Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 174-180 ; Gatha: 278-294 ; Moksha Adhikar.

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त्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाच्चारित्रमिति व्यवहारः शुद्ध आत्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्झानं, शुद्ध आत्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्ध आत्मा चारित्राश्रयत्वाच्चारित्रमिति निश्चयः तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकान्तिकत्वाद्वयवहारनयः प्रतिषेध्यः निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्या- श्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः तथाहि

नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात्; न च जीवादयः पदार्था दर्शनस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात्; न च षड्जीवनिकायः चारित्रस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन चारित्रस्याभावात् शुद्ध आत्मैव ज्ञानस्याश्रयः, आचारादिशब्दश्रुतसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव ज्ञानस्य सद्भावात्; शुद्ध आत्मैव दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव


आश्रय छे, जीव आदि नव पदार्थो दर्शन छे कारण के ते (नव पदार्थो) दर्शननो आश्रय छे, अने छ जीव-निकाय चारित्र छे कारण के ते (छ जीव-निकाय) चारित्रनो आश्रय छे; ए प्रमाणे व्यवहार छे. शुद्ध आत्मा ज्ञान छे कारण के ते (शुद्ध आत्मा) ज्ञाननो आश्रय छे, शुद्ध आत्मा दर्शन छे कारण के ते दर्शननो आश्रय छे, अने शुद्ध आत्मा चारित्र छे कारण के ते चारित्रनो आश्रय छे; ए प्रमाणे निश्चय छे. तेमां, व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात

् निषेध्य छे, कारण के

आचारांग आदिने ज्ञानादिनुं आश्रयपणुं अनैकांतिक छेव्यभिचारयुक्त छे; (शब्दश्रुत आदिने ज्ञान आदिना आश्रयस्वरूप मानवामां व्यभिचार आवे छे केम के शब्दश्रुत आदि होवा छतां ज्ञान आदि नथी पण होतां, माटे व्यवहारनय प्रतिषेध्य छे;) अने निश्चयनय व्यवहारनयनो प्रतिषेधक छे, कारण के शुद्ध आत्माने ज्ञान आदिनुं आश्रयपणुं ऐकांतिक छे. (शुद्ध आत्माने ज्ञानादिनो आश्रय मानवामां व्यभिचार नथी केम के ज्यां शुद्ध आत्मा होय त्यां ज्ञान-दर्शन -चारित्र होय ज छे.) आ वात हेतु सहित समजाववामां आवे छेः

आचारांग आदि शब्दश्रुत एकांते ज्ञाननो आश्रय नथी, कारण के तेना (अर्थात् शब्दश्रुतना) सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे ज्ञाननो अभाव छे; जीव आदि नव पदार्थो दर्शननो आश्रय नथी, कारण के तेमना सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे दर्शननो अभाव छे; छ जीव-निकाय चारित्रनो आश्रय नथी, कारण के तेमना सद्भावमां पण अभव्योने शुद्ध आत्माना अभावने लीधे चारित्रनो अभाव छे. शुद्ध आत्मा ज ज्ञाननो आश्रय छे, कारण के आचारांग आदि शब्दश्रुतना सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात

् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज ज्ञाननो सद्भाव छे; शुद्ध

आत्मा ज दर्शननो आश्रय छे, कारण के जीव आदि नव पदार्थोना सद्भावमां के


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दर्शनस्य सद्भावात्; शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः, षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात्

(उपजाति)
रागादयो बन्धनिदानमुक्ता-
स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः
आत्मा परो वा किमु तन्निमित्त-
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः
।।१७४।।
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं
रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ।।२७८।।

असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज दर्शननो सद्भाव छे; शुद्ध आत्मा ज चारित्रनो आश्रय छे, कारण के छ जीव-निकायना सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज चारित्रनो सद्भाव छे.

भावार्थःआचारांग आदि शब्दश्रुतनुं जाणवुं, जीवादि नव पदार्थोनुं श्रद्धान करवुं तथा छ कायना जीवोनी रक्षाए सर्व होवा छतां अभव्यने ज्ञान, दर्शन, चारित्र नथी होतां, तेथी व्यवहारनय तो निषेध्य छे; अने शुद्धात्मा होय त्यां ज्ञान, दर्शन, चारित्र होय ज छे, तेथी निश्चयनय व्यवहारनो निषेधक छे. माटे शुद्धनय उपादेय कह्यो छे.

हवे आगळना कथननी सूचनानुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः‘‘[रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः] रागादिकने बंधनां कारण कह्या अने वळी [ते शुद्ध-चिन्मात्र-महः-अतिरिक्ताः] तेमने शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिथी (अर्थात् आत्माथी) भिन्न कह्या; [तद्-निमित्तम्] त्यारे ते रागादिकनुं निमित्त [किमु आत्मा वा परः] आत्मा छे के बीजुं कोई?’’ [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः] एवा (शिष्यना) प्रश्नथी प्रेरित थया थका आचार्यभगवान फरीने आम (नीचे प्रमाणे) कहे छे. १७४.

उपरना प्रश्नना उत्तररूपे आचार्यभगवान गाथा कहे छेः

ज्यम स्फटिकमणि छे शुद्ध, रक्तरूपे स्वयं नहि परिणमे,
पण अन्य जे रक्तादि द्रव्यो ते वडे रातो बने; २७८.

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एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं
राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ।।२७९।।
यथा स्फ टिकमणिः शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः
रज्यतेऽन्यैस्तु स रक्तादिभिर्द्रव्यैः ।।२७८।।
एवं ज्ञानी शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः
रज्यतेऽन्यैस्तु स रागादिभिर्दोषैः ।।२७९।।

यथा खलु केवलः स्फ टिकोपलः, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते; तथा केवलः किलात्मा, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः

त्यम ‘ज्ञानी’ पण छे शुद्ध, रागरूपे स्वयं नहि परिणमे,
पण अन्य जे रागादि दोषो ते वडे रागी बने. २७९.

