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भिन्नकरणासम्भवात्, भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् । तया हि तौ छिन्नौ नानात्वम-
वश्यमेवापद्येते; ततः प्रज्ञयैवात्मबन्धयोर्द्विधाकरणम् । ननु कथमात्मबन्धौ चेत्यचेतकभावेनात्यन्त-
प्रत्यासत्तेरेकीभूतौ भेदविज्ञानाभावादेकचेतकवद्वयवह्रियमाणौ प्रज्ञया छेत्तुं शक्येते ? नियतस्व- लक्षणसूक्ष्मान्तःसन्धिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि । आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वा- च्चैतन्यं स्वलक्षणम् । तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते
तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयः, तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात्; समस्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः, इति यावत् ।
होवाथी भगवती प्रज्ञा ज ( – ज्ञानस्वरूप बुद्धि ज) छेदनात्मक ( – छेदनना स्वभाववाळुं) करण छे. ते प्रज्ञा वडे तेमने छेदवामां आवतां तेओ नानापणाने अवश्य पामे छे; माटे प्रज्ञा वडे ज आत्मा अने बंधनुं द्विधा करवुं छे (अर्थात् प्रज्ञारूपी करण वडे ज आत्मा ने बंध जुदा कराय छे).
(अहीं प्रश्न थाय छे के – ) आत्मा अने बंध के जेओ *चेत्यचेतकभाव वडे अत्यंत निकटताने लीधे एक ( – एक जेवा – ) थई रह्या छे, अने भेदविज्ञानना अभावने लीधे, जाणे तेओ एक चेतक ज होय एम जेमनो व्यवहार करवामां आवे छे (अर्थात् जेमने एक आत्मा तरीके ज व्यवहारमां गणवामां आवे छे) तेओ प्रज्ञा वडे खरेखर कई रीते छेदी शकाय?
(तेनुं समाधान आचार्यदेव करे छेः — ) आत्मा अने बंधनां नियत स्वलक्षणोनी सूक्ष्म अंतःसंधिमां (अंतरंगनी संधिमां) प्रज्ञाछीणीने सावधान थईने पटकवाथी ( – नाखवाथी, मारवाथी) तेमने छेदी शकाय छे अर्थात् जुदा करी शकाय छे एम अमे जाणीए छीए.
आत्मानुं स्वलक्षण चैतन्य छे, कारण के ते समस्त शेष द्रव्योथी असाधारण छे (अर्थात् अन्य द्रव्योमां ते नथी). ते (चैतन्य) प्रवर्ततुं थकुं जे जे पर्यायने व्यापीने प्रवर्ते छे अने निवर्ततुं थकुं जे जे पर्यायने ग्रहण करीने निवर्ते छे ते ते समस्त सहवर्ती के क्रमवर्ती पर्यायो आत्मा छे एम लक्षित करवुं — लक्षणथी ओळखवुं (अर्थात् जे जे गुणपर्यायोमां चैतन्यलक्षण व्यापे छे ते ते समस्त गुणपर्यायो आत्मा छे एम जाणवुं) कारण के आत्मा ते ज एक लक्षणथी लक्ष्य छे (अर्थात् चैतन्यलक्षणथी ज ओळखाय छे). वळी समस्त सहवर्ती अने क्रमवर्ती अनंत पर्यायो साथे चैतन्यनुं अविनाभावीपणुं होवाथी चिन्मात्र ज आत्मा छे एम निश्चय करवो. आटलुं आत्माना स्वलक्षण विषे.
* आत्मा चेतक छे अने बंध चेत्य छे; अज्ञानदशामां तेओ एकरूप अनुभवाय छे.
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बन्धस्य तु आत्मद्रव्यासाधारणा रागादयः स्वलक्षणम् । न च रागादय आत्मद्रव्यसाधारणतां बिभ्राणाः प्रतिभासन्ते, नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात् । न च यावदेव समस्तस्वपर्यायव्यापि चैतन्यं प्रतिभाति तावन्त एव रागादयः प्रतिभान्ति, रागादीनन्तरेणापि चैतन्यस्यात्मलाभसम्भावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लवनं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तेरेव, नैकद्रव्यत्वात्; चेत्यमानस्तु रागादिरात्मनः, प्रदीप्यमानो घटादिः प्रदीपस्य प्रदीपकतामिव, चेतकतामेव प्रथयेत्, न पुना रागादिताम् । एवमपि तयोरत्यन्तप्रत्यासत्त्या भेदसम्भावना- भावादनादिरस्त्येकत्वव्यामोहः, स तु प्रज्ञयैव छिद्यत एव ।
(हवे बंधना स्वलक्षण विषे कहेवामां आवे छेः — ) बंधनुं स्वलक्षण तो आत्मद्रव्यथी असाधारण एवा रागादिक छे. ए रागादिक आत्मद्रव्य साथे साधारणपणुं धरता ( – धारण करता – ) प्रतिभासता नथी, कारण के तेओ सदाय चैतन्यचमत्कारथी भिन्नपणे प्रतिभासे छे. वळी जेटलुं, चैतन्य आत्माना समस्त पर्यायोमां व्यापतुं प्रतिभासे छे, तेटला ज, रागादिक प्रतिभासता नथी, कारण के रागादिक विना पण चैतन्यनो आत्मलाभ संभवे छे (अर्थात् रागादिक न होय त्यां पण चैतन्य होय छे). वळी जे, रागादिकनुं चैतन्य साथे ज ऊपजवुं थाय छे ते चेत्यचेतकभावनी ( – ज्ञेयज्ञायकभावनी) अति निकटताने लीधे ज छे, एकद्रव्यपणाने लीधे नहि; जेम (दीपक वडे) प्रकाशवामां आवता घटादिक (पदार्थो) दीपकना प्रकाशकपणाने ज जाहेर करे छे — घटादिपणाने नहि, तेम (आत्मा वडे) चेतवामां आवता रागादिक (अर्थात् ज्ञानमां ज्ञेयरूपे जणाता रागादिक भावो) आत्माना चेतकपणाने ज जाहेर करे छे — रागादिपणाने नहि.
