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जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि ।।१५४।।
उज्ज्वळताने जाणता नथी. मिथ्याद्रष्टि तो बहिरात्मा छे, बहारथी ज भलुं बूरुं माने छे; अंतरात्मानी गति बहिरात्मा शुं जाणे? १५३.
श्लोकार्थः — [ यत् भय-चलत्-त्रैलोक्य-मुक्त-अध्वनि वज्रे पतति अपि ] जेना भयथी चलायमान थता — खळभळी जता — त्रणे लोक पोतानो मार्ग छोडी दे छे एवो वज्रपात थवा छतां, [ अमी ] आ सम्यग्द्रष्टि जीवो, [ निसर्ग-निर्भयतया ] स्वभावथी ज निर्भय होवाने लीधे, [ सर्वाम् एव शङ्कां विहाय ] समस्त शंका छोडीने, [ स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः ] पोते पोताने (अर्थात् आत्माने) जेनुं ज्ञानरूपी शरीर अवध्य (अर्थात् कोईथी हणी शकाय नहि एवुं) छे एवो जाणता थका, [ बोधात् च्यवन्ते न हि ] ज्ञानथी च्युत थता नथी. [ इदं परं साहसम् सम्यग्द्रष्टयः एव क र्तुं क्षमन्ते ] आवुं परम साहस करवाने मात्र सम्यग्द्रष्टिओ ज समर्थ छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टि निःशंकितगुण सहित होय छे तेथी गमे तेवा शुभाशुभ कर्मना उदय वखते पण तेओ ज्ञानरूपे ज परिणमे छे. जेना भयथी त्रण लोकना जीवो कंपी ऊठे छे — खळभळी जाय छे अने पोतानो मार्ग छोडी दे छे एवो वज्रपात थवा छतां सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना स्वरूपने ज्ञानशरीरवाळुं मानतो थको ज्ञानथी चलायमान थतो नथी. तेने एम शंका नथी थती के आ वज्रपातथी मारो नाश थई जशे; पर्यायनो विनाश थाय तो ठीक ज छे कारण के तेनो तो विनाशिक स्वभाव ज छे. १५४.
हवे आ अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः —
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येन नित्यमेव सम्यग्द्रष्टयः सकलकर्मफलनिरभिलाषाः सन्तोऽत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते, तेन नूनमेते अत्यन्तनिश्शङ्कदारुणाध्यवसायाः सन्तोऽत्यन्तनिर्भयाः सम्भाव्यन्ते ।
श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः ।
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५५।।
गाथार्थः — [ सम्यग्दृष्टयः जीवाः ] सम्यग्द्रष्टि जीवो [ निश्शङ्काः भवन्ति ] निःशंक होय छे [ तेन ] तेथी [ निर्भयाः ] निर्भय होय छे; [ तु ] अने [ यस्मात् ] कारण के [ सप्तभयविप्रमुक्ताः ] सप्त भयथी रहित होय छे [ तस्मात् ] तेथी [ निश्शङ्काः ] निःशंक होय छे ( – अडोल होय छे).
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टिओ सदाय सर्व कर्मोनां फळ प्रत्ये निरभिलाष होवाथी कर्म प्रत्ये अत्यंत निरपेक्षपणे वर्ते छे, तेथी खरेखर तेओ अत्यंत निःशंक दारुण (द्रढ) निश्चयवाळा होवाथी अत्यंत निर्भय छे एम संभावना करवामां आवे छे (अर्थात् एम योग्यपणे गणवामां आवे छे).
हवे सात भयनां कळशरूप काव्यो कहेवामां आवे छे, तेमां प्रथम आ लोकना तथा परलोकना एम बे भयनुं एक काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ एषः ] आ चित्स्वरूप लोक ज [ विविक्तात्मनः ] भिन्न आत्मानो (अर्थात् परथी भिन्नपणे परिणमता आत्मानो) [ शाश्वतः एक : सक ल-व्यक्त : लोक : ] शाश्वत, एक अने सकलव्यक्त ( – सर्व काळे प्रगट एवो) लोक छे; [ यत् ] कारण के [ के वलम् चित्- लोकं ] मात्र चित्स्वरूप लोकने [ अयं स्वयमेव एक क : लोक यति ] आ ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकलो अवलोके छे — अनुभवे छे. आ चित्स्वरूप लोक ज तारो छे, [ तद्-अपरः ] तेनाथी बीजो कोई लोक — [ अयं लोक : अपरः ] आ लोक के परलोक — [ तव न ] तारो नथी एम ज्ञानी विचारे छे, जाणे छे, [ तस्य तद्-भीः कु तः अस्ति ] तेथी ज्ञानीने आ लोकनो तथा परलोकनो
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निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः ।
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५६।।
भय क्यांथी होय? [ सः स्वयं सततं निश्शङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने (पोताना ज्ञानस्वभावने) सदा अनुभवे छे.
भावार्थः — ‘आ भवमां जीवन पर्यंत अनुकूळ सामग्री रहेशे के नहि?’ एवी चिंता रहे ते आ लोकनो भय छे. ‘परभवमां मारुं शुं थशे?’ एवी चिंता रहे ते परलोकनो भय छे. ज्ञानी जाणे छे के — आ चैतन्य ज मारो एक, नित्य लोक छे के जे सर्व काळे प्रगट छे. आ सिवायनो बीजो कोई लोक मारो नथी. आ मारो चैतन्यस्वरूप लोक तो कोईथी बगाड्यो बगडतो नथी. आवुं जाणता ज्ञानीने आ लोकनो के परलोकनो भय क्यांथी होय? कदी न होय. ते तो पोताने स्वाभाविक ज्ञानरूप ज अनुभवे छे. १५५.
