Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 262-277 ; Kalash: 171-173.

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धारणीयम् न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाद्बन्धस्य तद्धेत्वन्तरमन्वेष्टव्यं; एकेनैवानेनाध्यवसायेन दुःखयामि मारयामि इति, सुखयामि जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाहङ्काररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात्

एवं हि हिंसाध्यवसाय एव हिंसेत्यायातम्
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ।।२६२।।
अध्यवसितेन बन्धः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु
एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ।।२६२।।

कारण छे एम बराबर नक्की करवुं. अने पुण्य-पापपणे (पुण्य-पापरूपे) बंधनुं बे-पणुं होवाथी बंधना कारणनो भेद न शोधवो (अर्थात् एम न मानवुं के पुण्यबंधनुं कारण बीजुं छे अने पापबंधनुं कारण कोई बीजुं छे); कारण के एक ज आ अध्यवसाय ‘दुःखी करुं छुं, मारुं छुं’ एम अने ‘सुखी करुं छुं, जिवाडुं छुं’ एम बे प्रकारे शुभ-अशुभ अहंकाररसथी भरेलापणा वडे पुण्य अने पापबन्नेना बंधनुं कारण होवामां अविरोध छे (अर्थात् एक ज अध्यवसायथी पुण्य अने पापबन्नेनो बंध थवामां कोई विरोध नथी).

भावार्थःआ अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे. तेमां, ‘जिवाडुं छुं, सुखी करुं छुं’ एवा शुभ अहंकारथी भरेलो ते शुभ अध्यवसाय छे अने ‘मारुं छुं, दुःखी करुं छुं’ एवा अशुभ अहंकारथी भरेलो ते अशुभ अध्यवसाय छे. अहंकाररूप मिथ्याभाव तो बन्नेमां छे; तेथी अज्ञानमयपणे बन्ने अध्यवसाय एक ज छे. माटे एम न मानवुं के पुण्यनुं कारण बीजुं छे अने पापनुं कारण बीजुं छे. अज्ञानमय अध्यवसाय ज बन्नेनुं कारण छे.

‘आ रीते खरेखर हिंसानो अध्यवसाय ज हिंसा छे एम फलित थयुं’एम हवे कहे छेः

मारोन मारो जीवने, छे बंध अध्यवसानथी,
आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चयनय थकी. २६२.

गाथार्थः[सत्त्वान्] जीवोने [मारयतु] मारो [वा मा मारयतु] अथवा न मारो [बन्धः] कर्मबंध [अध्यवसितेन] अध्यवसानथी ज थाय छे. [एषः] आ, [निश्चयनयस्य] निश्चयनये, [जीवानां] जीवोना [बन्धसमासः] बंधनो संक्षेप छे.


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परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणव्यपरोपः कदाचिद्भवतु, कदाचिन्मा भवतु, य एव हिनस्मीत्यहङ्काररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतुः, निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात्

अथाध्यवसायं पापपुण्ययोर्बन्धहेतुत्वेन दर्शयति

एवमलिए अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव
कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पावं ।।२६३।।
तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अप्परिग्गहत्तणे चेव
कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुण्णं ।।२६४।।

टीकाःपर जीवोने पोताना कर्मना उदयनी विचित्रताना वशे प्राणोनो व्यपरोप (उच्छेद, वियोग) कदाचित् थाओ, कदाचित् न थाओ,‘हुं हणुं छुं’ एवो जे अहंकाररसथी भरेलो हिंसामां अध्यवसाय (अर्थात् हिंसानो अध्यवसाय) ते ज निश्चयथी तेने ( हिंसानो अध्यवसाय करनारा जीवने) बंधनुं कारण छे, केम के निश्चयथी परनो भाव एवो जे प्राणोनो व्यपरोप ते परथी करावो अशक्य छे (अर्थात् ते परथी करी शकातो नथी).

भावार्थःनिश्चयनये बीजाना प्राणोनो वियोग बीजाथी करी शकातो नथी; तेना पोताना कर्मना उदयनी विचित्रतावश कदाचित् थाय छे, कदाचित् नथी थतो. माटे जे एम माने छेअहंकार करे छे के ‘हुं पर जीवने मारुं छुं’, तेनो ते अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय छे. ते अध्यवसाय ज हिंसा छेपोताना विशुद्ध चैतन्यप्राणनो घात छे, अने ते ज बंधनुं कारण छे. आ निश्चयनयनो मत छे.

अहीं व्यवहारनयने गौण करीने कह्युं छे एम जाणवुं. माटे ते कथन कथंचित् (अर्थात् अपेक्षापूर्वक) छे एम समजवुं; सर्वथा एकांतपक्ष तो मिथ्यात्व छे.

हवे, (हिंसा-अहिंसानी जेम सर्व कार्योमां) अध्यवसायने ज पाप-पुण्यना बंधना कारणपणे दर्शावे छेः

एम अलीकमांही, अदत्तमां, अब्रह्म ने परिग्रह विषे
जे थाय अध्यवसान तेथी पापबंधन थाय छे. २६३.
ए रीत सत्ये, दत्तमां, वळी ब्रह्म ने अपरिग्रहे
जे थाय अध्यवसान तेथी पुण्यबंधन थाय छे. २६४.

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एवमलीकेऽदत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापम् ।।२६३।।
तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यम् ।।२६४।।

एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ताब्रह्म- परिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबन्धहेतुः यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबन्धहेतुः

गाथार्थः[एवम्] ए रीते (अर्थात् पूर्वे हिंसाना अध्यवसाय विषे कह्युं तेम) [अलीके] असत्यमां, [अदत्ते] अदत्तमां, [अब्रह्मचर्ये] अब्रह्मचर्यमां [च एव] अने [परिग्रहे] परिग्रहमां [यत्] जे [अध्यवसानं] अध्यवसान [क्रियते] करवामां आवे [तेन तु] तेनाथी [पापं बध्यते] पापनो बंध थाय छे; [तथापि च] अने तेवी ज रीते [सत्ये] सत्यमां, [दत्ते] दत्तमां, [ब्रह्मणि] ब्रह्मचर्यमां [च एव] अने [अपरिग्रहत्वे] अपरिग्रहमां [यत्] जे [अध्यवसानं] अध्यवसान [क्रियते] करवामां आवे [तेन तु] तेनाथी [पुण्यं बध्यते] पुण्यनो बंध थाय छे.

टीकाःए रीते (पूर्वोक्त रीते) अज्ञानथी आ जे हिंसामां अध्यवसाय करवामां आवे छे तेम असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य अने परिग्रहमां पण जे (अध्यवसाय) करवामां आवे, ते बधोय पापना बंधनुं एकमात्र (एकनुं एक) कारण छे; अने जे अहिंसामां अध्यवसाय करवामां आवे छे तेम जे सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रहमां पण (अध्यवसाय) करवामां आवे, ते बधोय पुण्यना बंधनुं एकमात्र कारण छे.