आम होवा छतां ते बन्नेनी ( – आत्मानी अने बंधनी) अत्यंत निकटताने लीधे भेदसंभावनानो अभाव होवाथी अर्थात् भेद नहि देखातो होवाथी (अज्ञानीने) अनादि काळथी एकपणानो व्यामोह (भ्रम) छे; ते व्यामोह प्रज्ञा वडे ज अवश्य छेदाय छे.
भावार्थः — आत्मा अने बंध बन्नेने लक्षणभेदथी ओळखी बुद्धिरूपी छीणीथी छेदी जुदा जुदा करवा.
आत्मा तो अमूर्तिक छे अने बंध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुओनो स्कंध छे तेथी बन्ने जुदा छद्मस्थना ज्ञानमां आवता नथी, मात्र एक स्कंध देखाय छे (अर्थात् बन्ने एकपिंडरूप देखाय छे); तेथी अनादि अज्ञान छे. श्री गुरुओनो उपदेश पामी तेमनां लक्षण जुदां जुदां अनुभवीने जाणवुं के चैतन्यमात्र तो आत्मानुं लक्षण छे अने रागादिक बंधनुं लक्षण छे तोपण मात्र ज्ञेयज्ञायकभावनी अति निकटताथी तेओ एक जेवा थई रह्या देखाय छे. तेथी तीक्ष्ण बुद्धिरूपी
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सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ।
बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ।।१८१।।
छीणीने — के जे तेमने भेदी जुदा जुदा करवानुं शस्त्र छे तेने — तेमनी सूक्ष्म संधि शोधीने ते संधिमां सावधान (निष्प्रमाद) थईने पटकवी. ते पडतां ज बन्ने जुदा जुदा देखावा लागे छे. एम बन्ने जुदा जुदा देखातां, आत्माने ज्ञानभावमां ज राखवो अने बंधने अज्ञानभावमां राखवो. ए रीते बन्नेने भिन्न करवा.
श्लोकार्थः — [इयं शिता प्रज्ञाछेत्री] आ प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छीणी [निपुणैः] प्रवीण पुरुषो वडे [कथम् अपि] कोई पण प्रकारे ( – यत्नपूर्वक) [सावधानैः] सावधानपणे (निष्प्रमादपणे) [पातिता] पटकवामां आवी थकी, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे] आत्मा अने कर्म — बन्नेना सूक्ष्म अंतरंग संधिना बंधमां ( – अंदरनी सांधना जोडाणमां) [रभसात्] शीघ्र [निपतति] पडे छे. केवी रीते पडे छे? [आत्मानम् अन्तः-स्थिर-विशद-लसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम् ] आत्माने तो जेनुं तेज अंतरंगमां स्थिर अने निर्मळपणे देदीप्यमान छे एवा चैतन्यपूरमां (चैतन्यना प्रवाहमां) मग्न करती [च] अने [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम्] बंधने अज्ञानभावमां निश्चळ (नियत) करती — [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती] ए रीते आत्मा अने बंधने सर्व तरफथी भिन्न भिन्न करती पडे छे.
भावार्थः — अहीं आत्मा अने बंधने भिन्न भिन्न करवारूप कार्य छे. तेनो कर्ता आत्मा छे. त्यां करण विना कर्ता कोना वडे कार्य करे? तेथी करण पण जोईए. निश्चयनये कर्ताथी भिन्न करण होतुं नथी; माटे आत्माथी अभिन्न एवी आ बुद्धि ज आ कार्यमां करण छे. आत्माने अनादि बंध ज्ञानावरणादि कर्म छे, तेमनुं कार्य भावबंध तो रागादिक छे अने नोकर्म शरीरादिक छे. माटे बुद्धि वडे आत्माने शरीरथी, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मथी तथा रागादिक भावकर्मथी भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभवी ज्ञानमां ज लीन राखवो ते ज (आत्मा ने बंधनुं) भिन्न करवुं छे. तेनाथी ज सर्व कर्मनो नाश थाय छे, सिद्धपदने पमाय छे, एम जाणवुं. १८१.
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आत्मबन्धौ हि तावन्नियतस्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छेत्तव्यौ; ततो रागादिलक्षणः समस्त एव बन्धो निर्मोक्तव्यः, उपयोगलक्षणः शुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः । एतदेव किलात्म- बन्धयोर्द्विधाकरणस्य प्रयोजनं यद्बन्धत्यागेन शुद्धात्मोपादानम् ।
‘आत्मा अने बंधने द्विधा करीने शुं करवुं’ एम पूछवामां आवतां हवे तेनो उत्तर कहे छेः —
गाथार्थः — [तथा] ए रीते [जीवः बन्धः च] जीव अने बंध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां] तेमनां निश्चित स्वलक्षणोथी [छिद्येते] छेदाय छे. [बन्धः] त्यां, बंधने [छेत्तव्यः] छेदवो अर्थात् छोडवो [च] अने [शुद्धः आत्मा] शुद्ध आत्माने [गृहीतव्यः] ग्रहण करवो.
टीकाः — आत्मा अने बंधने प्रथम तो तेमनां नियत स्वलक्षणोना विज्ञानथी सर्वथा ज छेदवा अर्थात् भिन्न करवा; पछी, रागादिक जेनुं लक्षण छे एवा समस्त बंधने तो छोडवो अने उपयोग जेनुं लक्षण छे एवा शुद्ध आत्माने ज ग्रहण करवो. आ ज खरेखर आत्मा अने बंधने द्विधा करवानुं प्रयोजन छे के बंधना त्यागथी (अर्थात् बंधनो त्याग करी) शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं.
भावार्थः — शिष्ये पूछ्युं हतुं के आत्मा अने बंधने द्विधा करीने शुं करवुं? तेनो आ उत्तर आप्यो के बंधनो तो त्याग करवो अने शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं.
