Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 207-214 ; Gatha: 345-365.

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(अनुष्टुभ्)
वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात्
अन्यः करोति भुंक्तेऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा ।।२०७।।

एव स्वयम्] आ चैतन्यचमत्कार ज पोते [नित्य-अमृत-ओघैः] नित्यतारूप अमृतना ओघ (समूहो) वडे [अभिषिञ्चन्] अभिसिंचन करतो थको, [अपहरति] दूर करे छे.

भावार्थःक्षणिकवादी कर्ता-भोक्तामां भेद माने छे, अर्थात् पहेली क्षणे जे आत्मा हतो ते बीजी क्षणे नथीएम माने छे. आचार्यदेव कहे छे केअमे तेने शुं समजावीए? आ चैतन्य ज तेनुं अज्ञान दूर करशेके जे (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य छे. पहेली क्षणे जे आत्मा हतो ते ज बीजी क्षणे कहे छे के ‘हुं पहेलां हतो ते ज छुं’; आवुं स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्मानी नित्यता बतावे छे. अहीं बौद्धमती कहे छे के‘जे पहेली क्षणे हतो ते ज हुं बीजी क्षणे छुं’ एवुं मानवुं ते तो अनादि अविद्याथी भ्रम छे; ए भ्रम मटे त्यारे तत्त्व सिद्ध थाय, समस्त क्लेश मटे. तेनो उत्तर आपवामां आवे छे के‘‘हे बौद्ध! तुं आ जे दलील करे छे ते आखी दलील करनार एक ज आत्मा छे के अनेक आत्माओ छे? वळी तारी आखी दलील एक ज आत्मा सांभळे छे एम मानीने तुं दलील करे छे के आखी दलील पूरी थतां सुधीमां अनेक आत्माओ पलटाई जाय छे एम मानीने दलील करे छे? जो अनेक आत्माओ पलटाई जता होय तो तारी आखी दलील तो कोई आत्मा सांभळतो नथी; तो पछी दलील करवानुं प्रयोजन शुं?* आम अनेक रीते विचारी जोतां तने जणाशे के आत्माने क्षणिक मानीने प्रत्यभिज्ञानने भ्रम कही देवो ते यथार्थ नथी. माटे एम समजवुं केआत्माने एकांते नित्य के एकांते अनित्य मानवो ते बन्ने भ्रम छे, वस्तुस्वरूप नथी; अमे (जैनो) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहीए छीए ते ज सत्यार्थ छे’’. २०६.

फरी, क्षणिकवादने युक्ति वडे निषेधतुं, आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[वृत्ति-अंश-भेदतः] वृत्त्यंशोना अर्थात् पर्यायोना भेदने लीधे [अत्यन्तं वृत्तिमत्-नाश-कल्पनात्] ‘वृत्तिमान अर्थात् द्रव्य अत्यंत (सर्वथा) नाश पामे छे’ एवी कल्पना द्वारा [अन्यः करोति] ‘अन्य करे छे अने [अन्यः भुंक्ते] अन्य भोगवे छे’ [इति एकान्तः मा चकास्तु] एवो एकांत न प्रकाशो.

* जो एम कहेवामां आवे के ‘आत्मा तो नाश पामे छे पण ते संस्कार मूकतो जाय छे’ तो ते पण यथार्थ नथी; आत्मा नाश पामे तो आधार विना संस्कार केम रही शके? वळी कदापि एक आत्मा संस्कार मूकतो
जाय, तोपण ते आत्माना संस्कार बीजा आत्मामां पेसी जाय एवो नियम न्यायसंगत नथी.


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केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो
जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो ।।३४५।।
केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो
जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो ।।३४६।।
जो चेव कुणदि सो चिय ण वेदए जस्स एस सिद्धंतो
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ।।३४७।।
अण्णो करेदि अण्णो परिभुंजदि जस्स एस सिद्धंतो
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ।।३४८।।
कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः
यस्मात्तस्मात्करोति स वा अन्यो वा नैकान्तः ।।३४५।।

भावार्थःद्रव्यनी अवस्थाओ क्षणे क्षणे नाश पामती होवाथी बौद्धमती एम माने छे के ‘द्रव्य ज सर्वथा नाश पामे छे’. आवी एकांत मान्यता मिथ्या छे. जो अवस्थावान पदार्थनो नाश थाय तो अवस्था कोना आश्रये थाय? ए रीते बन्नेना नाशनो प्रसंग आववाथी शून्यनो प्रसंग आवे छे. २०७.

