Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 321-344 ; Kalash: 200-206.

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लोयस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते
समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ ।।३२१।।
लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं जइ ण दीसदि विसेसो
लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणदि ।।३२२।।
एवं ण को वि मोक्खो दीसदि लोयसमणाण दोण्हं पि
णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोए ।।३२३।।
लोकस्य करोति विष्णुः सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सत्त्वान्
श्रमणानामपि चात्मा यदि करोति षडिवधान् कायान् ।।३२१।।
लोकश्रमणानामेकः सिद्धान्तो यदि न द्रश्यते विशेषः
लोकस्य करोति विष्णुः श्रमणानामप्यात्मा करोति ।।३२२।।
एवं न कोऽपि मोक्षो द्रश्यते लोकश्रमणानां द्वयेषामपि
नित्यं कुर्वतां सदेवमनुजासुरान् लोकान् ।।३२३।।
हवे आ ज अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः
ज्यम लोक माने ‘देव, नारक आदि जीव विष्णु करे’,
त्यम श्रमण पण माने कदी ‘आत्मा करे षट् कायने’, ३२१.
तो लोक-मुनि सिद्धांत एक ज, भेद तेमां नव दीसे,
विष्णु करे ज्यम लोकमतमां, श्रमणमत आत्मा करे; ३२२.
ए रीत लोक-मुनि उभयनो मोक्ष कोई नहीं दीसे,
जे देव, मनुज, असुरना त्रण लोकने नित्ये करे. ३२३.

गाथार्थः[लोकस्य] लोकना (लौकिक जनोना) मतमां [सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सत्त्वान्] देव, नारक, तिर्यंच, मनुष्यप्राणीओने [विष्णुः] विष्णु [करोति] करे छे; [च] अने [यदि] जो [श्रमणानाम् अपि] श्रमणोना (मुनिओना) मन्तव्यमां पण [षडिवधान् कायान्] छ कायना जीवोने [आत्मा] आत्मा [करोति] करतो होय [यदि लोकश्रमणानाम्] तो लोक अने श्रमणोनो [एकः सिद्धान्तः] एक सिद्धांत थाय छे, [विशेषः] कांई फेर [न द्रश्यते] देखातो नथी; (कारण के) [लोकस्य]


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ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात् ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात् लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्षः

(अनुष्टुभ्)
नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः
कर्तृकर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कुतः ।।२००।।

लोकना मतमां [विष्णुः] विष्णु [करोति] करे छे अने [श्रमणानाम् अपि] श्रमणोना मतमां पण [आत्मा] आत्मा [करोति] करे छे (तेथी कर्तापणानी मान्यतामां बन्ने समान थया). [एवं] रीते, [सदेवमनुजासुरान् लोकान्] देव, मनुष्य अने असुरवाळा त्रणे लोकने [नित्यं कुर्वतां] सदाय करता (अर्थात् त्रणे लोकना कर्ताभावे निरंतर प्रवर्तता) एवा [लोकश्रमणानां द्वयेषाम् अपि] ते लोक तेम ज श्रमणबन्नेनो [कः अपि मोक्षः] कोई मोक्ष [न द्रश्यते] देखातो नथी.

टीकाःजेओ आत्माने कर्ता ज देखे छेमाने छे, तेओ लोकोत्तर होय तोपण लौकिकताने अतिक्रमता नथी; कारण के, लौकिक जनोना मतमां परमात्मा विष्णु देवनारकादि कार्यो करे छे, अने तेमना (लोकथी बाह्य थयेला एवा मुनिओना) मतमां पोतानो आत्मा ते कार्यो करे छेएम *अपसिद्धांतनी (बन्नेने) समानता छे. माटे आत्माना नित्य कर्तापणानी तेमनी मान्यताने लीधे, लौकिक जनोनी माफक, लोकोत्तर पुरुषोनो (मुनिओनो) पण मोक्ष थतो नथी.

भावार्थःजेओ आत्माने कर्ता माने छे, तेओ भले मुनि थया होय तोपण लौकिक जन जेवा ज छे; कारण के, लोक इश्वरने कर्ता माने छे अने ते मुनिओए आत्माने कर्ता मान्यो एम बन्नेनी मान्यता समान थई. माटे जेम लौकिक जनोने मोक्ष नथी, तेम ते मुनिओने पण मोक्ष नथी. जे कर्ता थशे ते कार्यना फळने भोगवशे ज, अने जे फळ भोगवशे तेने मोक्ष केवो?

हवे, ‘परद्रव्यने अने आत्माने कांई पण संबंध नथी, माटे कर्ताकर्मसंबंध पण नथी’ एम श्लोकमां कहे छेः

श्लोकार्थः[परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति] परद्रव्यने अने आत्मतत्त्वने सघळोय (अर्थात् कांई पण) संबंध नथी; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे] एम कर्ताकर्मपणाना संबंधनो अभाव होतां, [तत्कर्तृता कुतः] आत्माने परद्रव्यनुं कर्तापणुं क्यांथी होय?

भावार्थःपरद्रव्यने अने आत्माने कांई पण संबंध नथी, तो पछी तेमने कर्ताकर्म-

* अपसिद्धांत = खोटो अथवा भूलभरेलो सिद्धांत


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ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदिदत्था
जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि ।।३२४।।
जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररट्ठं
ण य होंति तस्स ताणि दु भणदि य मोहेण सो अप्पा ।।३२५।।
एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवदि एसो
जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पयं कुणदि ।।३२६।।
तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं
परदव्वे जाणंतो जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणं ।।३२७।।
व्यवहारभाषितेन तु परद्रव्यं मम भणन्त्यविदितार्थाः
जानन्ति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किञ्चित् ।।३२४।।

संबंध कई रीते होय? ए रीते ज्यां कर्ताकर्मसंबंध नथी, त्यां आत्माने परद्रव्यनुं कर्तापणुं कई रीते होई शके? २००.

हवे, ‘‘जेओ व्यवहारनयना कथनने ग्रहीने ‘परद्रव्य मारुं छे’ एम कहे छे, ए रीते व्यवहारने ज निश्चय मानी आत्माने परद्रव्यनो कर्ता माने छे, तेओ मिथ्याद्रष्टि छे’’ इत्यादि अर्थनी गाथाओ द्रष्टांत सहित कहे छेः

व्यवहारमूढ अतत्त्वविद् परद्रव्यने ‘मारुं’ कहे,
‘परमाणुमात्र न मारुं’ ज्ञानी जाणता निश्चय वडे. ३२४.
ज्यम पुरुष कोई कहे ‘अमारुं गाम, पुर ने देश छे’,
पण ते नथी तेनां, अरे! जीव मोहथी ‘मारां’ कहे; ३२५.
एवी ज रीत जे ज्ञानी पण ‘मुज’ जाणतो परद्रव्यने,
निजरूप करे परद्रव्यने, ते जरूर मिथ्यात्वी बने. ३२६.
तेथी ‘न मारुं’ जाणी जीव, परद्रव्यमां आ उभयनी
कर्तृत्वबुद्धि जाणतो, जाणे सुद्रष्टिरहितनी. ३२७.