(‘आत्मा अने बंधने भिन्न तो प्रज्ञा वडे कर्या परंतु आत्माने ग्रहण शा वडे कराय?’ — एवा प्रश्ननी तथा तेना उत्तरनी गाथा कहे छेः —
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ननु केन शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयैव शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः स्वय- मात्मानं गृह्णतो, विभजत इव, प्रज्ञैककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।
कथमयमात्मा प्रज्ञया गृहीतव्य इति चेत् —
गाथार्थः — (शिष्य पूछे छे के – ) [सः आत्मा] ते (शुद्ध) आत्मा [कथं] कई रीते [गृह्यते] ग्रहण कराय? (आचार्यभगवान उत्तर आपे छे के – ) [प्रज्ञया तु] प्रज्ञा वडे [सः आत्मा] ते (शुद्ध) आत्मा [गृह्यते] ग्रहण कराय छे. [यथा] जेम [प्रज्ञया] प्रज्ञा वडे [विभक्तः] भिन्न कर्यो, [तथा] तेम [प्रज्ञया एव] प्रज्ञा वडे ज [गृहीतव्यः] ग्रहण करवो.
टीकाः — शुद्ध एवो आ आत्मा शा वडे ग्रहण करवो? प्रज्ञा वडे ज शुद्ध एवो आ आत्मा ग्रहण करवो; कारण के शुद्ध आत्माने, पोते पोताने ग्रहतां, प्रज्ञा ज एक करण छे — जेम भिन्न करतां प्रज्ञा ज एक करण हतुं तेम. माटे जेम प्रज्ञा वडे भिन्न कर्यो तेम प्रज्ञा वडे ज ग्रहण करवो.
भावार्थः — भिन्न करवामां अने ग्रहण करवामां करणो जुदां नथी; माटे प्रज्ञा वडे ज आत्माने भिन्न कर्यो अने प्रज्ञा वडे ज ग्रहण करवो.
हवे पूछे छे के — आ आत्माने प्रज्ञा वडे कई रीते ग्रहण करवो? तेनो उत्तर कहे छेः —
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यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता, सोऽयमहं; ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यन्तं मत्तो भिन्नाः । ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तच्चेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव; चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये । अथवा — न चेतये; न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाच्चेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये; किन्तु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि ।
गाथार्थः — [प्रज्ञया] प्रज्ञा वडे [गृहीतव्यः] (आत्माने) एम ग्रहण करवो के — [यः चेतयिता] जे चेतनारो छे [सः तु] ते [निश्चयतः] निश्चयथी [अहं] हुं छुं, [अवशेषाः] बाकीना [ये भावाः] जे भावो छे [ते] ते [मम पराः] माराथी पर छे [इति ज्ञातव्यः] एम जाणवुं.
टीकाः — नियत स्वलक्षणने अवलंबनारी प्रज्ञा वडे जुदो करवामां आवेलो जे चेतक ( – चेतनारो), ते आ हुं छुं; अने अन्य स्वलक्षणोथी लक्ष्य (अर्थात् चैतन्यलक्षण सिवाय बीजां लक्षणोथी ओळखावायोग्य) जे आ बाकीना व्यवहाररूप भावो छे, ते बधाय, चेतकपणारूपी व्यापकना व्याप्य नहि थता होवाथी, माराथी अत्यंत भिन्न छे. माटे हुं ज, मारा वडे ज, मारा माटे ज, मारामांथी ज, मारामां ज, मने ज ग्रहण करुं छुं. आत्मानी, चेतना ज एक क्रिया होवाथी, ‘हुं ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘हुं चेतुं ज छुं’; चेततो ज (अर्थात् चेततो थको ज) चेतुं छुं, चेतता वडे ज चेतुं छुं, चेतता माटे ज चेतुं छुं, चेततामांथी ज चेतुं छुं, चेततामां ज चेतुं छुं, चेतताने ज चेतुं छुं. अथवा — नथी चेततो; नथी चेततो थको चेततो, नथी चेतता वडे चेततो, नथी चेतता माटे चेततो, नथी चेततामांथी चेततो, नथी चेततामां चेततो, नथी चेतताने चेततो; परंतु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र ( – चैतन्यमात्र) भाव छुं.
भावार्थः — प्रज्ञा वडे भिन्न करवामां आवेलो जे चेतक ते आ हुं छुं अने बाकीना भावो माराथी पर छे; माटे (अभिन्न छ कारकोथी) हुं ज, मारा वडे ज, मारा माटे ज, मारामांथी ज, मारामां ज, मने ज ग्रहण करुं छुं. ‘ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘चेतुं छुं’, कारण
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चिन्मुद्राङ्कितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम् ।
भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ।।१८२।।
के चेतवुं ते ज आत्मानी एक क्रिया छे. माटे हुं चेतुं ज छुं; चेतनारो ज, चेतनार वडे ज, चेतनार माटे ज, चेतनारमांथी ज, चेतनारमां ज, चेतनारने ज चेतुं छुं. अथवा द्रव्यद्रष्टिए तो — छ कारकोना भेद पण मारामां नथी, हुं तो शुद्ध चैतन्यमात्र भाव छुं. — आ प्रमाणे प्रज्ञा वडे आत्माने ग्रहण करवो अर्थात् पोताने चेतनार तरीके अनुभववो.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [यत् भेत्तुं हि शक्यते सर्वम् अपि स्वलक्षणबलात् भित्त्वा] जे कांई भेदी शकाय छे ते सर्वने स्वलक्षणना बळथी भेदीने, [चिन्मुद्रा-अङ्कित-निर्विभाग-महिमा शुद्धः चिद् एव अहम् अस्मि] जेनो चिन्मुद्राथी अंकित निर्विभाग महिमा छे (अर्थात् चैतन्यनी छापथी चिह्नित विभागरहित जेनो महिमा छे) एवो शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं. [यदि कारकाणि वा यदि धर्माः वा यदि गुणाः भिद्यन्ते, भिद्यन्ताम्] जो कारकोना, अथवा धर्मोना, अथवा गुणोना भेदो पडे, तो भले पडो; [विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति] परंतु *विभु एवा शुद्ध ( – समस्त विभावोथी रहित – ) चैतन्यभावमां तो कोई भेद नथी. (आम प्रज्ञा वडे आत्माने ग्रहण कराय छे.)
