Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 188-199 ; Sarvavishuddhagyan Adhikar; Gatha: 308-320.

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अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां
प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम्
आत्मन्येवालानितं च चित्त-
मासम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः
।।१८८।।

भावार्थःव्यवहारनयावलंबीए कह्युं हतुं के‘‘लागेला दोषोनुं प्रतिक्रमण आदि करवाथी ज आत्मा शुद्ध थाय छे, तो पछी प्रथमथी ज शुद्ध आत्माना आलंबननो खेद करवानुं शुं प्रयोजन छे? शुद्ध थया पछी तेनुं आलंबन थशे; पहेलेथी ज आलंबननो खेद निष्फळ छे.’’ तेने आचार्य समजावे छे केःजे द्रव्यप्रतिक्रमणादिक छे ते दोषनां मटाडनारां छे, तोपण शुद्ध आत्मानुं स्वरूप के जे प्रतिक्रमणादिथी रहित छे तेना आलंबन विना तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ज छे, दोष मटाडवाने समर्थ नथी; कारण के निश्चयनी अपेक्षा सहित ज व्यवहारनय मोक्षमार्गमां छे, केवळ व्यवहारनो ज पक्ष मोक्षमार्गमां नथी, बंधनो ज मार्ग छे. माटे एम कह्युं छे केअज्ञानीने जे अप्रतिक्रमणादिक छे ते तो विषकुंभ छे ज; तेमनी तो वात ज शी? परंतु व्यवहारचारित्रमां जे प्रतिक्रमणादिक कह्यां छे ते पण निश्चयनये विषकुंभ ज छे, कारण के आत्मा तो प्रतिक्रमणादिकथी रहित, शुद्ध, अप्रतिक्रमणादि- स्वरूप ज छे.

हवे आ कथनना कळशरूपे काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[अतः] आ कथनथी, [सुख-आसीनतां गताः] सुखे बेठेला (अर्थात् एशआराम करता) [प्रमादिनः] प्रमादी जीवोने [हताः] हत कह्या छे (अर्थात् मोक्षना तद्दन अनधिकारी कह्या छे), [चापलम् प्रलीनम् ] चापल्यनो (विचार विनाना कार्यनो) प्रलय कर्यो छे (अर्थात् आत्मभान विनानी क्रियाओने मोक्षना कारणमां गणी नथी), [आलम्बनम् उन्मूलितम् ] आलंबनने उखेडी नाख्युं छे (अर्थात् सम्यग्द्रष्टिना द्रव्यप्रतिक्रमण वगेरेने पण निश्चयथी बंधनुं कारण गणीने हेय कह्यां छे), [आसम्पूर्ण-विज्ञान-घन-उपलब्धेः] ज्यां सुधी संपूर्ण विज्ञानघन आत्मानी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी [आत्मनि एव चित्तम् आलानितं च] (शुद्ध) आत्मारूपी थांभले ज चित्तने बांध्युं छे (व्यवहारना आलंबनथी अनेक प्रवृत्तिओमां चित्त भमतुं हतुं तेने शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मामां ज लगाडवानुं कह्युं छे कारण के ते ज मोक्षनुं कारण छे). १८८.


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(वसन्ततिलका)
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं
तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्
तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः
।।१८९।।

अहीं निश्चयनयथी प्रतिक्रमणादिकने विषकुंभ कह्यां अने अप्रतिक्रमणादिकने अमृतकुंभ कह्यां तेथी कोई ऊलटुं समजी प्रतिक्रमणादिकने छोडी प्रमादी थाय तो तेने समजाववाने कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[यत्र प्रतिक्रमणम् एव विषं प्रणीतं] (अरे! भाई,) ज्यां प्रतिक्रमणने ज विष कह्युं छे, [तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुतः स्यात्] त्यां अप्रतिक्रमण अमृत क्यांथी होय? (अर्थात् न ज होय.) [तत्] तो पछी [जनः अधः अधः प्रपतन् किं प्रमाद्यति] माणसो नीचे नीचे पडता थका प्रमादी कां थाय छे? [निष्प्रमादः] निष्प्रमादी थया थका [ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् किं न अधिरोहति] ऊंचे ऊंचे कां चडता नथी?

भावार्थःअज्ञानावस्थामां जे अप्रतिक्रमणादिक होय छे तेमनी तो वात ज शी? अहीं तो, शुभप्रवृत्तिरूप द्रव्यप्रतिक्रमणादिनो पक्ष छोडाववा माटे तेमने (द्रव्यप्रतिक्रमणादिने) तो निश्चयनयनी प्रधानताथी विषकुंभ कह्यां छे कारण के तेओ कर्मबंधनां ज कारण छे, अने प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिथी रहित एवी त्रीजी भूमि, के जे शुद्ध आत्मस्वरूप छे तेम ज प्रतिक्रमणादिथी रहित होवाथी अप्रतिक्रमणादिरूप छे, तेने अमृतकुंभ कही छे अर्थात

् त्यांनां अप्रतिक्रमणादिने अमृतकुंभ कह्यां छे. त्रीजी भूमिमां चडाववा माटे आ उपदेश आचार्यदेवे कर्यो छे. प्रतिक्रमणादिने विषकुंभ कह्यां सांभळीने जेओ ऊलटा प्रमादी थाय छे तेमना विषे आचार्यदेव कहे छे के‘आ माणसो नीचा नीचा केम पडे छे? त्रीजी भूमिमां ऊंचा ऊंचा केम चडता नथी?’ ज्यां प्रतिक्रमणने विषकुंभ कह्युं त्यां तेना निषेधरूप अप्रतिक्रमण ज अमृतकुंभ होई शके, अज्ञानीनुं नहि. माटे जे अप्रतिक्रमणादि अमृतकुंभ कह्यां छे ते अज्ञानीनां अप्रतिक्रमणादि न जाणवां, त्रीजी भूमिनां शुद्ध आत्मामय जाणवां. १८९.