गाथार्थः[यथा] जेम [स्फ टिकमणिः] स्फटिकमणि [शुद्धः] शुद्ध होवाथी [रागाद्यैः] रागादिरूपे (रताश-आदिरूपे) [स्वयं] पोतानी मेळे [न परिणमते] परिणमतो नथी [तु] परंतु [अन्यैः रक्तादिभिः द्रव्यैः] अन्य रक्त आदि द्रव्यो वडे [सः] ते [रज्यते] रक्त (रातो) आदि कराय छे, [एवं] तेम [ज्ञानी] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [शुद्धः] शुद्ध होवाथी [रागाद्यैः] रागादिरूपे [स्वयं] पोतानी मेळे [न परिणमते] परिणमतो नथी [तु] परंतु [अन्यैः रागादिभिः दोषैः] अन्य रागादि दोषो वडे [सः] ते [रज्यते] रागी आदि कराय छे.

टीकाःजेवी रीते खरेखर केवळ (एकलो) स्फटिकमणि, पोते परिणमन- स्वभाववाळो होवा छतां, पोताने शुद्धस्वभावपणाने लीधे रागादिनुं निमित्तपणुं नहि होवाथी (अर्थात् पोते पोताने लालाश-आदिरूप परिणमननुं निमित्त नहि होवाथी) पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी, परंतु जे पोतानी मेळे रागादिभावने पामतुं होवाथी स्फटिकमणिने रागादिनुं निमित्त थाय छे एवा परद्रव्य वडे ज, शुद्धस्वभावथी च्युत थतो थको ज, रागादिरूपे परिणमावाय छे; तेवी रीते खरेखर केवळ (एकलो) आत्मा, पोते परिणमनस्वभाववाळो होवा छतां, पोताने शुद्धस्वभावपणाने लीधे रागादिनुं निमित्तपणुं नहि होवाथी (अर्थात् पोते


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स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते इति तावद्वस्तुस्वभावः

(उपजाति)
न जातु रागादिनिमित्तभाव-
मात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः
तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव
वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्
।।१७५।।

पोताने रागादिरूप परिणमननुं निमित्त नहि होवाथी) पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी, परंतु जे पोतानी मेळे रागादिभावने पामतुं होवाथी आत्माने रागादिनुं निमित्त थाय छे एवा परद्रव्य वडे ज, शुद्धस्वभावथी च्युत थतो थको ज, रागादिरूपे परिणमावाय छे. आवो वस्तुनो स्वभाव छे.

भावार्थःस्फटिकमणि पोते तो केवळ एकाकार शुद्ध ज छे; ते परिणमन- स्वभाववाळो होवा छतां एकलो पोतानी मेळे लालाश-आदिरूपे परिणमतो नथी परंतु लाल आदि परद्रव्यना निमित्ते (अर्थात् स्वयं लालाश-आदिरूपे परिणमता एवा परद्रव्यना निमित्ते) लालाश-आदिरूपे परिणमे छे. तेवी रीते आत्मा पोते तो शुद्ध ज छे; ते परिणमनस्वभाववाळो होवा छतां एकलो पोतानी मेळे रागादिरूपे परिणमतो नथी परंतु रागादिरूप परद्रव्यना निमित्ते (अर्थात् स्वयं रागादिरूपे परिणमता एवा परद्रव्यना निमित्ते) रागादिरूपे परिणमे छे. आवो वस्तुनो ज स्वभाव छे, तेमां अन्य कोई तर्कने अवकाश नथी.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[यथा अर्ककान्तः] सूर्यकांतमणिनी माफक (अर्थात् जेम सूर्यकांतमणि पोताथी ज अग्निरूपे परिणमतो नथी, तेना अग्निरूप परिणमनमां सूर्यनुं बिंब निमित्त छे, तेम) [आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति] आत्मा पोताने रागादिकनुं निमित्त कदी पण थतो नथी, [तस्मिन् निमित्तं परसङ्गः एव] तेमां निमित्त परसंग ज (परद्रव्यनो संग ज) छे.[अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत् ] आवो वस्तुस्वभाव प्रकाशमान छे. (सदाय वस्तुनो आवो ज स्वभाव छे, कोईए करेलो नथी.) १७५.

‘आवा वस्तुस्वभावने जाणतो ज्ञानी रागादिकने पोताना करतो नथी’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक हवे कहे छेः


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(अनुष्टुभ्)
इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः
रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ।।१७६।।
ण य रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा
सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं ।।२८०।।
न च रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा
स्वयमात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानाम् ।।२८०।।

यथोक्तं वस्तुस्वभावं जानन् ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्वेषमोहादि- भावैः स्वयं न परिणमते, न परेणापि परिणम्यते, ततष्टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावो ज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानामकर्तैवेति प्रतिनियमः

श्लोकार्थः[इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति] एवा पोताना वस्तुस्वभावने ज्ञानी जाणे छे [तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात्] तेथी ते रागादिकने पोताना करतो नथी, [अतः कारकः न भवति] तेथी ते (रागादिकनो) कर्ता नथी. १७६.

हवे, ए प्रमाणे ज गाथामां कहे छेः

कदी रागद्वेषविमोह अगर कषायभावो निज विषे
ज्ञानी स्वयं करतो नथी; तेथी न तत्कारक ठरे. २८०.

गाथार्थः[ज्ञानी] ज्ञानी [रागद्वेषमोहं] रागद्वेषमोहने [वा कषायभावं] के कषायभावने [स्वयम्] पोतानी मेळे [आत्मनः] पोतामां [न च करोति] करतो नथी [तेन] तेथी [सः] ते, [तेषां भावानाम्] ते भावोनो [कारकः न] कारक अर्थात् कर्ता नथी.

टीकाःयथोक्त (अर्थात् जेवो कह्यो तेवा) वस्तुस्वभावने जाणतो ज्ञानी (पोताना) शुद्धस्वभावथी ज च्युत थतो नथी तेथी राग-द्वेष-मोह आदि भावोरूपे पोतानी मेळे परिणमतो नथी अने पर वडे पण परिणमावातो नथी, माटे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग -द्वेष-मोह आदि भावोनो अकर्ता ज छेएवो नियम छे.

