Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 164-170 ; Gatha: 58,242-257,259-261.

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यथा नाम कोऽपि पुरुषः स्नेहाभ्यक्तस्तु रेणुबहुले
स्थाने स्थित्वा च करोति शस्त्रैर्व्यायामम् ।।२३७।।
छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिण्डीः
सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम् ।।२३८।।
उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः
निश्चयतश्चिन्त्यतां खलु किम्प्रत्ययिकस्तु रजोबन्धः ।।२३९।।
यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः
निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ।।२४०।।
एवं मिथ्याद्रष्टिर्वर्तमानो बहुविधासु चेष्टासु
रागादीनुपयोगे कुर्वाणो लिप्यते रजसा ।।२४१।।
इह खलु यथा कश्चित् पुरुषः स्नेहाभ्यक्तः, स्वभावत एव रजोबहुलायां

गाथार्थः[यथा नाम] जेवी रीते[कः अपि पुरुषः] कोई पुरुष [स्नेहाभ्यक्तः तु] (पोताना पर अर्थात् पोताना शरीर पर) तेल आदि स्निग्ध पदार्थ लगावीने [च] अने [रेणुबहुले] बहु रजवाळी (धूळवाळी) [स्थाने] जग्यामां [स्थित्वा] रहीने [शस्त्रैः] शस्त्रो वडे [व्यायामम् करोति] व्यायाम करे छे, [तथा] अने [तालीतलकदलीवंशपिण्डीः] ताड, तमाल, केळ, वांस, अशोक वगेरे वृक्षोने [छिनत्ति] छेदे छे, [भिनत्ति च] भेदे छे, [सचित्ताचित्तानां] सचित्त तथा अचित्त [द्रव्याणाम्] द्रव्योनो [उपघातम्] उपघात (नाश) [करोति] करे छे; [नानाविधैः करणैः] ए रीते नाना प्रकारनां करणो वडे [उपघातं कुर्वतः] उपघात करता [तस्य] ते पुरुषने [रजोबन्धः तु] रजनो बंध (धूळनुं चोंटवुं) [खलु] खरेखर [किम्प्रत्ययिकः] कया कारणे थाय छे [निश्चयतः] ते निश्चयथी [चिन्त्यताम्] विचारो. [तस्मिन् नरे] ते पुरुषमां [यः सः स्नेहभावः तु] जे तेल आदिनो चीकाशभाव छे [तेन] तेनाथी [तस्य] तेने [रजोबन्धः] रजनो बंध थाय छे [निश्चयतः विज्ञेयं] एम निश्चयथी जाणवुं, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायानी चेष्टाओथी [न] नथी थतो. [एवं] एवी रीते[बहुविधासु चेष्टासु] बहु प्रकारनी चेष्टाओमां [वर्तमानः] वर्ततो [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि [उपयोगे] (पोताना) उपयोगमां [रागादीन् कुर्वाणः] रागादि भावोने करतो थको [रजसा] कर्मरूपी रजथी [लिप्यते] लेपायबंधाय छे.

टीकाःजेवी रीतेआ जगतमां खरेखर कोई पुरुष स्नेहना (अर्थात् तेल


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भूमौ स्थितः, शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, अनेकप्रकारकरणैः सचिताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, रजसा बध्यते तस्य कतमो बन्धहेतुः? न तावत्स्वभावत एव रजोबहुला भूमिः, स्नेहानभ्यक्तानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसङ्गात् न शस्त्रव्यायामकर्म, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मात् तत्प्रसङ्गात् नानेकप्रकारकरणानि, स्नेहानभ्यक्तानामपि तैस्तत्प्रसङ्गात् न सचित्ता- चित्तवस्तूपघातः, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मिंस्तत्प्रसङ्गात् ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यत्तस्मिन् पुरुषे स्नेहाभ्यङ्गकरणं स बन्धहेतुः एवं मिथ्याद्रष्टिः आत्मनि रागादीन् कुर्वाणः, स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, अनेकप्रकारकरणैः सचित्ता- चित्तवस्तूनि निघ्नन्, कर्मरजसा बध्यते तस्य कतमो बन्धहेतुः ? न तावत्स्वभावत एव


आदि चीकणा पदार्थना) मर्दनयुक्त थयेलो, स्वभावथी ज जे बहु रजथी भरेली छे (अर्थात् बहु रजवाळी छे) एवी भूमिमां रहेलो, शस्त्रोना व्यायामरूपी कर्म (अर्थात् शस्त्रोना अभ्यासरूपी क्रिया) करतो, अनेक प्रकारनां करणो वडे सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करतो, (ते भूमिनी) रजथी बंधाय छेलेपाय छे. (त्यां विचारो के) तेमांथी ते पुरुषने बंधनुं कारण कयुं छे? प्रथम, स्वभावथी ज जे बहु रजथी भरेली छे एवी भूमि रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं एवा पुरुषो के जेओ ते भूमिमां रहेला होय तेमने पण रजबंधनो प्रसंग आवे. शस्त्रोना व्यायामरूपी कर्म पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण शस्त्रव्यायामरूपी क्रिया करवाथी रजबंधनो प्रसंग आवे. अनेक प्रकारनां करणो पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण अनेक प्रकारनां करणोथी रजबंधनो प्रसंग आवे. सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात पण रजबंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेमणे तेल आदिनुं मर्दन नथी कर्युं तेमने पण सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करवाथी रजबंधनो प्रसंग आवे. माटे न्यायना बळथी ज आ फलित थयुं (सिद्ध थयुं) के, जे ते पुरुषमां स्नेहमर्दनकरण (अर्थात

् ते पुरुषमां जे तेल आदिना मर्दननुं

करवुं), ते बंधनुं कारण छे. तेवी रीतेमिथ्याद्रष्टि पोतामां रागादिक (रागादिभावो) करतो, स्वभावथी ज जे बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो छे एवा लोकमां काय-वचन- मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रिया) करतो, अनेक प्रकारनां करणो वडे सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात करतो, कर्मरूपी रजथी बंधाय छे. (त्यां विचारो के) तेमांथी ते पुरुषने बंधनुं कारण कयुं छे? प्रथम, स्वभावथी ज जे बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो


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कर्मयोग्यपुद्गलबहुलो लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसङ्गात् न कायवाङ्मनःकर्म, यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसङ्गात् नानेकप्रकारकरणानि, केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसङ्गात् सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, समितितत्पराणामपि तत्प्रसङ्गात् ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यदुपयोगे रागादिकरणं स बन्धहेतुः


छे एवो लोक बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो सिद्धो के जेओ लोकमां रहेला छे तेमने पण बंधनो प्रसंग आवे. काय-वचन-मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रियास्वरूप योग) पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो यथाख्यात- संयमीओने पण (काय-वचन-मननी क्रिया होवाथी) बंधनो प्रसंग आवे. अनेक प्रकारनां करणो पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो केवळज्ञानीओने पण (ते करणोथी) बंधनो प्रसंग आवे. सचित्त तथा अचित्त वस्तुओनो घात पण बंधनुं कारण नथी; कारण के जो एम होय तो जेओ समितिमां तत्पर छे तेमने (अर्थात

् जेओ

यत्नपूर्वक प्रवर्ते छे एवा साधुओने) पण (सचित्त तथा अचित्त वस्तुओना घातथी) बंधनो प्रसंग आवे. माटे न्यायबळथी ज आ फलित थयुं के, जे उपयोगमां रागादिकरण (अर्थात् उपयोगमां जे रागादिकनुं करवुं), ते बंधनुं कारण छे.

भावार्थःअहीं निश्चयनय प्रधान करीने कथन छे. ज्यां निर्बाध हेतुथी सिद्धि थाय ते ज निश्चय छे. बंधनुं कारण विचारतां निर्बाधपणे ए ज सिद्ध थयुं केमिथ्याद्रष्टि पुरुष जे रागद्वेषमोहभावोने पोताना उपयोगमां करे छे ते रागादिक ज बंधनुं कारण छे. ते सिवाय बीजांबहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक, मन-वचन-कायना योग, अनेक करणो तथा चेतन-अचेतननो घातबंधनां कारण नथी; जो तेमनाथी बंध थतो होय तो सिद्धोने, यथाख्यात चारित्रवाळाओने, केवळज्ञानीओने अने समितिरूपे प्रवर्तनारा मुनिओने बंधनो प्रसंग आवे छे. परंतु तेमने तो बंध थतो नथी. तेथी आ हेतुओमां (कारणोमां) व्यभिचार आव्यो. माटे बंधनुं कारण रागादिक ज छे ए निश्चय छे.

अहीं समितिरूपे प्रवर्तनारा मुनिओनुं नाम लीधुं अने अविरत, देशविरतनुं नाम न लीधुं तेनुं कारण ए छे केअविरत तथा देशविरतने बाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नथी तेथी चारित्रमोह संबंधी रागथी किंचित् बंध थाय छे; माटे सर्वथा बंधना अभावनी अपेक्षामां तेमनुं नाम न लीधुं. बाकी अंतरंगनी अपेक्षाए तो तेओ पण निर्बंध ज जाणवा.


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(पृथ्वी)
न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा
न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत्
यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम्
।।१६४।।
जह पुण सो चेव णरो णेहे सव्वम्हि अवणिदे संते
रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि सत्थेहिं वायामं ।।२४२।।
छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।।२४३।।

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[बन्धकृत्] कर्मबंध करनारुं कारण, [न कर्मबहुलं जगत् ] नथी बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक, [न चलनात्मकं कर्म वा] नथी चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रियारूप योग), [न नैककरणानि] नथी अनेक प्रकारनां करणो [वा न चिद्- अचिद्-वधः] के नथी चेतन-अचेतननो घात. [उपयोगभूः रागादिभिः यद्-ऐक्यम् समुपयाति] ‘उपयोगभू’ अर्थात् आत्मा रागादिक साथे जे ऐक्य पामे छे [सः एव केवलं] ते ज एक (मात्र रागादिक साथे एकपणुं पामवुं ते ज) [किल] खरेखर [नृणाम् बन्धहेतुः भवति] पुरुषोने बंधनुं कारण छे.

भावार्थःअहीं निश्चयनयथी एक रागादिकने ज बंधनुं कारण कह्युं छे. १६४.

सम्यग्द्रष्टि उपयोगमां रागादिक करतो नथी, उपयोगनो अने रागादिकनो भेद जाणी रागादिकनो स्वामी थतो नथी, तेथी तेने पूर्वोक्त चेष्टाथी बंध थतो नथीएम हवे कहे छेः

जेवी रीते वळी ते ज नर ते तेल सर्व दूरे करी,
व्यायाम करतो शस्त्रथी बहु रजभर्या स्थाने रही; २४२.
वळी ताड, कदळी, वांस आदि छिन्नभिन्न करे अने
उपघात तेह सचित्त तेम अचित्त द्रव्य तणो करे. २४३.

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उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं
णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो ण रयबंधो ।।२४४।।
जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो
णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।।२४५।।
एवं सम्मादिट्ठी वट्टंतो बहुविहेसु जोगेसु
अकरंतो उवओगे रागादी ण लिप्पदि रएण ।।२४६।।
यथा पुनः स चैव नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति
रेणुबहुले स्थाने करोति शस्त्रैर्व्यायामम् ।।२४२।।
छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंश पिण्डीः
सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम् ।।२४३।।
उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः
निश्चयतश्चिन्त्यतां खलु किम्प्रत्ययिको न रजोबन्धः ।।२४४।।
यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः
निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ।।२४५।।
एवं सम्यग्द्रष्टिर्वर्तमानो बहुविधेषु योगेषु
अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा ।।२४६।।
बहु जातनां करणो वडे उपघात करता तेहने,
निश्चय थकी चिंतन करो, रजबंध नहि शुं कारणे? २४४.
एम जाणवुं निश्चय थकीचीकणाई जे ते नर विषे
रजबंधकारण ते ज छे, नहि कायचेष्टा शेष जे. २४५.
योगो विविधमां वर्ततो ए रीत सम्यग्द्रष्टि जे,
रागादि उपयोगे न करतो रजथी नव लेपाय ते. २४६.