हवे आ अर्थने द्रढ करतुं काव्य कहे छेः

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(पृथ्वी)
प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः
कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः
अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्
मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात्
।।१९०।।
(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं
स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः
बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल-
च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते
।।१९१।।

श्लोकार्थः[यतः कषाय-भर-गौरवात् अलसता प्रमादः] कषायना भार वडे भारे होवाथी आळसुपणुं ते प्रमाद छे, तेथी [प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति] प्रमादयुक्त आळसभाव शुद्धभाव केम होई शके? [अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन् मुनिः] माटे निज रसथी भरेला स्वभावमां निश्चळ थतो मुनि [परमशुद्धतां व्रजति] परम शुद्धताने पामे छे [वा] अथवा [अचिरात् मुच्यते] शीघ्रअल्प काळमां (कर्मबंधथी) छूटे छे.

भावार्थःप्रमाद तो कषायना गौरवथी थाय छे माटे प्रमादीने शुद्ध भाव होय नहि. जे मुनि उद्यमथी स्वभावमां प्रवर्ते छे ते शुद्ध थईने मोक्षने पामे छे. १९०.

हवे, मुक्त थवानो अनुक्रम दर्शावतुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[यः किल अशुद्धिविधायि परद्रव्यं तत् समग्रं त्यक्त्वा] जे पुरुष खरेखर अशुद्धता करनारुं जे परद्रव्य ते सर्वने छोडीने [स्वयं स्वद्रव्ये रतिम् एति] पोते पोताना स्वद्रव्यमां लीन थाय छे, [सः] ते पुरुष [नियतम् ] नियमथी [सर्व-अपराध-च्युतः] सर्व अपराधोथी रहित थयो थको, [बन्ध-ध्वंसम् उपेत्य नित्यम् उदितः] बंधना नाशने पामीने नित्य- उदित (सदा प्रकाशमान) थयो थको, [स्व-ज्योतिः-अच्छ-उच्छलत्-चैतन्य-अमृत-पूर-पूर्ण-महिमा] स्वज्योतिथी (पोताना स्वरूपना प्रकाशथी) निर्मळपणे ऊछळतो जे चैतन्यरूप अमृतनो प्रवाह तेना वडे पूर्ण जेनो महिमा छे एवो [शुद्धः भवन् ] शुद्ध थतो थको, [मुच्यते] कर्मोथी छूटे छेमुक्त थाय छे.


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(मन्दाक्रान्ता)
बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत-
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्
एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि
।।१९२।।
इति मोक्षो निष्क्रान्तः

भावार्थःजे पुरुष, पहेलां समस्त परद्रव्यनो त्याग करी निज द्रव्यमां (आत्मस्वरूपमां) लीन थाय छे, ते पुरुष सर्व रागादिक अपराधोथी रहित थई आगामी बंधनो नाश करे छे अने नित्य उदयरूप केवळज्ञानने पामी, शुद्ध थई, सर्व कर्मनो नाश करी, मोक्षने पामे छे. आ, मोक्ष थवानो अनुक्रम छे. १९१.

हवे मोक्ष अधिकार पूर्ण करतां तेना अंतमंगळरूपे पूर्ण ज्ञानना महिमानुं (सर्वथा शुद्ध थयेला आत्मद्रव्यना महिमानुं) कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[बन्धच्छेदात् अतुलम् अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत् ] कर्मबंधना छेदथी अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्षने अनुभवतुं, [नित्य-उद्योत-स्फु टित-सहज-अवस्थम् ] नित्य उद्योतवाळी (जेनो प्रकाश नित्य छे एवी) सहज अवस्था जेनी खीली नीकळी छे एवुं, [एकान्त-शुद्धम् ] एकांतशुद्ध (कर्मनो मेल नहि रहेवाथी जे अत्यंत शुद्ध थयुं छे एवुं), अने [एकाकार-स्व- रस-भरतः अत्यन्त-गम्भीर-धीरम् ] एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकारे परिणमेला) निजरसनी अतिशयताथी जे अत्यंत गंभीर अने धीर छे एवुं [एतत् पूर्णं ज्ञानम् ] आ पूर्ण ज्ञान [ज्वलितम्] जळहळी ऊठ्युं (सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट थयुं); [स्वस्य अचले महिम्नि लीनम्] पोताना अचळ महिमामां लीन थयुं.

भावार्थःकर्मनो नाश करी मोक्षने अनुभवतुं, पोतानी स्वाभाविक अवस्थारूप, अत्यंत शुद्ध, समस्त ज्ञेयाकारोने गौण करतुं, अत्यंत गंभीर (जेनो पार नथी एवुं) अने धीर (आकुळता विनानुं)एवुं पूर्ण ज्ञान प्रगट देदीप्यमान थयुं, पोताना महिमामां लीन थयुं. १९२.

टीकाःआ रीते मोक्ष (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयो.

भावार्थःरंगभूमिमां मोक्षतत्त्वनो स्वांग आव्यो हतो. ज्यां ज्ञान प्रगट थयुं त्यां ते मोक्षनो स्वांग रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गयो.


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इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ मोक्षप्ररूपकः अष्टमोऽङ्कः ।।

ज्यों नर कोय पर्यो द्रढबंधन बंधस्वरूप लखै दुखकारी,
चिंत करै निति कैम कटै यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी;
छेदनकूं गहि आयुध धाय चलाय निशंक करै दुय धारी,
यों बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां मोक्षनो प्ररूपक आठमो अंक समाप्त थयो.


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-९-
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
अथ प्रविशति सर्वविशुद्धज्ञानम्
(मन्दाक्रान्ता)
नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान्
दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लृप्तेः
शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चि-
ष्टङ्कोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फू र्जति ज्ञानपुञ्जः
।।१९३।।
सर्वविशुद्ध सुज्ञानमय, सदा आतमाराम;
परने करे न भोगवे, जाणे जपि तसु नाम.

प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहे छे के ‘हवे सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे’. मोक्षतत्त्वनो स्वांग नीकळी गया पछी सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे. रंगभूमिमां जीव- अजीव, कर्ताकर्म, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षए आठ स्वांग आव्या, तेमनुं नृत्य थयुं अने पोतपोतानुं स्वरूप बतावी तेओ नीकळी गया. हवे सर्व स्वांगो दूर थये एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे छे.