गाथार्थः[अविदितार्थाः] जेमणे पदार्थनुं स्वरूप जाण्युं नथी एवा पुरुषो


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यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम्
न च भवन्ति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा ।।३२५।।
एवमेव मिथ्याद्रष्टिर्ज्ञानी निःसंशयं भवत्येषः
यः परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति ।।३२६।।
तस्मान्न मे इति ज्ञात्वा द्वयेषामप्येतेषां कर्तृव्यवसायम्
परद्रव्ये जानन् जानीयात् द्रष्टिरहितानाम् ।।३२७।।

अज्ञानिन एव व्यवहारविमूढाः परद्रव्यं ममेदमिति पश्यन्ति ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रतिबुद्धाः परद्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यन्ति ततो यथात्र लोके कश्चिद् व्यवहारविमूढः परकीयग्रामवासी ममायं ग्राम इति पश्यन् मिथ्याद्रष्टिः, तथा यदि ज्ञान्यपि कथञ्चिद् [व्यवहारभाषितेन तु] व्यवहारनां वचनोने ग्रहीने [परद्रव्यं मम] ‘परद्रव्य मारुं छे’ [भणन्ति] एम कहे छे, [तु] परंतु ज्ञानीओ [निश्चयेन जानन्ति] निश्चय वडे जाणे छे के ‘[किञ्चित्] कोई [परमाणुमात्रम् अपि] परमाणुमात्र पण [न च मम] मारुं नथी’.

[यथा] जेवी रीते [कः अपि नरः] कोई पुरुष [अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम्] ‘अमारुं गाम, अमारो देश, अमारुं नगर, अमारुं राष्ट्र’ [जल्पति] एम कहे छे, [तु] परंतु [तानि] ते [तस्य] तेनां [न च भवन्ति] नथी, [मोहेन च] मोहथी [सः आत्मा] ते आत्मा [भणति] ‘मारां’ कहे छे; [एवम् एव] तेवी ज रीते [यः ज्ञानी] जे ज्ञानी पण [परद्रव्यं मम] ‘परद्रव्य मारुं छे’ [इति जानन् ] एम जाणतो थको [आत्मानं करोति] परद्रव्यने पोतारूप करे छे, [एषः] ते [निःसंशयं] निःसंदेह अर्थात् चोक्कस [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि [भवति] थाय छे.

[तस्मात्] माटे तत्त्वज्ञो [न मे इति ज्ञात्वा] ‘परद्रव्य मारुं नथी’ एम जाणीने, [एतेषां द्वयेषाम् अपि] आ बन्नेनो (लोकनो अने श्रमणनो) [परद्रव्ये] परद्रव्यमां [कर्तृव्यवसायं जानन्] कर्तापणानो व्यवसाय जाणता थका, [जानीयात्] एम जाणे छे के [द्रष्टिरहितानाम्] आ व्यवसाय सम्यग्दर्शन रहित पुरुषोनो छे.

टीकाःअज्ञानीओ ज व्यवहारविमूढ (व्यवहारमां ज विमूढ) होवाथी परद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम देखे छेमाने छे; ज्ञानीओ तो निश्चयप्रतिबुद्ध (निश्चयना जाणनारा) होवाथी परद्रव्यनी कणिकामात्रने पण ‘आ मारुं छे’ एम देखता नथी. तेथी, जेम आ जगतमां कोई व्यवहारविमूढ एवो पारका गाममां रहेनारो माणस ‘आ गाम मारुं छे’ एम देखतोमानतो थको मिथ्याद्रष्टि (खोटी द्रष्टिवाळो) छे, तेम जो ज्ञानी पण कोई पण प्रकारे

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व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिथ्याद्रष्टिरेव स्यात् अतस्तत्त्वं जानन् पुरुषः सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा लोकश्रमणानां द्वयेषामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसायः स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात्

(वसन्ततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः
तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम्
।।२०१।।

व्यवहारविमूढ थईने परद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम देखे तो ते वखते ते पण निःसंशयपणे अर्थात् चोक्कस, परद्रव्यने पोतारूप करतो थको, मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे. माटे तत्त्वने जाणनारो पुरुष ‘सघळुंय परद्रव्य मारुं नथी’ एम जाणीने, ‘लोक अने श्रमणबन्नेने जे आ परद्रव्यमां कर्तृत्वनो व्यवसाय छे ते तेमना सम्यग्दर्शनरहितपणाने लीधे ज छे’ एम सुनिश्चितपणे जाणे छे.

भावार्थःजे व्यवहारथी मोही थईने परद्रव्यनुं कर्तापणुं माने छे तेलौकिक जन हो के मुनिजन होमिथ्याद्रष्टि ज छे. ज्ञानी पण जो व्यवहारमूढ थईने परद्रव्यने ‘मारुं’ माने तो मिथ्याद्रष्टि ज थाय छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[यतः] कारण के [इह] आ लोकमां [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः] एक वस्तुनो अन्य वस्तुनी साथे सघळोय संबंध ज निषेधवामां आव्यो छे, [तत्] तेथी [वस्तुभेदे] ज्यां वस्तुभेद छे अर्थात् भिन्न वस्तुओ छे त्यां [कर्तृकर्मघटना अस्ति न] कर्ताकर्मघटना होती नथी[मुनयः च जनाः च] एम मुनिजनो अने लौकिक जनो [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु] तत्त्वने (वस्तुना यथार्थ स्वरूपने) अकर्ता देखो (कोई कोईनुं कर्ता नथी, परद्रव्य परनुं अकर्ता ज छेएम श्रद्धामां लावो). २०१.

‘‘जे पुरुषो आवो वस्तुस्वभावनो नियम जाणता नथी तेओ अज्ञानी थया थका कर्मने करे छे; ए रीते भावकर्मनो कर्ता अज्ञानथी चेतन ज थाय छे.’’आवा अर्थनुं, आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः


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(वसन्ततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेम-
मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म-
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः
।।२०२।।
मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं
तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्तो ।।३२८।।
अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो ।।३२९।।

श्लोकार्थः(आचार्यदेव खेदपूर्वक कहे छे केः) [बत] अरेरे! [ये तु इमम् स्वभाव- नियमं न कलयन्ति] जेओ आ वस्तुस्वभावना नियमने जाणता नथी [ते वराकाः] तेओ बिचारा, [अज्ञानमग्नमहसः] जेमनुं (पुरुषार्थरूपपराक्रमरूप) तेज अज्ञानमां डूबी गयुं छे एवा, [कर्म कुर्वन्ति] कर्मने करे छे; [ततः एव हि] तेथी [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति] भावकर्मनो कर्ता चेतन ज पोते थाय छे, [अन्यः न] अन्य कोई नहि.

भावार्थःवस्तुना स्वरूपना नियमने नहि जाणतो होवाथी परद्रव्यनो कर्ता थतो अज्ञानी (मिथ्याद्रष्टि) जीव पोते ज अज्ञानभावे परिणमे छे; ए रीते पोताना भावकर्मनो कर्ता अज्ञानी पोते ज छे, अन्य नथी. २०२.