गाथार्थः[यथा पुनः] वळी जेवी रीते[सः च एव नरः] ते ज पुरुष, [सर्वस्मिन् स्नेहे] समस्त तेल आदि स्निग्ध पदार्थने [अपनीते सति] दूर करवामां आवतां, [रेणुबहुले]


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यथा स एव पुरुषः, स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति, तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, रजसा न बध्यते, स्नेहाभ्यङ्गस्य बन्धहेतोरभावात्; तथा सम्यग्द्रष्टिः, आत्मनि रागादीनकुर्वाणः सन्, तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, कर्मरजसा न बध्यते, रागयोगस्य बन्धहेतोरभावात्


बहु रजवाळी [स्थाने] जग्यामां [शस्त्रैः] शस्त्रो वडे [व्यायामम् करोति] व्यायाम करे छे, [तथा] अने [तालीतलकदलीवंशपिण्डीः] ताड, तमाल, केळ, वांस, अशोक वगेरे वृक्षोने [छिनत्ति] छेदे छे, [भिनत्ति च] भेदे छे, [सचित्ताचित्तानां] सचित्त तथा अचित्त [द्रव्याणाम्] द्रव्योनो [उपघातम्] उपघात [करोति] करे छे; [नानाविधैः करणैः] ए रीते नाना प्रकारनां करणो वडे [उपघातं कुर्वतः] उपघात करता [तस्य] ते पुरुषने [रजोबन्धः] रजनो बंध [खलु] खरेखर [किम्प्रत्ययिकः] कया कारणे [न] नथी थतो [निश्चयतः] ते निश्चयथी [चिन्त्यताम्] विचारो. [तस्मिन् नरे] ते पुरुषमां [यः सः स्नेहभावः तु] जे तेल आदिनो चीकाशभाव होय [तेन] तेनाथी [तस्य] तेने [रजोबन्धः] रजनो बंध थाय छे [निश्चयतः विज्ञेयं] एम निश्चयथी जाणवुं, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायानी चेष्टाओथी [न] नथी थतो. (माटे ते पुरुषमां चीकाशना अभावना कारणे ज तेने रज चोंटती नथी.) [एवं] एवी रीते[बहुविधेसु योगेषु] बहु प्रकारना योगोमां [वर्तमानः] वर्ततो [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [उपयोगे] उपयोगमां [रागादीन् अकुर्वन्] रागादिकने नहि करतो थको [रजसा] कर्मरजथी [न लिप्यते] लेपातो नथी.

टीकाःजेवी रीते ते ज पुरुष, समस्त स्नेहने (अर्थात् सर्व चीकाशनेतेल आदिने) दूर करवामां आवतां, ते ज स्वभावथी ज बहु रजथी भरेली भूमिमां (अर्थात् स्वभावथी ज बहु रजथी भरेली ते ज भूमिमां) ते ज शस्त्रव्यायामरूपी कर्म (क्रिया) करतो, ते ज अनेक प्रकारनां करणो वडे ते ज सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो, रजथी बंधातो लेपातो नथी, कारण के तेने रजबंधनुं कारण जे तेल आदिनुं मर्दन तेनो अभाव छे; तेवी रीते सम्यग्द्रष्टि, पोतामां रागादिकने नहि करतो थको, ते ज स्वभावथी ज बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेला लोकमां ते ज काय-वचन-मननुं कर्म (अर्थात् काय-वचन-मननी क्रिया) करतो, ते ज अनेक प्रकारनां करणो वडे ते ज सचित्त-अचित्त वस्तुओनो घात करतो, कर्मरूपी रजथी बंधातो नथी, कारण के तेने बंधनुं कारण जे रागनो योग (रागमां जोडाण) तेनो अभाव छे.

भावार्थःसम्यग्द्रष्टिने पूर्वोक्त सर्व संबंधो होवा छतां पण रागना संबंधनो


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(शार्दूलविक्रीडित)
लोकः कर्मततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत्
तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचिद्वयापादनं चास्तु तत्
रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं
बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्
द्रगात्मा ध्रुवम् ।।१६५।।

अभाव होवाथी कर्मबंध थतो नथी. आना समर्थनमां पूर्वे कहेवाई गयुं छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[कर्मततः लोकः सः अस्तु] माटे ते (पूर्वोक्त) बहु कर्मथी (कर्मयोग्य पुद्गलोथी) भरेलो लोक छे ते भले हो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु] ते मन-वचन -कायाना चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् योग) छे ते पण भले हो, [तानि करणानि अस्मिन् सन्तु] ते (पूर्वोक्त) करणो पण तेने भले हो [च] अने [तत् चिद्-अचिद्-व्यापादनं अस्तु] ते चेतन-अचेतननो घात पण भले हो, परंतु [अहो] अहो! [अयम् सम्यग्द्रग्-आत्मा] सम्यग्द्रष्टि आत्मा, [रागादिन् उपयोगभूमिम् अनयन्] रागादिकने उपयोगभूमिमां नहि लावतो थको, [केवलं ज्ञानं भवन्] केवळ (एक) ज्ञानरूपे थतोपरिणमतो थको, [कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति] कोई पण कारणथी बंधने चोक्कस नथी ज पामतो. (अहो! देखो! आ सम्यग्दर्शननो अद्भुत महिमा छे.)