भावार्थःआत्मा ज्ञानी थयो त्यारे वस्तुनो एवो स्वभाव जाण्यो के ‘आत्मा पोते तो शुद्ध ज छेद्रव्यद्रष्टिए अपरिणमनस्वरूप छे, पर्यायद्रष्टिए परद्रव्यना निमित्तथी रागादिरूपे


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(अनुष्टुभ्)
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः
रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः ।।१७७।।
रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा
तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदि पुणो वि ।।२८१।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः
तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति पुनरपि ।।२८१।।

यथोक्तं वस्तुस्वभावमजानंस्त्वज्ञानी शुद्धस्वभावादासंसारं प्रच्युत एव, ततः कर्म- विपाकप्रभवै रागद्वेषमोहादिभावैः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् बध्यत एवेति प्रतिनियमः


परिणमे छे’; माटे हवे ज्ञानी पोते ते भावोनो कर्ता थतो नथी, उदयो आवे तेमनो ज्ञाता ज छे.

‘आवा वस्तुस्वभावने अज्ञानी जाणतो नथी तेथी ते रागादिक भावोनो कर्ता थाय छे’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति] एवा पोताना वस्तुस्वभावने अज्ञानी जाणतो नथी [तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात् ] तेथी ते रागादिकने (रागादिभावोने) पोताना करे छे, [अतः कारकः भवति] तेथी (तेमनो) कर्ता थाय छे. १७७.

हवे आ अर्थनी गाथा कहे छेः

पण राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त थाये भाव जे,
ते-रूप जे प्रणमे, फरी ते बांधतो रागादिने. २८१.

गाथार्थः[रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव] राग, द्वेष अने कषायकर्मो होतां (अर्थात् तेमनो उदय थतां) [ये भावाः] जे भावो थाय छे [तैः तु] ते-रूपे [परिणममानः] परिणमतो अज्ञानी [रागादीन्] रागादिकने [पुनः अपि] फरीने पण [बध्नाति] बांधे छे.

टीकाःयथोक्त वस्तुस्वभावने नहि जाणतो अज्ञानी (पोताना) शुद्धस्वभावथी अनादि संसारथी मांडीने च्युत ज छे तेथी कर्मना उदयथी उत्पन्न थता रागद्वेषमोहादि भावो- रूपे परिणमतो अज्ञानी रागद्वेषमोहादि भावोनो कर्ता थतो थको (कर्मोथी) बंधाय ज छेएवो नियम छे.


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ततः स्थितमेतत्

रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा
तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा ।।२८२।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः
तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतयिता ।।२८२।।

य इमे किलाज्ञानिनः पुद्गलकर्मनिमित्ता रागद्वेषमोहादिपरिणामास्त एव भूयो रागद्वेषमोहादिपरिणामनिमित्तस्य पुद्गलकर्मणो बन्धहेतुरिति

कथमात्मा रागादीनामकारक एवेति चेत्

भावार्थःअज्ञानी वस्तुना स्वभावने तो यथार्थ जाणतो नथी अने कर्मना उदयथी जे भावो थाय छे तेमने पोताना समजीने परिणमे छे, माटे तेमनो कर्ता थयो थको फरी फरी आगामी कर्म बांधे छेएवो नियम छे.

‘‘तेथी आम ठर्युं (अर्थात् पूर्वोक्त कारणथी नीचे प्रमाणे नक्की थयुं )’’ एम हवे कहे छेः

एम राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त थाये भाव जे,
ते-रूप आत्मा परिणमे, ते बांधतो रागादिने. २८२.

गाथार्थः[रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव] राग, द्वेष अने कषायकर्मो होतां (अर्थात् तेमनो उदय थतां) [ये भावाः] जे भावो थाय छे [तैः तु] ते-रूपे [परिणममानः] परिणमतो थको [चेतयिता] आत्मा [रागादीन्] रागादिकने [बध्नाति] बांधे छे.

टीकाःखरेखर अज्ञानीने, पुद्गलकर्म जेमनुं निमित्त छे एवा जे आ रागद्वेष- मोहादि परिणामो छे, तेओ ज फरीने रागद्वेषमोहादि परिणामोनुं निमित्त जे पुद्गलकर्म तेना बंधनुं कारण छे.

भावार्थःअज्ञानीने कर्मना निमित्ते जे रागद्वेषमोह आदि परिणामो थाय छे तेओ ज फरीने आगामी कर्मबंधनां कारण थाय छे.

हवे पूछे छे के आत्मा रागादिकनो अकारक ज शी रीते छे? तेनुं समाधान (आगमनुं प्रमाण आपीने) करे छेः


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अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं
एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा ।।२८३।।
अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि
एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा ।।२८४।।
जावं अप्पडिकमणं अपच्चखाणं च दव्वभावाणं
कुव्वदि आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो ।।२८५।।
अप्रतिक्रमणं द्विविधमप्रत्याख्यानं तथैव विज्ञेयम्
एतेनोपदेशेन चाकारको वर्णितश्चेतयिता ।।२८३।।
अप्रतिक्रमणं द्विविधं द्रव्ये भावेऽपिऽप्रत्याख्यान
एतेनोपदेशेन चाकारको वर्णितश्चेतयिता ।।२८४।।
अणप्रतिक्रमण द्वयविध, अणपचखाण पण द्वयविध छे,
आ रीतना उपदेशथी वर्ण्यो अकारक जीवने. २८३.
अणप्रतिक्रमण बेद्रव्यभावे, एम अणपचखाण छे,
आ रीतना उपदेशथी वर्ण्यो अकारक जीवने. २८४.
अणप्रतिक्रमण वळी एम अणपचखाण द्रव्यनुं, भावनुं,
आत्मा करे छे त्यां लगी कर्ता बने छे जाणवुं. २८५.

गाथार्थः[अप्रतिक्रमणं] अप्रतिक्रमण [द्विविधम् ] बे प्रकारनुं [तथा एव] तेम ज [अप्रत्याख्यानं] अप्रत्याख्यान बे प्रकारनुं [विज्ञेयम्] जाणवुं;[एतेन उपदेशेन च] आ उपदेशथी [चेतयिता] आत्मा [अकारकः वर्णितः] अकारक वर्णववामां आव्यो छे.