भावार्थःजेम हिंसामां अध्यवसाय ते पापबंधनुं कारण कह्युं छे तेम असत्य, अदत्त (वगर दीधेलुं लेवुं ते, चोरी), अब्रह्मचर्य अने परिग्रहतेमनामां अध्यवसाय ते पण पापबंधनुं कारण छे. वळी जेम अहिंसामां अध्यवसाय ते पुण्यबंधनुं कारण छे तेम सत्य, दत्त (दीधेलुं लेवुं ते), ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रहतेमनामां अध्यवसाय ते पण पुण्यबंधनुं कारण छे. आ रीते, पांच पापोमां (अव्रतोमां) अध्यवसाय करवामां आवे ते पापबंधनुं कारण छे अने पांच (एकदेश के सर्वदेश) व्रतोमां अध्यवसाय करवामां आवे ते पुण्यबंधनुं कारण छे. पाप अने पुण्य बन्नेना बंधनमां, अध्यवसाय ज एकमात्र बंध-कारण छे.


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न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बन्धहेतुरिति शङ्कयम्

वत्थुं पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं
ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि ।।२६५।।
वस्तु प्रतीत्य यत्पुनरध्यवसानं तु भवति जीवानाम्
न च वस्तुतस्तु बन्धोऽध्यवसानेन बन्धोऽस्ति ।।२६५।।

अध्यवसानमेव बन्धहेतुः, न तु बाह्यवस्तु, तस्य बन्धहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात् तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते यदि बाह्यवस्त्वनाश्रित्यापि अध्यवसानं जायेत तदा, यथा वीरसूसुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे

वळी ‘बाह्यवस्तु ते बीजुं पण बंधनुं कारण हशे’ एवी शंका न करवी. (‘अध्यवसाय ते बंधनुं एक कारण हशे अने बाह्यवस्तु ते बंधनुं बीजुं कारण हशे’ एवी पण शंका करवी योग्य नथी; अध्यवसाय ज एकनुं एक बंधनुं कारण छे, बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी.) आवा अर्थनी गाथा हवे कहे छेः

जे थाय अध्यवसान जीवने, वस्तु-आश्रित ते बने,
पण वस्तुथी नथी बंध, अध्यवसानमात्रथी बंध छे. २६५.

गाथार्थः[पुनः] वळी, [जीवानाम्] जीवोने [यत्] जे [अध्यवसानं तु] अध्यवसान [भवति] थाय छे ते [वस्तु] वस्तुने [प्रतीत्य] अवलंबीने थाय छे [च तु] तोपण [वस्तुतः] वस्तुथी [न बन्धः] बंध नथी, [अध्यवसानेन] अध्यवसानथी ज [बन्धः अस्ति] बंध छे.

टीकाःअध्यवसान ज बंधनुं कारण छे; बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी, केम के बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेना कारणपणाथी ज बाह्यवस्तुने चरितार्थपणुं छे (अर्थात् बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेनुं कारण थवामां ज बाह्यवस्तुनुं कार्यक्षेत्र पूरुं थाय छे, ते कांई बंधनुं कारण थती नथी). अहीं प्रश्न थाय छे केजो बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी तो (‘बाह्यवस्तुनो प्रसंग न करो, त्याग करो’ एम) बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध (निषेध) शा माटे करवामां आवे छे? तेनुं समाधानःअध्यवसानना प्रतिषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध करवामां आवे छे. अध्यवसानने बाह्यवस्तु आश्रयभूत छे; बाह्यवस्तुनो आश्रय कर्या विना अध्यवसान पोताना स्वरूपने पामतुं नथी अर्थात् ऊपजतुं नथी. जो बाह्यवस्तुनो आश्रय कर्या विना पण अध्यवसान

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वीरसूसुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायते, तथा वन्ध्यासुतस्याश्रयभूतस्यासद्भावेऽपि वन्ध्यासुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायेत न च जायते ततो निराश्रयं नास्त्यध्यवसानमिति नियमः तत एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य बाह्यवस्तुनोऽत्यन्तप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत्प्रतिषेधात् न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यवस्तु बन्धहेतुः स्यात्, ईर्यासमितिपरिणतयतीन्द्रपदव्यापाद्यमान- वेगापतत्कालचोदितकुलिङ्गवत्, बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकान्तिक- त्वात् अतो न बाह्यवस्तु जीवस्यातद्भावो बन्धहेतुः, अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बन्धहेतुः


ऊपजतुं होय तो, जेम आश्रयभूत एवा *वीरजननीना पुत्रना सद्भावमां (कोईने) एवो अध्यवसाय ऊपजे छे के ‘हुं वीरजननीना पुत्रने हणुं छुं’ तेम आश्रयभूत एवा वंध्यापुत्रना असद्भावमां पण (कोईने) एवो अध्यवसाय ऊपजे (ऊपजवो जोईए) के ‘हुं वंध्यापुत्रने (वांझणीना पुत्रने) हणुं छुं’. परंतु एवो अध्यवसाय तो (कोईने) ऊपजतो नथी. (ज्यां वंध्यानो पुत्र ज नथी त्यां मारवानो अध्यवसाय क्यांथी ऊपजे?) माटे एवो नियम छे के (बाह्यवस्तुरूप) आश्रय विना अध्यवसान होतुं नथी. अने तेथी ज अध्यवसानने आश्रयभूत एवी जे बाह्यवस्तु तेनो अत्यंत प्रतिषेध छे, केम के कारणना प्रतिषेधथी ज कार्यनो प्रतिषेध थाय छे. (बाह्यवस्तु अध्यवसाननुं कारण छे तेथी तेना प्रतिषेधथी अध्यवसाननो प्रतिषेध थाय छे). परंतु, जोके बाह्यवस्तु बंधना कारणनुं (अर्थात

् अध्यवसाननुं) कारण छे तोपण ते

(बाह्यवस्तु) बंधनुं कारण नथी; केम के इर्यासमितिमां परिणमेला मुनींद्रना पग वडे हणाइ जता एवा कोई झडपथी आवी पडता काळप्रेरित ऊडता जीवडानी माफक, बाह्यवस्तुके जे बंधना कारणनुं कारण छे तेबंधनुं कारण नहि थती होवाथी, बाह्यवस्तुने बंधनुं कारणपणुं मानवामां अनैकांतिक हेत्वाभासपणुं छेव्यभिचार आवे छे. (आम निश्चयथी बाह्यवस्तुने बंधनुं कारणपणुं निर्बाध रीते सिद्ध थतुं नथी.) माटे बाह्यवस्तु के जे जीवने अतद्भावरूप छे ते बंधनुं कारण नथी; अध्यवसान के जे जीवने तद्भावरूप छे ते ज बंधनुं कारण छे.