हवे वेदनाभयनुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ निर्भेद-उदित-वेद्य-वेदक -बलात् ] अभेदस्वरूप वर्तता वेद्य-वेदकना बळथी (अर्थात् वेद्य अने वेदक अभेद ज होय छे एवी वस्तुस्थितिना बळथी) [ यद् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकु लैः सदा वेद्यते ] एक अचळ ज्ञान ज स्वयं निराकुळ पुरुषो वडे ( – ज्ञानीओ वडे) सदा वेदाय छे, [ एषा एका एव हि वेदना ] ते आ एक ज वेदना (ज्ञानवेदन) ज्ञानीओने छे. (आत्मा वेदनार छे अने ज्ञान वेदावायोग्य छे.) [ ज्ञानिनः अन्या आगत-वेदना एव हि न एव भवेत् ] ज्ञानीने बीजी कोई आवेली ( – पुद्गलथी थयेली) वेदना होती ज नथी, [ तद्-भीः कु तः ] तेथी तेने वेदनानो भय क्यांथी होय? [ सः स्वयं सततं निश्शङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.
भावार्थः — सुखदुःखने भोगववुं ते वेदना छे. ज्ञानीने पोताना एक ज्ञानमात्र स्वरूपनो ज भोगवटो छे. ते पुद्गलथी थयेली वेदनाने वेदना ज जाणतो नथी. माटे ज्ञानीने वेदनाभय नथी. ते तो सदा निर्भय वर्ततो थको ज्ञानने अनुभवे छे. १५६.
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र्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः ।
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५७।।
च्छक्त : कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः ।
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५८।।
हवे अरक्षाभयनुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्ता] जे सत् छे ते नाश पामतुं नथी एवी वस्तुस्थिति नियतपणे प्रगट छे. [तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत् ] आ ज्ञान पण स्वयमेव सत् (अर्थात् सत्स्वरूप वस्तु) छे (माटे नाश पामतुं नथी), [ततः अपरैः अस्य त्रातं किं] तेथी वळी पर वडे तेनुं रक्षण शुं? [अतः अस्य किञ्चन अत्राणं न भवेत् ] आ रीते (ज्ञान पोताथी ज रक्षित होवाथी) तेनुं जरा पण अरक्षण थई शकतुं नथी [ज्ञानिनः तद्-भी कुतः] माटे (आवुं जाणता) ज्ञानीने अरक्षानो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.
भावार्थः — सत्तास्वरूप वस्तुनो कदी नाश थतो नथी. ज्ञान पण पोते सत्तास्वरूप वस्तु छे; तेथी ते एवुं नथी के जेनी बीजाओ वडे रक्षा करवामां आवे तो रहे, नहि तो नष्ट थई जाय. ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने अरक्षानो भय नथी; ते तो निःशंक वर्ततो थको पोते पोताना स्वाभाविक ज्ञानने सदा अनुभवे छे. १५७.
हवे अगुप्तिभयनुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति] खरेखर वस्तुनुं स्व-रूप ज (अर्थात् निज रूप ज) वस्तुनी परम ‘गुप्ति’ छे [यत् स्वरूपे कः अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्त :] कारण के स्वरूपमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी; [च] अने [अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं] अकृत ज्ञान ( – जे कोईथी करवामां आव्युं नथी एवुं स्वाभाविक ज्ञान – ) पुरुषनुं अर्थात् आत्मानुं
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ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् ।
निश्शङ्क सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५९।।
स्वरूप छे; (तेथी ज्ञान आत्मानी परम गुप्ति छे.) [अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत्] माटे आत्मानुं जरा पण अगुप्तपणुं नहि होवाथी [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः] ज्ञानीने अगुप्तिनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.
भावार्थः — ‘गुप्ति’ एटले जेमां कोई चोर वगेरे प्रवेश न करी शके एवो किल्लो, भोंयरुं वगेरे; तेमां प्राणी निर्भयपणे वसी शके छे. एवो गुप्त प्रदेश न होय पण खुल्लो प्रदेश होय तो तेमां रहेनार प्राणीने अगुप्तपणाने लीधे भय रहे छे. ज्ञानी जाणे छे के — वस्तुना निज स्वरूपमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी माटे वस्तुनुं स्वरूप ज वस्तुनी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किल्लो छे. पुरुषनुं अर्थात् आत्मानुं स्वरूप ज्ञान छे; ते ज्ञानस्वरूपमां रहेलो आत्मा गुप्त छे कारण के ज्ञानस्वरूपमां बीजुं कोई प्रवेशी शकतुं नथी. आवुं जाणता ज्ञानीने अगुप्तपणानो भय क्यांथी होय? ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपने निरंतर अनुभवे छे. १५८.