भावार्थः — जेमनुं स्वलक्षण चैतन्य नथी एवा परभावो तो माराथी भिन्न छे, मात्र शुद्ध चैतन्य ज हुं छुं. कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरणरूप कारकभेदो, सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मभेदो अने ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेदो जो कथंचित् होय तो भले हो; परंतु शुद्ध चैतन्यमात्र भावमां तो कोई भेद नथी. — आम शुद्धनयथी अभेदरूपे आत्माने ग्रहण करवो. १८२.
(आत्माने शुद्ध चैतन्यमात्र तो ग्रहण कराव्यो; हवे सामान्य चेतना दर्शनज्ञान- सामान्यमय होवाथी अनुभवमां दर्शनज्ञानस्वरूप आत्माने आ प्रमाणे अनुभववो — एम कहे छेः — )
* विभु = द्रढ; अचळ; नित्य; समर्थ; सर्व गुणपर्यायोमां व्यापक.
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चेतनाया दर्शनज्ञानविकल्पानतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव द्रष्टृत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव । ततोऽहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव; पश्यन्नेव पश्यामि,
गाथार्थः — [प्रज्ञया] प्रज्ञा वडे [गृहीतव्यः] एम ग्रहण करवो के — [यः द्रष्टा] जे देखनारो छे [सः तु] ते [निश्चयतः] निश्चयथी [अहम्] हुं छुं, [अवशेषाः] बाकीना [ये भावाः] जे भावो छे [ते] ते [मम पराः] माराथी पर छे [इति ज्ञातव्याः] एम जाणवुं.
[प्रज्ञया] प्रज्ञा वडे [गृहीतव्यः] एम ग्रहण करवो के — [यः ज्ञाता] जे जाणनारो छे [सः तु] ते [निश्चयतः] निश्चयथी [अहम्] हुं छुं, [अवशेषाः] बाकीना [ये भावाः] जे भावो छे [ते] ते [मम पराः] माराथी पर छे [इति ज्ञातव्याः] एम जाणवुं.
टीकाः — चेतना दर्शनज्ञानरूप भेदोने उल्लंघती नहि होवाथी, चेतकपणानी माफक दर्शकपणुं अने ज्ञातापणुं आत्मानुं स्वलक्षण ज छे. माटे हुं देखनारा आत्माने ग्रहण करुं छुं. ‘ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘देखुं ज छुं’; देखतो ज (अर्थात् देखतो थको ज) देखुं छुं, देखता
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पश्यतैव पश्यामि, पश्यते एव पश्यामि, पश्यत एव पश्यामि, पश्यत्येव पश्यामि, पश्यन्तमेव पश्यामि । अथवा — न पश्यामि; न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पश्यामि, न पश्यतः पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यन्तं पश्यामि; किन्तु सर्वविशुद्धो द्रङ्मात्रो भावोऽस्मि । अपि च — ज्ञातारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तज्जानाम्येव; जानन्नेव जानामि, जानतैव जानामि, जानते एव जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानन्तमेव जानामि । अथवा — न जानामि; न जानन् जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानन्तं जानामि; किन्तु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि । वडे ज देखुं छुं, देखता माटे ज देखुं छुं, देखतामांथी ज देखुं छुं, देखतामां ज देखुं छुं, देखताने ज देखुं छुं. अथवा — नथी देखतो; नथी देखतो थको देखतो, नथी देखता वडे देखतो, नथी देखता माटे देखतो, नथी देखतामांथी देखतो, नथी देखतामां देखतो, नथी देखताने देखतो; परंतु सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव छुं. वळी एवी ज रीते — हुं जाणनारा आत्माने ग्रहण करुं छुं. ‘ग्रहण करुं छुं’ एटले ‘जाणुं ज छुं’; जाणतो ज (अर्थात् जाणतो थको ज) जाणुं छुं, जाणता वडे ज जाणुं छुं, जाणता माटे ज जाणुं छुं, जाणतामांथी ज जाणुं छुं, जाणतामां ज जाणुं छुं, जाणताने ज जाणुं छुं. अथवा — नथी जाणतो; नथी जाणतो थको जाणतो, नथी जाणता वडे जाणतो, नथी जाणता माटे जाणतो, नथी जाणतामांथी जाणतो, नथी जाणतामां जाणतो, नथी जाणताने जाणतो; परंतु सर्वविशुद्धि ज्ञप्तिमात्र (जाणनक्रियामात्र) भाव छुं. (आम देखनारा आत्माने तेम ज जाणनारा आत्माने कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरणरूप कारकोना भेदपूर्वक ग्रहण करीने, पछी कारकभेदोनो निषेध करी आत्माने अर्थात
् पोताने दर्शनमात्र भावरूपे तेम ज ज्ञानमात्र भावरूपे अनुभववो अर्थात् अभेदरूपे अनुभववो.)
(भावार्थः — आ त्रण गाथाओमां, प्रज्ञा वडे आत्माने ग्रहण करवानुं कह्युं छे. ‘ग्रहण करवुं’ एटले कोई अन्य वस्तुने ग्रहवानी – लेवानी नथी; चेतनानो अनुभव करवो, ते ज, आत्मानुं ‘ग्रहण करवुं’ छे.
प्रथमनी गाथामां सामान्य चेतनानो अनुभव कराव्यो हतो. त्यां, अनुभव करनार, जेनो अनुभव करवामां आवे ते, जेना वडे अनुभव करवामां आवे ते — इत्यादि कारकभेदरूपे आत्माने कहीने, अभेदविवक्षामां कारकभेदनो निषेध करी, आत्माने एक शुद्ध चैतन्यमात्र कह्यो हतो.