हवे गाथाओमां अनेकांतने प्रगट करीने क्षणिकवादने स्पष्ट रीते निषेधे छेः

पर्याय कंईकथी विणसे जीव, कंईकथी नहि विणसे,
तेथी करे छे ते ज के बीजोनहीं एकांत छे. ३४५.
पर्याय कंईकथी विणसे जीव, कंईकथी नहि विणसे,
जीव तेथी वेदे ते ज के बीजोनहीं एकांत छे. ३४६.
जीव जे करे ते भोगवे नहिजेहनो सिद्धांत ए,
ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनो नथी. ३४७.
जीव अन्य करतो, अन्य वेदेजेहनो सिद्धांत ए,
ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनो नथी. ३४८.

गाथार्थः[यस्मात्] कारण के [जीवः] जीव [कैश्चित् पर्यायैः तु] केटलाक पर्यायोथी


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कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः
यस्मात्तस्माद्वेदयते स वा अन्यो वा नैकान्तः ।।३४६।।
यश्चैव करोति स चैव न वेदयते यस्य एष सिद्धान्तः
स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्याद्रष्टिरनार्हतः ।।३४७।।
अन्यः करोत्यन्यः परिभुंक्ते यस्य एष सिद्धान्तः
स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्याद्रष्टिरनार्हतः ।।३४८।।

यतो हि प्रतिसमयं सम्भवदगुरुलघुगुणपरिणामद्वारेण क्षणिकत्वादचलितचैतन्यान्वय- गुणद्वारेण नित्यत्वाच्च जीवः कैश्चित्पर्यायैर्विनश्यति, कैश्चित्तु न विनश्यतीति द्विस्वभावो जीवस्वभावः ततो य एव करोति स एवान्यो वा वेदयते, य एव वेदयते, स एवान्यो वा [विनश्यति] नाश पामे छे [तु] अने [कैश्चित्] केटलाक पर्यायोथी [न एव] नथी नाश पामतो, [तस्मात्] तेथी [सः वा करोति] ‘(जे भोगवे छे) ते ज करे छे’ [अन्यः वा] अथवा ‘बीजो


ज करे छे’ [न एकान्तः] एवो एकांत नथी (स्याद्वाद छे).

[यस्मात्] कारण के [जीवः] जीव [कैश्चित् पर्यायैः तु] केटलाक पर्यायोथी [विनश्यति] नाश पामे छे [तु] अने [कैश्चित्] केटलाक पर्यायोथी [न एव] नथी नाश पामतो, [तस्मात्] तेथी [सः वा वेदयते] ‘(जे करे छे) ते ज भोगवे छे’ [अन्यः वा] अथवा ‘बीजो ज भोगवे छे’ [न एकान्तः] एवो एकांत नथी (स्याद्वाद छे).

[यः च एव करोति] जे करे छे [सः च एव न वेदयते] ते ज नथी भोगवतो’ [एषः यस्य सिद्धान्तः] एवो जेनो सिद्धांत छे, [सः जीवः] ते जीव [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि, [अनार्हतः] अनार्हत (अर्हत्ना मतने नहि माननारो) [ज्ञातव्यः] जाणवो.

[अन्यः करोति] बीजो करे छे [अन्यः परिभुंक्ते] अने बीजो भोगवे छे’ [एषः यस्य सिद्धान्तः] एवो जेनो सिद्धांत छे, [सः जीवः] ते जीव [मिथ्याद्रष्टिः] मिथ्याद्रष्टि, [अनार्हतः] अनार्हत (अजैन) [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाःजीव, प्रतिसमये संभवता (दरेक समये थता) अगुरुलघुगुणना परिणाम द्वारा क्षणिक होवाथी अने अचलित चैतन्यना अन्वयरूप गुण द्वारा नित्य होवाथी, केटलाक पर्यायोथी विनाश पामे छे अने केटलाक पर्यायोथी नथी विनाश पामतोएम बे स्वभाववाळो जीवस्वभाव छे; तेथी ‘जे करे छे ते ज भोगवे छे’ अथवा ‘बीजो ज भोगवे छे’, ‘जे भोगवे