हवे मरणभयनुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति] प्राणोना नाशने (लोको) मरण कहे छे. [अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं] आ आत्माना प्राण तो निश्चयथी ज्ञान छे. [तत् स्वयमेव शाश्वततया जातुचित् न उच्छिद्यते] ते (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होवाथी तेनो कदापि नाश थतो नथी; [अतः तस्य मरणं किञ्चन न भवेत्] माटे आत्मानुं मरण बिलकुल थतुं नथी. [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः] तेथी (आवुं जाणता) ज्ञानीने मरणनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.
भावार्थः — इंद्रियादि प्राणो नाश पामे तेने लोको मरण कहे छे. परंतु आत्माने परमार्थे इंद्रियादि प्राण नथी, तेने तो ज्ञान प्राण छे. ज्ञान अविनाशी छे — तेनो नाश थतो नथी; तेथी आत्माने मरण नथी. ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने मरणनो भय नथी; ते
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यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः ।
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१६०।।
तो निःशंक वर्ततो थको पोताना ज्ञानस्वरूपने निरंतर अनुभवे छे. १५९.
हवे आकस्मिकभयनुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं] आ स्वतःसिद्ध ज्ञान एक छे, [अनादि] अनादि छे, [अनन्तम्] अनंत छे, [अचलं] अचळ छे. [इदं यावत् तावत् सदा एव हि भवेत्] ते ज्यां सुधी छे त्यां सुधी सदाय ते ज छे, [अत्र द्वितीयोदयः न] तेमां बीजानो उदय नथी. [तत्] माटे [अत्र आकस्मिकम् किञ्चन न भवेत्] आ ज्ञानमां आकस्मिक (अणधार्युं, एकाएक) कांई पण थतुं नथी. [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः] आवुं जाणता ज्ञानीने अकस्मातनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.
भावार्थः — ‘कांई अणधार्युं अनिष्ट एकाएक उत्पन्न थशे तो?’ एवो भय रहे ते आकस्मिकभय छे. ज्ञानी जाणे छे के — आत्मानुं ज्ञान पोताथी ज सिद्ध, अनादि, अनंत, अचळ, एक छे. तेमां बीजुं कांई उत्पन्न थई शकतुं नथी; माटे तेमां अणधार्युं कांई पण क्यांथी थाय अर्थात् अकस्मात क्यांथी बने? आवुं जाणता ज्ञानीने अकस्मातनो भय होतो नथी, ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना ज्ञानभावने निरंतर अनुभवे छे.
आ रीते ज्ञानीने सात भय होता नथी. प्रश्नः — अविरतसम्यग्द्रष्टि आदिने पण ज्ञानी कह्या छे अने तेमने तो भयप्रकृतिनो उदय होय छे तथा तेना निमित्ते तेमने भय थतो पण जोवामां आवे छे; तो पछी ज्ञानी निर्भय कई रीते छे?
समाधानः — भयप्रकृतिना उदयना निमित्तथी ज्ञानीने भय ऊपजे छे. वळी अंतरायना प्रबळ उदयथी निर्बळ होवाने लीधे ते भयनी पीडा नहि सही शकवाथी ज्ञानी ते भयनो इलाज पण करे छे. परंतु तेने एवो भय होतो नथी के जेथी जीव स्वरूपनां ज्ञानश्रद्धानथी च्युत थाय. वळी जे भय ऊपजे छे ते मोहकर्मनी भय नामनी प्रकृतिनो दोष छे; तेनो पोते
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पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जर्रैव ।।१६१।।
स्वामी थईने कर्ता थतो नथी, ज्ञाता ज रहे छे. माटे ज्ञानीने भय नथी. १६०.
हवे आगळनी (सम्यग्द्रष्टिना निःशंकित आदि चिह्नो विषेनी) गाथाओनी सूचनारूपे काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [टङ्कोत्कीर्ण-स्वरस-निचित-ज्ञान-सर्वस्व-भाजः सम्यग्दृष्टेः] टंकोत्कीर्ण एवुं जे निज रसथी भरपूर ज्ञान तेना सर्वस्वने भोगवनार सम्यग्द्रष्टिने [यद् इह लक्ष्माणि] जे निःशंकित आदि चिह्नो छे ते [सकलं कर्म] समस्त कर्मने [घ्नन्ति] हणे छे; [तत्] माटे, [अस्मिन्] कर्मनो उदय वर्ततां छतां, [तस्य] सम्यग्द्रष्टिने [पुनः] फरीने [कर्मणः बन्धः] कर्मनो बंध [मनाक् अपि] जरा पण [नास्ति] थतो नथी, [पूर्वोपात्तं] परंतु जे कर्म पूर्वे बंधायुं हतुं [तद्-अनुभवतः] तेना उदयने भोगवतां तेने [निश्चितं] नियमथी [निर्जरा एव] ते कर्मनी निर्जरा ज थाय छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टि पूर्वे बंधायेली भय आदि प्रकृतिओना उदयने भोगवे छे तोपण १निःशंकित आदि गुणो वर्तता होवाथी तेने २शंकादिकृत (शंकादिना निमित्ते थतो) बंध थतो नथी परंतु पूर्वकर्मनी निर्जरा ज थाय छे. १६१.
हवे आ कथनने गाथाओ द्वारा कहे छे, तेमां प्रथम निःशंकित अंगनी (अथवा निःशंकित गुणनी – चिह्ननी) गाथा कहे छेः —
१. निःशंकित = संदेह अथवा भय रहित
२. शंका = संदेह; कल्पित भय.