भावार्थःबंधनुं कारण निश्चयथी अध्यवसान ज छे; अने जे बाह्यवस्तुओ छे ते अध्यवसाननुं आलंबन छेतेमने आलंबीने अध्यवसान ऊपजे छे, तेथी तेमने अध्यवसाननुं कारण कहेवामां आवे छे. बाह्यवस्तु विना निराश्रयपणे अध्यवसान ऊपजतां नथी तेथी बाह्यवस्तुओनो त्याग कराववामां आवे छे. जो बंधनुं कारण बाह्यवस्तु कहेवामां आवे तो तेमां व्यभिचार आवे छे. (कारण होवा छतां कोई स्थळे कार्य देखाय अने कोई स्थळे कार्य न देखाय तेने व्यभिचार कहे छे अने एवा कारणने व्यभिचारीअनैकांतिककारणाभास कहे छे.)

* वीरजननी = शूरवीरने जन्म आपनारी; शूरवीरनी माता.


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एवं बन्धहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वं दर्शयति

दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि
जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ।।२६६।।
दुःखितसुखितान् जीवान् करोमि बन्धयामि तथा विमोचयामि
या एषा मूढमतिः निरर्थिका सा खलु ते मिथ्या ।।२६६।।

परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि, बन्धयामि मोचयामीत्यादि वा, यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि, परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात्, खकुसुमं


कोई मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यत्नथी गमन करता होय तेमना पग तळे कोई ऊडतुं जीवडुं वेगथी आवी पडीने मरी गयुं तो तेनी हिंसा मुनिने लागती नथी. अहीं बाह्य द्रष्टिथी जोवामां आवे तो हिंसा थई, परंतु मुनिने हिंसानो अध्यवसाय नहि होवाथी तेमने बंध थतो नथी. जेम ते पग नीचे मरी जतुं जीवडुं मुनिने बंधनुं कारण नथी तेम अन्य बाह्यवस्तुओ विषे पण समजवुं. आ रीते बाह्यवस्तुने बंधनुं कारण मानवामां व्यभिचार आवतो होवाथी बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी एम सिद्ध थयुं. वळी बाह्यवस्तु विना निराश्रये अध्यवसान थतां नथी तेथी बाह्यवस्तुनो निषेध पण छे ज.

आ रीते बंधना कारणपणे (कारण तरीके) नक्की करवामां आवेलुं जे अध्यवसान ते पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नहि होवाथी मिथ्या छेएम हवे दर्शावे छेः

करुं छुं दुखी-सुखी जीवने, वळी बद्ध-मुक्त करुं अरे!
आ मूढ मति तुज छे निरर्थक, तेथी छे मिथ्या खरे. २६६.

गाथार्थःहे भाई! ‘[जीवान्] हुं जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि] करुं छुं, [बन्धयामि] बंधावुं छुं [तथा विमोचयामि] तथा मुकावुं छुं, [या एषा ते मूढमतिः] एवी जे आ तारी मूढ मति (मोहित बुद्धि) छे [सा] ते [निरर्थिका] निरर्थक होवाथी [खलु] खरेखर [मिथ्या] मिथ्या (खोटी) छे.

टीकाःहुं पर जीवोने दुःखी करुं छुं, सुखी करुं छुं इत्यादि तथा बंधावुं छुं, मुकावुं छुं इत्यादि जे आ अध्यवसान छे ते बधुंय, परभावनो परमां व्यापार नहि होवाने लीधे


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लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं, केवलमात्मनोऽनर्थायैव

कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारीति चेत्

अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि
मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करेसि तुमं ।।२६७।।
अध्यवसाननिमित्तं जीवा बध्यन्ते कर्मणा यदि हि
मुच्यन्ते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वम् ।।२६७।।

यत्किल बन्धयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्बन्धनं मोचनं जीवानाम् जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान्न बध्यते,


पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नहि होवाथी, ‘हुं आकाशना फूलने चूंटुं छुं’ एवा अध्यवसाननी माफक मिथ्यारूप छे, केवळ पोताना अनर्थने माटे ज छे (अर्थात् मात्र पोताने ज नुकसाननुं कारण थाय छे, परने तो कांई करी शकतुं नथी).

भावार्थःजे पोतानी अर्थक्रिया (प्रयोजनभूत क्रिया) करी शकतुं नथी ते निरर्थक छे, अथवा जेनो विषय नथी ते निरर्थक छे. जीव पर जीवोने दुःखी-सुखी आदि करवानी बुद्धि करे छे, परंतु पर जीवो तो पोताना कर्या दुःखी-सुखी थता नथी; तेथी ते बुद्धि निरर्थक छे अने निरर्थक होवाथी मिथ्या छेखोटी छे.

हवे पूछे छे के अध्यवसाय पोतानी अर्थक्रिया करनारुं कई रीते नथी? तेनो उत्तर कहे छेः

सौ जीव अध्यवसानकारण कर्मथी बंधाय ज्यां
ने मोक्षमार्गे स्थित जीवो मुकाय, तुं शुं करे भला? २६७.

गाथार्थःहे भाई! [यदि हि] जो खरेखर [अध्यवसाननिमित्तं] अध्यवसानना निमित्ते [जीवाः] जीवो [कर्मणा बध्यन्ते] कर्मथी बंधाय छे [च] अने [मोक्षमार्गे स्थिताः] मोक्षमार्गमां स्थित [मुच्यन्ते] मुकाय छे, [तद्] तो [त्वम् किं करोषि] तुं शुं करे छे? (तारो तो बांधवा-छोडवानो अभिप्राय विफळ गयो.)

टीकाः‘हुं बंधावुं छुं, मुकावुं छुं’ एवुं जे अध्यवसान छे तेनी पोतानी अर्थक्रिया जीवोने बांधवा, मूकवा (मुक्त करवा, छोडवा) ते छे. परंतु जीव तो, आ अध्यवसायनो सद्भाव होवा छतां पण, पोताना सराग-वीतराग परिणामना अभावथी नथी बंधातो, नथी मुकातो; अने


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न मुच्यते; सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्यवसायस्याभावेऽपि बध्यते, मुच्यते च ततः परत्राकिञ्चित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि; ततश्च मिथ्यैवेति भावः

(अनुष्टुभ्)
अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः
तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ।।१७१।।
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरइए
देवमणुए य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं ।।२६८।।

पोताना सराग-वीतराग परिणामना सद्भावथी, ते अध्यवसायनो अभाव होवा छतां पण, बंधाय छे, मुकाय छे. माटे परमां अकिंचित्कर होवाथी (अर्थात् कांई नहि करी शकतुं होवाथी ) आ अध्यवसान पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नथी; अने तेथी मिथ्या ज छे.आवो भाव (आशय) छे.