भावार्थःअहीं सम्यग्द्रष्टिनुं अद्भुत माहात्म्य कह्युं छे अने लोक, योग, करण, चैतन्य-अचैतन्यनो घातए बंधनां कारण नथी एम कह्युं छे. आथी एम न समजवुं के परजीवनी हिंसाथी बंध कह्यो नथी माटे स्वच्छंदी थई हिंसा करवी. अहीं तो एम आशय छे के अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवनो घात पण थई जाय तो तेनाथी बंध थतो नथी. परंतु ज्यां बुद्धिपूर्वक जीव मारवाना भाव थशे त्यां तो पोताना उपयोगमां रागादिकनो सद्भाव आवशे अने तेथी त्यां हिंसाथी बंध थशे ज. ज्यां जीवने जिवाडवानो अभिप्राय होय त्यां पण अर्थात् ते अभिप्रायने पण निश्चयनयमां मिथ्यात्व कह्युं छे तो मारवानो अभिप्राय मिथ्यात्व केम न होय? होय ज. माटे कथनने नयविभागथी यथार्थ समजी श्रद्धान करवुं. सर्वथा एकांत मानवुं ते तो मिथ्यात्व छे. १६५.


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(पृथ्वी)
तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां
तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः
अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां
द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च
।।१६६।।
(वसन्ततिलका)
जानाति यः स न करोति करोति यस्तु
जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः
रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहु-
र्मिथ्या
द्रशः स नियतं स च बन्धहेतुः ।।१६७।।

हवे उपरना भावार्थमां कहेलो आशय प्रगट करवाने, काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[तथापि] तथापि (अर्थात् लोक आदि कारणोथी बंध कह्यो नथी अने रागादिकथी ज बंध कह्यो छे तोपण) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते] ज्ञानीओने निरर्गल (मर्यादारहित, स्वच्छंदपणे) प्रवर्तवुं योग्य नथी कह्युं, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्-आयतनम् एव] कारण के ते निरर्गल प्रवर्तन खरेखर बंधनुं ज ठेकाणुं छे. [ज्ञानिनां अकाम-कृत-कर्म तत् अकारणम् मतम्] ज्ञानीओने वांछा विना कर्म (कार्य) होय छे ते बंधनुं कारण कह्युं नथी, केम के [जानाति च करोति] जाणे पण छे अने (कर्मने ) करे पण छे[द्वयं किमु न हि विरुध्यते] ए बन्ने क्रिया शुं विरोधरूप नथी? (करवुं अने जाणवुं निश्चयथी विरोधरूप ज छे.)

भावार्थःपहेला काव्यमां लोक आदिने बंधनां कारण न कह्यां त्यां एम न समजवुं के बाह्यव्यवहारप्रवृत्तिने बंधनां कारणोमां सर्वथा ज निषेधी छे; बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति रागादि परिणामनेबंधना कारणनेनिमित्तभूत छे, ते निमित्तपणानो अहीं निषेध न समजवो. ज्ञानीओने अबुद्धिपूर्वकवांछा विनाप्रवृत्ति थाय छे तेथी बंध कह्यो नथी, तेमने कांई स्वच्छंदे प्रवर्तवानुं कह्युं नथी; कारण के मर्यादा रहित (अंकुश विना) प्रवर्तवुं ते तो बंधनुं ज ठेकाणुं छे. जाणवामां अने करवामां तो परस्पर विरोध छे; ज्ञाता रहेशे तो बंध नहि थाय, कर्ता थशे तो अवश्य बंध थशे. १६६.

‘‘जे जाणे छे ते करतो नथी अने जे करे छे ते जाणतो नथी; करवुं ते तो कर्मनो राग छे, राग छे ते अज्ञान छे अने अज्ञान छे ते बंधनुं कारण छे.’’ आवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः

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जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२४७।।
यो मन्यते हिनस्मि च हिंस्ये च परैः सत्त्वैः
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२४७।।

परजीवानहं हिनस्मि, परजीवैर्हिंस्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् स तु यस्याास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्सम्यग्द्रष्टिः

श्लोकार्थः[यः जानाति सः न करोति] जे जाणे छे ते करतो नथी [तु] अने [यः करोति अयं खलु जानाति न] जे करे छे ते जाणतो नथी. [तत् किल कर्मरागः] जे करवुं ते तो खरेखर कर्मराग छे [तु] अने [रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः] रागने (मुनिओए) अज्ञानमय अध्यवसाय कह्यो छे; [सः नियतं मिथ्यादृशः] ते (अज्ञानमय अध्यवसाय) नियमथी मिथ्याद्रष्टिने होय छे [च] अने [सः बन्धहेतुः] ते बंधनुं कारण छे. १६७.

हवे मिथ्याद्रष्टिना आशयने गाथामां स्पष्ट रीते कहे छेः

जे मानतोहुं मारुं ने पर जीव मारे मुजने,
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २४७.

गाथार्थः[यः] जे [मन्यते] एम माने छे के [हिनस्मि च] ‘हुं पर जीवोने मारुं छुं (हणुं छुं) [परैः सत्त्वैः हिंस्ये च] अने पर जीवो मने मारे छे’, [सः] ते [मूढः] मूढ (मोही) छे, [अज्ञानी] अज्ञानी छे, [तु] अने [अतः विपरीतः] आनाथी विपरीत (अर्थात् आवुं नथी मानतो) ते [ज्ञानी] ज्ञानी छे.

टीकाः‘पर जीवोने हुं हणुं छुं अने पर जीवो मने हणे छे’एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (निश्चितपणे, नियमथी) अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.

भावार्थः‘पर जीवोने हुं मारुं छुं अने पर मने मारे छे’ एवो आशय अज्ञान छे तेथी जेने एवो आशय छे ते अज्ञानी छेमिथ्याद्रष्टि छे अने जेने एवो आशय नथी ते ज्ञानी छेसम्यग्द्रष्टि छे.