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करोतीति नास्त्येकान्तः एवमनेकान्तेऽपि यस्तत्क्षणवर्तमानस्यैव परमार्थसत्त्वेन वस्तुत्वमिति वस्त्वंशेऽपि वस्तुत्वमध्यास्य शुद्धनयलोभाद्रजुसूत्रैकान्ते स्थित्वा य एव करोति स एव न वेदयते, अन्यः करोति अन्यो वेदयते इति पश्यति स मिथ्याद्रष्टिरेव द्रष्टव्यः, क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानां वृत्तिमतश्चैतन्यचमत्कारस्य टङ्कोत्कीर्णस्यैवान्तःप्रतिभासमानत्वात्


छे ते ज करे छे’ अथवा ‘बीजो ज करे छे’एवो एकांत नथी. आम अनेकांत होवा छतां, ‘जे (पर्याय) ते क्षणे वर्ते छे, तेने ज परमार्थ सत्पणुं होवाथी, ते ज वस्तु छे’ एम वस्तुना अंशमां वस्तुपणानो अध्यास करीने शुद्धनयना लोभथी ॠजुसूत्रनयना एकांतमां रहीने जे एम देखेमाने छे के ‘‘जे करे छे ते ज नथी भोगवतो, बीजो करे छे अने बीजो भोगवे छे’’, ते जीव मिथ्याद्रष्टि ज देखवोमानवो; कारण के, वृत्त्यंशोनुं (पर्यायोनुं) क्षणिकपणुं होवा छतां, वृत्तिमान (पर्यायी) जे चैतन्यचमत्कार (आत्मा) ते तो टंकोत्कीर्ण (नित्य) ज अंतरंगमां प्रतिभासे छे.

भावार्थःवस्तुनो स्वभाव जिनवाणीमां द्रव्यपर्यायस्वरूप कह्यो छे; माटे स्याद्वादथी एवो अनेकांत सिद्ध थाय छे के पर्याय-अपेक्षाए तो वस्तु क्षणिक छे अने द्रव्य- अपेक्षाए नित्य छे. जीव पण वस्तु होवाथी द्रव्यपर्यायस्वरूप छे. तेथी, पर्यायद्रष्टिए जोवामां आवे तो कार्यने करे छे एक पर्याय, अने भोगवे छे अन्य पर्याय; जेम केमनुष्यपर्याये शुभाशुभ कर्म कर्यां अने तेनुं फळ देवादिपर्याये भोगव्युं. द्रव्यद्रष्टिए जोवामां आवे तो, जे करे छे ते ज भोगवे छे; जेम केमनुष्यपर्यायमां जे जीवद्रव्ये शुभाशुभ कर्म कर्यां, ते ज जीवद्रव्ये देवादि पर्यायमां पोते करेलां कर्मनुं फळ भोगव्युं.

आ रीते वस्तुनुं स्वरूप अनेकांतरूप सिद्ध होवा छतां, जे जीव शुद्धनयने समज्या विना शुद्धनयना लोभथी वस्तुना एक अंशने (वर्तमान काळमां वर्तता पर्यायने) ज वस्तु मानी ॠजुसूत्रनयना विषयनो एकांत पकडी एम माने छे के ‘जे करे छे ते ज भोगवतो नथी अन्य भोगवे छे, अने जे भोगवे छे ते ज करतो नथीअन्य करे छे’, ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनो नथी; कारण के, पर्यायोनुं क्षणिकपणुं होवा छतां, द्रव्यरूप चैतन्यचमत्कार तो अनुभवगोचर नित्य छे; प्रत्यभिज्ञानथी जणाय छे के ‘बाळक अवस्थामां जे हुं हतो ते ज हुं तरुण अवस्थामां हतो अने ते ज हुं वृद्ध अवस्थामां छुं’. आ रीते जे कथंचित् नित्यरूपे अनुभवगोचर छेस्वसंवेदनमां आवे छे अने जेने जिनवाणी पण एवो ज गाय छे, तेने जे न माने ते मिथ्याद्रष्टि छे एम जाणवुं.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः


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(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः
कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः
चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतै-
रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्तेक्षिभिः
।।२०८।।

श्लोकार्थः[आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः] आत्माने समस्तपणे शुद्ध इच्छनारा बीजा कोई अंधोए[पृथुकैः] बालिश जनोए (बौद्धोए)[काल-उपाधि-बलात् अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा] काळनी उपाधिना कारणे पण आत्मामां अधिक अशुद्धि मानीने [अतिव्याप्तिं प्रपद्य] अतिव्याप्तिने पामीने, [शुद्ध-ऋजुसूत्रे रतैः] शुद्ध ॠजुसूत्रनयमां रत थया थका [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य] चैतन्यने क्षणिक कल्पीने, [अहो एषः आत्मा व्युज्झितः] आत्माने छोडी दीधो; [निःसूत्र-मुक्ता-ईक्षिभिः हारवत्] जेम हारमांनो दोरो नहि जोतां केवळ मोतीने ज जोनाराओ हारने छोडी दे छे तेम.