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यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन कर्मबन्धशङ्काकरमिथ्यात्वादि- भावाभावान्निश्शङ्कः, ततोऽस्य शङ्काकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
गाथार्थः — [यः चेतयिता] जे *चेतयिता, [कर्मबन्धमोहकरान्] कर्मबंध संबंधी मोह करनारा (अर्थात् जीव निश्चयथी कर्म वडे बंधायो छे एवो भ्रम करनारा) [तान् चतुरः अपि पादान्] मिथ्यात्वादि भावोरूप चारे पायाने [छिनत्ति] छेदे छे, [सः] ते [निश्शङ्कः] निःशंक [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एवा एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे कर्मबंध संबंधी शंका करनारा (अर्थात् जीव निश्चयथी कर्म वडे बंधायो छे एवो संदेह अथवा भय करनारा) मिथ्यात्वादि भावोनो (तेने) अभाव होवाथी, निःशंक छे तेथी तेने शंकाकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टिने जे कर्मनो उदय आवे छे तेनो ते, स्वामित्वना अभावने लीधे, कर्ता थतो नथी. माटे भयप्रकृतिनो उदय आवतां छतां पण सम्यग्द्रष्टि जीव निःशंक रहे छे, स्वरूपथी च्युत थतो नथी. आम होवाथी तेने शंकाकृत बंध थतो नथी, कर्म रस आपीने खरी जाय छे.
हवे निःकांक्षित गुणनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यः चेतयिता] जे चेतयिता [कर्मफलेषु] कर्मोनां फळो प्रत्ये [तथा] तथा
* चेतयिता = चेतनार; जाणनार-देखनार; आत्मा.
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यतो हि सम्यग्दृष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु च कांक्षाभावान्निष्कांक्षः, ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
यतो हि सम्यग्दृष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्सा- [सर्वधर्मेषु] सर्व धर्मो प्रत्ये [कांक्षां] कांक्षा [न तु करोति] करतो नथी [सः] ते [निष्कांक्षः सम्यग्दृष्टिः] निष्कांक्ष सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे बधांय कर्म- फळो प्रत्ये तथा बधा वस्तुधर्मो प्रत्ये कांक्षानो (तेने) अभाव होवाथी, निष्कांक्ष (निर्वांछक) छे, तेथी तेने कांक्षाकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टिने समस्त कर्मनां फळोनी वांछा नथी; वळी तेने सर्व धर्मोनी वांछा नथी, एटले के कनकपणुं, पाषाणपणुं वगेरे तेम ज निंदा, प्रशंसा आदिनां वचन वगेरे वस्तुधर्मोनी अर्थात् पुद्गलस्वभावोनी तेने वांछा नथी — तेमना प्रत्ये समभाव छे, अथवा तो अन्यमतीओए मानेला अनेक प्रकारना सर्वथा एकांतपक्षी व्यवहारधर्मोनी तेने वांछा नथी — ते धर्मोनो आदर नथी. आ रीते सम्यग्द्रष्टि वांछारहित होवाथी तेने वांछाथी थतो बंध नथी. वर्तमान पीडा सही शकाती नथी तेथी तेने मटाडवाना इलाजनी वांछा सम्यग्द्रष्टिने चारित्रमोहना उदयने लीधे होय छे, परंतु ते वांछानो कर्ता पोते थतो नथी, कर्मनो उदय जाणी तेनो ज्ञाता ज रहे छे; माटे वांछाकृत बंध तेने नथी.
हवे निर्विचिकित्सा गुणनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यः चेतयिता] जे चेतयिता [सर्वेषाम् एव] बधाय [धर्माणाम्] धर्मो (वस्तुना स्वभावो) प्रत्ये [जुगुप्सां] जुगुप्सा (ग्लानि) [न करोति] करतो नथी [सः] ते [खलु] निश्चयथी [निर्विचिकित्सः] निर्विचिकित्स ( – विचिकित्सादोष रहित) [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
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भावान्निर्विचिकित्सः, ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढद्रष्टिः, ततोऽस्य मूढद्रष्टिकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे बधाय वस्तु- धर्मो प्रत्ये जुगुप्सानो (तेने) अभाव होवाथी, निर्विचिकित्स ( – जुगुप्सा रहित) छे, तेथी तेने विचिकित्साकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टि वस्तुना धर्मो प्रत्ये (अर्थात् क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि भावो प्रत्ये तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्यो प्रत्ये) जुगुप्सा करतो नथी. जुगुप्सा नामनी कर्मप्रकृतिनो उदय आवे छे तोपण पोते तेनो कर्ता थतो नथी तेथी जुगुप्साकृत बंध तेने थतो नथी, परंतु प्रकृति रस दईने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज थाय छे.
हवे अमूढद्रष्टि अंगनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यः चेतयिता] जे चेतयिता [सर्वभावेषु] सर्व भावोमां [असम्मूढः] अमूढ छे — [सद्दृष्टिः] यथार्थ द्रष्टिवाळो [भवति] छे, [सः] ते [खलु] खरेखर [अमूढद्रष्टिः] अमूढद्रष्टि [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे बधाय भावोमां मोहनो (तेने) अभाव होवाथी, अमूढद्रष्टि छे, तेथी तेने मूढद्रष्टिकृत बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टि सर्व पदार्थोना स्वरूपने यथार्थ जाणे छे; तेने रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी तेनी कोई पदार्थ पर अयथार्थ द्रष्टि पडती नथी. चारित्रमोहना उदयथी इष्टानिष्ट
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यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुप-
बृंहकः, ततोऽस्य जीवशक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
भावो ऊपजे तोपण तेने उदयनुं बळवानपणुं जाणीने ते भावोनो पोते कर्ता थतो नथी तेथी तेने मूढद्रष्टिकृत बंध थतो नथी परंतु प्रकृति रस दईने खरी जती होवाथी निर्जरा ज थाय छे.