निश्चयनये कर्तानुं स्वरूप ए छे केपोते स्वाधीनपणे जे भावरूपे परिणमे ते


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कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्

आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं
आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं ।।२४८।।
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं
आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।।२४९।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्
आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषाम् ।।२४८।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्
आयुर्न हरन्ति तव कथं ते मरणं कृतं तैः ।।२४९।।

भावनो पोते कर्ता कहेवाय छे. माटे परमार्थे कोई कोईनुं मरण करतुं नथी. जे परथी परनुं मरण माने छे, ते अज्ञानी छे. निमित्तनैमित्तिकभावथी कर्ता कहेवो ते व्यवहारनयनुं वचन छे; तेने यथार्थ रीते (अपेक्षा समजीने) मानवुं ते सम्यग्ज्ञान छे.

हवे पूछे छे के आ अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेना उत्तररूपे गाथा कहे छेः

छे आयुक्षयथी मरण जीवनुं एम जिनदेवे कह्युं,
तुं आयु तो हरतो नथी, तें मरण क्यम तेनुं कर्युं? २४८.
छे आयुक्षयथी मरण जीवनुं एम जिनदेवे कह्युं,
ते आयु तुज हरता नथी, तो मरण क्यम तारुं कर्युं? २४९.

गाथार्थः(हे भाई! ‘हुं पर जीवोने मारुं छुं’ एम जे तुं माने छे, ते तारुं अज्ञान छे.) [जीवानां] जीवोनुं [मरणं] मरण [आयुःक्षयेण] आयुकर्मना क्षयथी थाय छे एम [जिनवरैः] जिनवरोए [प्रज्ञप्तम्] कह्युं छे; [त्वं] तुं [आयुः] पर जीवोनुं आयुकर्म तो [न हरसि] हरतो नथी, [त्वया] तो तें [तेषाम् मरणं] तेमनुं मरण [कथं] कई रीते [कृतं] कर्युं?

(हे भाई! ‘पर जीवो मने मारे छे’ एम जे तुं माने छे, ते तारुं अज्ञान छे.) [जीवानां] जीवोनुं [मरणं] मरण [आयुःक्षयेण] आयुकर्मना क्षयथी थाय छे एम


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मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्; स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य हर्तुं शक्यं, तस्य स्वोपभोगेनैव क्षीयमाणत्वात्; ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य मरणं कुर्यात् ततो हिनस्मि, हिंस्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्

जीवनाध्यवसायस्य तद्विपक्षस्य का वार्तेति चेत् [जिनवरैः] जिनवरोए [प्रज्ञप्तम्] कह्युं छे; पर जीवो [तव आयुः] तारुं आयुकर्म तो [न हरन्ति] हरता नथी, [तैः] तो तेमणे [ते मरणं] तारुं मरण [कथं] कई रीते [कृतं] कर्युं?

टीकाःप्रथम तो, जीवोने मरण खरेखर स्व-आयुकर्मना (पोताना आयुकर्मना) क्षयथी ज थाय छे, कारण के स्व-आयुकर्मना क्षयना अभावमां (अर्थात् पोताना आयुकर्मनो क्षय न होय तो) मरण करावुं (थवुं) अशक्य छे; वळी स्व-आयुकर्म बीजाथी बीजानुं हरी शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं आयुकर्म) पोताना उपभोगथी ज क्षय पामे छे; माटे कोई पण रीते बीजो बीजानुं मरण करी शके नहि. तेथी ‘हुं पर जीवोने मारुं छुं अने पर जीवो मने मारे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (निश्चितपणे) अज्ञान छे.

भावार्थःजीवनी जे मान्यता होय ते मान्यता प्रमाणे जगतमां बनतुं न होय, तो ते मान्यता अज्ञान छे. पोताथी परनुं मरण करी शकातुं नथी अने परथी पोतानुं मरण करी शकातुं नथी, छतां आ प्राणी वृथा एवुं माने छे ते अज्ञान छे. आ कथन निश्चयनयनी प्रधानताथी छे.

व्यवहार आ प्रमाणे छेःपरस्पर निमित्तनैमित्तिकभावथी पर्यायना उत्पाद-व्यय थाय तेने जन्म-मरण कहेवामां आवे छे; त्यां जेना निमित्तथी मरण (पर्यायनो व्यय) थाय तेना विषे एम कहेवामां आवे छे के ‘आणे आने मार्यो’, ते व्यवहार छे.

अहीं एम न समजवुं के व्यवहारनो सर्वथा निषेध छे. जेओ निश्चयने नथी जाणता, तेमनुं अज्ञान मटाडवा अहीं कथन कर्युं छे, ते जाण्या पछी बन्ने नयोने अविरोधपणे जाणी यथायोग्य नयो मानवा.

फरी पूछे छे के ‘‘(मरणनो अध्यवसाय अज्ञान छे एम कह्युं ते जाण्युं; हवे) मरणना अध्यवसायनो प्रतिपक्षी जे जीवननो अध्यवसाय तेनी शी हकीकत छे?’’ तेनो उत्तर कहे छेः


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जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२५०।।
यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये च परैः सत्त्वैः
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२५०।।

परजीवानहं जीवयामि, परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याद्रष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्द्रष्टिः

कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्

आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू
आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ।।२५१।।
जे मानतोहुं जिवाडुं ने पर जीव जिवाडे मुजने,
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २५०.

गाथार्थः[यः] जे जीव [मन्यते] एम माने छे के [जीवयामि] हुं पर जीवोने जिवाडुं छुं [च] अने [परैः सत्त्वैः] पर जीवो [जीव्ये च] मने जिवाडे छे, [सः] ते [मूढः] मूढ (मोही) छे, [अज्ञानी] अज्ञानी छे, [तु] अने [अतः विपरीतः] आनाथी विपरीत (अर्थात् जे आवुं नथी मानतो, आनाथी ऊलटुं माने छे) ते [ज्ञानी] ज्ञानी छे.

टीकाः‘पर जीवोने हुं जिवाडुं छुं अने पर जीवो मने जिवाडे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (अत्यंत चोक्कस) अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते जीव अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते जीव ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.

भावार्थः‘पर मने जिवाडे छे अने हुं परने जिवाडुं छुं’ एम मानवुं ते अज्ञान छे. जेने ए अज्ञान छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; जेने ए अज्ञान नथी ते सम्यग्द्रष्टि छे.