भावार्थःजे हेतु कांई पण न करे ते अकिंचित्कर कहेवाय छे. आ बांधवा-छोडवानुं अध्यवसान पण परमां कांई करतुं नथी; कारण के ते अध्यवसान न होय तोपण जीव पोताना सराग-वीतराग परिणामथी बंध-मोक्षने पामे छे, अने ते अध्यवसान होय तोपण पोताना सराग-वीतराग परिणामना अभावथी बंध-मोक्षने नथी पामतो. आ रीते अध्यवसान परमां अकिंचित्कर होवाथी स्व-अर्थक्रिया करनारुं नथी अने तेथी मिथ्या छे.

हवे आ अर्थना कळशरूपे अने आगळना कथननी सूचनिकारूपे श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः] आ निष्फळ (निरर्थक) अध्यवसायथी मोहित थयो थको [आत्मा] आत्मा [तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति] पोताने सर्वरूप करे छे,एवुं कांई पण नथी के जे-रूप पोताने न करतो होय.

भावार्थःआ आत्मा मिथ्या अभिप्रायथी भूल्यो थको चतुर्गति-संसारमां जेटली अवस्थाओ छे, जेटला पदार्थो छे ते सर्वरूप पोताने थयेलो माने छे; पोताना शुद्ध स्वरूपने नथी ओळखतो. १७१.

हवे आ अर्थने स्पष्ट रीते गाथामां कहे छेः

तिर्यंच, नारक, देव, मानव, पुण्य-पाप विविध जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी. २६८.

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धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोगलोगं च
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं ।।२६९।।
सर्वान् करोति जीवोऽध्यवसानेन तिर्यङ्नैरयिकान्
देवमनुजांश्च सर्वान् पुण्यं पापं च नैकविधम् ।।२६८।।
धर्माधर्मं च तथा जीवाजीवौ अलोकलोकं च
सर्वान् करोति जीवः अध्यवसानेन आत्मानम् ।।२६९।।

यथायमेवं क्रियागर्भहिंसाध्यवसानेन हिंसकं, इतराध्यवसानैरितरं च आत्मात्मानं कुर्यात्, तथा विपच्यमाननारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतिर्यगध्यवसानेन तिर्यञ्चं, विपच्यमान- मनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन

वळी एम धर्म-अधर्म, जीव-अजीव, लोक-अलोक जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी. २६९.

गाथार्थः[जीवः] जीव [अध्यवसानेन] अध्यवसानथी [तिर्यङ्नैरयिकान्] तिर्यंच, नारक, [देवमनुजान् च] देव अने मनुष्य [सर्वान्] ए सर्व पर्यायो, [च] तथा [नैकविधम्] अनेक प्रकारनां [पुण्यं पापं] पुण्य अने पाप[सर्वान्] ए बधारूप [करोति] पोताने करे छे. [तथा च] वळी तेवी रीते [जीवः] जीव [अध्यवसानेन] अध्यवसानथी [धर्माधर्मं ] धर्म-अधर्म, [जीवाजीवौ] जीव- अजीव [च] अने [अलोकलोकं] लोक-अलोक[सर्वान्] ए बधारूप [आत्मानम् करोति] पोताने करे छे.

टीकाःजेवी रीते आ आत्मा पूर्वोक्त प्रकारे *क्रिया जेनो गर्भ छे एवा हिंसाना अध्यवसानथी पोताने हिंसक करे छे, (अहिंसाना अध्यवसानथी पोताने अहिंसक करे छे) अने अन्य अध्यवसानोथी पोताने अन्य करे छे, तेवी ज रीते उदयमां आवता नारकना अध्यवसानथी पोताने नारक (नारकी) करे छे, उदयमां आवता तिर्यंचना अध्यवसानथी पोताने तिर्यंच करे छे, उदयमां आवता मनुष्यना अध्यवसानथी पोताने मनुष्य करे छे, उदयमां आवता देवना अध्यवसानथी पोताने देव करे छे, उदयमां आवता सुख आदि पुण्यना अध्यवसानथी पोताने

* हिंसा आदिनां अध्यवसानो रागद्वेषना उदयमय एवी हणवा आदिनी क्रियाओथी भरेलां छे, अर्थात् ते क्रियाओ साथे आत्मानुं तन्मयपणुं होवानी मान्यतारूप छे.


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पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाध्यवसानेन पापमात्मानं कुर्यात् तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन धर्मं, ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्मं, ज्ञायमानजीवान्तराध्यवसानेन जीवान्तरं, ज्ञायमानपुद्गलाध्यव- सानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं, ज्ञायमानालोकाकाशाध्यवसानेना- लोकाकाशमात्मानं कुर्यात्

(इन्द्रवज्रा)
विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावा-
दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्
मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष
नास्तीह येषां यतयस्त एव
।।१७२।।

पुण्यरूप करे छे अने उदयमां आवता दुःख आदि पापना अध्यवसानथी पोताने पापरूप करे छे; वळी तेवी ज रीते जाणवामां आवतो जे धर्म (अर्थात् धर्मास्तिकाय) तेना अध्यवसानथी पोताने धर्मरूप करे छे, जाणवामां आवता अधर्मना (अर्थात् अधर्मास्तिकायना) अध्यवसानथी पोताने अधर्मरूप करे छे, जाणवामां आवता अन्य जीवना अध्यवसानथी पोताने अन्यजीवरूप करे छे, जाणवामां आवता पुद्गलना अध्यवसानथी पोताने पुद्गलरूप करे छे, जाणवामां आवता लोकाकाशना अध्यवसानथी पोताने लोकाकाशरूप करे छे अने जाणवामां आवता अलोकाकाशना अध्यवसानथी पोताने अलोकाकाशरूप करे छे. (आ रीते आत्मा अध्यवसानथी पोताने सर्वरूप करे छे.)

भावार्थःआ अध्यवसान अज्ञानरूप छे तेथी तेने पोतानुं परमार्थ स्वरूप न जाणवुं. ते अध्यवसानथी ज आत्मा पोताने अनेक अवस्थारूप करे छे अर्थात् तेमनामां पोतापणुं मानी प्रवर्ते छे.