हवे, ‘(जीवने) जे मिथ्यात्वभाव थाय छे तेनो कर्ता कोण छे?’ए वातने बराबर चर्चीने, ‘भावकर्मनो कर्ता (अज्ञानी) जीव ज छे’ एम युक्तिथी सिद्ध करे छेः

जो प्रकृति मिथ्यात्वनी मिथ्यात्वी करती आत्मने,
तो तो अचेतन प्रकृति कारक बने तुज मत विषे! ३२८.
अथवा करे जो जीव पुद्गलद्रव्यना मिथ्यात्वने,
तो तो ठरे मिथ्यात्वी पुद्गलद्रव्य, आत्मा नव ठरे! ३२९.

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अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं
तम्हा दोहिं कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं ।।३३०।।
अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा ।।३३१।।
मिथ्यात्वं यदि प्रकृतिर्मिथ्याद्रष्टिं करोत्यात्मानम्
तस्मादचेतना ते प्रकृतिर्ननु कारका प्राप्ता ।।३२८।।
अथवैष जीवः पुद्गलद्रव्यस्य करोति मिथ्यात्वम्
तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्याद्रष्टिर्न पुनर्जीवः ।।३२९।।
अथ जीवः प्रकृतिस्तथा पुद्गलद्रव्यं कुरुतः मिथ्यात्वम्
तस्मात् द्वाभ्यां कृतं तत् द्वावपि भुञ्जाते तस्य फलम् ।।३३०।।
अथ न प्रकृतिर्न जीवः पुद्गलद्रव्यं करोति मिथ्यात्वम्
तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वं तत्तु न खलु मिथ्या ।।३३१।।
जो जीव अने प्रकृति करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यने,
तो उभयकृत जे होय तेनुं फळ उभय पण भोगवे! ३३०.
जो नहि प्रकृति, नहि जीव करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यने,
पुद्गलदरव मिथ्यात्व वणकृत!ए शुं नहि मिथ्या खरे? ३३१.

गाथार्थः[यदि] जो [मिथ्यात्वं प्रकृतिः] मिथ्यात्व नामनी (मोहनीय कर्मनी) प्रकृति [आत्मानम्] आत्माने [मिथ्याद्रष्टिं] मिथ्याद्रष्टि [करोति] करे छे एम मानवामां आवे, [तस्मात्] तो [ते] तारा मतमां [अचेतना प्रकृतिः] अचेतन प्रकृति [ननु कारका प्राप्ता] (मिथ्यात्वभावनी) कर्ता बनी! (तेथी मिथ्यात्वभाव अचेतन ठर्यो!)

[अथवा] अथवा, [एषः जीवः] आ जीव [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यना [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्वने [करोति] करे छे एम मानवामां आवे, [तस्मात्] तो [पुद्गलद्रव्यं मिथ्याद्रष्टिः] पुद्गल- द्रव्य मिथ्याद्रष्टि ठरे![न पुनः जीवः] जीव नहि!

[अथ] अथवा जो [जीवः तथा प्रकृतिः] जीव तेम ज प्रकृति बन्ने [पुद्गलद्रव्यं]


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जीव एव मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता, तस्याचेतनप्रकृतिकार्यत्वेऽचेतनत्वानुषङ्गात् स्वस्यैव जीवो मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता, जीवेन पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावकर्मणि क्रियमाणे पुद्गलद्रव्यस्य चेतनानुषङ्गात् न च जीवः प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौ कर्तारौ, जीववद- चेतनायाः प्रकृतेरपि तत्फलभोगानुषङ्गात् न च जीवः प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वावप्यकर्तारौ, स्वभावत एव पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावानुषङ्गात् ततो जीवः कर्ता, स्वस्य कर्म कार्यमिति सिद्धम्


पुद्गलद्रव्यने [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्वभावरूप [कुरुतः] करे छे एम मानवामां आवे, [तस्मात्] तो [द्वाभ्यां कृतं तत्] जे बन्ने वडे करवामां आव्युं [तस्य फलम्] तेनुं फळ [द्वौ अपि भुञ्जाते] बन्ने भोगवे!

[अथ] अथवा जो [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्यने [मिथ्यात्वम्] मिथ्यात्वभावरूप [न प्रकृतिः करोति] नथी प्रकृति करती [न जीवः] के नथी जीव करतो (बेमांथी कोई करतुं नथी) एम मानवामां आवे, [तस्मात्] तो [पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वम्] पुद्गलद्रव्य स्वभावे ज मिथ्यात्वभावरूप ठरे! [तत् तु न खलु मिथ्या] ते शुं खरेखर मिथ्या नथी?

(आथी एम सिद्ध थाय छे के पोताना मिथ्यात्वभावनोभावकर्मनोकर्ता जीव ज छे.)

टीकाःजीव ज मिथ्यात्व आदि भावकर्मनो कर्ता छे; कारण के जो ते (भावकर्म) अचेतन प्रकृतिनुं कार्य होय तो तेने (भावकर्मने) अचेतनपणानो प्रसंग आवे. जीव पोताना ज मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता छे; कारण के जो जीव पुद्गलद्रव्यना मिथ्यात्वादि भावकर्मने करे तो पुद्गलद्रव्यने चेतनपणानो प्रसंग आवे. वळी जीव अने प्रकृति बन्ने मिथ्यात्वादि भावकर्मना कर्ता छे एम पण नथी; कारण के जो ते बन्ने कर्ता होय तो जीवनी माफक अचेतन प्रकृतिने पण तेनुं (भावकर्मनुं) फळ भोगववानो प्रसंग आवे. वळी जीव अने प्रकृति बन्ने मिथ्यात्वादि भावकर्मना अकर्ता छे एम पण नथी; कारण के जो ते बन्ने अकर्ता होय तो स्वभावथी ज पुद्गलद्रव्यने मिथ्यात्वादि भावनो प्रसंग आवे. माटे एम सिद्ध थयुं केजीव कर्ता छे अने पोतानुं कर्म कार्य छे (अर्थात् जीव पोताना मिथ्यात्वादि भावकर्मनो कर्ता छे अने पोतानुं भावकर्म पोतानुं कार्य छे).