[अप्रतिक्रमणं] अप्रतिक्रमण [द्विविधं] बे प्रकारनुं छे[द्रव्ये भावे] द्रव्य संबंधी अने भाव संबंधी; [अप्रत्याख्यानम् अपि] तेवी रीते अप्रत्याख्यान पण बे प्रकारनुं छेद्रव्य संबंधी अने भाव संबंधी;[एतेन उपदेशेन च] आ उपदेशथी [चेतयिता] आत्मा [अकारकः वर्णितः] अकारक वर्णववामां आव्यो छे.

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यावदप्रतिक्रमणमप्रत्याख्यानं च द्रव्यभावयोः
करोत्यात्मा तावत्कर्ता स भवति ज्ञातव्यः ।।२८५।।

आत्मात्मना रागादीनामकारक एव, अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्वैविध्योपदेशान्यथानुपपत्तेः यः खलु अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्रव्यभावभेदेन द्विविधोपदेशः स, द्रव्यभावयोर्निमित्त- नैमित्तिकभावं प्रथयन्, अकर्तृत्वमात्मनो ज्ञापयति तत एतत् स्थितंपरद्रव्यं निमित्तं, नैमित्तिका आत्मनो रागादिभावाः यद्येवं नेष्येत तदा द्रव्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात्, तदनर्थकत्वे त्वेकस्यैवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्तौ नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्मोक्षाभावः प्रसजेच्च ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा तथापि यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे

[यावत्] ज्यां सुधी [आत्मा] आत्मा [द्रव्यभावयोः] द्रव्यनुं अने भावनुं [अप्रतिक्रमणम् च अप्रत्याख्यानं] अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान [करोति] करे छे [तावत्] त्यां सुधी [सः] ते [कर्ता भवति] कर्ता थाय छे [ज्ञातव्यः] एम जाणवुं.

टीकाःआत्मा पोताथी रागादिकनो अकारक ज छे; कारण के, जो एम न होय तो (अर्थात् जो आत्मा पोताथी ज रागादिभावोनो कारक होय तो) अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यानना द्विविधपणानो उपदेश बनी शके नहि. अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो जे खरेखर द्रव्य अने भावना भेदे द्विविध (बे प्रकारनो) उपदेश छे ते, द्रव्य अने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो थको, आत्माना अकर्तापणाने ज जणावे छे. माटे एम नक्की थयुं के परद्रव्य निमित्त छे अने आत्माना रागादिभावो नैमित्तिक छे. जो एम न मानवामां आवे तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण अने द्रव्य-अप्रत्याख्याननो कर्तापणानां निमित्त तरीकेनो उपदेश निरर्थक ज थाय, अने ते निरर्थक थतां एक ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडतां नित्यकर्तापणानो प्रसंग आववाथी मोक्षनो अभाव ठरे. माटे परद्रव्य ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्त हो. अने एम होतां, आत्मा रागादिकनो अकारक ज छे एम सिद्ध थयुं. (आ रीते जोके आत्मा रागादिकनो अकारक ज छे) तोपण ज्यां सुधी ते निमित्तभूत द्रव्यने (परद्रव्यने) प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी (अर्थात

् ज्यां सुधी निमित्तभूत

द्रव्यनुं प्रतिक्रमण तथा पचखाण करतो नथी) त्यां सुधी नैमित्तिकभूत भावने (रागादिभावने) प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी, अने ज्यां सुधी भावने प्रतिक्रमतो नथी तथा पचखतो नथी त्यां सुधी कर्ता ज छे; ज्यारे निमित्तभूत द्रव्यने प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे त्यारे ज


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च तावत्कर्तैव स्यात् यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिकभूतं भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च, यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकर्तैव स्यात्

द्रव्यभावयोर्निमित्तनैमित्तिकभावोदाहरणं चैतत्
आधाकम्मादीया पोग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा
कह ते कुव्वदि णाणी परदव्वगुणा दु जे णिच्चं ।।२८६।।

नैमित्तिकभूत भावने प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे, अने ज्यारे भावने प्रतिक्रमे छे तथा पचखे छे त्यारे साक्षात् अकर्ता ज छे.

भावार्थःअतीत काळमां जे परद्रव्योनुं ग्रहण कर्युं हतुं तेमने वर्तमानमां सारां जाणवा, तेमना संस्कार रहेवा, तेमना प्रत्ये ममत्व रहेवुं, ते द्रव्य-अप्रतिक्रमण छे अने ते परद्रव्योना निमित्ते जे रागादिभावो थया हता तेमने वर्तमानमां भला जाणवा, तेमना संस्कार रहेवा, तेमना प्रत्ये ममत्व रहेवुं, ते भाव-अप्रतिक्रमण छे. तेवी रीते आगामी काळ संबंधी परद्रव्योनी वांछा राखवी, ममत्व राखवुं, ते द्रव्य-अप्रत्याख्यान छे अने ते परद्रव्योना निमित्ते आगामी काळमां थनारा जे रागादिभावो तेमनी वांछा राखवी, ममत्व राखवुं, ते भाव -अप्रत्याख्यान छे. आम द्रव्य-अप्रतिक्रमण ने भाव-अप्रतिक्रमण तथा द्रव्य-अप्रत्याख्यान ने भाव-अप्रत्याख्यानएवो जे अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो बे प्रकारनो उपदेश छे ते द्रव्य-भावना निमित्त-नैमित्तिकभावने जणावे छे. माटे एम ठर्युं के परद्रव्य तो निमित्त छे अने रागादिभावो नैमित्तिक छे. आ रीते आत्मा रागादिभावोने स्वयमेव नहि करतो होवाथी ते रागादिभावोनो अकर्ता ज छे एम सिद्ध थयुं. आ प्रमाणे जोके आ आत्मा रागादिकभावोनो अकर्ता ज छे तोपण ज्यां सुधी तेने निमित्तभूत परद्रव्यनां अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे त्यां सुधी तेने रागादिभावोनां अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे, अने ज्यां सुधी रागादिभावोनां अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान छे त्यां सुधी ते रागादिभावोनो कर्ता ज छे; ज्यारे ते निमित्तभूत परद्रव्यनां प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करे त्यारे तेने नैमित्तिक रागादिभावोनां पण प्रतिक्रमण -प्रत्याख्यान थई जाय छे, अने ज्यारे रागादिभावोनां प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान थई जाय छे त्यारे ते साक्षात् अकर्ता ज छे.