हवे आ अर्थना कळशरूपे तथा आगळना कथननी सूचनिकारूपे काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[विश्वात् विभक्तः अपि हि] विश्वथी (समस्त द्रव्योथी) भिन्न होवा छतां [आत्मा] आत्मा [यत्-प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति] जेना प्रभावथी पोताने विश्वरूप करे छे [एषः अध्यवसायः] एवो आ अध्यवसाय[मोह-एक-कन्दः] के जेनुं मोह ज एक मूळ छे ते[येषां इह नास्ति] जेमने नथी [ते एव यतयः] ते ज मुनिओ छे. १७२.

आ अध्यवसाय जेमने नथी ते मुनिओ कर्मथी लेपाता नथीएम हवे गाथामां कहे छेः


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एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि
ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।।२७०।।
एतानि न सन्ति येषामध्यवसानान्येवमादीनि
ते अशुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यन्ते ।।२७०।।

एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि तानि समस्तान्यपि शुभाशुभ- कर्मबन्धनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् तथाहियदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत्, ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं,

ए आदि अध्यवसान विधविध वर्ततां नहि जेमने,
ते मुनिवरो लेपाय नहि शुभ के अशुभ कर्मो वडे. २७०.

गाथार्थः[एतानि] आ (पूर्वे कहेलां) [एवमादीनि] तथा आवां बीजां पण [अध्यवसानानि] अध्यवसान [येषाम्] जेमने [न सन्ति] नथी, [ते मुनयः] ते मुनिओ [अशुभेन] अशुभ [वा शुभेन] के शुभ [कर्मणा] कर्मथी [न लिप्यन्ते] लेपाता नथी.

टीकाःआ जे त्रण प्रकारनां अध्यवसानो छे ते बधांय पोते अज्ञानादिरूप (अर्थात् अज्ञान, मिथ्यादर्शन अने अचारित्ररूप) होवाथी शुभाशुभ कर्मबंधनां निमित्त छे. ते विशेष समजाववामां आवे छेः‘हुं (पर जीवोने) हणुं छुं’ इत्यादि जे आ अध्यवसान छे ते अध्यवसानवाळा जीवने, ज्ञानमयपणाने लीधे सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे एवा आत्मानो अने रागद्वेषना उदयमय एवी हनन आदि क्रियाओनो विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न

्रूप छे, अने सत्रूप होवाथी अहेतुक छे.)

१. सत्रूप = सत्तास्वरूप; अस्तित्वस्वरूप. (आत्मा ज्ञानमय छे तेथी सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ज तेनी एक क्रिया छे.)

२. अहेतुक = जेनुं कोई कारण नथी एवी; अकारण; स्वयंसिद्ध; सहज.
३. ज्ञप्ति = जाणवुं ते; जाणनक्रिया. (ज्ञप्तिक्रिया सत

४. हनन = हणवुं ते; हणवारूप क्रिया. (हणवुं वगेरे क्रियाओ रागद्वेषना उदयमय छे.)
५. विशेष = तफावत; भिन्न लक्षण.


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विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् [यत्पुनः नारकोऽहमित्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमय- त्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञायकैकभावस्य कर्मोदयजनितानां नारकादिभावानां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्माना- चरणादस्ति चाचारित्रम् ] यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् ततो बन्धनिमित्तान्येवैतानि समस्तान्यध्यवसानानि येषामेवैतानि न विद्यन्ते त एव मुनिकुञ्जराः केचन, सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियं, सदहेतुकज्ञायकैकभावं, सदहेतुकज्ञानैकरूपं च विविक्तमात्मानं जानन्तः, सम्यक्पश्यन्तोऽनुचरन्तश्च, स्वच्छस्वच्छन्दोद्यदमन्दान्तर्ज्योतिषोऽत्यन्तमज्ञानादिरूपत्वा-


आत्मानुं अदर्शन (अश्रद्धान) होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे. [ वळी ‘हुं नारक छुं’ इत्यादि जे अध्यवसान छे ते अध्यवसानवाळा जीवने पण, ज्ञानमयपणाने लीधे सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ज जेनो एक भाव छे एवा आत्मानो अने कर्मोदयजनित नारक आदि भावोनो विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे.] वळी ‘आ धर्मद्रव्य जणाय छे’ इत्यादि जे अध्यवसान छे ते अध्यवसानवाळा जीवने पण, *ज्ञानमयपणाने लीधे सत्रूप अहेतुक ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवा आत्मानो अने ज्ञेयमय एवां धर्मादिक रूपोनो विशेष नहि जाणवाने लीधे भिन्न आत्मानुं अज्ञान होवाथी, ते अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान छे, भिन्न आत्मानुं अदर्शन होवाथी (ते अध्यवसान) मिथ्यादर्शन छे अने भिन्न आत्मानुं अनाचरण होवाथी (ते अध्यवसान) अचारित्र छे. माटे आ समस्त अध्यवसानो बंधनां ज निमित्त छे.

मात्र जेमने आ अध्यवसानो विद्यमान नथी ते ज कोईक ( विरल) मुनिकुंजरो (मुनिवरो), सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ज जेनी एक क्रिया छे, सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ज जेनो एक भाव छे अने सत्रूप अहेतुक ज्ञान ज जेनुं एक रूप छे एवा भिन्न आत्माने (सर्व अन्यद्रव्यभावोथी जुदा आत्माने) जाणता थका, सम्यक् प्रकारे देखता (श्रद्धता) थका अने अनुचरता थका, स्वच्छ अने स्वच्छंदपणे उदयमान (अर्थात् स्वाधीनपणे प्रकाशमान) एवी अमंद अंतर्ज्योतिने अज्ञानादिरूपपणानो अत्यंत अभाव होवाथी (अर्थात् अंतरंगमां

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* आत्मा ज्ञानमय छे तेथी सत्रूप अहेतुक ज्ञान ज तेनुं एक रूप छे.


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भावात्, शुभेनाशुभेन वा कर्मणा न खलु लिप्येरन्

किमेतदध्यवसानं नामेति चेत्
बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं
एक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ।।२७१।।
बुद्धिर्व्यवसायोऽपि च अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानम्
एकार्थमेव सर्वं चित्तं भावश्च परिणामः ।।२७१।।

प्रकाशती ज्ञानज्योति जरा पण अज्ञानरूप, मिथ्यादर्शनरूप अने अचारित्ररूप नहि थती होवाथी) शुभ के अशुभ कर्मथी खरेखर लेपाता नथी.