भावार्थःभावकर्मनो कर्ता जीव ज छे एम आ गाथाओमां सिद्ध कर्युं छे. अहीं एम जाणवुं केपरमार्थे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यना भावनुं कर्ता होय नहि तेथी जे चेतनना भावो छे तेमनो कर्ता चेतन ज होय. आ जीवने अज्ञानथी जे मिथ्यात्वादि भावरूप परिणामो छे ते चेतन छे, जड नथी; अशुद्धनिश्चयनयथी तेमने चिदाभास पण कहेवामां आवे छे. ए


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(शार्दूलविक्रीडित)
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयो-
रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषङ्गात्कृतिः
नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः
।।२०३।।

रीते ते परिणामो चेतन होवाथी, तेमनो कर्ता पण चेतन ज छे; कारण के चेतनकर्मनो कर्ता चेतन ज होयए परमार्थ छे. अभेदद्रष्टिमां तो जीव शुद्धचेतनामात्र ज छे, परंतु ज्यारे ते कर्मना निमित्ते परिणमे छे त्यारे ते ते परिणामोथी युक्त ते थाय छे अने त्यारे परिणाम- परिणामीनी भेदद्रष्टिमां पोताना अज्ञानभावरूप परिणामोनो कर्ता जीव ज छे. अभेदद्रष्टिमां तो कर्ताकर्मभाव ज नथी, शुद्धचेतनामात्र जीववस्तु छे. आ प्रमाणे यथार्थ प्रकारे समजवुं के चेतनकर्मनो कर्ता चेतन ज छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[कर्म कार्यत्वात् अकृतं न] कर्म (अर्थात् भावकर्म) छे ते कार्य छे, माटे ते अकृत होय नहि अर्थात् कोईए कर्या विना थाय नहि. [च] वळी [तत् जीव-प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न] ते (भावकर्म) जीव अने प्रकृति बन्नेनी कृति होय एम नथी, [अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फल-भुग्-भाव-अनुषङ्गात्] कारण के जो ते बन्नेनुं कार्य होय तो ज्ञानरहित (जड) एवी प्रकृतिने पण पोताना कार्यनुं फळ भोगववानो प्रसंग आवे. [एकस्याः प्रकृतेः न] वळी ते (भावकर्म) एक प्रकृतिनी कृति (एकली प्रकृतिनुं कार्य) पण नथी, [अचित्त्वलसनात्] कारण के प्रकृतिने तो अचेतनपणुं प्रकाशे छे (अर्थात् प्रकृति तो अचेतन छे अने भावकर्म चेतन छे). [ततः] माटे [अस्य कर्ता जीवः] ते भावकर्मनो कर्ता जीव ज छे [च] अने [चिद्-अनुगं] चेतनने अनुसरनारुं अर्थात् चेतन साथे अन्वयरूप (चेतनना परिणामरूप) एवुं [तत्] ते भावकर्म [जीवस्य एव कर्म] जीवनुं ज कर्म छे, [यत्] कारण के [पुद्गलः ज्ञाता न] पुद्गल तो ज्ञाता नथी (तेथी ते भावकर्म पुद्गलनुं कर्म होई शके नहि).

भावार्थःचेतनकर्म चेतनने ज होय; पुद्गल जड छे, तेने चेतनकर्म केम होय? २०३.

हवेनी गाथाओमां जेओ भावकर्मनो कर्ता पण कर्मने ज माने छे तेमने समजाववाने स्याद्वाद अनुसार वस्तुस्थिति कहेशे; तेनी सूचनारूप काव्य प्रथम कहे छेः


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(शार्दूलविक्रीडित)
कर्मैव प्रवितर्क्य ट्रकर्तृ हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां
कर्तात्मैष कथञ्चिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता
तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये
स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते
।।२०४।।
कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं
कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं ।।३३२।।

श्लोकार्थः[कैश्चित् हतकैः] कोई आत्माना घातक (सर्वथा एकांतवादीओ) [कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य] कर्मने ज कर्ता विचारीने [आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा] आत्माना कर्तापणाने उडाडीने, ‘[एषः आत्मा कथञ्चित् क र्ता] आ आत्मा कथंचित् कर्ता छे’ [इति अचलिता श्रुतिः कोपिता] एम कहेनारी अचलित श्रुतिने कोपित करे छे (निर्बाध जिनवाणीनी विराधना करे छे); [उद्धत-मोह-मुद्रित-धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये] तीव्र मोहथी जेमनी बुद्धि बिडाई गई छे एवा ते आत्मघातकोना ज्ञाननी संशुद्धि अर्थे [वस्तुस्थितिः स्तूयते] (नीचेनी गाथाओमां) वस्तुस्थिति कहेवामां आवे छे[स्याद्वाद-प्रतिबन्ध-लब्ध-विजया] के जे वस्तुस्थितिए स्याद्वादना प्रतिबंध वडे विजय मेळव्यो छे (अर्थात् जे वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियमथी निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे).

भावार्थःकोई एकांतवादीओ सर्वथा एकांतथी कर्मनो कर्ता कर्मने ज कहे छे अने आत्माने अकर्ता ज कहे छे; तेओ आत्माना घातक छे. तेमना पर जिनवाणीनो कोप छे, कारण के स्याद्वादथी वस्तुस्थितिने निर्बाध रीते सिद्ध करनारी जिनवाणी तो आत्माने कथंचित् कर्ता कहे छे. आत्माने अकर्ता ज कहेनारा एकान्तवादीओनी बुद्धि उत्कट मिथ्यात्वथी बिडाई गयेली छे; तेमना मिथ्यात्वने दूर करवाने आचार्यभगवान स्याद्वाद अनुसार जेवी वस्तुस्थिति छे तेवी, नीचेनी गाथाओमां कहे छे. २०४.

‘आत्मा सर्वथा अकर्ता नथी, कथंचित् कर्ता पण छे’ एवा अर्थनी गाथाओ हवे कहे छेः

‘‘कर्मो करे अज्ञानी तेम ज ज्ञानी पण कर्मो करे,
कर्मो सुवाडे तेम वळी कर्मो जगाडे जीवने; ३३२.

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कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं
कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि णिज्जदि असंजमं चेव ।।३३३।।
कम्मेहि भमाडिज्जदि उड्ढमहो चावि तिरियलोयं च
कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि ।।३३४।।
जम्हा कम्मं कुव्वदि कम्मं देदि हरदि त्ति जं किंचि
तम्हा उ सव्वजीवा अकारगा होंति आवण्णा ।।३३५।।
पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि
एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ।।३३६।।
तम्हा ण को वि जीवो अबंभचारी दु अम्ह उवदेसे
जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि इदि भणिदं ।।३३७।।
जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी
एदेणत्थेणं किर भण्णदि परघादणामेत्ति ।।३३८।।
कर्मो करे सुखी तेम वळी कर्मो दुखी जीवने करे,
कर्मो करे मिथ्यात्वी तेम असंयमी कर्मो करे; ३३३.
कर्मो भमावे ऊर्ध्व लोके, अधः ने तिर्यक् विषे,
जे कांई पण शुभ के अशुभ ते सर्वने कर्म ज करे. ३३४.
कर्म ज करे छे, कर्म ए आपे, हरे,सघळुं करे,
तेथी ठरे छे एम के आत्मा अकारक सर्व छे. ३३५.
वळी ‘पुरुषकर्म स्त्रीने अने स्त्रीकर्म इच्छे पुरुषने’
एवी श्रुति आचार्य केरी परंपरा ऊतरेल छे. ३३६.
ए रीत ‘कर्म ज कर्मने इच्छे’कह्युं छे श्रुतमां,
तेथी न को पण जीव अब्रह्मचारी अम उपदेशमां. ३३७.
वळी जे हणे परने, हणाये परथी, तेह प्रकृति छे,
ए अर्थमां परघात नामनुं नामकर्म कथाय छे. ३३८.