हवे उपगूहन गुणनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यः] जे (चेतयिता) [सिद्धभक्ति युक्त :] सिद्धनी (शुद्धात्मानी) भक्ति सहित छे [तु] अने [सर्वधर्माणाम् उपगूहनकः] पर वस्तुना सर्व धर्मोने गोपवनार छे (अर्थात् रागादि परभावोमां जोडातो नथी) [सः] ते [उपगूहनकारी] उपगूहनकारी [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे समस्त आत्मशक्तिओनी वृद्धि करतो होवाथी, उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्तिनो वधारनार छे, तेथी तेने जीवनी शक्तिनी दुर्बळताथी (अर्थात् मंदताथी) थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टि उपगूहनगुण सहित छे. उपगूहन एटले गोपववुं ते. अहीं निश्चयनयने प्रधान करीने कह्युं छे के सम्यग्द्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धभक्तिमां जोडेलो छे, अने ज्यां उपयोग सिद्धभक्तिमां जोड्यो त्यां अन्य धर्मो पर द्रष्टि ज न रही तेथी ते सर्व अन्य धर्मोनो गोपवनार छे अने आत्मशक्तिनो वधारनार छे.
आ गुणनुं बीजुं नाम ‘उपबृंहण’ पण छे. उपबृंहण एटले वधारवुं ते. सम्यग्द्रष्टिए पोतानो उपयोग सिद्धना स्वरूपमां जोडेलो होवाथी तेना आत्मानी सर्व शक्तिओ वधे छे — आत्मा पुष्ट थाय छे माटे ते उपबृंहणगुणवाळो छे.
आ रीते सम्यग्द्रष्टिने आत्मशक्तिनी वृद्धि थती होवाथी तेने दुर्बळताथी जे बंध थतो
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यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन मार्गात्प्रच्युतस्यात्मनो मार्गे एव
स्थितिकरणात् स्थितिकारी, ततोऽस्य मार्गच्यवनकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
हतो ते थतो नथी, निर्जरा ज थाय छे. जोके ज्यां सुधी अंतरायनो उदय छे त्यां सुधी निर्बळता छे तोपण तेना अभिप्रायमां निर्बळता नथी, पोतानी शक्ति अनुसार कर्मना उदयने जीतवानो महान उद्यम वर्ते छे.
हवे स्थितिकरण गुणनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यः चेतयिता] जे चेतयिता [उन्मार्गं गच्छन्तं] उन्मार्गे जता [स्वकम् अपि] पोताना आत्माने पण [मार्गे] मार्गमां [स्थापयति] स्थापे छे, [सः] ते [स्थितिकरणयुक्त :] स्थितिकरणयुक्त (स्थितिकरणगुण सहित) [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे, जो पोतानो आत्मा मार्गथी (अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गथी) च्युत थाय तो तेने मार्गमां ज स्थित करतो होवाथी, स्थितिकारी छे, तेथी तेने मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — जे, पोताना स्वरूपरूपी मोक्षमार्गथी च्युत थता पोताना आत्माने मार्गमां (मोक्षमार्गमां) स्थित करे ते स्थितिकरणगुणयुक्त छे. तेने मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध नथी परंतु उदय आवेलां कर्म रस दईने खरी जतां होवाथी निर्जरा ज छे.
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यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्व- स्मादभेदबुद्धया सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलम्भकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
हवे वात्सल्य गुणनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यः] जे (चेतयिता) [मोक्षमार्गे] मोक्षमार्गमां रहेला [त्रयाणां साधूनां] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी त्रण साधको — साधनो प्रत्ये (अथवा व्यवहारे आचार्य, उपाध्याय अने मुनि — ए त्रण साधुओ प्रत्ये) [वत्सलत्वं करोति] वात्सल्य करे छे, [सः] ते [वत्सलभावयुतः] वत्सलभावयुक्त (वत्सलभाव सहित) [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रने पोताथी अभेदबुद्धिए सम्यक्पणे देखतो ( – अनुभवतो) होवाथी, मार्ग- वत्सल अर्थात् मोक्षमार्ग प्रत्ये अति प्रीतिवाळो छे, तेथी तेने मार्गनी *अनुपलब्धिथी थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — वत्सलपणुं एटले प्रीतिभाव. जे जीव मोक्षमार्गरूपी पोताना स्वरूप प्रत्ये प्रीतिवाळो – अनुरागवाळो होय तेने मार्गनी अप्राप्तिथी थतो बंध नथी, कर्म रस दईने खरी जतां होवाथी निर्जरा ज छे.
* अनुपलब्धि = प्रत्यक्ष न होवुं ते; अज्ञान; अप्राप्ति.