भावार्थःआत्माने समस्तपणे शुद्ध मानवाना इच्छक एवा बौद्धोए विचार्युं के ‘‘आत्माने नित्य मानवामां आवे तो नित्यमां काळनी अपेक्षा आवे छे तेथी उपाधि लागी जशे; एम काळनी उपाधि लागवाथी आत्माने मोटी अशुद्धता आवशे अने तेथी अतिव्याप्ति दोष लागशे.’’ आ दोषना भयथी तेओए शुद्ध ॠजुसूत्रनयनो विषय जे वर्तमान समय तेटलो ज मात्र (क्षणिक ज) आत्माने मान्यो अने नित्यानित्यस्वरूप आत्माने न मान्यो. आम आत्माने सर्वथा क्षणिक मानवाथी तेमने नित्यानित्यस्वरूपद्रव्यपर्यायस्वरूप सत्यार्थ आत्मानी प्राप्ति न थई; मात्र क्षणिक पर्यायमां आत्मानी कल्पना थई; परंतु ते आत्मा सत्यार्थ नथी.

मोतीना हारमां, दोरामां अनेक मोती परोवेलां होय छे; जे माणस ते हार नामनी वस्तुने मोती तेम ज दोरा सहित देखतो नथीमात्र मोतीने ज जुए छे, ते छूटा छूटा मोतीने ज ग्रहण करे छे, हारने छोडी दे छे; अर्थात् तेने हारनी प्राप्ति थती नथी. तेवी रीते जे जीवो आत्माना एक चैतन्यभावने ग्रहण करता नथी अने समये समये वर्तनापरिणामरूप उपयोगनी प्रवृत्तिने देखी आत्माने अनित्य कल्पीने, ॠजुसूत्रनयनो विषय जे वर्तमान-समयमात्र क्षणिकपणुं तेटलो ज मात्र आत्माने माने छे (अर्थात् जे जीवो आत्माने द्रव्यपर्यायस्वरूप मानता नथीमात्र क्षणिक पर्यायरूप ज माने छे), तेओ आत्माने छोडी दे छे; अर्थात् तेमने आत्मानी प्राप्ति थती नथी. २०८.

हवेना काव्यमां आत्मानो अनुभव करवानुं कहे छेः


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(शार्दूलविक्रीडित)
कर्तृर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वभेदोऽपि वा
कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव सञ्चिन्त्यताम्
प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भेत्तुं न शक्या क्वचि-
च्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः
।।२०९।।
(रथोद्धता)
व्यावहारिकद्रशैव केवलं
कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते
निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते
कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते
।।२१०।।

श्लोकार्थः[कर्तुः च वेदयितुः युक्तिवशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि] कर्तानो अने भोक्तानो युक्तिना वशे भेद हो अथवा अभेद हो, [वा कर्ता च वेदयिता मा भवतु] अथवा कर्ता अने भोक्ता बन्ने न हो; [वस्तु एव सञ्चिन्त्यताम्] वस्तुने ज अनुभवो. [निपुणैः सूत्रे इव इह आत्मनि प्रोता चित्-चिन्तामणि-मालिका क्वचित् भेत्तुं न शक्या] जेम चतुर पुरुषोए दोरामां परोवेली मणिओनी माळा भेदी शकाती नथी, तेम आत्मामां परोवेली चैतन्यरूप चिंतामणिनी माळा पण कदी कोईथी भेदी शकाती नथी; [इयम् एका] एवी आ आत्मारूपी माळा एक ज, [नः अभितः अपि चकास्तु एव] अमने समस्तपणे प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व आदिना विकल्पो छूटी आत्मानो निर्विकल्प अनुभव अमने हो).