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ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिक्रामति येन चेतयिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते — चेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु, सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात्, द्वैरूप्यं नातिक्रामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने । ततः सा ते नातिक्रामति । यद्यतिक्रामति, सामान्यविशेषातिक्रान्तत्वाच्चेतनैव न भवति । तदभावे द्वौ दोषौ — स्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्या- चेतनतापत्तिः, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा । ततस्तद्दोषभयाद्दर्शनज्ञानात्मिकैव चेतनाभ्युपगन्तव्या ।
दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं द्रग्ज्ञप्तिरूपाऽस्तु चित् ।।१८३।।
हवे आ बे गाथाओमां द्रष्टा अने ज्ञातानो अनुभव कराव्यो छे, कारण के चेतनासामान्य दर्शनज्ञानविशेषोने उल्लंघती नथी. अहीं पण, छ कारकरूप भेद-अनुभवन करावी, पछी अभेद- अनुभवननी अपेक्षाए कारकभेद दूर करावी, द्रष्टाज्ञातामात्रनो अनुभव कराव्यो छे.)
(टीकाः — ) अहीं प्रश्न थाय छे के — चेतना दर्शनज्ञानभेदोने केम उल्लंघती नथी के जेथी चेतनारो द्रष्टा तथा ज्ञाता होय छे? तेनो उत्तर कहेवामां आवे छेः — प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप छे. ते चेतना द्विरूपताने अर्थात् बे-रूपपणाने उल्लंघती नथी, कारण के समस्त वस्तुओ सामान्यविशेषात्मक छे. (बधीये वस्तुओ सामान्यविशेषस्वरूप छे, तेथी तेमने प्रतिभासनारी चेतना पण बे-रूपपणाने उल्लंघती नथी.) तेनां जे बे रूपो छे ते दर्शन अने ज्ञान छे. माटे ते तेमने ( – दर्शनज्ञानने) उल्लंघती नथी. जो चेतना दर्शन ज्ञानने उल्लंघे तो सामान्यविशेषने उल्लंघवाथी चेतना ज न होय (अर्थात् चेतनानो अभाव थाय). तेना अभावमां बे दोष आवे — (१) पोताना गुणनो नाश थवाथी चेतनने अचेतनपणुं आवी पडे, अथवा (२) व्यापकना ( – चेतनाना – ) अभावमां व्याप्य एवा चेतननो (आत्मानो) अभाव थाय. माटे ते दोषोना भयथी चेतनाने दर्शनज्ञानस्वरूप ज अंगीकार करवी.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [जगति हि चेतना अद्वैता] जगतमां खरेखर चेतना अद्वैत छे [अपि चेत् सा द्रग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्] तोपण जो ते दर्शनज्ञानरूपने छोडे [तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्] तो
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भावाः परे ये किल ते परेषाम् ।
भावाः परे सर्वत एव हेयाः ।।१८४।।
सामान्यविशेषरूपना अभावथी [अस्तित्वम् एव त्यजेत्] (ते चेतना) पोताना अस्तित्वने ज छोडे; [तत्-त्यागे] एम चेतना पोताना अस्तित्वने छोडतां, (१) [चितः अपि जडता भवति] चेतनने जडपणुं आवे अर्थात् आत्मा जड थई जाय, [च] अने (२) [व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति] व्यापक विना ( – चेतना विना – ) व्याप्य जे आत्मा ते नाश पामे ( – आम बे दोष आवे छे). [तेन चित् नियतं द्रग्ज्ञप्तिरूपा अस्तु] माटे चेतना नियमथी दर्शनज्ञानरूप ज हो.
भावार्थः — समस्त वस्तुओ सामान्यविशेषात्मक छे. तेथी तेमने प्रतिभासनारी चेतना पण सामान्यप्रतिभासरूप ( – दर्शनरूप) अने विशेषप्रतिभासरूप ( – ज्ञानरूप) होवी जोईए. जो चेतना पोतानी दर्शनज्ञानरूपताने छोडे तो चेतनानो ज अभाव थतां, कां तो चेतन आत्माने (पोताना चेतनागुणनो अभाव थवाथी) जडपणुं आवे, अथवा तो व्यापकना अभावथी व्याप्य एवा आत्मानो अभाव थाय. (चेतना आत्मानी सर्व अवस्थाओमां व्यापती होवाथी व्यापक छे अने आत्मा चेतन होवाथी चेतनानुं व्याप्य छे. तेथी चेतनानो अभाव थतां आत्मानो पण अभाव थाय.) माटे चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप ज मानवी.
अहीं तात्पर्य एवुं छे के — सांख्यमती आदि केटलाक लोको सामान्य चेतनाने ज मानी एकांत कहे छे, तेमनो निषेध करवा माटे ‘वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषरूप छे तेथी चेतनाने सामान्यविशेषरूप अंगीकार करवी’ एम अहीं जणाव्युं छे. १८३.
हवे आगळना कथननी सूचनारूप श्लोक कहे छेः —
श्लोकार्थः — [चितः] चैतन्यनो (आत्मानो) तो [एकः चिन्मयः एव भावः] एक चिन्मय ज भाव छे, [ये परे भावाः] जे बीजा भावो छे [ते किल परेषाम्] ते खरेखर परना भावो छे; [तत :] माटे [चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः] (एक) चिन्मय भाव ज ग्रहण करवायोग्य छे, [परे भावाः सर्वतः एव हेयाः] बीजा भावो सर्वथा छोडवायोग्य छे. १८४.
हवे आ उपदेशनी गाथा कहे छेः —
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यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात्, स खल्वेकं चिन्मात्रं भावमात्मीयं जानाति, शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति । एवं च जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोर्निश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासम्भवात् । अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः, शेषाः सर्वे एव भावाः प्रहातव्या इति सिद्धान्तः ।
गाथार्थः — [सर्वान् भावान्] सर्व भावोने [परकीयान्] पारका [ज्ञात्वा] जाणीने [कः नाम बुधः] कोण ज्ञानी, [आत्मानम्] पोताने [शुद्धम्] शुद्ध [जानन्] जाणतो थको, [इदम् मम] ‘आ मारुं छे’ ( – ‘आ भावो मारा छे’) [इति च वचनम्] एवुं वचन [भणेत्] बोले?