भावार्थःआ जे अध्यवसानो छे ते ‘हुं परने हणुं छुं’ ए प्रकारनां छे, ‘हुं नारक छुं’ ए प्रकारनां छे तथा ‘हुं परद्रव्यने जाणुं छुं’ ए प्रकारनां छे. तेओ, ज्यां सुधी आत्मानो ने रागादिकनो, आत्मानो ने नारकादि कर्मोदयजनित भावोनो तथा आत्मानो ने ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योनो भेद न जाण्यो होय, त्यां सुधी प्रवर्ते छे. तेओ भेदज्ञानना अभावने लीधे मिथ्याज्ञानरूप छे, मिथ्यादर्शनरूप छे अने मिथ्याचारित्ररूप छे; एम त्रण प्रकारे प्रवर्ते छे. ते अध्यवसानो जेमने नथी ते मुनिकुंजरो छे. तेओ आत्माने सम्यक् जाणे छे, सम्यक् श्रद्धे छे अने सम्यक् आचरे छे, तेथी अज्ञानना अभावथी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप थया थका कर्मोथी लेपाता नथी.

‘‘अध्यवसान शब्द वारंवार कहेता आव्या छो, ते अध्यवसान शुं छे? तेनुं स्वरूप बराबर समजवामां नथी आव्युं.’’ आम पूछवामां आवतां, हवे अध्यवसाननुं स्वरूप गाथामां कहे छेः

बुद्धि, मति, व्यवसाय, अध्यवसान, वळी विज्ञान ने
परिणाम, चित्त ने भावशब्दो सर्व आ एकार्थ छे. २७१.

गाथार्थः[बुद्धिः] बुद्धि, [व्यवसायः अपि च] व्यवसाय, [अध्यवसानं] अध्यवसान, [मतिः च] मति, [विज्ञानम् ] विज्ञान, [चित्तं] चित्त, [भावः] भाव [च] अने [परिणामः] परिणाम[सर्वं ] ए बधा [एकार्थम् एव] एकार्थ ज छे (नाम जुदां छे, अर्थ जुदा नथी).


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स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं; तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः, व्यवसानमात्रत्वाद्वयवसायः, मननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चितो भवनमात्रत्वाद्भावः, चितः परिणमनमात्रत्वात्परिणामः

(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः
सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम्
।।१७३।।

टीकाःस्व-परनो अविवेक होय (अर्थात् स्व-परनुं भेदज्ञान न होय) त्यारे जीवनी अध्यवसितिमात्र ते अध्यवसान छे; अने ते ज (अर्थात् जेने अध्यवसान कह्युं ते ज) बोधन- मात्रपणाथी बुद्धि छे, व्यवसानमात्रपणाथी व्यवसाय छे, मननमात्रपणाथी मति छे, विज्ञप्ति- मात्रपणाथी विज्ञान छे, चेतनामात्रपणाथी चित्त छे, चेतनना भवनमात्रपणाथी भाव छे, चेतनना परिणमनमात्रपणाथी परिणाम छे. (आ रीते आ बधाय शब्दो एकार्थ छे.)

भावार्थःआ जे बुद्धि आदि आठ नामोथी कह्या ते बधाय चेतन आत्माना परिणाम छे. ज्यां सुधी स्वपरनुं भेदज्ञान न होय त्यां सुधी जीवने जे पोताना ने परना एकपणाना निश्चयरूप परिणति वर्ते छे तेने बुद्धि आदि आठ नामोथी कहेवामां आवे छे.

‘अध्यवसान त्यागवायोग्य कह्यां छे तेथी एम समजाय छे के व्यवहारनो त्याग कराव्यो छे अने निश्चयनुं ग्रहण कराव्युं छे’एवा अर्थनुं, आगळना कथननी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थःआचार्यदेव कहे छे केः[सर्वत्र यद् अध्यवसानम्] सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे [अखिलं] ते बधांय (अध्यवसान) [जिनैः] जिन भगवानोए [एवम्] पूर्वोक्त रीते [त्याज्यं उक्तं] त्यागवायोग्य कह्यां छे [तत्] तेथी [मन्ये] अमे एम मानीए छीए के [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः] ‘पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार

१. अध्यवसिति = (एकमां बीजानी मान्यतापूर्वक) परिणति; (मिथ्या) निश्चिति; (खोटो) निश्चय होवो ते.

२. व्यवसान = काममां लाग्या रहेवुं ते; उद्यमी होवुं ते; निश्चय होवो ते.
३. मनन = मानवुं ते; जाणवुं ते.


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एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण
णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।।२७२।।
एवं व्यवहारनयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन
निश्चयनयाश्रिताः पुनर्मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ।।२७२।।

आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि


ज सघळोय छोडाव्यो छे’. [तत्] तो पछी, [अमी सन्तः] आ सत्पुरुषो [एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य] एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने [शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामां (आत्मस्वरूपमां) [धृतिम् किं न बध्नन्ति] स्थिरता केम धरता नथी?

भावार्थःजिनेश्वरदेवे अन्य पदार्थोमां आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छोडाव्यां छे तेथी आ पराश्रित व्यवहार ज बधोय छोडाव्यो छे एम जाणवुं. माटे ‘शुद्धज्ञानस्वरूप पोताना आत्मामां स्थिरता राखो’ एवो शुद्धनिश्चयना ग्रहणनो उपदेश आचार्यदेवे कर्यो छे. वळी, ‘‘जो भगवाने अध्यवसान छोडाव्यां छे तो हवे सत्पुरुषो निश्चयने निष्कंपपणे अंगीकार करी स्वरूपमां केम नथी ठरताए अमने अचरज छे’’ एम कहीने आचार्यदेवे आश्चर्य बताव्युं छे. १७३.

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः

व्यवहारनय ए रीत जाण निषिद्ध निश्चयनय थकी;
निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी. २७२.

गाथार्थः[एवं] ए रीते (पूर्वोक्त रीते) [व्यवहारनयः] (पराश्रित एवो) व्यवहारनय [निश्चयनयेन] निश्चयनय वडे [प्रतिषिद्धः जानीहि] निषिद्ध जाण; [पुनः निश्चयनयाश्रिताः] निश्चयनयने आश्रित [मुनयः] मुनिओ [निर्वाणम्] निर्वाणने [प्राप्नुवन्ति] पामे छे.