हवे पूछे छे के आ (जीवननो) अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेनो उत्तर कहे छेः

छे आयु-उदये जीवन जीवनुं एम सर्वज्ञे कह्युं,
तुं आयु तो देतो नथी, तें जीवन क्यम तेनुं कर्युं? २५१.

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आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू
आउं च ण दिंति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ।।२५२।।
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः
आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषाम् ।।२५१।।
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः
आयुश्च न ददति तव कथं नु ते जीवितं कृतं तैः ।।२५२।।

जीवितं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्; स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैव उपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य जीवितं कुर्यात् अतो जीवयामि, जीव्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्

छे आयु-उदये जीवन जीवनुं एम सर्वज्ञे कह्युं,
ते आयु तुज देता नथी, तो जीवन क्यम तारुं कर्युं? २५२.

गाथार्थः[जीवः] जीव [आयुरुदयेन] आयुकर्मना उदयथी [जीवति] जीवे छे [एवं] एम [सर्वज्ञाः] सर्वज्ञदेवो [भणन्ति] कहे छे; [त्वं] तुं [आयुः च] पर जीवोने आयुकर्म तो [न ददासि] देतो नथी [त्वया] तो (हे भाई!) तें [तेषाम् जीवितं] तेमनुं जीवित (जीवतर) [कथं कृतं] कई रीते कर्युं?

[जीवः] जीव [आयुरुदयेन] आयुकर्मना उदयथी [जीवति] जीवे छे [एवं] एम [सर्वज्ञाः] सर्वज्ञदेवो [भणन्ति] कहे छे; पर जीवो [तव] तने [आयुः च] आयुकर्म तो [न ददति] देता नथी [तैः] तो (हे भाई!) तेमणे [ते जीवितं] तारुं जीवित [कथं नु कृतं] कई रीते कर्युं?

टीकाःप्रथम तो, जीवोने जीवित खरेखर पोताना आयुकर्मना उदयथी ज छे, कारण के पोताना आयुकर्मना उदयना अभावमां जीवित करावुं (थवुं) अशक्य छे; वळी पोतानुं आयुकर्म बीजाथी बीजाने दइ शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं आयुकर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे (मेळवाय छे); माटे कोई पण रीते बीजो बीजानुं जीवित करी शके नहि. तेथी ‘हुं परने जिवाडुं छुं अने पर मने जिवाडे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (नियतपणे) अज्ञान छे.

भावार्थःपूर्वे मरणना अध्यवसाय विषे कह्युं हतुं ते प्रमाणे अहीं पण जाणवुं.


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दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि एषैव गतिः

जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२५३।।
य आत्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२५३।।

परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवैर्दुःखितः सुखितश्च क्रियेऽहमित्य- ध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याद्रष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्द्रष्टिः

कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्

दुःख-सुख करवाना अध्यवसायनी पण आ ज गति छे एम हवे कहे छेः

जे मानतोमुजथी दुखीसुखी हुं करुं पर जीवने,
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २५३.

गाथार्थः[यः] जे [इति मन्यते] एम माने छे के [आत्मना तु] मारा पोताथी [सत्त्वान्] हुं (पर) जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि] करुं छुं, [सः] ते [मूढः] मूढ (मोही) छे, [अज्ञानी] अज्ञानी छे, [तु] अने [अतः विपरीतः] आनाथी विपरीत ते [ज्ञानी] ज्ञानी छे.

टीकाः‘पर जीवोने हुं दुःखी तथा सुखी करुं छुं अने पर जीवो मने दुःखी तथा सुखी करे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते जीव अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते जीव ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.

भावार्थः‘हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर जीवो मने सुखी-दुःखी करे छे’ एम मानवुं ते अज्ञान छे. जेने ए अज्ञान छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; जेने ए अज्ञान नथी ते ज्ञानी छेसम्यग्द्रष्टि छे.

हवे पूछे छे के आ अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेनो उत्तर कहे छेः


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कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे
कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कह कया ते ।।२५४।।
कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे
कम्म च ण दिंति तुहं कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं ।।२५५।।
कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे
कम्मं च ण दिंति तुहं कह तं सुहिदो कदो तेहिं ।।२५६।।
कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवन्ति यदि सर्वे
कर्म च न ददासि त्वं दुःखितसुखिताः कथं कृतास्ते ।।२५४।।
कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवन्ति यदि सर्वे
कर्म च न ददति तव कृतोऽसि कथं दुःखितस्तैः ।।२५५।।
कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवन्ति यदि सर्वे
कर्म च न ददति तव कथं त्वं सुखितः कृतस्तैः ।।२५६।।
ज्यां कर्म-उदये जीव सर्वे दुखित तेम सुखी थता,
तुं कर्म तो देतो नथी, तें केम दुखित-सुखी कर्या? २५४.
ज्यां कर्म-उदये जीव सर्वे दुखित तेम सुखी बने,
ते कर्म तुज देता नथी, तो दुखित केम कर्यो तने? २५५.
ज्यां कर्म-उदये जीव सर्वे दुखित तेम सुखी बने,
ते कर्म तुज देता नथी, तो सुखित केम कर्यो तने? २५६.

गाथार्थः[यदि] जो [सर्वे जीवाः] सर्व जीवो [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी [दुःखितसुखिताः] दुःखी-सुखी [भवन्ति] थाय छे, [च] अने [त्वं] तुं [कर्म] तेमने कर्म तो [न ददासि] देतो नथी, तो (हे भाई!) तें [ते] तेमने [दुःखितसुखिताः] दुःखी-सुखी [कथं कृताः] कई रीते कर्या?