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तम्हा ण को वि जीवो वधादओ अत्थि अम्ह उवदेसे
जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं घादेदि इदि भणिदं ।।३३९।।
एवं संखुवएसं जे दु परूवेंति एरिसं समणा
तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे ।।३४०।।
अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि
एसो मिच्छसहावो तुम्हं एयं मुणंतस्स ।।३४१।।
अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि
ण वि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहिओ य कादुं जे ।।३४२।।
जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु
तत्तो सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं ।।३४३।।
अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं
तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि ।।३४४।।
ए रीत ‘कर्म ज कर्मने हणतुं’कह्युं छे श्रुतमां,
तेथी न को पण जीव छे हणनार अम उपदेशमां.’’ ३३९.
एम सांख्यनो उपदेश आवो, जे श्रमण प्ररूपण करे,
तेना मते प्रकृति करे छे, जीव अकारक सर्व छे! ३४०.
अथवा तुं माने ‘आतमा मारो करे निज आत्मने’,
तो एवुं तुज मंतव्य पण मिथ्या स्वभाव ज तुज खरे. ३४१.
जीव नित्य तेम वळी असंख्यप्रदेशी दर्शित समयमां,
तेनाथी तेने हीन तेम अधिक करवो शक्य ना. ३४२.
विस्तारथीय जीवरूप जीवनुं लोकमात्र ज छे खरे,
शुं तेथी ते हीन-अधिक बनतो? केम करतो द्रव्यने? ३४३.
माने तुं‘ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभावे स्थित रहे’,
तो एम पण आत्मा स्वयं निज आतमाने नहि करे. ३४४.
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कर्मभिस्तु अज्ञानी क्रियते ज्ञानी तथैव कर्मभिः
कर्मभिः स्वाप्यते जागर्यते तथैव कर्मभिः ।।३३२।।
कर्मभिः सुखी क्रियते दुःखी क्रियते तथैव कर्मभिः
कर्मभिश्च मिथ्यात्वं नीयते नीयतेऽसंयमं चैव ।।३३३।।
कर्मभिर्भ्राम्यते ऊर्ध्वमधश्चापि तिर्यग्लोकं च
कर्मभिश्चैव क्रियते शुभाशुभं यावद्यत्किञ्चित् ।।३३४।।
यस्मात्कर्म करोति कर्म ददाति हरतीति यत्किञ्चित्
तस्मात्तु सर्वजीवा अकारका भवन्त्यापन्नाः ।।३३५।।
पुरुषः स्त्र्यभिलाषी स्त्रीकर्म च पुरुषमभिलषति
एषाचार्यपरम्परागतेद्रशी तु श्रुतिः ।।३३६।।
तस्मान्न कोऽपि जीवोऽब्रह्मचारी त्वस्माकमुपदेशे
यस्मात्कर्म चैव हि कर्माभिलषतीति भणितम् ।।३३७।।

गाथार्थः‘‘[कर्मभिः तु ] कर्मो [अज्ञानी क्रियते] (जीवने) अज्ञानी करे छे [तथा एव] तेम ज [कर्मभिः ज्ञानी] कर्मो (जीवने) ज्ञानी करे छे, [कर्मभिः स्वाप्यते] कर्मो सुवाडे छे [तथा एव] तेम ज [कर्मभिः जागर्यते] कर्मो जगाडे छे, [कर्मभिः सुखी क्रियते] कर्मो सुखी करे छे [तथा एव] तेम ज [कर्मभिः दुःखी क्रियते] कर्मो दुःखी करे छे, [कर्मभिः च मिथ्यात्वं नीयते] कर्मो मिथ्यात्व पमाडे छे [च एव] तेम ज [असंयमं नीयते] कर्मो असंयम पमाडे छे, [कर्मभिः] कर्मो [उर्ध्वम् अधः च अपि तिर्यग्लोकं च] ऊर्ध्वलोक, अधोलोक अने तिर्यग्लोकमां [भ्राम्यते] भमावे छे, [यत्किञ्चित् यावत् शुभाशुभं] जे कांई पण जेटलुं शुभ अशुभ छे ते बधुं [कर्मभिः च एव क्रियते] कर्मो ज करे छे. [यस्मात्] जेथी [कर्म करोति] कर्म करे छे, [कर्म ददाति] कर्म आपे छे, [हरति] कर्म हरी ले छे[इति यत्किञ्चित्] एम जे कांई पण करे छे ते कर्म ज करे छे, [तस्मात् तु] तेथी [सर्वजीवाः] सर्व जीवो [अकारकाः आपन्नाः भवन्ति] अकारक (अकर्ता) ठरे छे.

वळी, [पुरुषः] पुरुषवेदकर्म [स्त्र्यभिलाषी] स्त्रीनुं अभिलाषी छे [च] अने [स्त्रीकर्म] स्त्रीवेदकर्म [पुरुषम् अभिलषति] पुरुषनी अभिलाषा करे छे[एषा आचार्यपरम्परागता ईद्रशी तु श्रुतिः] एवी आ आचार्यनी परंपराथी ऊतरी आवेली श्रुति छे; [तस्मात्] माटे [अस्माकम् उपदेशे तु] अमारा उपदेशमां [कः अपि जीवः] कोई पण जीव [अब्रह्मचारी न] अब्रह्मचारी


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यस्माद्धन्ति परं परेण हन्यते च सा प्रकृतिः
एतेनार्थेन किल भण्यते परघातनामेति ।।३३८।।
तस्मान्न कोऽपि जीव उपघातकोऽस्त्यस्माकमुपदेशे
यस्मात्कर्म चैव हि कर्म हन्तीति भणितम् ।।३३९।।
एवं साङ्खयोपदेशं ये तु प्ररूपयन्तीद्रशं श्रमणाः
तेषां प्रकृतिः करोत्यात्मानश्चाकारकाः सर्वे ।।३४०।।
अथवा मन्यसे ममात्मात्मानमात्मनः करोति
एष मिथ्यास्वभावः तवैतज्जानतः ।।३४१।।
आत्मा नित्योऽसङ्खयेयप्रदेशो दर्शितस्तु समये
नापि स शक्यते ततो हीनोऽधिकश्च कर्तुं यत् ।।३४२।।

नथी, [यस्मात्] कारण के [कर्म च एव हि] कर्म ज [कर्म अभिलषति] कर्मनी अभिलाषा करे छे [इति भणितम्] एम कह्युं छे.

वळी, [यस्मात् परं हन्ति] जे परने हणे छे [च] अने [परेण हन्यते] जे परथी हणाय छे [सा प्रकृतिः] ते प्रकृति छे[एतेन अर्थेन किल] ए अर्थमां [परघातनाम इति भण्यते] परघातनामकर्म कहेवामां आवे छे, [तस्मात्] तेथी [अस्माकम् उपदेशे] अमारा उपदेशमां [कः अपि जीवः] कोई पण जीव [उपघातकः न अस्ति] उपघातक (हणनार) नथी [यस्मात्] कारण के [कर्म च एव हि] कर्म ज [कर्म हन्ति] कर्मने हणे छे [इति भणितम्] एम कह्युं छे.’’