त्यां प्रथम ज, मंगळरूपे ज्ञानपुंज आत्माना महिमानुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[अखिलान् कर्तृ-भोक्तृ-आदि-भावान् सम्यक् प्रलयम् नीत्वा] समस्त कर्ता- भोक्ता आदि भावोने सम्यक् प्रकारे नाश पमाडीने [प्रतिपदम्] पदे पदे (अर्थात् कर्मना क्षयोपशमना निमित्तथी थता दरेक पर्यायमां) [बन्ध-मोक्ष-प्रक्लृप्तेः दूरीभूतः] बंध-मोक्षनी रचनाथी दूर वर्ततो, [शुद्धः शुद्धः] शुद्धशुद्ध (अर्थात् जे रागादिक मळ तेम ज आवरणबन्नेथी रहित छे एवो), [स्वरस-विसर-आपूर्ण-पुण्य-अचल-अर्चिः] जेनुं पवित्र अचळ तेज निजरसना (ज्ञानरसना, ज्ञानचेतनारूपी रसना) फेलावथी भरपूर छे एवो, अने [टङ्कोत्कीर्ण-प्रकट-महिमा] जेनो महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट छे एवो [अयं ज्ञानपुञ्जः स्फू र्जति] आ ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट थाय छे.


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(अनुष्टुभ्)
कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत्
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः ।।१९४।।
अथात्मनोऽकर्तृत्वं द्रष्टान्तपुरस्सरमाख्याति
दवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं
जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह ।।३०८।।
जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि ।।३०९।।

भावार्थःशुद्धनयनो विषय जे ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते कर्ताभोक्तापणाना भावोथी रहित छे, बंधमोक्षनी रचनाथी रहित छे, परद्रव्यथी अने परद्रव्यना सर्व भावोथी रहित होवाथी शुद्ध छे, पोताना स्वरसना प्रवाहथी पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिरूप छे अने टंकोत्कीर्ण महिमावाळो छे. एवो ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट थाय छे. १९३.

हवे सर्वविशुद्ध ज्ञानने प्रगट करे छे. तेमां प्रथम, ‘आत्मा कर्ता-भोक्ताभावथी रहित छे’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनिकारूप श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न] कर्तापणुं आ चित्स्वरूप आत्मानो स्वभाव नथी, [वेदयितृत्ववत्] जेम भोक्तापणुं स्वभाव नथी. [अज्ञानात् एव अयं कर्ता] अज्ञानथी ज ते कर्ता छे, [तद्-अभावात् अकारकः] अज्ञाननो अभाव थतां अकर्ता छे. १९४.

हवे आत्मानुं अकर्तापणुं द्रष्टांतपूर्वक कहे छेः

जे द्रव्य ऊपजे जे गुणोथी तेथी जाण अनन्य ते,
ज्यम जगतमां कटकादि पर्यायोथी कनक अनन्य छे. ३०८.
जीवअजीवना परिणाम जे दर्शाविया सूत्रो महीं,
ते जीव अगर अजीव जाण अनन्य ते परिणामथी. ३०९.

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ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो आदा
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि ।।३१०।।
कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि
उप्पज्जंति य णियमा सिद्धी दु ण दीसदे अण्णा ।।३११।।
द्रव्यं यदुत्पद्यते गुणैस्तत्तैर्जानीह्यनन्यत्
यथा कटकादिभिस्तु पर्यायैः कनकमनन्यदिह ।।३०८।।
जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दर्शिताः सूत्रे
तं जीवमजीवं वा तैरनन्यं विजानीहि ।।३०९।।
न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात्कार्यं न तेन स आत्मा
उत्पादयति न किञ्चिदपि कारणमपि तेन न स भवति ।।३१०।।
कर्म प्रतीत्य कर्ता कर्तारं तथा प्रतीत्य कर्माणि
उत्पद्यन्ते च नियमात्सिद्धिस्तु न द्रश्यतेऽन्या ।।३११।।
ऊपजे न आत्मा कोईथी तेथी न आत्मा कार्य छे,
उपजावतो नथी कोईने तेथी न कारण पण ठरे. ३१०.
रे! कर्म-आश्रित होय कर्ता, कर्म पण कर्ता तणे,
आश्रितपणे ऊपजे नियमथी, सिद्धि नव बीजी दीसे. ३११.

गाथार्थः[यत् द्रव्यं] जे द्रव्य [गुणैः] जे गुणोथी [उत्पद्यते] ऊपजे छे [तैः] ते गुणोथी [तत्] तेने [अनन्यत् जानीहि] अनन्य जाण; [यथा] जेम [इह] जगतमां [कटकादिभिः पर्यायैः तु] कडां आदि पर्यायोथी [कनकम् ] सुवर्ण [अनन्यत्] अनन्य छे तेम.

[जीवस्य अजीवस्य तु] जीव अने अजीवना [ये परिणामाः तु] जे परिणामो [सूत्रे दर्शिताः] सूत्रमां दर्शाव्या छे, [तैः] ते परिणामोथी [तं जीवम् अजीवम् वा] ते जीव अथवा अजीवने [अनन्यं विजानीहि] अनन्य जाण.

[यस्मात्] कारण के [कुतश्चित् अपि] कोईथी [न उत्पन्नः] उत्पन्न थयो नथी [तेन] तेथी [सः आत्मा] ते आत्मा [कार्यं न] (कोईनुं) कार्य नथी, [किञ्चित् अपि] अने कोईने [न उत्पादयति] उपजावतो नथी [तेन] तेथी [सः] ते [कारणम् अपि] (कोईनुं) कारण पण [न भवति] नथी.

58

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जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव, नाजीवः, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव, न जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात् कङ्कणादिपरिणामैः काञ्चनवत् एवं हि जीवस्य स्वपरिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह कार्यकारणभावो न सिध्यति, सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात्; तदसिद्धौ चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिध्यति; तदसिद्धौ च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकर्तृत्वं न सिध्यति अतो जीवोऽकर्ता अवतिष्ठते

[नियमात्] नियमथी [कर्म प्रतीत्य] कर्मना आश्रये (कर्मने अवलंबीने) [कर्ता] कर्ता होय छे; [तथा च] तेम ज [कर्तारं प्रतीत्य] कर्ताना आश्रये [कर्माणि उत्पद्यन्ते] कर्मो उत्पन्न थाय छे; [अन्या तु] बीजी कोई रीते [सिद्धिः] कर्ताकर्मनी सिद्धि [न द्रश्यते] जोवामां आवती नथी.

