष्ट थई जाओ, [ यस्मात् तस्मात् गच्छतु ] अथवा तो गमे ते रीते जाओ, [ तथापि ] तोपण [ खलु ] खरेखर [ परिग्रहः ] परिग्रह [ मम न ] मारो नथी.

टीकाःपरद्रव्य छेदाओ, अथवा भेदाओ, अथवा कोई तेने लई जाओ, अथवा नष्ट थई जाओ, अथवा गमे ते रीते जाओ, तोपण हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं; कारण के ‘परद्रव्य मारुं स्व नथी,हुं परद्रव्यनो स्वामी नथी, परद्रव्य ज परद्रव्यनुं स्व छे, परद्रव्य ज परद्रव्यनो स्वामी छे, हुं ज मारुं स्व छुं,हुं ज मारो स्वामी छुं’एम हुं जाणुं छुं.

भावार्थःज्ञानीने परद्रव्यना बगडवा-सुधरवानो हर्षविषाद होतो नथी.

हवे आ अर्थना कळशरूपे अने आगळना कथननी सूचनारूपे काव्य कहे छेः

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