टीकाःआत्माश्रित (अर्थात् स्व-आश्रित) निश्चयनय छे, पराश्रित (अर्थात् परने आश्रित) व्यवहारनय छे. त्यां, पूर्वोक्त रीते पराश्रित समस्त अध्यवसान (अर्थात् पोताना ने परना एकपणानी मान्यतापूर्वक परिणमन) बंधनुं कारण होवाने लीधे मुमुक्षुने तेनो (अध्यवसाननो) निषेध करता एवा निश्चयनय वडे खरेखर व्यवहारनयनो ज निषेध करायो


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पराश्रितत्वाविशेषात् प्रतिषेध्य एव चायं, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्, पराश्रितव्यवहारनयस्यैकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रीयमाणत्वाच्च

कथमभव्येनाप्याश्रीयते व्यवहारनयः इति चेत्

वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं
कुव्वंतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु ।।२७३।।
व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिनवरैः प्रज्ञप्तम्
कुर्वन्नप्यभव्योऽज्ञानी मिथ्याद्रष्टिस्तु ।।२७३।।

छे, कारण के व्यवहारनयने पण पराश्रितपणुं समान ज छे (जेम अध्यवसान पराश्रित छे तेम व्यवहारनय पण पराश्रित छे, तेमां तफावत नथी). अने आ व्यवहारनय ए रीते निषेधवा- योग्य ज छे; कारण के आत्माश्रित निश्चयनयनो आश्रय करनाराओ ज (कर्मथी) मुक्त थाय छे अने पराश्रित व्यवहारनयनो आश्रय तो एकांते नहि मुक्त थतो एवो अभव्य पण करे छे.

भावार्थःआत्माने परना निमित्तथी जे अनेक भावो थाय छे ते बधा व्यवहारनयना विषय होवाथी व्यवहारनय तो पराश्रित छे, अने जे एक पोतानो स्वाभाविक भाव छे ते ज निश्चयनयनो विषय होवाथी निश्चयनय आत्माश्रित छे. अध्यवसान पण व्यवहारनयनो ज विषय छे तेथी अध्यवसाननो त्याग ते व्यवहारनयनो ज त्याग छे, अने पहेलांनी गाथाओमां अध्यवसानना त्यागनो उपदेश छे ते व्यवहारनयना ज त्यागनो उपदेश छे. आ प्रमाणे निश्चयनयने प्रधान करीने व्यवहारनयना त्यागनो उपदेश कर्यो छे तेनुं कारण ए छे केजेओ निश्चयना आश्रये प्रवर्ते छे तेओ ज कर्मथी छूटे छे अने जेओ एकांते व्यवहारनयना ज आश्रये प्रवर्ते छे तेओ कर्मथी कदी छूटता नथी.

हवे पूछे छे के अभव्य जीव पण व्यवहारनयनो कई रीते आश्रय करे छे? तेनो उत्तर कहे छेः

जिनवरकहेलां व्रत, समिति, गुप्ति वळी तप-शीलने
करतां छतांय अभव्य जीव अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. २७३.

गाथार्थः[जिनवरैः] जिनवरोए [प्रज्ञप्तम्] कहेलां [व्रतसमितिगुप्तयः] व्रत, समिति, गुप्ति, [शीलतपः] शील, तप [कुर्वन् अपि] करतां छतां पण [अभव्यः] अभव्य जीव


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शीलतपःपरिपूर्णं त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमहिंसादिपञ्चमहाव्रतरूपं व्यवहारचारित्रं अभव्योऽपि कुर्यात्, तथापि च निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्याद्रष्टिरेव, निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धान- शून्यत्वात्

तस्यैकादशाङ्गज्ञानमस्ति इति चेत्

मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज
पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु ।।२७४।।
मोक्षमश्रद्दधानोऽभव्यसत्त्वस्तु योऽधीयीत
पाठो न करोति गुणमश्रद्दधानस्य ज्ञानं तु ।।२७४।।

मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते, शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात् ततो ज्ञानमपि नासौ [अज्ञानी] अज्ञानी [मिथ्याद्रष्टिः तु] अने मिथ्याद्रष्टि छे.

टीकाःशील अने तपथी परिपूर्ण, त्रण गुप्ति अने पांच समिति प्रत्ये सावधानी भरेलुं, अहिंसादि पांच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र अभव्य पण करे छे अर्थात् पाळे छे; तोपण ते (अभव्य) निश्चारित्र (चारित्ररहित), अज्ञानी अने मिथ्याद्रष्टि ज छे कारण के निश्चयचारित्रना कारणरूप ज्ञान-श्रद्धानथी शून्य छे.

भावार्थःअभव्य जीव महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहार चारित्र पाळे तोपण निश्चय सम्यग्ज्ञानश्रद्धान विना ते चारित्र ‘सम्यक्चारित्र’ नाम पामतुं नथी; माटे ते अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि अने निश्चारित्र ज छे.

हवे शिष्य पूछे छे केतेने अगियार अंगनुं ज्ञान तो होय छे; छतां तेने अज्ञानी केम कह्यो? तेनो उत्तर कहे छेः

मुक्ति तणी श्रद्धारहित अभव्य जीव शास्त्रो भणे,
पण ज्ञाननी श्रद्धारहितने पठन ए नहि गुण करे. २७४.

गाथार्थः[मोक्षम् अश्रद्दधानः] मोक्षने नहि श्रद्धतो एवो [यः अभव्यसत्त्वः] जे अभव्यजीव छे ते [तु अधीयीत] शास्त्रो तो भणे छे, [तु] परंतु [ज्ञानं अश्रद्दधानस्य] ज्ञानने नहि श्रद्धता एवा तेने [पाठः] शास्त्रपठन [गुणम् न करोति] गुण करतुं नथी.

टीकाःप्रथम तो मोक्षने ज अभव्य जीव, (पोते) शुद्धज्ञानमय आत्माना ज्ञानथी


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श्रद्धत्ते ज्ञानमश्रद्दधानश्चाचाराद्येकादशाङ्गं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानी स्यात् स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं; तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानम- श्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत ततस्तस्य तद्गुणाभावः ततश्च ज्ञानश्रद्धानाभावात् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः

तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्

सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि
धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।२७५।।
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति
धर्मं भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तम् ।।२७५।।

शून्य होवाने लीधे, नथी श्रद्धतो. तेथी ज्ञानने पण ते नथी श्रद्धतो. अने ज्ञानने नहि श्रद्धतो ते, आचारांग आदि अगियार अंगरूप श्रुतने (शास्त्रने) भणतो होवा छतां, शास्त्र भणवानो जे गुण तेना अभावने लीधे ज्ञानी नथी. जे भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान ते शास्त्र भणवानो गुण छे; अने ते तो (अर्थात् एवुं शुद्धात्मज्ञान तो), भिन्नवस्तुभूत ज्ञानने नहि श्रद्धता एवा अभव्यने शास्त्र-भणतर वडे करी शकातुं नथी (अर्थात् शास्त्र-भणतर तेने शुद्धात्मज्ञान करी शकतुं नथी); माटे तेने शास्त्र भणवाना गुणनो अभाव छे; अने तेथी ज्ञान- श्रद्धानना अभावने लीधे ते अज्ञानी ठर्योनक्की थयो.