टीकाःप्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी ऊपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी; एवी रीते अजीव पण क्रमबद्ध पोताना परिणामोथी ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी; कारण के जेम (कंकण आदि परिणामोथी ऊपजता एवा) सुवर्णने कंकण आदि परिणामो साथे तादात्म्य छे तेम सर्व द्रव्योने पोताना परिणामो साथे तादात्म्य छे. आम जीव पोताना परिणामोथी ऊपजतो होवा छतां तेने अजीवनी साथे कार्यकारणभाव सिद्ध थतो नथी, कारण के सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादकभावनो अभाव छे; ते (कार्यकारणभाव) नहि सिद्ध थतां, अजीवने जीवनुं कर्मपणुं सिद्ध थतुं नथी; अने ते (अजीवने जीवनुं कर्मपणुं) नहि सिद्ध थतां, कर्ता-कर्मनी अन्यनिरपेक्षपणे (

अन्यद्रव्यथी

निरपेक्षपणे, स्वद्रव्यमां ज) सिद्धि होवाथी, जीवने अजीवनुं कर्तापणुं सिद्ध थतुं नथी. माटे जीव अकर्ता ठरे छे.

भावार्थःसर्व द्रव्योना परिणाम जुदा जुदा छे. पोतपोताना परिणामोना, सौ द्रव्यो कर्ता छे; तेओ ते परिणामोना कर्ता छे, ते परिणामो तेमनां कर्म छे. निश्चयथी कोईनो कोईनी साथे कर्ताकर्मसंबंध नथी. माटे जीव पोताना परिणामनो ज कर्ता छे, पोताना परिणाम कर्म छे. एवी ज रीते अजीव पोताना परिणामनुं ज कर्ता छे, पोताना परिणाम कर्म छे. आ रीते जीव बीजाना परिणामोनो अकर्ता छे.

‘आ रीते जीव अकर्ता छे तोपण तेने बंध थाय छे ए कोई अज्ञाननो महिमा छे’ एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः


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(शिखरिणी)
अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः
स्फु रच्चिज्जयोतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः
तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः
स खल्वज्ञानस्य स्फु रति महिमा कोऽपि गहनः
।।१९५।।
चेदा दु पयडीअट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ
पयडी वि चेययट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ ।।३१२।।
एवं बंधो उ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे
अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे ।।३१३।।
चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते विनश्यति
प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ।।३१२।।

श्लोकार्थः[स्वरसतः विशुद्धः] जे निजरसथी विशुद्ध छे, अने [स्फु रत्-चित्-ज्योतिर्भिः छुरित-भुवन-आभोग-भवनः] स्फुरायमान थती जेनी चैतन्यज्योतिओ वडे लोकनो समस्त विस्तार व्याप्त थई जाय छे एवो जेनो स्वभाव छे, [अयं जीवः] एवो आ जीव [इति] पूर्वोक्त रीते (परद्रव्यनो अने परभावोनो) [अकर्ता स्थितः] अकर्ता ठर्यो, [तथापि] तोपण [अस्य] तेने [इह] आ जगतमां [प्रकृतिभिः] कर्मप्रकृतिओ साथे [यद् असौ बन्धः किल स्यात्] जे आ (प्रगट) बंध थाय छे [सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा स्फु रति] ते खरेखर अज्ञाननो कोई गहन महिमा स्फुरायमान छे.

भावार्थःजेनुं ज्ञान सर्व ज्ञेयोमां व्यापनारुं छे एवो आ जीव शुद्धनयथी परद्रव्यनो कर्ता नथी, तोपण तेने कर्मनो बंध थाय छे ते कोई अज्ञाननो गहन महिमा छेजेनो पार पमातो नथी. १९५.

(हवे आ अज्ञानना महिमाने प्रगट करे छेः)

पण जीव प्रकृतिना निमित्ते ऊपजे विणसे अरे!
ने प्रकृति पण जीवना निमित्त ऊपजे विणसे; ३१२.
अन्योन्यना निमित्त ए रीत बंध बेउ तणो बने
आत्मा अने प्रकृति तणो, संसार तेथी थाय छे. ३१३.

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एवं बन्धस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत्
आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते ।।३१३।।

अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता सन् चेतयिता प्रकृतिनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति; प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्तमुत्पत्ति- विनाशावासादयति एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो द्रष्टः, ततः संसारः, तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः

गाथार्थः[चेतयिता तु] चेतक अर्थात् आत्मा [प्रकृत्यर्थम् ] प्रकृतिना निमित्ते [उत्पद्यते] ऊपजे छे [विनश्यति] तथा विणसे छे, [प्रकृतिः अपि] अने प्रकृति पण [चेतकार्थम्] चेतकना अर्थात् आत्माना निमित्ते [उत्पद्यते] ऊपजे छे [विनश्यति] तथा विणसे छे. [एवं] ए रीते [अन्योन्यप्रत्ययात्] परस्पर निमित्तथी [द्वयोः अपि] बन्नेनो[आत्मनः प्रकृतेः च] आत्मानो ने प्रकृतिनो[बन्धः तु भवेत्] बंध थाय छे, [तेन] अने तेथी [संसारः] संसार [जायते] उत्पन्न थाय छे.

टीकाःआ आत्मा, (तेने) अनादि संसारथी ज (परनां अने पोतानां जुदां जुदां) निश्चित स्वलक्षणोनुं ज्ञान (भेदज्ञान) नहि होवाने लीधे परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास करवाथी कर्ता थयो थको, प्रकृतिना निमित्ते उत्पत्ति-विनाश पामे छे; प्रकृति पण आत्माना निमित्ते उत्पत्ति-विनाश पामे छे (अर्थात् आत्माना परिणाम अनुसार परिणमे छे). ए रीतेजोके ते आत्मा अने प्रकृतिने कर्ताकर्मभावनो अभाव छे तोपणपरस्पर निमित्तनैमित्तिकभावथी बंनेने बंध जोवामां आवे छे, तेथी संसार छे अने तेथी ज तेमने (आत्माने ने प्रकृतिने) कर्ताकर्मनो व्यवहार छे.