(आचार्यभगवान कहे छे केः) [एवं तु] आ प्रमाणे [ईद्रशं साङ्खयोपदेशं] आवो सांख्यमतनो उपदेश [ये श्रमणाः] जे श्रमणो (जैन मुनिओ) [प्ररूपयन्ति] प्ररूपे छे [तेषां] तेमना मतमां [प्रकृतिः करोति] प्रकृति ज करे छे [आत्मानः च सर्वे] अने आत्माओ तो सर्वे [अकारकाः] अकारक छे एम ठरे छे!

[अथवा] अथवा (कर्तापणानो पक्ष साधवाने) [मन्यसे] जो तुं एम माने के ‘[मम आत्मा] मारो आत्मा [आत्मनः] पोताना [आत्मानम्] (द्रव्यरूप) आत्माने [करोति] करे छे’, [एतत् जानतः तव] तो एवुं जाणनारनो तारो [एषः मिथ्यास्वभावः] ए मिथ्यास्वभाव छे (अर्थात् एम जाणवुं ते तारो मिथ्यास्वभाव छे); [यद्] कारण के[समये] सिद्धांतमां [आत्मा] आत्माने [नित्यः] नित्य, [असङ्खयेयप्रदेशः] असंख्यात-प्रदेशी [दर्शितः तु] बताव्यो छे, [ततः] तेनाथी [सः] तेने [हीनः अधिकः च] हीन-अधिक [कर्तुं न अपि शक्यते] करी शकातो नथी; [विस्तरतः] वळी


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जीवस्य जीवरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमात्रं खलु
ततः स किं हीनोऽधिको वा कथं करोति द्रव्यम् ।।३४३।।
अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतम्
तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मनः करोति ।।३४४।।

कर्मैवात्मानमज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव ज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव स्वापयति, निद्राख्यकर्मोदय- मन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव जागरयति, निद्राख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव सुखयति, सद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव दुःखयति, असद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव मिथ्याद्रष्टिं करोति, मिथ्यात्वकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैवासंयतं


विस्तारथी पण [जीवस्य जीवरूपं] जीवनुं जीवरूप [खलु] निश्चयथी [लोकमात्रं जानीहि] लोकमात्र जाण; [ततः] तेनाथी [किं सः हीनः अधिकः वा] शुं ते हीन अथवा अधिक थाय छे? [द्रव्यम् कथं करोति] तो पछी (आत्मा) द्रव्यने (अर्थात् द्रव्यरूप आत्माने) कई रीते करे छे?

[अथ] अथवा जो ‘[ज्ञायकः भावः तु] ज्ञायक भाव तो [ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति] ज्ञानस्वभावे स्थित रहे छे’ [इति मतम् ] एम मानवामां आवे, [तस्मात् अपि] तो एम पण [आत्मा स्वयं] आत्मा पोते [आत्मनः आत्मानं तु] पोताना आत्माने [न करोति] करतो नथी एम ठरे छे!

(आ रीते कर्तापणुं साधवा माटे विवक्षा पलटीने जे पक्ष कह्यो ते घटतो नथी.) (आ प्रमाणे, कर्मनो कर्ता कर्म ज मानवामां आवे तो स्याद्वाद साथे विरोध आवे छे; माटे आत्माने अज्ञान-अवस्थामां कथंचित् पोताना अज्ञानभावरूप कर्मनो कर्ता मानवो, जेथी स्याद्वाद साथे विरोध आवतो नथी.)

टीकाः(अहीं पूर्वपक्ष आ प्रमाणे छेः) ‘‘कर्म ज आत्माने अज्ञानी करे छे, कारण के ज्ञानावरण नामना कर्मना उदय विना तेनी (अज्ञाननी) अनुपपत्ति छे; कर्म ज (आत्माने) ज्ञानी करे छे, कारण के ज्ञानावरण नामना कर्मना क्षयोपशम विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज सुवाडे छे, कारण के निद्रा नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज जगाडे छे, कारण के निद्रा नामना कर्मना क्षयोपशम विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज सुखी करे छे, कारण के शातावेदनीय नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज दुःखी करे छे, कारण के अशातावेदनीय नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज मिथ्याद्रष्टि


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करोति, चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैवोर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकं भ्रमयति, आनुपूर्व्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः अपरमपि यद्यावत्किञ्चिच्छुभाशुभं तत्तावत्सकलमपि कर्मैव करोति, प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः यत एवं समस्तमपि स्वतन्त्रं कर्म करोति, कर्म ददाति, कर्म हरति च, ततः सर्व एव जीवाः नित्यमेवैकान्तेनाकर्तार एवेति निश्चिनुमः किञ्च--श्रुतिरप्येनमर्थमाह; पुंवेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलषति, स्त्रीवेदाख्यं कर्म पुमांसमभिलषति इति वाक्येन कर्मण एव कर्माभिलाषकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्याब्रह्मकर्तृत्व- प्रतिषेधात्, तथा यत्परं हन्ति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य घातकर्तृत्वप्रतिषेधाच्च सर्वथैवाकर्तृत्वज्ञापनात् एवमीद्रशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासाः प्ररूपयन्ति; तेषां प्रकृतेरेकान्तेन करे छे, कारण के मिथ्यात्वकर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज असंयमी करे छे, कारण के चारित्रमोह नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; कर्म ज ऊर्ध्वलोकमां, अधोलोकमां अने तिर्यग्लोकमां भमावे छे, कारण के आनुपूर्वी नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे; बीजुं पण जे कांई पण जेटलुं शुभ-अशुभ छे ते बधुंय कर्म ज करे छे, कारण के प्रशस्त-अप्रशस्त राग नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे. ए रीते बधुंय स्वतंत्रपणे कर्म ज करे छे, कर्म ज आपे छे, कर्म ज हरी ले छे, तेथी अमे एम निश्चय करीए छीए केसर्वे जीवो सदाय एकांते अकर्ता ज छे. वळी श्रुति (भगवाननी वाणी, शास्त्र) पण ए ज अर्थने कहे छे; कारण के, (ते श्रुति) ‘पुरुषवेद नामनुं कर्म स्त्रीनी अभिलाषा करे छे अने स्त्रीवेद नामनुं कर्म पुरुषनी अभिलाषा करे छे’ ए वाक्यथी कर्मने ज कर्मनी अभिलाषाना कर्तापणाना समर्थन वडे जीवने अब्रह्मचर्यना कर्तापणानो निषेध करे छे, तथा ‘जे परने हणे छे अने जे परथी हणाय छे ते परघातकर्म छे’ ए वाक्यथी कर्मने ज कर्मना घातनुं कर्तापणुं होवाना समर्थन वडे जीवने घातना कर्तापणानो निषेध करे छे, अने ए रीते (अब्रह्मचर्यना तथा घातना कर्तापणाना निषेध द्वारा) जीवनुं सर्वथा ज अकर्तापणुं जणावे छे.’’