[यदि] जो [सर्वे जीवाः] सर्व जीवो [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी [दुःखितसुखिताः] दुःखी सुखी [भवन्ति] थाय छे, [च] अने तेओ [तव] तने [कर्म] कर्म तो [न ददति] देता नथी,


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सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात्; स्वकर्म च नान्ये- नान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैवोपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य सुख- दुःखे कुर्यात् अतः सुखितदुःखितान् करोमि, सुखितदुःखितः क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्

(वसन्ततिलका)
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय-
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्
।।१६८।।

तो (हे भाई!) [तैः] तेमणे [दुःखितः] तने दुःखी [कथं कृतः असि] कई रीते कर्यो?

[यदि] जो [सर्वे जीवाः] सर्व जीवो [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी [दुःखितसुखिताः] दुःखी -सुखी [भवन्ति] थाय छे, [च] अने तेओ [तव] तने [कर्म] कर्म तो [न ददति] देता नथी, तो (हे भाई!) [तैः] तेमणे [त्वं] तने [सुःखितः] सुखी [कथं कृतः] कई रीते कर्यो?

टीकाःप्रथम तो, जीवोने सुख-दुःख खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे, कारण के पोताना कर्मना उदयना अभावमां सुख-दुःख थवां अशक्य छे; वळी पोतानुं कर्म बीजाथी बीजाने दइ शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं कर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे; माटे कोई पण रीते बीजो बीजाने सुख-दुःख करी शके नहि. तेथी ‘हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर जीवो मने सुखी-दुःखी करे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे.

भावार्थःजीवनो जेवो आशय होय ते आशय प्रमाणे जगतमां कार्यो बनतां न होय तो ते आशय अज्ञान छे. माटे, सर्व जीवो पोतपोताना कर्मना उदयथी सुखी-दुःखी थाय छे त्यां एम मानवुं के ‘हुं परने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर मने सुखी-दुःखी करे छे’, ते अज्ञान छे. निमित्तनैमित्तिकभावना आश्रये (कोईने कोईनां) सुख-दुःखनो करनार कहेवो ते व्यवहार छे; ते निश्चयनी द्रष्टिमां गौण छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[इह] आ जगतमां [मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्] जीवोने मरण, जीवित, दुःख, सुख[सर्वं सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति] बधुंय सदैव नियमथी (चोक्कस) पोताना कर्मना उदयथी थाय छे; [परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् कुर्यात्] ‘बीजो पुरुष बीजानां मरण, जीवन, दुःख, सुख करे छे’ [यत् तु] आम जे मानवुं

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(वसन्ततिलका)
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य
पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्
कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते
मिथ्या
द्रशो नियतमात्महनो भवन्ति ।।१६९।।
जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो
तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५७।।
जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदएण चेव खलु
तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५८।।

[एतत् अज्ञानम्] ते तो अज्ञान छे. १६८.

फरी आ ज अर्थने द्रढ करतुं अने आगळना कथननी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[एतत् अज्ञानम् अधिगम्य] आ (पूर्वे कहेली मान्यतारूप) अज्ञानने पामीने [ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति] जे पुरुषो परथी परनां मरण, जीवन, दुःख, सुख देखे छे अर्थात् माने छे, [ते] ते पुरुषो[अहंकृतिरसेन क र्माणि चिकीर्षवः] के जेओ ए रीते अहंकार-रसथी कर्मो करवाना इच्छक छे (अर्थात् ‘हुं आ कर्मोने करुं छुं’ एवा अहंकाररूपी रसथी जेओ कर्म करवानीमारवा-जिवाडवानी, सुखी-दुःखी करवानी वांछा करनारा छे) तेओ[नियतम्] नियमथी [मिथ्याद्रशः आत्महनः भवन्ति] मिथ्याद्रष्टि छे, पोताना आत्मानो घात करनारा छे.

भावार्थःजेओ परने मारवा-जिवाडवानो तथा सुख-दुःख करवानो अभिप्राय करे छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे. तेओ पोताना स्वरूपथी च्युत थया थका रागी, द्वेषी, मोही थईने पोताथी ज पोतानो घात करे छे, तेथी हिंसक छे. १६९.

हवे आ अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः

मरतो अने जे दुखी थतोसौ कर्मना उदये बने,
तेथी ‘हण्यो में, दुखी कर्यो’तुज मत शुं नहि मिथ्या खरे? २५७.
वळी नव मरे, नव दुखी बने, ते कर्मना उदये खरे,
‘में नव हण्यो, नव दुखी कर्यो’तुज मत शुं नहि मिथ्या खरे? २५८.

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यो म्रियते यश्च दुःखितो जायते कर्मोदयेन स सर्वः
तस्मात्तु मारितस्ते दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या ।।२५७।।
यो न म्रियते न च दुःखितः सोऽपि च कर्मोदयेन चैव खलु
तस्मान्न मारितो नो दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या ।।२५८।।

यो हि म्रियते जीवति वा, दुःखितो भवति सुखितो भवति वा, स खलु स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य तथा भवितुमशक्यत्वात् ततः मयायं मारितः, अयं जीवितः, अयं दुःखितः कृतः, अयं सुखितः कृतः इति पश्यन् मिथ्याद्रष्टिः

(अनुष्टुभ्)
मिथ्याद्रष्टेः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात्
य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य द्रश्यते ।।१७०।।

गाथार्थः[यः म्रियते] जे मरे छे [च] अने [यः दुःखितः जायते] जे दुःखी थाय छे [सः सर्वः] ते सौ [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी थाय छे; [तस्मात् तु] तेथी [मारितः च दुःखितः] ‘में मार्यो, में दुःखी कर्यो’ [इति] एवो [ते] तारो अभिप्राय [न खलु मिथ्या] शुं खरेखर मिथ्या नथी?

[च] वळी [यः न म्रियते] जे नथी मरतो [च] अने [न दुःखितः] नथी दुःखी थतो [सः अपि] ते पण [खलु] खरेखर [कर्मोदयेन च एव] कर्मना उदयथी ज थाय छे; [तस्मात्] तेथी [न मारितः च न दुःखितः] ‘में न मार्यो, में न दुःखी कर्यो’ [इति] एवो तारो अभिप्राय [न खलु मिथ्या] शुं खरेखर मिथ्या नथी?