हवे द्रव्य अने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणानुं उदाहरण कहे छेः

आधाकरम इत्यादि पुद्गलद्रव्यना आ दोष जे,
ते केम ‘ज्ञानी’ करे सदा परद्रव्यना जे गुण छे? २८६.

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आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं
कह तं मम होदि कयं जं णिच्चमचेदणं वुत्तं ।।२८७।।
अधःकर्माद्याः पुद्गलद्रव्यस्य य इमे दोषाः
कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणास्तु ये नित्यम् ।।२८६।।
अधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं
कथं तन्मम भवति कृतं यन्नित्यमचेतनमुक्तम् ।।२८७।।

यथाधःकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे यथा चाधःकर्मादीन् पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति आत्मकार्यत्वाभावात्, ततोऽधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्यं नित्यमचेतनत्वे सति

उद्देशी तेम ज अधःकर्मी पौद्गलिक आ द्रव्य जे,
ते केम मुजकृत होय नित्य अजीव भाख्युं जेहने? २८७.

गाथार्थः[अधःकर्माद्याः ये इमे] अधःकर्म आदि जे आ [पुद्गलद्रव्यस्य दोषाः] पुद्गलद्रव्यना दोषो छे (तेमने ज्ञानी अर्थात् आत्मा करतो नथी;) [तान्] तेमने [ज्ञानी] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [कथं करोति] केम करे [ये तु] के जे [नित्यम् ] सदा [परद्रव्यगुणाः] परद्रव्यना गुणो छे?

माटे [अधःकर्म उद्देशिकं च] अधःकर्म अने उद्देशिक [इदं] एवुं आ [पुद्गलमयम् द्रव्यं] पुद्गलमय द्रव्य छे (ते मारुं कर्युं थतुं नथी;) [तत्] ते [मम कृ तं] मारुं कर्युं [कथं भवति] केम थाय [यत्] के जे [नित्यम् ] सदा [अचेतनम् उक्त म् ] अचेतन कहेवामां आव्युं छे?

टीकाःजेम अधःकर्मथी नीपजेलुं अने उद्देशथी नीपजेलुं एवुं जे निमित्तभूत (आहार आदि) पुद्गलद्रव्य तेने नहि पचखतो आत्मा (मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावने पचखतो (त्यागतो) नथी, तेम समस्त परद्रव्यने नहि पचखतो (नहि त्यागतो) आत्मा तेना निमित्ते थता भावने पचखतो (त्यागतो) नथी. वळी, ‘‘अधःकर्म आदि जे पुद्गलद्रव्यना दोषो तेमने आत्मा खरेखर करतो नथी कारण के तेओ परद्रव्यना परिणाम होवाथी तेमने आत्माना कार्यपणानो अभाव छे, माटे अधःकर्म अने उद्देशिक एवुं जे


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मत्कार्यत्वाभावात्,इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तं भावं प्रत्याचष्टे एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभावः

(शार्दूलविक्रीडित)
इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात्
तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम्
आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं
येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फू र्जति
।।१७८।।

पुद्गलद्रव्य ते मारुं कार्य नथी कारण के ते नित्य अचेतन होवाथी तेने मारा कार्यपणानो अभाव छे,’’एम तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यने पचखतो आत्मा (मुनि) जेम नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावने पचखे छे, तेम समस्त परद्रव्यने पचखतो (त्यागतो) आत्मा तेना निमित्ते थता भावने पचखे छे. आ प्रमाणे द्रव्य अने भावने निमित्त -नैमित्तिकपणुं छे.

भावार्थःअहीं अधःकर्म अने उद्देशिक आहारना द्रष्टांतथी द्रव्य अने भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं द्रढ कर्युं छे.

जे पापकर्मथी आहार नीपजे ते पापकर्मने अधःकर्म कहेवामां आवे छे, तेम ज ते आहारने पण अधःकर्म कहेवामां आवे छे. जे आहार, ग्रहण करनारना निमित्ते ज बनाववामां आव्यो होय तेने उद्देशिक कहेवामां आवे छे. आवा (अधःकर्म अने उद्देशिक) आहारने जेणे पचख्यो नथी तेणे तेना निमित्ते थता भावने पचख्यो नथी अने जेणे तत्त्वज्ञानपूर्वक ते आहारने पचख्यो छे तेणे तेना निमित्ते थता भावने पचख्यो छे. आ रीते समस्त द्रव्यने अने भावने निमित्त-नैमित्तिकभाव जाणवो. जे परद्रव्यने ग्रहण करे छे तेने रागादिभावो पण थाय छे, ते तेमनो कर्ता पण थाय छे अने तेथी कर्मनो बंध पण करे छे; ज्यारे आत्मा ज्ञानी थाय छे त्यारे तेने कांई ग्रहण करवानो राग नथी, तेथी रागादिरूप परिणमन पण नथी अने तेथी आगामी बंध पण नथी. (ए रीते ज्ञानी परद्रव्यनो कर्ता नथी.)

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छे, जेमां परद्रव्यने त्यागवानो उपदेश करे छेः

श्लोकार्थः[इति] आम (परद्रव्यनुं अने पोताना भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं)


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(मन्दाक्रान्ता)
रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां
कार्यं बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य
ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत्
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति
।।१७९।।

[आलोच्य] विचारीने, [तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः] परद्रव्य जेनुं मूळ छे एवी आ बहु भावोनी संततिने एकीसाथे उखेडी नाखवाने इच्छतो पुरुष, [तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य] ते समस्त परद्रव्यने बळथी (उद्यमथी, पराक्रमथी) भिन्न करीने (त्यागीने), [निर्भरवहत्-पूर्ण-एक-संविद्-युतं आत्मानं] अतिशयपणे वहेतुं (धारावाही) जे पूर्ण एक संवेदन तेनाथी युक्त एवा पोताना आत्माने [समुपैति] पामे छे, [येन] के जेथी [उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा] जेणे कर्मबंधनने मूळथी उखेडी नाख्युं छे एवो आ भगवान आत्मा [आत्मनि] पोतामां ज (आत्मामां ज) [स्फू र्जति] स्फुरायमान थाय छे.