टीकाः — जे (पुरुष) परना अने आत्माना नियत स्वलक्षणोना विभागमां पडनारी प्रज्ञा वडे ज्ञानी थाय, ते खरेखर एक चिन्मात्र भावने पोतानो जाणे छे अने बाकीना सर्व भावोने पारका जाणे छे. आवुं जाणतो थको (ते पुरुष) परभावोने ‘आ मारा छे’ एम केम कहे? (न ज कहे;) कारण के परने अने पोताने निश्चयथी स्वस्वामिसंबंधनो असंभव छे. माटे, सर्वथा चिद्भाव ज (एक) ग्रहण करवायोग्य छे, बाकीना समस्त भावो छोडवायोग्य छे — एवो सिद्धांत छे.
भावार्थः — लोकमां पण ए न्याय छे के — जे सुबुद्धि होय, न्यायवान होय, ते परनां धनादिकने पोतानां न कहे. तेवी ज रीते जे सम्यग्ज्ञानी छे, ते समस्त परद्रव्योने पोतानां करतो नथी, पोताना निजभावने ज पोतानो जाणी ग्रहण करे छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
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शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् ।
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ।।१८५।।
श्लोकार्थः — [उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः] जेमना चित्तनुं चरित्र उदात्त ( – उदार, उच्च, उज्ज्वळ) छे एवा मोक्षार्थीओ [अयम् सिद्धान्तः] आ सिद्धांतने [सेव्यताम्] सेवन करो के — ‘[अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि] हुं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं; [तु] अने [एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि] आ जे भिन्न लक्षणवाळा विविध प्रकारना भावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम्] कारण के ते बधाय मने परद्रव्य छे’. १८५.
हवे आगळना कथननी सूचनानो श्लोक कहे छेः —
श्लोकार्थः — [परद्रव्यग्रहं कुर्वन्] जे परद्रव्यने ग्रहण करे छे [अपराधवान्] ते अपराधी छे [बध्येत एव] तेथी बंधमां पडे छे, अने [स्वद्रव्ये संवृतः यतिः] जे स्वद्रव्यमां ज संवृत छे (अर्थात् जे पोताना द्रव्यमां ज गुप्त छे — मग्न छे — संतुष्ट छे, परद्रव्यने ग्रहतो नथी) एवो यति [अनपराधः] निरपराधी छे [न बध्येत] तेथी बंधातो नथी. १८६.
हवे आ कथनने द्रष्टांतपूर्वक गाथामां कहे छेः —
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यथात्र लोके य एव परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बन्धशङ्का सम्भवति, यस्तु
गाथार्थः — [यः] जे पुरुष [स्तेयादीन् अपराधान्] चोरी आदि अपराधो [करोति] करे छे [सः तु] ते ‘[जने विचरन्] लोकमां फरतां [मा] रखे [केन अपि] मने कोई [चौरः इति] चोर जाणीने [बध्ये] बांधशे – पकडशे’ एम [शङ्कितः भ्रमति] शंकित फरे छे; [यः] जे पुरुष [अपराधान्] अपराध [न करोति] करतो नथी [सः तु] ते [जनपदे] लोकमां [निश्शङ्कः भ्रमति] निःशंक फरे छे, [यद्] कारण के [तस्य] तेने [बद्धुं चिन्ता] बंधावानी चिंता [कदाचित् अपि] कदापि [न उत्पद्यते] ऊपजती नथी. [एवम्] एवी रीते [चेतयिता] अपराधी आत्मा ‘[सापराधः अस्मि] हुं अपराधी छुं [बध्ये तु अहम्] तेथी हुं बंधाईश’ एम [शङ्कितः] शंकित होय छे, [यदि पुनः] अने जो [निरपराधः] निरपराधी (आत्मा) होय तो ‘[अहं न बध्ये] हुं नहि बंधाउं’ एम [निश्शङ्कः] निःशंक होय छे.
टीकाः — जेम आ जगतमां जे पुरुष, परद्रव्यनुं ग्रहण जेनुं लक्षण छे एवो अपराध करे छे तेने ज बंधनी शंका थाय छे अने जे अपराध करतो नथी तेने बंधनी शंका थती
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तं न करोति तस्य सा न सम्भवति; तथात्मापि य एवाशुद्धः सन् परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बन्धशङ्का सम्भवति, यस्तु शुद्धः संस्तं न करोति तस्य सा न सम्भवतीति नियमः । अतः सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण शुद्ध आत्मा गृहीतव्यः, तथा सत्येव निरपराधत्वात् ।
को हि नामायमपराधः ? —
नथी, तेम आत्मा पण जे अशुद्ध वर्ततो थको, परद्रव्यनुं ग्रहण जेनुं लक्षण छे एवो अपराध करे छे तेने ज बंधनी शंका थाय छे अने जे शुद्ध वर्ततो थको अपराध करतो नथी तेने बंधनी शंका थती नथी — एवो नियम छे. माटे सर्वथा सर्व पारका भावोना परिहार वडे (अर्थात् परद्रव्यना सर्व भावोने छोडीने) शुद्ध आत्माने ग्रहण करवो, कारण के एम थाय त्यारे ज निरपराधपणुं थाय छे.
भावार्थः — जो माणस चोरी आदि अपराध करे तो तेने बंधननी शंका थाय; निरपराधने शंका शा माटे थाय? तेवी ज रीते जो आत्मा परद्रव्यना ग्रहणरूप अपराध करे तो तेने बंधनी शंका थाय ज; जो पोताने शुद्ध अनुभवे, परने न ग्रहे, तो बंधनी शंका शा माटे थाय? माटे परद्रव्यने छोडी शुद्ध आत्मानुं ग्रहण करवुं. त्यारे ज निरपराध थवाय छे.