भावार्थःआत्माने अने ज्ञानावरणादि कर्मनी प्रकृतिओने परमार्थे कर्ताकर्मपणानो अभाव छे तोपण परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावने लीधे बंध थाय छे, तेथी संसार छे अने तेथी ज कर्ताकर्मपणानो व्यवहार छे.

(‘ज्यां सुधी आत्मा प्रकृतिना निमित्ते ऊपजवुं-विणसवुं न छोडे त्यां सुधी ते अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि, असंयत छे’ एम हवे कहे छेः)


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जा एस पयडीअट्ठं चेदा णेव विमुंचए
अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ ।।३१४।।
जदा विमुंचए चेदा कम्मफलमणंतयं
तदा विमुत्तो हवदि जाणओ पासओ मुणी ।।३१५।।
यावदेष प्रकृत्यर्थं चेतयिता नैव विमुञ्चति
अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्याद्रष्टिरसंयतः ।।३१४।।
यदा विमुञ्चति चेतयिता कर्मफलमनन्तकम्
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ।।३१५।।

यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं न मुञ्चति, तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्याद्रष्टि- र्भवति, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या चासंयतो भवति; तावदेव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता

उत्पाद-व्यय प्रकृतिनिमित्ते ज्यां लगी नहि परितजे,
अज्ञानी, मिथ्यात्वी, असंयत त्यां लगी आ जीव रहे; ३१४.
आ आतमा ज्यारे करमनुं फळ अनंतुं परितजे,
ज्ञायक तथा दर्शक तथा मुनि तेह कर्मविमुक्त छे. ३१५.

गाथार्थः[यावत्] ज्यां सुधी [एषः चेतयिता] आ आत्मा [प्रकृत्यर्थं] प्रकृतिना निमित्ते ऊपजवुं-विणसवुं [न एव विमुञ्चति] छोडतो नथी, [तावत्] त्यां सुधी ते [अज्ञायकः] अज्ञायक छे, [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि छे, [असंयतः भवेत्] असंयत छे.

[यदा] ज्यारे [चेतयिता] आत्मा [अनन्तक म् कर्मफलम्] अनंत कर्मफळने [विमुञ्चति] छोडे छे, [तदा] त्यारे ते [ज्ञायकः] ज्ञायक छे, [दर्शकः] दर्शक छे, [मुनिः] मुनि छे, [विमुक्तः भवति] विमुक्त (अर्थात् बंधथी रहित) छे.

टीकाःज्यां सुधी आ आत्मा, (पोतानां अने परनां जुदां जुदां) निश्चित स्वलक्षणोनुं ज्ञान (भेदज्ञान) नहि होवाने लीधे, प्रकृतिना स्वभावनेके जे पोताने बंधनुं निमित्त छे तेनेछोडतो नथी, त्यां सुधी स्व-परना एकत्वज्ञानथी अज्ञायक छे, स्वपरना एकत्वदर्शनथी (एकत्वरूप श्रद्धानथी) मिथ्याद्रष्टि छे अने स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी असंयत


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भवति यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं मुञ्चति, तदा स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति, स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च संयतो भवति; तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति

(अनुष्टुभ्)
भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः
अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः ।।१९६।।
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि
णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि ।।३१६।।

छे; अने त्यां सुधी ज परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास करवाथी कर्ता छे. अने ज्यारे आ ज आत्मा, (पोतानां अने परनां जुदां जुदां) निश्चित स्वलक्षणोना ज्ञानने (भेदज्ञानने) लीधे, प्रकृतिना स्वभावनेके जे पोताने बंधनुं निमित्त छे तेनेछोडे छे, त्यारे स्वपरना विभागज्ञानथी (भेदज्ञानथी) ज्ञायक छे, स्वपरना विभागदर्शनथी (भेददर्शनथी) दर्शक छे अने स्वपरनी विभागपरिणतिथी (भेदपरिणतिथी) संयत छे; अने त्यारे ज परना अने पोताना एकत्वनो अध्यास नहि करवाथी अकर्ता छे.

भावार्थःज्यां सुधी आ आत्मा पोताना अने परना स्वलक्षणने जाणतो नथी त्यां सुधी ते भेदज्ञानना अभावने लीधे कर्मप्रकृतिना उदयने पोतानो समजी परिणमे छे; ए रीते मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी, असंयमी थईने, कर्ता थईने, कर्मनो बंध करे छे. अने ज्यारे आत्माने भेदज्ञान थाय छे त्यारे ते कर्ता थतो नथी, तेथी कर्मनो बंध करतो नथी, ज्ञाताद्रष्टापणे परिणमे छे.

‘एवी ज रीते भोक्तापणुं पण आत्मानो स्वभाव नथी’ एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[कर्तृत्ववत्] कर्तापणानी जेम [भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः स्मृतः न] भोक्तापणुं पण आ चैतन्यनो (चित्स्वरूप आत्मानो) स्वभाव कह्यो नथी. [अज्ञानात् एव अयं भोक्ता] अज्ञानथी ज ते भोक्ता छे, [तद्-अभावात् अवेदकः] अज्ञाननो अभाव थतां अभोक्ता छे. १९६.

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः

अज्ञानी वेदे कर्मफळ प्रकृतिस्वभावे स्थित रही,
ने ज्ञानी तो जाणे उदयगत कर्मफळ, वेदे नहीं. ३१६.

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अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते
ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति उदितं न वेदयते ।।३१६।।

अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसद्भावात् स्वपरयोर्विभागज्ञानेन, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन, स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतया अनुभवन् कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव, न पुनः तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद्वेदयते

गाथार्थः[अज्ञानी] अज्ञानी [प्रकृतिस्वभावस्थितः तु] प्रकृतिना स्वभावमां स्थित रह्यो थको [कर्मफलं] कर्मफळने [वेदयते] वेदे (भोगवे) छे [पुनः ज्ञानी] अने ज्ञानी तो [उदितं कर्मफलं] उदित (उदयमां आवेला) कर्मफळने [जानाति] जाणे छे, [न वेदयते] वेदतो नथी.