भावार्थःपरद्रव्यनुं अने पोताना भावनुं निमित्त-नैमित्तिकपणुं जाणी समस्त परद्रव्यने भिन्न करवामांत्यागवामां आवे त्यारे समस्त रागादिभावोनी संतति कपाई जाय छे अने त्यारे आत्मा पोतानो ज अनुभव करतो थको कर्मना बंधनने कापी पोतामां ज प्रकाशे छे. माटे जे पोतानुं हित चाहे छे ते एवुं करो. १७८.

हवे बंध अधिकार पूर्ण करतां तेना अंतमंगळरूपे ज्ञानना महिमाना अर्थनुं कळशकाव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[कारणानां रागादीनाम् उदयं] बंधनां कारणरूप जे रागादिक (रागादिक- भावो) तेमना उदयने [अदयम्] निर्दय रीते (अर्थात् उग्र पुरुषार्थथी) [दारयत्] विदारती थकी, [कार्यं विविधम् बन्धं] ते रागादिकना कार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकारना बंधने [अधुना] हमणां [सद्यः एव] तत्काळ ज [प्रणुद्य] दूर करीने, [एतत् ज्ञानज्योतिः] आ ज्ञानज्योति [क्षपिततिमिरं] के जेणे अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश कर्यो छे ते[साधु] सारी रीते [सन्नद्धम्] सज्ज थई,[तद्-वत् यद्-वत्] एवी रीते सज्ज थई के [अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति] तेना फेलावने बीजुं कोई आवरी शके नहि.

भावार्थःज्यारे ज्ञान प्रगट थाय छे, रागादिक रहेता नथी, तेमनुं कार्य जे बंध ते पण रहेतो नथी, त्यारे पछी तेने (ज्ञानने) आवरण करनारुं कोई रहेतुं नथी, ते सदाय प्रकाशमान ज रहे छे. १७९.


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इति बन्धो निष्क्रान्तः
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ बन्धप्ररूपकः सप्तमोऽङ्कः ।।

टीकाःआ प्रमाणे बंध (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो.

भावार्थःरंगभूमिमां बंधना स्वांगे प्रवेश कर्यो हतो. हवे ज्यां ज्ञानज्योति प्रगट थई त्यां ते बंध स्वांगने दूर करीने बहार नीकळी गयो.

जो नर कोय परै रजमांहि सचिक्कण अंग लगै वह गाढै,
त्यों मतिहीन जु रागविरोध लिये विचरे तब बंधन बाढै;
पाय समै उपदेश यथारथ रागविरोध तजै निज चाटै,
नाहिं बंधै तब कर्मसमूह जु आप गहै परभावनि काटै.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां बंधनो प्ररूपक सातमो अंक समाप्त थयो.


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-८-
मोक्ष अधिकार
अथ प्रविशति मोक्षः
(शिखरिणी)
द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बन्धपुरुषौ
नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम्
इदानीमुन्मज्जत्सहजपरमानन्दसरसं
परं पूर्णं ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते
।।१८०।।
कर्मबंध सौ कापीने, पहोंच्या मोक्ष सुथान;
नमुं सिद्ध परमातमा, करुं ध्यान अमलान.

प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहे छे के ‘हवे मोक्ष प्रवेश करे छे’. जेम नृत्यना अखाडामां स्वांग प्रवेश करे छे तेम अहीं मोक्षतत्त्वनो स्वांग प्रवेश करे छे. त्यां ज्ञान सर्व स्वांगने जाणनारुं छे, तेथी अधिकारना आदिमां आचार्यदेव सम्यग्ज्ञानना महिमारूप मंगळ करे छेः

श्लोकार्थः[इदानीम् ] हवे (बंध पदार्थ पछी), [प्रज्ञा-क्रकच-दलनात् बन्ध-पुरुषौ द्विधाकृत्य] प्रज्ञारूपी करवत वडे विदारण द्वारा बंध अने पुरुषने द्विधा (जुदा जुदाबे) करीने, [पुरुषम् उपलम्भ-एक-नियतम्] पुरुषनेके जे पुरुष मात्र *अनुभूति वडे ज निश्चित छे तेने[साक्षात् मोक्षं नयत्] साक्षात् मोक्ष पमाडतुं थकुं, [पूर्णं ज्ञानं विजयते] पूर्ण ज्ञान जयवंत प्रवर्ते छे. केवुं छे ते ज्ञान? [उन्मज्जत्-सहज-परम-आनन्द-सरसं] प्रगट थता सहज परम आनंद वडे सरस अर्थात् रसयुक्त छे, [परं] उत्कृष्ट छे, अने [कृत-सकल-कृत्यं] करवायोग्य समस्त कार्यो जेणे करी लीधां छे (जेने कांई करवानुं बाकी रह्युं नथी) एवुं छे.

* जेटलुं स्वरूप-अनुभवन छे तेटलो ज आत्मा छे.


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जह णाम को वि पुरिसो बंधणयम्हि चिरकालपडिबद्धो
तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणदे तस्स ।।२८८।।
जइ ण वि कुणदि च्छेदं ण मुच्चदे तेण बंधणवसो सं
कालेण उ बहुगेण वि ण सो णरो पावदि विमोक्खं ।।२८९।।
इय कम्मबंधणाणं पदेसठिइपयडिमेवमणुभागं
जाणंतो वि ण मुच्चदि मुच्चदि सो चेव जदि सुद्धो ।।२९०।।
यथा नाम कश्चित्पुरुषो बन्धनके चिरकालप्रतिबद्धः
तीव्रमन्दस्वभावं कालं च विजानाति तस्य ।।२८८।।
यदि नापि करोति छेदं न मुच्यते तेन बन्धनवशः सन्
कालेन तु बहुकेनापि न स नरः प्राप्नोति विमोक्षम् ।।२८९।।
इति कर्मबन्धनानां प्रदेशस्थितिप्रकृतिमेवमनुभागम्
जानन्नपि न मुच्यते मुच्यते स चैव यदि शुद्धः ।।२९०।।

भावार्थःज्ञान बंध-पुरुषने जुदा करीने, पुरुषने मोक्ष पमाडतुं थकुं, पोतानुं संपूर्ण स्वरूप प्रगट करीने जयवंत प्रवर्ते छे. आम ज्ञाननुं सर्वोत्कृष्टपणुं कहेवुं ते ज मंगळवचन छे. १८०.