टीकाःजे मरे छे अथवा जीवे छे, दुःखी थाय छे अथवा सुखी थाय छे, ते खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे, कारण के पोताना कर्मना उदयना अभावमां तेनुं ते प्रमाणे थवुं (अर्थात् मरवुं, जीववुं, दुःखी थवुं के सुखी थवुं) अशक्य छे. माटे ‘में आने मार्यो, आने जिवाड्यो, आने दुःखी कर्यो, आने सुखी कर्यो’ एवुं देखनार अर्थात् माननार मिथ्याद्रष्टि छे.

भावार्थःकोई कोईनुं मार्युं मरतुं नथी, जिवाड्युं जीवतुं नथी, सुखी-दुःखी कर्युं सुखी -दुःखी थतुं नथी; तेथी जे मारवा, जिवाडवा आदिनो अभिप्राय करे ते तो मिथ्याद्रष्टि ज होय एम निश्चयनुं वचन छे. अहीं व्यवहारनय गौण छे.

हवे आगळना कथननी सूचनारूप श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[अस्य मिथ्याद्रष्टेः] मिथ्याद्रष्टिने [यः एव अयम् अज्ञानात्मा अध्यवसायः द्रश्यते]


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एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति
एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं ।।२५९।।
एषा तु या मतिस्ते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति
एषा ते मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म ।।२५९।।

परजीवानहं हिनस्मि, न हिनस्मि, दुःखयामि, सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयो- ऽध्यवसायो मिथ्याद्रष्टेः, स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभबन्धहेतुः

अथाध्यवसायं बन्धहेतुत्वेनावधारयति जे आ अज्ञानस्वरूप *अध्यवसाय जोवामां आवे छे [सः एव] ते अध्यवसाय ज, [विपर्ययात्] विपर्ययस्वरूप (विपरीत, मिथ्या) होवाथी, [अस्य बन्धहेतुः] ते मिथ्याद्रष्टिने बंधनुं कारण छे.

भावार्थःजूठो अभिप्राय ते ज मिथ्यात्व, ते ज बंधनुं कारणएम जाणवुं. १७०.

हवे, आ अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे एम गाथामां कहे छेः

आ बुद्धि जे तुज‘दुखित तेम सुखी करुं छुं जीवने’,
ते मूढ मति तारी अरे! शुभ अशुभ बांधे कर्मने. २५९.

गाथार्थः[ते] तारी [या एषा मतिः तु] जे आ बुद्धि छे के हुं [सत्त्वान्] जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि इति] करुं छुं, [एषा ते मूढमतिः] ते आ तारी मूढ बुद्धि ज (मोहस्वरूप बुद्धि ज) [शुभाशुभं कर्म] शुभाशुभ कर्मने [बध्नाति] बांधे छे.

टीकाः‘पर जीवोने हुं हणुं छुं, नथी हणतो, दुःखी करुं छुं, सुखी करुं छुं’ एवो जे आ अज्ञानमय अध्यवसाय मिथ्याद्रष्टिने छे, ते ज (अर्थात् ते अध्यवसाय ज) पोते रागादिरूप होवाथी तेने (मिथ्याद्रष्टिने) शुभाशुभ बंधनुं कारण छे.

भावार्थःमिथ्या अध्यवसाय बंधनुं कारण छे.

हवे, अध्यवसायने बंधना कारण तरीके बराबर नक्की करे छेठरावे छे (अर्थात्

* जे परिणाम मिथ्या अभिप्राय सहित होय (स्वपरना एकत्वना अभिप्राय सहित होय) अथवा वैभाविक होय ते परिणाम माटे अध्यवसाय शब्द वपराय छे. (मिथ्या) निश्चय, (मिथ्या) अभिप्राय एवा अर्थमां पण ते शब्द वपराय छे.


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दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि जं एवमज्झवसिदं ते
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ।।२६०।।
मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ।।२६१।।
दुःखितसुखितान् सत्त्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते
तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति ।।२६०।।
मारयामि जीवयामि च सत्त्वान् यदेवमध्यवसितं ते
तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति ।।२६१।।

य एवायं मिथ्याद्रष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोऽध्यवसायः स एव बन्धहेतुः इत्यव- मिथ्या अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे एम नियमथी कहे छे)ः

करतो तुं अध्यवसान‘दुखित-सुखी करुं छुं जीवने’,
ते पापनुं बंधक अगर तो पुण्यनुं बंधक बने. २६०.
करतो तुं अध्यवसान‘मारुं जिवाडुं छुं पर जीवने’,
ते पापनुं बंधक अगर तो पुण्यनुं बंधक बने. २६१.

गाथार्थः[सत्त्वान्] हुं जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि] करुं छुं’ [एवम्] आवुं [यत् ते अध्यवसितं] जे तारुं *अध्यवसान, [तत्] ते ज [पापबन्धकं वा] पापनुं बंधक [ पुण्यस्य बन्धकं वा] अथवा पुण्यनुं बंधक [भवति] थाय छे.

[ सत्त्वान् ] हुं जीवोने [मारयामि च जीवयामि] मारुं छुं अने जिवाडुं छुं’ [एवम्] आवुं [यत् ते अध्यवसितं] जे तारुं अध्यवसान, [तत्] ते ज [पापबन्धकं वा] पापनुं बंधक [पुण्यस्य बन्धकं वा] अथवा पुण्यनुं बंधक [भवति] थाय छे.

टीकाःमिथ्याद्रष्टिने जे आ अज्ञानथी जन्मतो रागमय अध्यवसाय छे ते ज बंधनुं

* जे परिणमन मिथ्या अभिप्राय सहित होय (स्वपरना एकत्वना अभिप्राय सहित होय) अथवा वैभाविक होय ते परिणमन माटे अध्यवसान शब्द वपराय छे. (मिथ्या) निश्चय करवो, (मिथ्या)
अभिप्राय करवो
एवा अर्थमां पण ते शब्द वपराय छे.