टीकाःअज्ञानी शुद्ध आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे स्वपरना एकत्वज्ञानथी, स्वपरना एकत्वदर्शनथी अने स्वपरनी एकत्वपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावमां स्थित होवाथी प्रकृतिना स्वभावने पण ‘हुं’पणे अनुभवतो थको (अर्थात् प्रकृतिना स्वभावने पण ‘आ हुं छुं’ एम अनुभवतो थको) कर्मफळने वेदे छेभोगवे छे; अने ज्ञानी तो शुद्ध आत्माना ज्ञानना सद्भावने लीधे स्वपरना विभागज्ञानथी, स्वपरना विभागदर्शनथी अने स्वपरनी विभागपरिणतिथी प्रकृतिना स्वभावथी निवर्तेलो (खसी गयेलो, छूटी गयेलो) होवाथी शुद्ध आत्माना स्वभावने एकने ज ‘हुं’पणे अनुभवतो थको उदित कर्मफळने, तेना ज्ञेयमात्रपणाने लीधे, जाणे ज छे, परंतु तेनुं ‘हुं’पणे अनुभवावुं अशक्य होवाथी, (तेने) वेदतो नथी.

भावार्थःअज्ञानीने तो शुद्ध आत्मानुं ज्ञान नथी तेथी जे कर्म उदयमां आवे तेने ज ते पोतारूप जाणीने भोगवे छे; अने ज्ञानीने शुद्ध आत्मानो अनुभव थई गयो छे तेथी ते प्रकृतिना उदयने पोतानो स्वभाव नहि जाणतो थको तेनो ज्ञाता ज रहे छे, भोक्ता थतो नथी.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः


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(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको
ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः
इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां
शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता
।।१९७।।
अज्ञानी वेदक एवेति नियम्यते
ण मुयदि पयडिमभव्वो सुट्ठु वि अज्झाइदूण सत्थाणि
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति ।।३१७।।
न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठ्वपि अधीत्य शास्त्राणि
गुडदुग्धमपि पिबन्तो न पन्नगा निर्विषा भवन्ति ।।३१७।।

यथात्र विषधरो विषभावं स्वयमेव न मुञ्चति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच्च न

श्लोकार्थः[अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-निरतः नित्यं वेदकः भवेत्] अज्ञानी प्रकृति- स्वभावमां लीनरक्त होवाथी (तेने ज पोतानो स्वभाव जाणतो होवाथी) सदा वेदक छे, [तु] अने [ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो] ज्ञानी तो प्रकृतिस्वभावथी विराम पामेलोविरक्त होवाथी (तेने परनो स्वभाव जाणतो होवाथी) कदापि वेदक नथी. [इति एवं नियमं निरूप्य] आवो नियम बराबर विचारीनेनक्की करीने [निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम् ] निपुण पुरुषो अज्ञानीपणाने छोडो अने [शुद्ध-एक-आत्ममये महसि] शुद्ध-एक- आत्मामय तेजमां [अचलितैः] निश्चळ थईने [ज्ञानिता आसेव्यताम्] ज्ञानीपणाने सेवो. १९७.

हवे, ‘अज्ञानी वेदक ज छे’ एवो नियम करवामां आवे छे (अर्थात् ‘अज्ञानी भोक्ता ज छे’ एवो नियम छेएम कहे छे)ः

सुरीते भणीने शास्त्र पण प्रकृति अभव्य नहीं तजे,
साकरसहित क्षीरपानथी पण सर्प नहि निर्विष बने. ३१७.

गाथार्थः[सुष्ठु] सारी रीते [शास्त्राणि] शास्त्रो [अधीत्य अपि] भणीने पण [अभव्यः] अभव्य [प्रकृतिम् ] प्रकृतिने (अर्थात् प्रकृतिना स्वभावने) [न मुञ्चति] छोडतो नथी, [गुडदुग्धम्] जेम साकरवाळुं दूध [पिबन्तः अपि] पीतां छतां [पन्नगाः] सर्पो [निर्विषाः] निर्विष [न भवन्ति] थता नथी.

टीकाःजेम आ जगतमां सर्प विषभावने पोतानी मेळे छोडतो नथी अने विषभाव


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मुञ्चति; तथा किलाभव्यः प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव न मुञ्चति, प्रकृतिस्वभावमोचन- समर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाच्च न मुञ्चति, नित्यमेव भावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात् अतो नियम्यतेऽज्ञानी प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वाद्वेदक एव

ज्ञानी त्ववेदक एवेति नियम्यते
णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि
महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ ।।३१८।।
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति
मधुरं कटुकं बहुविधमवेदकस्तेन स भवति ।।३१८।।

छोडाववाने (मटाडवाने) समर्थ एवा साकरसहित दूधना पानथी पण छोडतो नथी, तेम खरेखर अभव्य प्रकृतिस्वभावने पोतानी मेळे छोडतो नथी अने प्रकृतिस्वभाव छोडाववाने समर्थ एवा द्रव्यश्रुतना ज्ञानथी पण छोडतो नथी; कारण के तेने सदाय, भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानना (शुद्ध आत्माना ज्ञानना) अभावने लीधे, अज्ञानीपणुं छे. आथी एवो नियम करवामां आवे छे (अर्थात् एवो नियम ठरे छे) के अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमां स्थित होवाथी वेदक ज छे (कर्मनो भोक्ता ज छे).

भावार्थःआ गाथामां, अज्ञानी कर्मना फळनो भोक्ता ज छेएवो नियम कह्यो. अहीं अभव्यनुं उदाहरण युक्त छे. अभव्यनो एवो स्वयमेव स्वभाव छे के द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान आदि बाह्य कारणो मळवा छतां अभव्य जीव, शुद्ध आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे, कर्मना उदयने भोगववानो स्वभाव बदलतो नथी; माटे आ उदाहरणथी स्पष्ट थाय छे के शास्त्रोनुं ज्ञान वगेरे होवा छतां ज्यां सुधी जीवने शुद्ध आत्मानुं ज्ञान नथी अर्थात् अज्ञानीपणुं छे त्यां सुधी ते नियमथी भोक्ता ज छे.

हवे ज्ञानी तो कर्मफळनो अवेदक ज छेएवो नियम करवामां आवे छेः

निर्वेदने पामेल ज्ञानी कर्मफळने जाणतो,
कडवा मधुर बहुविधने, तेथी अवेदक छे अहो! ३१८.