हवे, मोक्षनी प्राप्ति कई रीते थाय छे ते कहे छे. तेमां प्रथम तो, जे जीव बंधनो छेद करतो नथी परंतु मात्र बंधना स्वरूपने जाणवाथी ज संतुष्ट छे ते मोक्ष पामतो नथीएम कहे छेः

ज्यम पुरुष को बंधन महीं प्रतिबद्ध जे चिरकाळनो,
ते तीव्र-मंद स्वभाव तेम ज काळ जाणे बंधनो, २८८.
पण जो करे नहि छेद तो न मुकाय, बंधनवश रहे,
ने काळ बहुये जाय तोपण मुक्त ते नर नहि बने; २८९.
त्यम कर्मबंधननां प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभागने
जाणे छतां न मुकाय जीव, जो शुद्ध तो ज मुकाय छे. २९०.
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आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणं मोक्षः बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके, तदसत्; न कर्मबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतुः, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रवत् एतेन कर्मबन्धप्रपञ्चरचनापरिज्ञानमात्रसन्तुष्टा उत्थाप्यन्ते

जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं
तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं ।।२९१।।

गाथार्थः[यथा नाम] जेवी रीते [बन्धनके] बंधनमां [चिरकालप्रतिबद्धः] घणा काळथी बंधायेलो [कश्चित् पुरुषः] कोई पुरुष [तस्य] ते बंधनना [तीव्रमन्दस्वभावं] तीव्र-मंद (आकरा-ढीला) स्वभावने [कालं च] अने काळने (अर्थात् आ बंधन आटला काळथी छे एम) [विजानाति] जाणे छे, [यदि] परंतु जो [न अपि छेदं करोति] ते बंधनने पोते कापतो नथी [तेन न मुच्यते] तो तेनाथी छूटतो नथी [तु] अने [बन्धनवशः सन्] बंधनवश रहेतो थको [बहुकेन अपि कालेन] घणा काळे पण [सः नरः] ते पुरुष [विमोक्षम् न प्राप्नोति] बंधनथी छूटवारूप मोक्षने पामतो नथी; [इति] तेवी रीते जीव [कर्मंबन्धनानां] कर्म-बंधनोनां [प्रदेशस्थितिप्रकृतिम् एवम् अनुभागम्] प्रदेश, स्थिति, प्रकृति तेम ज अनुभागने [जानन् अपि] जाणतां छतां पण [न मुच्यते] (कर्मबंधथी) छूटतो नथी, [च यदि सः एव शुद्धः] परंतु जो पोते (रागादिने दूर करी) शुद्ध थाय [मुच्यते] तो ज छूटे छे.

टीकाःआत्मा अने बंधनुं द्विधाकरण (अर्थात् आत्मा अने बंधने जुदा जुदा करवा) ते मोक्ष छे. ‘बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण छे (अर्थात् बंधना स्वरूपने जाणवामात्रथी ज मोक्ष थाय छे)’ एम केटलाक कहे छे, ते असत् छे; कर्मथी बंधायेलाने बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र मोक्षनुं कारण नथी, केम के जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने बंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र बंधथी छूटवानुं कारण नथी तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंधना स्वरूपनुं ज्ञानमात्र कर्मबंधथी छूटवानुं कारण नथी. आथी (आ कथनथी), जेओ कर्मबंधना प्रपंचनी (विस्तारनी) रचनाना ज्ञानमात्रथी संतुष्ट छे तेमने उत्थापवामां आवे छे.

भावार्थःबंधनुं स्वरूप जाणवाथी ज मोक्ष छे एम कोई अन्यमती माने छे. तेमनी ए मान्यतानुं आ कथनथी निराकरण जाणवुं. जाणवामात्रथी ज बंध नथी कपातो, बंध तो कापवाथी ज कपाय छे.

बंधना विचार कर्या करवाथी पण बंध कपातो नथी एम हवे कहे छेः

बंधन महीं जे बद्ध ते नहि बंधचिंताथी छूटे,
त्यम जीव पण बंधो तणी चिंता कर्याथी नव छूटे. २९१.

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यथा बन्धांश्चिन्तयन् बन्धनबद्धो न प्राप्नोति विमोक्षम्
तथा बन्धांश्चिन्तयन् जीवोऽपि न प्राप्नोति विमोक्षम् ।।२९१।।

बन्धचिन्ताप्रबन्धो मोक्षहेतुरित्यन्ये, तदप्यसत्; न कर्मबद्धस्य बन्धचिन्ताप्रबन्धो मोक्षहेतुः, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धचिन्ताप्रबन्धवत् एतेन कर्मबन्धविषयचिन्ताप्रबन्धात्मक- विशुद्धधर्मध्यानान्धबुद्धयो बोध्यन्ते

कस्तर्हि मोक्षहेतुरिति चेत्

जह बंधे छेत्तूण य बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं
तह बंधे छेत्तूण य जीवो संपावदि विमोक्खं ।।२९२।।

गाथार्थः[यथा] जेम [बन्धनबद्धः] बंधनथी बंधायेलो पुरुष [बन्धान् चिन्तयन्] बंधोना विचार करवाथी [विमोक्षम् न प्राप्नोति] मोक्ष पामतो नथी (अर्थात् बंधथी छूटतो नथी), [तथा] तेम [जीवः अपि] जीव पण [बन्धान् चिन्तयन्] बंधोना विचार करवाथी [विमोक्षम् न प्राप्नोति] मोक्ष पामतो नथी.

टीकाः‘बंध संबंधी विचारशृंखला मोक्षनुं कारण छे’ एम बीजा केटलाक कहे छे, ते पण असत् छे; कर्मथी बंधायेलाने बंध संबंधी विचारनी शृंखला मोक्षनुं कारण नथी, केम के जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने ते बंध संबंधी विचारशृंखला (विचारनी परंपरा) बंधथी छूटवानुं कारण नथी तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंध संबंधी विचारशृंखला कर्मबंधथी छूटवानुं कारण नथी. आथी (आ कथनथी), कर्मबंध संबंधी विचारशृंखलात्मक विशुद्ध (शुभ) धर्मध्यान वडे जेमनी बुद्धि अंध छे तेमने समजाववामां आवे छे.