हवे पूछे छे के आ ‘अपराध’ एटले शुं? तेना उत्तरमां अपराधनुं स्वरूप कहे छेः —
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परद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः । अपगतो राधो यस्य चेतयितुः सोऽपराधः । अथवा अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराधः, तेन सह यश्चेतयिता वर्तते स सापराधः । स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्धयभावाद्बन्धशङ्कासम्भवे सति स्वयमशुद्धत्वादनाराधक एव स्यात् । यस्तु निरपराधः स समग्रपरद्रव्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसद्भावाद्बन्धशङ्काया असम्भवे सति उपयोगैकलक्षणशुद्ध आत्मैक एवाहमिति
गाथार्थः — [संसिद्धिराधसिद्धम्] संसिद्धि, *राध, सिद्ध, [साधितम् आराधितं च] साधित अने आराधित — [एकार्थम्] ए शब्दो एकार्थ छे; [यः खलु चेतयिता] जे आत्मा [अपगतराधः] ‘अपगतराध’ अर्थात् राधथी रहित छे [सः] ते आत्मा [अपराधः] अपराध [भवति] छे.
[पुनः] वळी [यः चेतयिता] जे आत्मा [निरपराधः] निरपराध छे [सः तु] ते [निश्शङ्कितः भवति] निःशंक होय छे; [अहम् इति जानन्] ‘शुद्ध आत्मा ते ज हुं छुं’ एम जाणतो थको [आराधनया] आराधनाथी [नित्यं वर्तते] सदा वर्ते छे.
टीकाः — परद्रव्यना परिहार वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धि अथवा साधन ते राध. जे आत्मा ‘अपगतराध’ अर्थात् राध रहित होय ते आत्मा अपराध छे. अथवा (बीजो समासविग्रह आ प्रमाणे छेः) जे भाव राध रहित होय ते भाव अपराध छे; ते अपराध सहित जे आत्मा वर्ततो होय ते आत्मा सापराध छे. ते आत्मा, परद्रव्यना ग्रहणना सद्भाव वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धिना अभावने लीधे बंधनी शंका थती होईने स्वयं अशुद्ध होवाथी, अनाराधक ज छे. अने जे आत्मा निरपराध छे ते, समग्र परद्रव्यना परिहार वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धिना सद्भावने लीधे बंधनी शंका नहि थती होवाथी ‘उपयोग ज जेनुं एक लक्षण छे एवो एक शुद्ध आत्मा ज हुं छुं’ एम निश्चय करतो थको शुद्ध आत्मानी सिद्धि
* राध = आराधना; प्रसन्नता; कृपा; सिद्धि; पूर्णता; सिद्ध करवुं ते; पूर्ण करवुं ते.
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निश्चिन्वन् नित्यमेव शुद्धात्मसिद्धिलक्षणयाराधनया वर्तमानत्वादाराधक एव स्यात् ।
स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु ।
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ।।१८७।।
ननु किमनेन शुद्धात्मोपासनप्रयासेन ? यतः प्रतिक्रमणादिनैव निरपराधो
भवत्यात्मा; सापराधस्याप्रतिक्रमणादेस्तदनपोहकत्वेन विषकुम्भत्वे सति प्रतिक्रमणा-
जेनुं लक्षण छे एवी आराधनाथी सदाय वर्ततो होवाथी, आराधक ज छे.
भावार्थः — संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित अने आराधित — ए शब्दोनो अर्थ एक ज छे. अहीं शुद्ध आत्मानी सिद्धि अथवा साधननुं नाम ‘राध’ छे. जेने ते राध नथी ते आत्मा सापराध छे अने जेने ते राध छे ते आत्मा निरपराध छे. जे सापराध छे तेने बंधनी शंका थाय छे माटे ते स्वयं अशुद्ध होवाथी अनाराधक छे; अने जे निरपराध छे ते निःशंक थयो थको पोताना उपयोगमां लीन होय छे तेथी तेने बंधनी शंका नथी, माटे ‘शुद्ध आत्मा ते ज हुं छुं’ एवा निश्चयपूर्वक वर्ततो थको सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र अने तपना एक भावरूप निश्चय आराधनानो आराधक ज छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [सापराधः] सापराध आत्मा [अनवरतम्] निरंतर [अनन्तैः] अनंत पुद्गलपरमाणुरूप कर्मोथी [बध्यते] बंधाय छे; [निरपराधः] निरपराध आत्मा [बन्धनम्] बंधनने [जातु] कदापि [स्पृशति न एव] स्पर्शतो नथी ज. [अयम्] जे सापराध आत्मा छे ते तो [नियतम् ] नियमथी [स्वम् अशुद्धं भजन् ] पोताने अशुद्ध सेवतो थको [सापराधः] सापराध छे; [निरपराधः] निरपराध आत्मा तो [साधु] भली रीते [शुद्धात्मसेवी भवति] शुद्ध आत्मानो सेवनार होय छे. १८७.
(हवे व्यवहारनयावलंबी अर्थात् व्यवहारनयने अवलंबनार तर्क करे छे केः — ) ‘‘एवो शुद्ध आत्मानी उपासनानो प्रयास (महेनत) करवानुं शुं काम छे? कारण के प्रतिक्रमण आदिथी ज आत्मा निरपराध थाय छे; केम के सापराधने, जे अप्रतिक्रमण आदि छे ते, अपराधने दूर करनारां नहि होवाथी, विषकुंभ छे, माटे जे प्रतिक्रमण आदि छे ते, अपराधने दूर करनारां
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देस्तदपोहकत्वेनामृतकुम्भत्वात् । उक्तं च व्यवहाराचारसूत्रे — अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुंभो ।।१।। पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अमयकुंभो दु ।।२।।
अत्रोच्यते — होवाथी, अमृतकुंभ छे. व्यवहाराचारसूत्रमां ( – व्यवहारने कहेनारा आचारसूत्रमां – ) पण कह्युं छे के —
[अर्थः — अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगर्हा अने अशुद्धि — ए (आठ प्रकारनो) विषकुंभ अर्थात् झेरनो घडो छे. १.
१प्रतिक्रमण, २प्रतिसरण, ३परिहार, ४धारणा, ५निवृत्ति, ६निंदा, ७गर्हा अने ८शुद्धि — ए आठ प्रकारनो अमृतकुंभ छे. २.]’’