भावार्थःआत्मा वस्तु होवाथी द्रव्यपर्यायात्मक छे; तेथी तेमां चैतन्यना परिणमनरूप पर्यायना भेदोनी अपेक्षाए तो कर्ता-भोक्तानो भेद छे अने चिन्मात्र द्रव्यनी अपेक्षाए भेद नथी; एम भेद-अभेद हो. अथवा चिन्मात्र अनुभवनमां भेद-अभेद शा माटे कहेवो? (आत्माने) कर्ता-भोक्ता ज न कहेवो, वस्तुमात्र अनुभव करवो. जेम मणिओनी माळामां मणिओनी अने दोरानी विवक्षाथी भेद-अभेद छे परंतु माळामात्र ग्रहण करतां भेदाभेद-विकल्प नथी, तेम आत्मामां पर्यायोनी अने द्रव्यनी विवक्षाथी भेद-अभेद छे परंतु आत्मवस्तुमात्र अनुभव करतां विकल्प नथी. आचार्य महाराज कहे छे केएवो निर्विकल्प आत्मानो अनुभव अमने प्रकाशमान हो. २०९.

हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[केवलं व्यावहारिकद्रशा एव कर्तृ च कर्म विभिन्नम् इष्यते] केवळ व्यावहारिक द्रष्टिथी ज कर्ता अने कर्म भिन्न गणवामां आवे छे; [निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते] निश्चयथी


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जह सिप्पिओ दु कम्मं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि
तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ।।३४९।।
जह सिप्पिओ दु करणेहिं कुव्वदि ण सो दु तम्मओ होदि
तह जीवो करणेहिं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ।।३५०।।
जह सिप्पिओ दु करणाणि गिण्हदि ण सो दु तम्मओ होदि
तह जीवो करणाणि दु गिण्हदि ण य तम्मओ होदि ।।३५१।।
जह सिप्पि दु कम्मफलं भुंजदि ण य सो दु तम्मओ होदि
तह जीवो कम्मफलं भुंजदि ण य तम्मओ होदि ।।३५२।।
एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दरिसणं समासेण
सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामक दं तु जं होदि ।।३५३।।

जो वस्तुने विचारवामां आवे, [कर्तृ च कर्म सदा एकम् इष्यते] तो कर्ता अने कर्म सदा एक गणवामां आवे छे.

भावार्थःकेवळ व्यवहार-द्रष्टिथी ज भिन्न द्रव्योमां कर्ता-कर्मपणुं गणवामां आवे छे; निश्चय-द्रष्टिथी तो एक ज द्रव्यमां कर्ता-कर्मपणुं घटे छे. २१०.

हवे आ कथनने द्रष्टांत द्वारा गाथामां कहे छेः

ज्यम शिल्पी कर्म करे परंतु ते नहीं तन्मय बने,
त्यम जीव पण कर्मो करे पण ते नहीं तन्मय बने. ३४९.
ज्यम शिल्पी करण वडे करे पण ते नहीं तन्मय बने,
त्यम जीव करण वडे करे पण ते नहीं तन्मय बने. ३५०.
ज्यम शिल्पी करण ग्रहे परंतु ते नहीं तन्मय बने,
त्यम जीव पण करणो ग्रहे पण ते नहीं तन्मय बने. ३५१.
शिल्पी करमफळ भोगवे पण ते नहीं तन्मय बने,
त्यम जीव करमफळ भोगवे पण ते नहीं तन्मय बने. ३५२.
ए रीत मत व्यवहारनो संक्षेपथी वक्तव्य छे;
सांभळ वचन निश्चय तणुं परिणामविषयक जेह छे. ३५३.

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जह सिप्पिओ दु चेट्ठं कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो से
तह जीवो वि य कम्मं कुवदि हवदि य अणण्णो से ।।३५४।।
जह चेट्ठं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिओ होदि
तत्तो सिया अणण्णो तह चेट्ठंतो दुही जीवो ।।३५५।।
यथा शिल्पिकस्तु कर्म करोति न च स तु तन्मयो भवति
तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति ।।३४९।।
यथा शिल्पिकस्तु करणैः करोति न च स तु तन्मयो भवति
तथा जीवः करणैः करोति न च तन्मयो भवति ।।३५०।।
यथा शिल्पिकस्तु करणानि गृह्णाति न स तु तन्मयो भवति
तथा जीवः करणानि तु गृह्णाति न च तन्मयो भवति ।।३५१।।
शिल्पी करे चेष्टा अने तेनाथी तेह अनन्य छे,
त्यम जीव कर्म करे अने तेनाथी तेह अनन्य छे. ३५४.
चेष्टा करंतो शिल्पी जेम दुखित थाय निरंतरे.
ने दुखथी तेह अनन्य, त्यम जीव चेष्टमान दुखी बने. ३५५.