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यतो हि सम्यग्द्रष्टिः, टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्ति प्रबोधेन प्रभावजननात्प्रभावनाकरः, ततोऽस्य ज्ञानप्रभावनाऽप्रकर्षकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
हवे प्रभावना गुणनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यः चेतयिता] जे चेतयिता [विद्यारथम् आरूढः] विद्यारूपी रथमां आरूढ थयो थको ( – चड्यो थको) [मनोरथपथेषु] मनरूपी रथ-पंथमां (अर्थात् ज्ञानरूपी जे रथने चालवानो मार्ग तेमां) [भ्रमति] भ्रमण करे छे, [सः] ते [जिनज्ञानप्रभावी] जिनेश्वरना ज्ञाननी प्रभावना करनारो [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे ज्ञाननी समस्त शक्तिने प्रगट करवा – विकसाववा – फेलाववा वडे प्रभाव उत्पन्न करतो होवाथी, प्रभावना करनार छे, तेथी तेने ज्ञाननी प्रभावनाना अप्रकर्षथी (अर्थात् ज्ञाननी प्रभावना नहि वधारवाथी) थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — प्रभावना एटले प्रगट करवुं, उद्योत करवो वगेरे; माटे जे पोताना ज्ञानने निरंतर अभ्यासथी प्रगट करे छे — वधारे छे, तेने प्रभावना अंग होय छे. तेने अप्रभावनाकृत कर्मबंध नथी, कर्म रस दईने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज छे.
आ गाथामां निश्चयप्रभावनानुं स्वरूप कह्युं छे. जेम जिनबिंबने रथमां स्थापीने नगर, वन वगेरेमां फेरवी व्यवहारप्रभावना करवामां आवे छे, तेम जे विद्यारूपी (ज्ञानरूपी) रथमां आत्माने स्थापी मनरूपी (ज्ञानरूपी) मार्गमां भ्रमण करे ते ज्ञाननी प्रभावनायुक्त सम्यग्द्रष्टि छे, ते निश्चयप्रभावना करनार छे.
आ प्रमाणे उपरनी गाथाओमां सम्यग्द्रष्टि ज्ञानीने निःशंकित आदि आठ
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प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन ।
गुणो निर्जरानां कारण कह्या. एवी ज रीते अन्य पण सम्यक्त्वना गुणो निर्जरानां कारण जाणवा.
आ ग्रंथमां निश्चयनयप्रधान कथन होवाथी निःशंकित आदि गुणोनुं निश्चय स्वरूप (स्व-आश्रित स्वरूप) अहीं बताववामां आव्युं छे. तेनो संक्षेप (सारांश) आ प्रमाणे छे — जे सम्यग्द्रष्टि आत्मा पोतानां ज्ञान-श्रद्धानमां निःशंक होय, भयना निमित्ते स्वरूपथी डगे नहि अथवा संदेहयुक्त न थाय, तेने निःशंकित गुण होय छे. १. जे कर्मनां फळनी वांछा न करे तथा अन्य वस्तुना धर्मोनी वांछा न करे, तेने निःकांक्षित गुण होय छे. २. जे वस्तुना धर्मो प्रत्ये ग्लानि न करे, तेने निर्विचिकित्सा गुण होय छे. ३. जे स्वरूपमां मूढ न होय, स्वरूपने यथार्थ जाणे, तेने अमूढद्रष्टि गुण होय छे. ४. जे आत्माने शुद्ध स्वरूपमां जोडे, आत्मानी शक्ति वधारे, अन्य धर्मोने गौण करे, तेने उपबृंहण अथवा उपगूहन गुण होय छे. ५. जे स्वरूपथी च्युत थता आत्माने स्वरूपमां स्थापे, तेने स्थितिकरण गुण होय छे. ६. जे पोताना स्वरूप प्रत्ये विशेष अनुराग राखे, तेने वात्सल्य गुण होय छे. ७. जे आत्माना ज्ञानगुणने प्रकाशित करे — प्रगट करे, तेने प्रभावना गुण होय छे. ८. आ बधाय गुणो तेमना प्रतिपक्षी दोषो वडे जे कर्मबंध थतो हतो तेने थवा देता नथी. वळी आ गुणोना सद्भावमां, चारित्रमोहना उदयरूप शंकादि प्रवर्ते तोपण तेमनी ( – शंकादिनी) निर्जरा ज थई जाय छे, नवो बंध थतो नथी; कारण के बंध तो प्रधानताथी मिथ्यात्वनी हयातीमां ज कह्यो छे.
सिद्धांतमां गुणस्थानोनी परिपाटीमां चारित्रमोहना उदयनिमित्ते सम्यग्द्रष्टिने जे बंध कह्यो छे ते पण निर्जरारूप ज ( – निर्जरा समान ज) जाणवो कारण के सम्यग्द्रष्टिने जेम पूर्वे मिथ्यात्वना उदय वखते बंधायेलुं कर्म खरी जाय छे तेम नवीन बंधायेलुं कर्म पण खरी जाय छे; तेने ते कर्मना स्वामीपणानो अभाव होवाथी ते आगामी बंधरूप नथी, निर्जरारूप ज छे. जेवी रीते — कोई पुरुष परायुं द्रव्य उधार लावे तेमां तेने ममत्वबुद्धि नथी, वर्तमानमां ते द्रव्यथी कांई कार्य करी लेवुं होय ते करीने करार प्रमाणे नियत समये धणीने आपी दे छे; नियत समय आवतां सुधी ते द्रव्य पोताना घरमां पड्युं रहे तोपण ते प्रत्ये ममत्व नहि होवाथी ते पुरुषने ते द्रव्यनुं बंधन नथी, धणीने दई दीधा बराबर ज छे; तेवी ज रीते — ज्ञानी कर्मद्रव्यने परायुं जाणतो होवाथी तेने ते प्रत्ये ममत्व नथी माटे ते मोजूद होवा छतां निर्जरी गया समान ज छे एम जाणवुं.