उपरना तर्कनुं समाधान आचार्यभगवान (निश्चयनयनी प्रधानताथी) गाथामां करे छेः —
१. प्रतिक्रमण = करेला दोषोनुं निराकरण करवुं ते
२. प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोमां प्रेरणा
३. परिहार = मिथ्यात्वादि दोषोनुं निवारण
४. धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा वगेरे बाह्य द्रव्योना आलंबन वडे चित्तने स्थिर करवुं ते
५. निवृत्ति = बाह्य विषयकषायादि इच्छामां वर्तता चित्तने पाछुं वाळवुं ते
६. निंदा = आत्मसाक्षीए दोषोनुं प्रगट करवुं ते
७. गर्हा = गुरुसाक्षीए दोषोनुं प्रगट करवुं ते
८. शुद्धि = दोष थतां प्रायश्चित्त लईने विशुद्धि करवी ते
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यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्धयभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव; किं तस्य विचारेण ? यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः
गाथार्थः — [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण, [प्रतिसरणम्] प्रतिसरण, [परिहारः] परिहार, [धारणा] धारणा, [निवृत्तिः] निवृत्ति, [निन्दा] निंदा, [गर्हा] गर्हा [च शुद्धिः] अने शुद्धि — [अष्टविधः] ए आठ प्रकारनो [विषकुम्भः] विषकुंभ [भवति] छे (कारण के एमां कर्तापणानी बुद्धि संभवे छे).
[अप्रतिक्रमणम्] अप्रतिक्रमण, [अप्रतिसरणम्] अप्रतिसरण, [अपरिहारः] अपरिहार, [अधारणा] अधारणा, [अनिवृत्तिः च] अनिवृत्ति, [अनिन्दा] अनिंदा, [अगर्हा] अगर्हा [च एव] अने [अशुद्धिः] अशुद्धि — [अमृतकुम्भः] ए अमृतकुंभ छे (कारण के एमां कर्तापणानो निषेध छे — कांई करवानुं ज नथी, माटे बंध थतो नथी).
टीकाः — प्रथम तो जे अज्ञानीजनसाधारण (अर्थात् अज्ञानी लोकोने साधारण एवां) अप्रतिक्रमणादि छे तेओ तो शुद्ध आत्मानी सिद्धिना अभावरूप स्वभाववाळां होवाने लीधे स्वयमेव अपराधरूप होवाथी विषकुंभ ज छे; तेमनो विचार करवानुं शुं प्रयोजन छे? (तेओ
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स सर्वापराधविषदोषापकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुम्भोऽपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणादिविलक्षणा- प्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयीकीं भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्यकारित्वाद्विषकुम्भ एव स्यात् । अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापराधविषदोषाणां सर्वङ्कषत्वात् साक्षात्स्वयममृतकुम्भो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुम्भत्वं साधयति । तयैव च निरपराधो भवति चेतयिता । तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव । अतस्तृतीयभूमिकयैव निरपराधत्वमित्यवतिष्ठते । तत्प्राप्त्यर्थ एवायं द्रव्यप्रतिक्रमणादिः । ततो मेति
मंस्था यत्प्रतिक्रमणादीन् श्रुतिस्त्याजयति, किन्तु द्रव्यप्रतिक्रमणादिना न मुञ्चति, अन्यदपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणाद्यगोचराप्रतिक्रमणादिरूपं शुद्धात्मसिद्धिलक्षणमतिदुष्करं किमपि कारयति । वक्ष्यते चात्रैव — कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो
सो पडिक्कमणं ।। इत्यादि ।
तो प्रथम ज त्यागवायोग्य छे.) अने जे द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि छे तेओ सर्व अपराधरूपी विषना दोषोने घटाडवामां ( – क्रमे क्रमे मटाडवामां) समर्थ होवाथी अमृतकुंभ छे (एम व्यवहार आचारसूत्रमां कह्युं छे) तोपण प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी विलक्षण एवी अप्रतिक्रमणादिरूप त्रीजी भूमिने नहि देखनार पुरुषने ते द्रव्यप्रतिक्रमणादि (अपराध कापवारूप) पोतानुं कार्य करवा असमर्थ होवाने लीधे विपक्ष कार्य (अर्थात् बंधनुं कार्य) करतां होवाथी विषकुंभ ज छे. जे अप्रतिक्रमणादिरूप त्रीजी भूमि छे ते, स्वयं शुद्धात्मानी सिद्धिरूप होवाने लीधे सर्व अपराधरूपी विषना दोषोने सर्वथा नष्ट करनारी होवाथी, साक्षात् स्वयं अमृतकुंभ छे अने ए रीते (ते त्रीजी भूमि) व्यवहारथी द्रव्यप्रतिक्रमणादिने पण अमृतकुंभपणुं साधे छे. ते त्रीजी भूमिथी ज आत्मा निरपराध थाय छे. तेना (अर्थात् त्रीजी भूमिना) अभावमां द्रव्य-प्रतिक्रमणादि पण अपराध ज छे. माटे, त्रीजी भूमिथी ज निरपराधपणुं छे एम ठरे छे. तेनी प्राप्ति अर्थे ज आ द्रव्यप्रतिक्रमणादि छे. आम होवाथी एम न मानो के (निश्चयनयनुं) शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिने छोडावे छे. त्यारे शुं करे छे? द्रव्यप्रतिक्रमणादिथी छोडी देतुं नथी ( – अटकावी देतुं नथी, संतोष मनावी देतुं नथी); ते सिवाय बीजुं पण, प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप, शुद्ध आत्मानी सिद्धि जेनुं लक्षण छे एवुं, अति दुष्कर कांईक करावे छे. आ शास्त्रमां ज आगळ कहेशे के — *कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेय-वित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।। (अर्थः — अनेक प्रकारना विस्तारवाळां जे पूर्वे करेलां शुभाशुभ कर्म छे तेमनाथी जे पोताना आत्माने निवर्तावे छे ते आत्मा प्रतिक्रमण छे.) वगेरे.
* जुओ गाथा ३८३ — ३८५; त्यां निश्चयप्रतिक्रमण वगेरेनुं स्वरूप कह्युं छे.