(आचार्यदेव कहे छे केः) आ प्रमाणे आवा सांख्यमतने, पोतानी प्रज्ञाना (बुद्धिना) अपराधथी सूत्रना अर्थने नहि जाणनारा केटलाक *श्रमणाभासो प्ररूपे छे; तेमनी, एकांते प्रकृतिना कर्तापणानी मान्यताथी, समस्त जीवोने एकांते अकर्तापणुं आवी पडे छे तेथी ‘जीव

* श्रमणाभास = मुनिना गुणो नहि होवा छतां पोताने मुनि कहेवरावनार


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कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्तेः जीवः कर्तेति श्रुतेः कोपो दुःशक्यः परिहर्तुम् यस्तु कर्म आत्मनोऽज्ञानादिसर्वभावान् पर्यायरूपान् करोति, आत्मा त्वात्मानमेवैकं द्रव्यरूपं करोति, ततो जीवः कर्तेति श्रुतिकोपो न भवतीत्यभिप्रायः स मिथ्यैव जीवो हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च तत्र न तावन्नित्यस्य कार्यत्वमुप- पन्नं, कृतकत्वनित्यत्वयोरेकत्वविरोधात् न चावस्थितासंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कन्धस्येव प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणद्वारेणापि तस्य कार्यत्वं, प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात् चापि सकललोकवास्तुविस्तारपरिमितनियतनिजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसङ्कोचनविकाशनद्वारेण तस्य कार्यत्वं, प्रदेशसङ्कोचनविकाशनयोरपि शुष्कार्द्रचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात् यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन सर्वदैव


कर्ता छे’ एवी जे श्रुति तेनो कोप टाळवो अशक्य थाय छे (अर्थात् भगवाननी वाणीनी विराधना थाय छे). वळी, ‘कर्म आत्माना अज्ञानादि सर्व भावोनेके जेओ पर्यायरूप छे तेमनेकरे छे, अने आत्मा तो आत्माने ज एकने द्रव्यरूपने करे छे माटे जीव कर्ता छे; ए रीते श्रुतिनो कोप थतो नथी’एवो जे अभिप्राय छे ते मिथ्या ज छे. (ते समजाववामां आवे छेः) जीव तो द्रव्यरूपे नित्य छे, असंख्यात-प्रदेशी छे अने लोकपरिमाण छे. तेमां प्रथम, नित्यनुं कार्यपणुं बनी शकतुं नथी, कारण के कृतकपणाने अने नित्यपणाने एकपणानो विरोध छे. (आत्मा नित्य छे तेथी ते कृतक अर्थात् कोईए करेलो होई शके नहि.) वळी अवस्थित असंख्य-प्रदेशी एक एवा तेने (आत्माने), पुद्गलस्कंधनी माफक, प्रदेशोनां प्रक्षेपण-आकर्षण द्वारा पण कार्यपणुं बनी शकतुं नथी, कारण के प्रदेशोनुं प्रक्षेपण तथा आकर्षण थाय तो तेना एकपणानो व्याघात थाय. (स्कंध अनेक परमाणुओनो बनेलो छे, माटे तेमांथी परमाणुओ नीकळी जाय तेम ज तेमां परमाणुओ आवे; परंतु आत्मा निश्चित असंख्य-प्रदेशवाळुं एक ज द्रव्य होवाथी ते पोताना प्रदेशोने काढी नाखी शके नहि तेम ज वधारे प्रदेशोने लई शके नहि.) वळी सकळ लोकरूपी घरना विस्तारथी परिमित जेनो निश्चित निज *विस्तार-संग्रह छे (अर्थात् लोक जेटलुं जेनुं निश्चित माप छे) तेने (आत्माने) प्रदेशोना संकोच-विकास द्वारा पण कार्यपणुं बनी शकतुं नथी, कारण के प्रदेशोना संकोच-विस्तार थवा छतां पण, सूका-भीना चामडानी माफक, निश्चित निज विस्तारने लीधे तेने (आत्माने) हीन-अधिक करी शकातो नथी. (आ रीते आत्माने द्रव्यरूप आत्मानुं कर्तापणुं घटी शकतुं नथी.) वळी, ‘‘वस्तुस्वभावनुं सर्वथा मटवुं अशक्य होवाथी ज्ञायक भाव ज्ञानस्वभावे ज सदाय स्थित रहे छे अने एम

* संग्रह = जथ्थो; मोटप.


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तिष्ठति, तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृत्वयोरत्यन्तविरुद्धत्वान्मिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता भवति, भवन्ति च मिथ्यात्वादिभावाः, ततस्तेषां कर्मैव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेषः स तु नितरामात्मात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपहन्त्येव ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञान- समयेऽनादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो विशेषापेक्षया त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कर्तृत्वमनुमन्तव्यं; तावद्यावत्तदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानपूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परिणममानस्य केवलं ज्ञातृत्वात्साक्षाद- कर्तृत्वं स्यात्

स्थित रहेतो थको, ज्ञायकपणाने अने कर्तापणाने अत्यंत विरुद्धता होवाथी, मिथ्यात्वादि भावोनो कर्ता थतो नथी; अने मिथ्यात्वादि भावो तो थाय छे; तेथी तेमनो कर्ता कर्म ज छे एम प्ररूपण करवामां आवे छे’’आवी जे वासना (अभिप्राय, वलण) प्रगट करवामां आवे छे ते पण ‘आत्मा आत्माने करे छे’ एवी (पूर्वोक्त) मान्यताने अतिशयपणे हणे ज छे (कारण के सदाय ज्ञायक मानवाथी आत्मा अकर्ता ज ठर्यो).

माटे, ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षाए ज्ञानस्वभावे अवस्थित होवा छतां, कर्मथी उत्पन्न थता मिथ्यात्वादि भावोना ज्ञानसमये, अनादिकाळथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानथी शून्य होवाने लीधे, परने आत्मा तरीके जाणतो एवो ते (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षाए अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामने करतो होवाथी (अज्ञानरूप एवुं जे ज्ञाननुं परिणमन तेने करतो होवाथी), तेने कर्तापणुं संमत करवुं (अर्थात् ते कर्ता छे एम स्वीकारवुं); ते त्यां सुधी के ज्यां सुधी भेदविज्ञानना आदिथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानथी पूर्ण (अर्थात् भेदविज्ञान सहित) थवाने लीधे आत्माने ज आत्मा तरीके जाणतो एवो ते (ज्ञायक भाव), विशेष अपेक्षाए पण ज्ञानरूप ज ज्ञानपरिणामे परिणमतो थको (ज्ञानरूप एवुं जे ज्ञाननुं परिणमन ते-रूपे ज परिणमतो थको), केवळ ज्ञातापणाने लीधे साक्षात् अकर्ता थाय.