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आ निःशंकित आदि आठ गुणो व्यवहारनये व्यवहारमोक्षमार्ग पर नीचे प्रमाणे लगाववाः — जिनवचनमां संदेह न करवो, भय आव्ये व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी डगवुं नहि, ते निःशंकितपणुं छे. १. संसार-देह-भोगनी वांछाथी तथा परमतनी वांछाथी व्यवहार- मोक्षमार्गथी डगवुं नहि ते निष्कांक्षितपणुं छे. २. अपवित्र, दुर्गंधवाळी – एवी एवी वस्तुओना निमित्ते व्यवहारमोक्षमार्गनी प्रवृत्ति प्रत्ये ग्लानि न करवी ते निर्विचिकित्सा छे. ३. देव, गुरु, शास्त्र, लोकनी प्रवृत्ति, अन्यमतादिकना तत्त्वार्थनुं स्वरूप — इत्यादिमां मूढता न राखवी, यथार्थ जाणी प्रवर्तवुं ते अमूढद्रष्टि छे. ४. धर्मात्मामां कर्मना उदयथी दोष आवी जाय तो तेने गौण करवो अने व्यवहारमोक्षमार्गनी प्रवृत्तिने वधारवी ते उपगूहन अथवा उपबृंहण छे. ५. व्यवहारमोक्षमार्गथी च्युत थता आत्माने स्थित करवो ते स्थितिकरण छे. ६. व्यवहार- मोक्षमार्गमां प्रवर्तनार पर विशेष अनुराग होवो ते वात्सल्य छे. ७. व्यवहारमोक्षमार्गनो अनेक उपायो वडे उद्योत करवो ते प्रभावना छे. ८. आ प्रमाणे आठे गुणोनुं स्वरूप व्यवहारनयने प्रधान करीने कह्युं. अहीं निश्चयप्रधान कथनमां ते व्यवहारस्वरूपनी गौणता छे. सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणद्रष्टिमां बन्ने प्रधान छे. स्याद्वादमतमां कांई विरोध नथी.
हवे, निर्जरानुं यथार्थ स्वरूप जाणनार अने कर्मना नवीन बंधने रोकी निर्जरा करनार जे सम्यग्द्रष्टि तेनो महिमा करी निर्जरा अधिकार पूर्ण करे छेः —
श्लोकार्थः — [इति नवम् बन्धं रुन्धन्] ए प्रमाणे नवीन बंधने रोकतो अने [निजैः अष्टाभिः अङ्गैः सङ्गतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयम्] (पोते) पोतानां आठ अंगो सहित होवाना कारणे निर्जरा प्रगटवाथी पूर्वबद्ध कर्मोने नाश करी नाखतो [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि जीव [स्वयम्] पोते [अतिरसात्] अति रसथी (अर्थात् निजरसमां मस्त थयो थको) [आदि-मध्य-अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक, एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप थईने [गगन-आभोग-रङ्गं विगाह्य] आकाशना विस्ताररूपी रंगभूमिमां अवगाहन करीने (अर्थात् ज्ञान वडे समस्त गगनमंडळमां व्यापीने) [नटति] नृत्य करे छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टिने शंकादिकृत नवीन बंध तो थतो नथी अने पोते आठ अंगो सहित होवाने लीधे निर्जरानो उदय होवाथी तेने पूर्व बंधनो नाश थाय छे. तेथी ते धारावाही ज्ञानरूपी रसनुं पान करीने, जेम कोई पुरुष मद्य पीने मग्न थयो थको नृत्यना अखाडामां नृत्य करे तेम, निर्मळ आकाशरूपी रंगभूमिमां नृत्य करे छे.
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प्रश्नः — सम्यग्द्रष्टिने निर्जरा थाय छे, बंध थतो नथी एम तमे कहेता आव्या छो. परंतु सिद्धांतमां गुणस्थानोनी परिपाटीमां अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने बंध कहेवामां आव्यो छे. वळी घातिकर्मोनुं कार्य आत्माना गुणोनो घात करवानुं छे तेथी दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य — ए गुणोनो घात पण विद्यमान छे. चारित्रमोहनो उदय नवीन बंध पण करे छे. जो मोहना उदयमां पण बंध न मानवामां आवे तो तो मिथ्याद्रष्टिने मिथ्यात्व -अनंतानुबंधीनो उदय होवा छतां बंध नथी एम पण केम न मनाय?