गाथार्थः[निर्वेदसमापन्नः] निर्वेदप्राप्त (वैराग्यने पामेलो) [ज्ञानी] ज्ञानी [मधुरम् कटुकम्] मीठा-कडवा [बहुविधम्] बहुविध [कर्मफलम्] कर्मफळने [विजानाति] जाणे छे [तेन] तेथी [सः] ते [अवेदकः भवति] अवेदक छे.

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ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानसद्भावेन परतोऽत्यन्तविरक्तत्वात् प्रकृति- स्वभावं स्वयमेव मुञ्चति, ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्तत्वादवेदक एव

(वसन्ततिलका)
ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम्
जानन्परं करणवेदनयोरभावा-
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव
।।१९८।।

टीकाःज्ञानी तो जेमांथी भेद दूर थया छे एवुं भावश्रुतज्ञान जेनुं स्वरूप छे एवा शुद्धात्मज्ञानना (शुद्ध आत्माना ज्ञानना) सद्भावने लीधे, परथी अत्यंत विरक्त होवाथी प्रकृतिस्वभावने (कर्मना उदयना स्वभावने) स्वयमेव छोडे छे तेथी उदयमां आवेला अमधुर के मधुर कर्मफळने ज्ञातापणाने लीधे केवळ जाणे ज छे, परंतु ज्ञान होतां (ज्ञान होय त्यारे) परद्रव्यने ‘हुं’पणे अनुभववानी अयोग्यता होवाथी (ते कर्मफळने) वेदतो नथी. माटे, ज्ञानी प्रकृतिस्वभावथी विरक्त होवाथी अवेदक ज छे.

भावार्थःजे जेनाथी विरक्त होय ते तेने स्ववशे तो भोगवे नहि, अने परवशे भोगवे तो तेने परमार्थे भोक्ता कहेवाय नहि. आ न्याये ज्ञानीके जे प्रकृतिस्वभावने (कर्मना उदयने) पोतानो नहि जाणतो होवाथी तेनाथी विरक्त छे तेस्वयमेव तो प्रकृतिस्वभावने भोगवतो नथी, अने उदयनी बळजोरीथी परवश थयो थको पोतानी निर्बळताथी भोगवे तो तेने परमार्थे भोक्ता कहेवाय नहि, व्यवहारथी भोक्ता कहेवाय. परंतु व्यवहारनो तो अहीं शुद्धनयना कथनमां अधिकार नथी; माटे ज्ञानी अभोक्ता ज छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते] ज्ञानी कर्मने करतो नथी तेम ज वेदतो नथी, [तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति] कर्मना स्वभावने ते केवळ जाणे ज छे. [परं जानन्] एम केवळ जाणतो थको [करण-वेदनयोः अभावात्] करणना अने वेदनना (करवाना अने भोगववाना) अभावने लीधे [शुद्ध-स्वभाव-नियतः सः हि मुक्तः एव] शुद्ध स्वभावमां निश्चळ एवो ते खरेखर मुक्त ज छे.

भावार्थःज्ञानी कर्मनो स्वाधीनपणे कर्ता-भोक्ता नथी, केवळ ज्ञाता ज छे; माटे ते केवळ शुद्धस्वभावरूप थयो थको मुक्त ज छे. कर्म उदयमां आवे पण छे, तोपण ज्ञानीने ते शुं


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ण वि कुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराइं
जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ।।३१९।।
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि
जानाति पुनः कर्मफलं बन्धं पुण्यं च पापं च ।।३१९।।

ज्ञानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमकर्तृत्वादवेदयितृत्वाच्च न कर्म करोति न वेदयते च; किन्तु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबन्धं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति

कुत एतत् ?
दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव
जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ।।३२०।।

करी शके? ज्यां सुधी निर्बळता रहे त्यां सुधी कर्म जोर चलावी ले; क्रमे क्रमे सबळता वधारीने छेवटे ते ज्ञानी कर्मनो निर्मूळ नाश करशे ज. १९८.

हवे आ ज अर्थने फरी द्रढ करे छेः

करतो नथी, नथी वेदतो ज्ञानी करम बहुविधने,
बस जाणतो ए बंध तेम ज कर्मफळ शुभ-अशुभने. ३१९.

गाथार्थः[ज्ञानी] ज्ञानी [बहुप्रकाराणि] बहु प्रकारनां [कर्माणि] कर्मोने [न अपि करोति] करतो पण नथी, [न अपि वेदयते] वेदतो (भोगवतो) पण नथी; [पुनः] परंतु [पुण्यं च पापं च] पुण्य अने पापरूप [बन्धं] कर्मबंधने [कर्मफलं] तथा कर्मफळने [जानाति] जाणे छे.

टीकाःकर्मचेतना रहित होवाने लीधे पोते अकर्ता होवाथी, अने कर्मफळचेतना रहित होवाने लीधे पोते अवेदक (अभोक्ता) होवाथी, ज्ञानी कर्मने करतो नथी तेम ज वेदतो (भोगवतो) नथी; परंतु ज्ञानचेतनामय होवाने लीधे केवळ ज्ञाता ज होवाथी, शुभ अथवा अशुभ कर्मबंधने तथा कर्मफळने केवळ जाणे ज छे.

हवे पूछे छे के(ज्ञानी करतो-भोगवतो नथी, जाणे ज छे) ए कई रीते? तेनो उत्तर द्रष्टांतपूर्वक कहे छेः

ज्यम नेत्र, तेम ज ज्ञान नथी कारक, नथी वेदक अरे!
जाणे ज कर्मोदय, निरजरा, बंध तेम ज मोक्षने. ३२०.

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द्रष्टिः यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव
जानाति च बन्धमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव ।।३२०।।

यथात्र लोके द्रष्टिर्दश्यादत्यन्तविभक्तत्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् द्रश्यं न करोति न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्सन्धुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिण्डवत्स्वयमौष्ण्यानुभवनस्य च दुर्निवारत्वात्, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्वं केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टृत्वात् कर्मणोऽत्यन्तविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च, किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबन्धं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति

गाथार्थः[यथा एव द्रष्टिः] जेम नेत्र (द्रश्य पदार्थोने करतुं-भोगवतुं नथी, देखे ज छे), [तथा] तेम [ज्ञानम्] ज्ञान [अकारकं] अकारक [अवेदकं च एव] तथा अवेदक छे, [च] अने [बन्धमोक्षं] बंध, मोक्ष, [कर्मोदयं] कर्मोदय [निर्जरां च एव] तथा निर्जराने [जानाति] जाणे ज छे.