भावार्थःकर्मबंधनी चिंतामां मन लाग्युं रहे तोपण मोक्ष थतो नथी. ए तो धर्मध्यानरूप शुभ परिणाम छे. जेओ केवळ शुभ परिणामथी ज मोक्ष माने छे तेमने अहीं उपदेश छे केशुभ परिणामथी मोक्ष थतो नथी.

‘‘(जो बंधना स्वरूपना ज्ञानमात्रथी पण मोक्ष नथी अने बंधना विचार करवाथी पण मोक्ष नथी) तो मोक्षनुं कारण कयुं छे?’’ एम पूछवामां आवतां हवे मोक्षनो उपाय कहे छेः

बंधन महीं जे बद्ध ते नर बंधछेदनथी छूटे,
त्यम जीव पण बंधो तणुं छेदन करी मुक्ति लहे. २९२.

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यथा बन्धांश्छित्वा च बन्धनबद्धस्तु प्राप्नोति विमोक्षम्
तथा बन्धांश्छित्वा च जीवः सम्प्राप्नोति विमोक्षम् ।।२९२।।

कर्मबद्धस्य बन्धच्छेदो मोक्षहेतुः, हेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धच्छेदवत् एतेन उभयेऽपि पूर्वे आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे व्यापार्येते

किमयमेव मोक्षहेतुरिति चेत्

बंधाणं च सहावं वियाणिदुं अप्पणो सहावं च
बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणदि ।।२९३।।
बन्धानां च स्वभावं विज्ञायात्मनः स्वभावं च
बन्धेषु यो विरज्यते स कर्मविमोक्षणं करोति ।।२९३।।

गाथार्थः[यथा च] जेम [बन्धनबद्धः तु] बंधनथी बंधायेलो पुरुष [बन्धान् छित्वा] बंधोने छेदीने [विमोक्षम् प्राप्नोति] मोक्ष पामे छे, [तथा च] तेम [जीवः] जीव [बन्धान् छित्वा] बंधोने छेदीने [विमोक्षम् सम्प्राप्नोति] मोक्ष पामे छे.

टीकाःकर्मथी बंधायेलाने बंधनो छेद मोक्षनुं कारण छे, केम के जेम बेडी आदिथी बंधायेलाने बंधनो छेद बंधथी छूटवानुं कारण छे तेम कर्मथी बंधायेलाने कर्मबंधनो छेद कर्मबंधथी छूटवानुं कारण छे. आथी (आ कथनथी), पूर्वे कहेला बन्नेने (जेओ बंधना स्वरूपना ज्ञानमात्रथी संतुष्ट छे तेमने अने जेओ बंधना विचार कर्या करे छे तेमने) आत्मा अने बंधना द्विधाकरणमां व्यापार कराववामां आवे छे (अर्थात् आत्मा अने बंधने जुदा जुदा करवा प्रत्ये लगाडवामांजोडवामांउद्यम कराववामां आवे छे).

‘मात्र आ ज (अर्थात् बंधनो छेद ज) मोक्षनुं कारण केम छे?’ एम पूछवामां आवतां हवे तेनो उत्तर कहे छेः

बंधो तणो जाणी स्वभाव, स्वभाव जाणी आत्मनो,
जे बंध मांही विरक्त थाये, कर्ममोक्ष करे अहो! २९३.

गाथार्थः[बन्धानां स्वभावं च] बंधोना स्वभावने [आत्मनः स्वभावं च] अने आत्माना स्वभावने [विज्ञाय] जाणीने [बन्धेषु] बंधो प्रत्ये [यः] जे [विरज्यते] विरक्त थाय छे, [सः] ते [कर्मविमोक्षणं करोति] कर्मोथी मुकाय छे.


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य एव निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावं तद्विकारकारकं बन्धानां च स्वभावं विज्ञाय, बन्धेभ्यो विरमति, स एव सकलकर्ममोक्षं कुर्यात् एतेनात्मबन्धयोर्द्विधाकरणस्य मोक्षहेतुत्वं नियम्यते

केनात्मबन्धौ द्विधा क्रियेते इति चेत्

जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं
पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा ।।२९४।।
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्
प्रज्ञाछेदनकेन तु छिन्नौ नानात्वमापन्नौ ।।२९४।।

आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तुरात्मनः करणमीमांसायां, निश्चयतः स्वतो

टीकाःजे, निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावने (आत्माना स्वभावने) अने तेने (अर्थात् आत्माने) विकार करनारा एवा बंधोना स्वभावने जाणीने, बंधोथी विरमे छे, ते ज सर्व कर्मोथी मुकाय छे. आथी (आ कथनथी), आत्मा अने बंधनुं द्विधाकरण ज मोक्षनुं कारण छे एवो नियम करवामां आवे छे (अर्थात् आत्मा अने बंधने जुदा जुदा करवा ते ज मोक्षनुं कारण छे एम नक्की करवामां आवे छे).

‘आत्मा अने बंध शा वडे द्विधा कराय छे (अर्थात् कया साधन वडे जुदा करी शकाय छे)?’ एम पूछवामां आवतां हवे तेनो उत्तर कहे छेः

जीव बंध बन्ने, नियत निज निज लक्षणे छेदाय छे,
प्रज्ञाछीणी थकी छेदतां बन्ने जुदा पडी जाय छे. २९४.

गाथार्थः[जीवः च तथा बन्धः] जीव तथा बंध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां] नियत स्वलक्षणोथी (पोतपोतानां निश्चित लक्षणोथी) [छिद्येते] छेदाय छे; [प्रज्ञाछेदनकेन] प्रज्ञारूपी छीणी वडे [छिन्नौ तु] छेदवामां आवतां [नानात्वम् आपन्नौ] तेओ नानापणाने पामे छे अर्थात् जुदा पडी जाय छे.

टीकाःआत्मा अने बंधने द्विधा करवारूप कार्यमां कर्ता जे आत्मा तेना करण संबंधी मीमांसा करवामां आवतां, निश्चये (निश्चयनये) पोताथी भिन्न करणनो अभाव

१. करण = साधन; करण नामनुं कारक.
२. मीमांसा = ऊंडी विचारणा; तपास; समालोचना.