भावार्थःकेटलाक जैन मुनिओ पण स्याद्वाद-वाणीने बराबर नहि समजीने सर्वथा एकांतनो अभिप्राय करे छे अने विवक्षा पलटीने एम कहे छे के‘‘आत्मा तो भावकर्मनो अकर्ता ज छे, कर्मप्रकृतिनो उदय ज भावकर्मने करे छे; अज्ञान, ज्ञान, सूवुं, जागवुं, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चार गतिओमां भ्रमणए बधांने, तथा जे कांई शुभ- अशुभ भावो छे ते बधायने कर्म ज करे छे; जीव तो अकर्ता छे.’’ वळी ते मुनिओ शास्त्रनो पण एवो ज अर्थ करे छे के‘‘वेदना उदयथी स्त्री-पुरुषनो विकार थाय छे अने उपघात


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(शार्दूलविक्रीडित)
माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः
कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः
ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं
पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम्
।।२०५।।

तथा परघात प्रकृतिना उदयथी परस्पर घात प्रवर्ते छे.’’ आ प्रमाणे, जेम सांख्यमती बधुंय प्रकृतिनुं ज कार्य माने छे अने पुरुषने अकर्ता माने छे तेम, पोतानी बुद्धिना दोषथी आ मुनिओनुं पण एवुं ज एकांतिक मानवुं थयुं. माटे जिनवाणी तो स्याद्वादरूप होवाथी, सर्वथा एकांत माननारा ते मुनिओ पर जिनवाणीनो कोप अवश्य थाय छे. जिनवाणीना कोपना भयथी जो तेओ विवक्षा पलटीने एम कहे के‘‘भावकर्मनो कर्ता कर्म छे अने पोताना आत्मानो (अर्थात् पोतानो) कर्ता आत्मा छे; ए रीते अमे आत्माने कथंचित् कर्ता कहीए छीए, तेथी वाणीनो कोप थतो नथी;’’ तो आ तेमनुं कहेवुं पण मिथ्या ज छे. आत्मा द्रव्ये नित्य छे, असंख्यात प्रदेशोवाळो छे, लोकपरिमाण छे, तेथी तेमां तो कांई नवीन करवानुं छे नहि; अने जे भावकर्मरूप पर्यायो छे तेमनो कर्ता तो ते मुनिओ कर्मने ज कहे छे; माटे आत्मा तो अकर्ता ज रह्यो! तो पछी वाणीनो कोप कई रीते मट्यो? माटे आत्माना कर्तापणा अने अकर्तापणानी विवक्षा यथार्थ मानवी ते ज स्याद्वादनुं साचुं मानवुं छे. आत्माना कर्तापणा-अकर्तापणा विषे सत्यार्थ स्याद्वाद-प्ररूपण आ प्रमाणे छेः

आत्मा सामान्य अपेक्षाए तो ज्ञानस्वभावे ज स्थित छे; परंतु मिथ्यात्वादि भावोने जाणती वखते, अनादि काळथी ज्ञेय अने ज्ञानना भेदविज्ञानना अभावने लीधे, ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोने आत्मा तरीके जाणे छे, तेथी ए रीते विशेष अपेक्षाए अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामने करतो होवाथी कर्ता छे; अने ज्यारे भेदविज्ञान थवाथी आत्माने ज आत्मा तरीके जाणे छे त्यारे विशेष अपेक्षाए पण ज्ञानरूप ज्ञानपरिणामे ज परिणमतो थको केवळ ज्ञाता रहेवाथी साक्षात

् अकर्ता छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[अमी आर्हताः अपि] आ अर्हत्ना मतना अनुयायीओ अर्थात् जैनो पण [पुरुषं] आत्माने, [सांख्याः इव] सांख्यमतीओनी जेम, [अकर्तारम् मा स्पृशन्तु] (सर्वथा) अकर्ता न मानो; [भेद-अवबोधात् अधः] भेदज्ञान थया पहेलां [तं किल] तेने [सदा] निरन्तर [कर्तारम् कलयन्तु] कर्ता मानो, [तु] अने [ऊर्ध्वम्] भेदज्ञान थया पछी [उद्धत-बोध-धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम्


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(मालिनी)
क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं
निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्
अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघैः
स्वयमयमभिषिञ्चंश्चिच्चमत्कार एव
।।२०६।।

एनम्] उद्धत *ज्ञानधाममां निश्चित एवा आ स्वयं प्रत्यक्ष आत्माने [च्युत-कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम्] कर्तापणा विनानो, अचळ, एक परम ज्ञाता ज [पश्यन्तु] देखो.

भावार्थःसांख्यमतीओ पुरुषने सर्वथा एकांतथी अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र माने छे. आवुं मानवाथी पुरुषने संसारना अभावनो प्रसंग आवे छे; अने जो प्रकृतिने संसार मानवामां आवे तो ते पण घटतुं नथी, कारण के प्रकृति तो जड छे, तेने सुखदुःख आदिनुं संवेदन नथी, तेने संसार केवो? आवा अनेक दोषो एकांत मान्यतामां आवे छे. सर्वथा एकांत वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. माटे सांख्यमतीओ मिथ्याद्रष्टि छे; अने जो जैनो पण एवुं माने तो तेओ पण मिथ्याद्रष्टि छे. तेथी आचार्यदेव उपदेश करे छे केसांख्यमतीओनी माफक जैनो आत्माने सर्वथा अकर्ता न मानो; ज्यां सुधी स्वपरनुं भेदविज्ञान न होय त्यां सुधी तो तेने रागादिकनोपोतानां चेतनरूप भावकर्मोनोकर्ता मानो, अने भेदविज्ञान थया पछी शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तापणाना भावथी रहित, एक ज्ञाता ज मानो. आम एक ज आत्मामां कर्तापणुं तथा अकर्तापणुंए बन्ने भावो विवक्षावश सिद्ध थाय छे. आवो स्याद्वाद मत जैनोनो छे; अने वस्तुस्वभाव पण एवो ज छे, कल्पना नथी. आवुं (स्याद्वाद अनुसार) मानवाथी पुरुषने संसार-मोक्ष आदिनी सिद्धि थाय छे; सर्वथा एकांत मानवाथी सर्व निश्चय-व्यवहारनो लोप थाय छे. २०५.

हवेनी गाथाओमां, ‘कर्ता अन्य छे अने भोक्ता अन्य छे’ एवुं माननारा क्षणिकवादी बौद्धमतीओने तेमनी सर्वथा एकांत मान्यतामां दूषण बतावशे अने स्याद्वाद अनुसार जे रीते वस्तुस्वरूप अर्थात् कर्ताभोक्तापणुं छे ते रीते कहेशे. ते गाथाओनी सूचनानुं काव्य प्रथम कहे छेः

श्लोकार्थः[इह] आ जगतमां [एकः] कोई एक तो (अर्थात् क्षणिकवादी बौद्धमती तो) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा]आत्मतत्त्वने क्षणिक कल्पीने [निज-मनसि] पोताना मनमां [कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदं विधत्ते] कर्ता अने भोक्तानो भेद करे छे (अन्य कर्ता छे अने अन्य भोक्ता छे एवुं माने छे); [तस्य विमोहं] तेना मोहने (अज्ञानने) [अयम् चित्-चमत्कारः

62

* ज्ञानधाम = ज्ञानमंदिर; ज्ञानप्रकाश.