गाथार्थः[यथा] जेम [शिल्पिकः तु] शिल्पी (सोनी आदि कारीगर) [कर्म] कुंडळ आदि कर्म [करोति] करे छे [सः तु] परंतु ते [तन्मयः न च भवति] तन्मय (ते-मय, कुंडळादिमय) थतो नथी, [तथा] तेम [जीवः अपि च] जीव पण [कर्म] पुण्यपाप आदि पुद्गलकर्म [करोति] करे छे [न च तन्मयः भवति] परंतु तन्मय (पुद्गलकर्ममय) थतो नथी. [यथा] जेम [शिल्पिकः तु] शिल्पी [करणैः] हथोडा आदि करणो वडे [करोति] (कर्म) करे छे [सः तु] परंतु ते [तन्मयः न च भवति] तन्मय (हथोडा आदि करणोमय) थतो नथी, [तथा] तेम [जीवः] जीव [करणैः] (मन-वचन-कायरूप) करणो वडे [करोति] (कर्म) करे छे [न च तन्मयः भवति] परंतु तन्मय (मन-वचन-कायरूप करणोमय) थतो नथी. [यथा] जेम [शिल्पिकः तु] शिल्पी [करणानि] करणोने [गृह्णाति] ग्रहण करे छे [सः तु] परंतु ते [तन्मयः न भवति] तन्मय थतो नथी, [तथा] तेम [जीवः] जीव [करणानि तु] करणोने [गृह्णाति] ग्रहण करे छे [न च तन्मयः भवति] परंतु तन्मय

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यथा शिल्पी तु कर्मफलं भुंक्ते न च स तु तन्मयो भवति
तथा जीवः कर्मफलं भुंक्ते न च तन्मयो भवति ।।३५२।।
एवं व्यवहारस्य तु वक्तव्यं दर्शनं समासेन
शृणु निश्चयस्य वचनं परिणामकृतं तु यद्भवति ।।३५३।।
यथा शिल्पिकस्तु चेष्टां करोति भवति च तथानन्यस्तस्याः
तथा जीवोऽपि च कर्म करोति भवति चानन्यस्तस्मात् ।।३५४।।
यथा चेष्टां कुर्वाणस्तु शिल्पिको नित्यदुःखितो भवति
तस्माच्च स्यादनन्यस्तथा चेष्टमानो दुःखी जीवः ।।३५५।।

यथा खलु शिल्पी सुवर्णकारादिः कुण्डलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, (करणोमय) थतो नथी. [यथा] जेम [शिल्पी तु] शिल्पी [कर्मफलं] कुंडळ आदि कर्मना फळने (खानपान आदिने) [भुंक्ते] भोगवे छे [सः तु] परंतु ते [तन्मयः न च भवति] तन्मय (खानपानादिमय) थतो नथी, [तथा] तेम [जीवः] जीव [कर्मफलं] पुण्यपापादि पुद्गलकर्मना फळने (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिने) [भुंक्ते] भोगवे छे [न च तन्मयः भवति] परंतु तन्मय (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिमय) थतो नथी.

[एवं तु] ए रीते तो [व्यवहारस्य दर्शनं] व्यवहारनो मत [समासेन] संक्षेपथी [वक्तव्यम्] कहेवायोग्य छे. [निश्चयस्य वचनं] (हवे) निश्चयनुं वचन [शृणु] सांभळ [यत्] के जे [परिणामकृतं तु भवति] परिणामविषयक छे.

[यथा] जेम [शिल्पिकः तु] शिल्पी [चेष्टां करोति] चेष्टारूप कर्मने (पोताना परिणामरूप कर्मने) करे छे [तथा च] अने [तस्याः अनन्यः भवति] तेनाथी अनन्य छे, [तथा] तेम [जीवः अपि च] जीव पण [क र्म क रोति] (पोताना परिणामरूप) कर्मने करे छे [च] अने [तस्मात् अनन्यः भवति] तेनाथी अनन्य छे. [यथा] जेम [चेष्टां कुर्वाणः] चेष्टारूप कर्म करतो [शिल्पिकः तु] शिल्पी [नित्यदुःखितः भवति] नित्य दुःखी थाय छे [तस्मात् च] अने तेनाथी (दुःखथी) [अनन्यः स्यात्] अनन्य छे, [तथा] तेम [चेष्टमानः] चेष्टा करतो (पोताना परिणामरूप कर्मने करतो) [जीवः] जीव [दुःखी] दुःखी थाय छे (अने दुःखथी अनन्य छे).