भावार्थःअभव्य जीव अगियार अंग भणे तोपण तेने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान-श्रद्धान थतुं नथी; तेथी तेने शास्त्रना भणतरे गुण न कर्यो; अने तेथी ते अज्ञानी ज छे.

फरी शिष्य पूछे छे केअभव्यने धर्मनुं श्रद्धान तो होय छे; छतां ‘तेने श्रद्धान नथी’ एम केम कह्युं? तेनो उत्तर हवे कहे छेः

ते धर्मने श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शन करे,
ते भोगहेतु धर्मने, नहि कर्मक्षयना हेतुने. २७५.

गाथार्थः[सः] ते (अभव्य जीव) [ भोगनिमित्तं धर्मं ] भोगना निमित्तरूप धर्मने [श्रद्दधाति च] श्रद्धे छे, [प्रत्येति च] तेनी ज प्रतीत करे छे, [रोचयति च] तेनी ज रुचि करे छे [तथा पुनः स्पृशति च] अने तेने ज स्पर्शे छे, [न तु कर्मक्षयनिमित्तम्] परंतु


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अभव्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते, नित्यमेव भेदविज्ञानानर्हत्वात् ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्मं न श्रद्धत्ते, भोग- निमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव श्रद्धत्ते तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनरोचनस्पर्शनै- रुपरितनग्रैवेयकभोगमात्रमास्कन्देत्, न पुनः कदाचनापि विमुच्येत ततोऽस्य भूतार्थधर्म- श्रद्धानाभावात् श्रद्धानमपि नास्ति एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो युज्यत एव


कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नहि. (कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नथी श्रद्धतो, नथी तेनी प्रतीत करतो, नथी तेनी रुचि करतो अने नथी तेने स्पर्शतो.)

टीकाःअभव्य जीव नित्यकर्मफळचेतनारूप वस्तुने श्रद्धे छे परंतु नित्यज्ञानचेतना- मात्र वस्तुने नथी श्रद्धतो कारण के ते (अभव्य) सदाय (स्वपरना) भेदविज्ञानने अयोग्य छे. माटे ते (अभव्य जीव) कर्मथी छूटवाना निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ (सत्यार्थ) धर्मने नथी श्रद्धतो, भोगना निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे; तेथी ज ते अभूतार्थ धर्मनां श्रद्धान, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शनथी उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने पामे छे परंतु कदापि कर्मथी छूटतो नथी. तेथी तेने भूतार्थ धर्मना श्रद्धानना अभावने लीधे (साचुं) श्रद्धान पण नथी.

आम होवाथी निश्चयनय वडे व्यवहारनयनो निषेध योग्य ज छे.

भावार्थःअभव्य जीवने भेदज्ञान थवानी योग्यता नहि होवाथी ते कर्मफळचेतनाने जाणे छे परंतु ज्ञानचेतनाने जाणतो नथी; तेथी शुद्ध आत्मिक धर्मनुं श्रद्धान तेने नथी. ते शुभ कर्मने ज धर्म समजी श्रद्धान करे छे तेथी तेना फळ तरीके ग्रैवेयक सुधीना भोगने पामे छे परंतु कर्मनो क्षय थतो नथी. आ रीते सत्यार्थ धर्मनुं श्रद्धान नहि होवाथी तेने श्रद्धान ज कही शकातुं नथी.

आ प्रमाणे व्यवहारनयने आश्रित अभव्य जीवने ज्ञान-श्रद्धान नहि होवाथी निश्चयनय वडे करवामां आवतो व्यवहारनो निषेध योग्य ज छे.

अहीं एटलुं विशेष जाणवुं केआ हेतुवादरूप अनुभवप्रधान ग्रंथ छे तेथी तेमां भव्य -अभव्यनो अनुभवनी अपेक्षाए निर्णय छे. हवे जो आने अहेतुवाद आगम साथे मेळवीए तोअभव्यने व्यवहारनयना पक्षनो सूक्ष्म, केवळीगम्य आशय रही जाय छे के जे छद्मस्थने अनुभवगोचर नथी पण होतो, मात्र सर्वज्ञदेव जाणे छे; ए रीते केवळ व्यवहारनो पक्ष रहेवाथी तेने सर्वथा एकांतरूप मिथ्यात्व रहे छे. अभव्यने आ व्यवहारनयना पक्षनो आशय सर्वथा कदी पण मटतो ज नथी.


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कीदृशौ प्रतिषेध्यप्रतिषेधकौ व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत्
आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं
छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु ववहारो ।।२७६।।
आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च
आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ।।२७७।।
आचारादि ज्ञानं जीवादि दर्शनं च विज्ञेयम्
षड्जीवनिकायं च तथा भणति चरित्रं तु व्यवहारः ।।२७६।।
आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च
आत्मा प्रत्याख्यानमात्मा मे संवरो योगः ।।२७७।।

आचारादिशब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रय-

हवे पूछे छे के ‘‘निश्चयनय वडे निषेध्य (अर्थात् निषेधावायोग्य) जे व्यवहारनय, अने व्यवहारनयनो निषेधक जे निश्चयनयते बन्ने नयो केवा छे?’’ एवुं पूछवामां आवतां व्यवहार अने निश्चयनुं स्वरूप कहे छेः

‘आचार’ आदि ज्ञान छे, जीवादि दर्शन जाणवुं,
षट्जीवनिकाय चरित छे,ए कथन नय व्यवहारनुं. २७६.
मुज आत्म निश्चय ज्ञान छे, मुज आत्म दर्शन-चरित छे,
मुज आत्म प्रत्याख्यान ने मुज आत्म संवर-योग छे. २७७.

गाथार्थः[आचारादि] आचारांग आदि शास्त्रो ते [ज्ञानं] ज्ञान छे, [जीवादि] जीव आदि तत्त्वो ते [दर्शनं विज्ञेयम् च] दर्शन जाणवुं [च] अने [षड्जीवनिकायं] छ जीव-निकाय ते [चरित्रं] चारित्र छे[तथा तु] एम तो [व्यवहारः भणति] व्यवहारनय कहे छे.

[खलु] निश्चयथी [मम आत्मा] मारो आत्मा ज [ज्ञानम्] ज्ञान छे, [मे आत्मा] मारो आत्मा [दर्शनं चरित्रं च] दर्शन अने चारित्र छे, [आत्मा] मारो आत्मा ज [प्रत्याख्यानम्] प्रत्याख्यान छे, [मे आत्मा] मारो आत्मा ज [संवरः योगः] संवर अने योग (समाधि, ध्यान) छे.

टीकाःआचारांग आदि शब्दश्रुत ते ज्ञान छे कारण के ते (शब्दश्रुत) ज्ञाननो

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