समाधानः — बंध थवामां मुख्य कारण मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीनो उदय ज छे; अने सम्यग्द्रष्टिने तो तेमना उदयनो अभाव छे. चारित्रमोहना उदयथी जोके सुखगुणनो घात छे तथा मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सिवाय अने तेमनी साथे रहेनारी अन्य प्रकृतिओ सिवाय बाकीनी घातिकर्मोनी प्रकृतिओनो अल्प स्थिति-अनुभागवाळो बंध तेम ज बाकीनी अघातिकर्मोनी प्रकृतिओनो बंध थाय छे, तोपण जेवो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सहित थाय छे तेवो नथी थतो. अनंत संसारनुं कारण तो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी ज छे; तेमनो अभाव थया पछी तेमनो बंध थतो नथी; अने ज्यां आत्मा ज्ञानी थयो त्यां अन्य बंधनी कोण गणतरी करे? वृक्षनी जड कपाया पछी लीलां पांदडां रहेवानी अवधि केटली? माटे आ अध्यात्मशास्त्रमां सामान्यपणे ज्ञानी-अज्ञानी होवा विषे ज प्रधान कथन छे. ज्ञानी थया पछी जे कांई कर्म रह्यां होय ते सहज ज मटतां जवानां. नीचेना द्रष्टांत प्रमाणे ज्ञानीनुं समजवुं. कोई पुरुष दरिद्र होवाथी झूंपडीमां रहेतो हतो. तेने भाग्यना उदयथी धन सहित मोटा महेलनी प्राप्ति थई तेथी ते महेलमां रहेवा गयो. जोके ते महेलमां घणा दिवसनो कचरो भर्यो हतो तोपण जे दिवसे तेणे आवीने महेलमां प्रवेश कर्यो ते दिवसथी ज ते महेलनो धणी बनी गयो, संपदावान थई गयो. हवे कचरो झाडवानो छे ते अनुक्रमे पोताना बळ अनुसार झाडे छे. ज्यारे बधो कचरो झडाई जशे अने महेल उज्ज्वळ बनी जशे त्यारे ते परमानंद भोगवशे. आवी ज रीते ज्ञानीनुं जाणवुं. १६२.
टीकाः — आ प्रमाणे निर्जरा (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गई.
भावार्थः — ए रीते, निर्जरा के जेणे रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो हतो ते पोतानुं स्वरूप प्रगट बतावीने बहार नीकळी गई.
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इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ निर्जराप्ररूपकः षष्ठोऽङ्कः ।।
कर्म नवीन बंधै न तबै अर पूरव बंध झडै विन भाये;
पूरण अंग सुदर्शनरूप धरै नित ज्ञान बढै निज पाये,
यों शिवमारग साधि निरंतर आनंदरूप निजातम थाये.
आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां निर्जरानो प्ररूपक छठ्ठो अंक समाप्त थयो.
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क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाटयेन बन्धं धुनत् ।
धीरोदारमनाकुलं निरुपधि ज्ञानं समुन्मज्जति ।।१६३।।
तजे तेह समभावथी, नमुं सदा तसु पाय.
प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे बंध प्रवेश करे छे’. जेम नृत्यना अखाडामां स्वांग प्रवेश करे तेम रंगभूमिमां बंधतत्त्वनो स्वांग प्रवेश करे छे.
त्यां प्रथम ज, सर्व तत्त्वोने यथार्थ जाणनारुं जे सम्यग्ज्ञान छे ते बंधने दूर करतुं प्रगट थाय छे एवा अर्थनुं मंगळरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा] जे (बंध) रागना उदयरूपी महा रस (दारू) वडे समस्त जगतने प्रमत्त ( – मतवालुं, गाफेल) करीने, [रस-भाव-निर्भर-महा- नाटयेन क्रीडन्तं बन्धं] रसना भावथी (अर्थात् रागरूपी घेलछाथी) भरेला मोटा नृत्य वडे खेली (नाची) रह्यो छे एवा बंधने [धुनत्] उडाडी देतुं — दूर करतुं, [ज्ञानं] ज्ञान [समुन्मज्जति] उदय पामे छे. केवुं छे ज्ञान? [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि] आनंदरूपी अमृतनुं नित्य भोजन करनारुं छे, [सहज-अवस्थां स्फु टं नाटयत्] पोतानी जाणनक्रियारूप सहज अवस्थाने प्रगट नचावी रह्युं छे, [धीर-उदारम्] धीर छे, उदार (अर्थात् मोटा विस्तारवाळुं, निश्चळ) छे, [अनाकुलं] अनाकुळ (अर्थात् जेमां कांई आकुळतानुं कारण नथी एवुं) छे, [निरुपधि] निरुपधि (अर्थात् परिग्रह रहित, जेमां कांई परद्रव्य संबंधी ग्रहणत्याग नथी एवुं) छे.
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जह णाम को वि पुरिसो णेहब्भत्तो दु रेणुबहुलम्मि ।
ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायामं ।।२३७।।
छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ ।
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।।२३८।।
उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं ।
णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो दु रयबंधो ।।२३९।।
जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो ।
णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।।२४०।।
एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु ।
रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रएण ।।२४१।।
भावार्थः — बंधतत्त्वे रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो छे, तेने उडावी दईने जे ज्ञान पोते प्रगट थई नृत्य करशे ते ज्ञाननो महिमा आ काव्यमां प्रगट कर्यो छे. एवा अनंत ज्ञानस्वरूप जे आत्मा ते सदा प्रगट रहो. १६३.
हवे बंधतत्त्वनुं स्वरूप विचारे छे; तेमां प्रथम, बंधना कारणने स्पष्ट रीते कहे छेः —