टीकाःजेवी रीते आ जगतमां नेत्र द्रश्य पदार्थथी अत्यंत भिन्नपणाने लीधे तेने करवा-वेदवाने असमर्थ होवाथी, दश्य पदार्थने करतुं नथी अने वेदतुं नथीजो एम न होय तो अग्निने देखवाथी, *संधुक्षणनी माफक, पोताने (नेत्रने) अग्निनुं करवापणुं (सळगाववापणुं), अने लोखंडना गोळानी माफक पोताने (नेत्रने) अग्निनो अनुभव दुर्निवार थाय (अर्थात् जो नेत्र द्रश्य पदार्थने करतुं - वेदतुं होय तो तो नेत्र वडे अग्नि सळगवी जोईए अने नेत्रने अग्निनी उष्णतानो अनुभव अवश्य थवो जोईए; परंतु एम तो थतुं नथी, माटे नेत्र द्रश्य पदार्थने करतुं-वेदतुं नथी)परंतु केवळ दर्शनमात्रस्वभाववाळुं होवाथी ते सर्वने केवळ देखे ज छे; तेवी रीते ज्ञान पण, पोते (नेत्रनी माफक) देखनार होवाथी, कर्मथी अत्यंत भिन्नपणाने लीधे निश्चयथी तेने करवा-वेदवाने असमर्थ होवाथी, कर्मने करतुं नथी अने वेदतुं नथी, परंतु केवळ ज्ञानमात्रस्वभाववाळुं (जाणवाना स्वभाववाळुं ) होवाथी कर्मना बंधने तथा मोक्षने, कर्मना उदयने तथा निर्जराने केवळ जाणे ज छे.

भावार्थःज्ञाननो स्वभाव नेत्रनी जेम दूरथी जाणवानो छे; माटे करवुं - भोगववुं ज्ञानने नथी. करवा-भोगववापणुं मानवुं ते अज्ञान छे. अहीं कोई पूछे के‘‘एवुं तो केवळज्ञान छे. बाकी ज्यां सुधी मोहकर्मनो उदय छे त्यां सुधी तो सुखदुःखरागादिरूपे परिणमन थाय ज छे, तेम ज ज्यां सुधी दर्शनावरण, ज्ञानावरण तथा वीर्यांतरायनो उदय

* संधुक्षण = संधूकण; अग्नि सळगावनार पदार्थ; अग्नि चेतावनारी वस्तु.


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(अनुष्टुभ्)
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् ।।१९९।।

छे त्यां सुधी अदर्शन, अज्ञान तथा असमर्थपणुं होय ज छे; तो पछी केवळज्ञान थया पहेलां ज्ञाताद्रष्टापणुं केम कहेवाय?’’ तेनुं समाधानःपहेलेथी कहेता ज आवीए छीए के जे स्वतंत्रपणे करे-भोगवे, तेने परमार्थे कर्ता-भोक्ता कहेवाय छे. माटे ज्यां मिथ्याद्रष्टिरूप अज्ञाननो अभाव थयो त्यां परद्रव्यना स्वामीपणानो अभाव थयो अने त्यारे जीव ज्ञानी थयो थको स्वतंत्रपणे तो कोईनो कर्ता-भोक्ता थतो नथी, तथा पोतानी नबळाईथी कर्मना उदयनी बळजोरीथी जे कार्य थाय छे तेनो कर्ता-भोक्ता परमार्थद्रष्टिए तेने कहेवातो नथी. वळी ते कार्यना निमित्ते कांईक नवीन कर्मरज लागे पण छे तोपण तेने अहीं बंधमां गणवामां आवती नथी. मिथ्यात्व छे ते ज संसार छे. मिथ्यात्व गया पछी संसारनो अभाव ज थाय छे. समुद्रमां बिंदुनी शी गणतरी?

वळी एटलुं विशेष जाणवुं केकेवळज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ज छे अने श्रुतज्ञानी पण शुद्धनयना अवलंबनथी आत्माने एवो ज अनुभवे छे; प्रत्यक्ष - परोक्षनो ज भेद छे. माटे श्रुतज्ञानीने ज्ञान-श्रद्धाननी अपेक्षाए तो ज्ञाताद्रष्टापणुं ज छे अने चारित्रनी अपेक्षाए प्रतिपक्षी कर्मनो जेटलो उदय छे तेटलो घात छे तथा तेने नाश करवानो उद्यम पण छे. ज्यारे ते कर्मनो अभाव थशे त्यारे साक्षात् यथाख्यात चारित्र थशे अने त्यारे केवळज्ञान थशे. अहीं सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कहेवामां आवे छे ते मिथ्यात्वना अभावनी अपेक्षाए कहेवामां आवे छे. ज्ञानसामान्यनी अपेक्षा लईए तो तो सर्व जीव ज्ञानी छे अने विशेष अपेक्षा लईए तो ज्यां सुधी किंचित्मात्र पण अज्ञान रहे त्यां सुधी ज्ञानी कही शकाय नहिजेम सिद्धांतमां भावोनुं वर्णन करतां, ज्यां सुधी केवळज्ञान न ऊपजे त्यां सुधी अर्थात् बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञानभाव कह्यो छे. माटे अहीं जे ज्ञानी-अज्ञानीपणुं कह्युं ते सम्यक्त्व-मिथ्यात्वनी अपेक्षाए ज जाणवुं.

हवे, जेओजैनना साधुओ पणसर्वथा एकांतना आशयथी आत्माने कर्ता ज माने छे तेमने निषेधतो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति] जेओ अज्ञान-अंधकारथी आच्छादित थया थका आत्माने कर्ता माने छे, [मुमुक्षताम् अपि] तेओ भले मोक्षने इच्छनारा होय तोपण [सामान्यजनवत्] सामान्य (लौकिक) जनोनी माफक [तेषां मोक्षः न] तेमनो पण मोक्ष थतो नथी. १९९.