टीकाःजेवी रीतेशिल्पी अर्थात् सोनी आदि कारीगर कुंडळ आदि जे परद्रव्य- परिणामात्मक (परद्रव्यना परिणामस्वरूप) कर्म तेने करे छे, हथोडा आदि जे परद्रव्य-


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हस्तकुट्टकादिभिः परद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, हस्तकुट्टकादीनि परद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति, ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुण्डलादिकर्मफलं भुंक्ते च, न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृ- भोग्यत्वव्यवहारः तथात्मापि पुण्यपापादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, कायवाङ्मनोभिः पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति, सुखदुःखादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च, न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः तथात्मापि चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं


परिणामात्मक करणो तेमना वडे करे छे, हथोडा आदि जे परद्रव्यपरिणामात्मक करणो तेमने ग्रहण करे छे अने कुंडळ आदि कर्मनुं जे गाम आदि परद्रव्यपरिणामात्मक फळ तेने भोगवे छे, परंतु अनेकद्रव्यपणाने लीधे तेमनाथी (कर्म, करण आदिथी) अन्य होवाथी तन्मय (कर्मकरणादिमय) थतो नथी; माटे निमित्तनैमित्तिकभावमात्रथी ज त्यां कर्ता-कर्मपणानो अने भोक्ता-भोग्यपणानो व्यवहार छे; तेवी रीतेआत्मा पण पुण्यपाप आदि जे पुद्गलद्रव्य- परिणामात्मक (पुद्गलद्रव्यना परिणामस्वरूप) कर्म तेने करे छे, काय-वचन-मन एवां जे पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करणो तेमना वडे करे छे, काय-वचन-मन एवां जे पुद्गल- परिणामात्मक करणो तेमने ग्रहण करे छे अने पुण्यपाप आदि कर्मनुं जे सुखदुःख आदि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक फळ तेने भोगवे छे, परंतु अनेकद्रव्यपणाने लीधे तेमनाथी अन्य होवाथी तन्मय (ते-मय) थतो नथी; माटे निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रथी ज त्यां कर्ता-कर्मपणानो अने भोक्ता-भोग्यपणानो व्यवहार छे.

वळी जेवी रीतेते ज शिल्पी, करवानो इच्छक वर्ततो थको, चेष्टारूप (अर्थात् कुंडळ आदि करवाना पोताना परिणामरूप अने हस्त आदिना व्यापाररूप) एवुं जे स्वपरिणामात्मक कर्म तेने करे छे तथा दुःखस्वरूप एवुं जे चेष्टारूप कर्मनुं स्वपरिणामात्मक फळ तेने भोगवे छे, अने एकद्रव्यपणाने लीधे तेमनाथी (कर्म अने कर्मफळथी) अनन्य होवाथी तन्मय (कर्ममय ने कर्मफळमय) छे; माटे परिणामपरिणामीभावथी त्यां ज कर्ता-कर्मपणानो अने भोक्ता -भोग्यपणानो निश्चय छे; तेवी रीतेआत्मा पण, करवानो इच्छक वर्ततो थको, चेष्टारूप


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भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः

(नर्दटक)
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः
स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत्
न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया
स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः
।।२११।।
(पृथ्वी)
बहिर्लुठति यद्यपि स्फु टदनन्तशक्तिः स्वयं
तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम्
स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते
स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते
।।२१२।।

(रागादिपरिणामरूप अने प्रदेशोना व्यापाररूप) एवुं जे आत्मपरिणामात्मक कर्म तेने करे छे तथा दुःखस्वरूप एवुं जे चेष्टारूप कर्मनुं आत्मपरिणामात्मक फळ तेने भोगवे छे, अने एकद्रव्यपणाने लीधे तेमनाथी अनन्य होवाथी तन्मय (ते-मय) छे; माटे परिणाम -परिणामीभावथी त्यां ज कर्ता-कर्मपणानो अने भोक्ता-भोग्यपणानो निश्चय छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ननु परिणामः एव किल विनिश्चयतः कर्म] खरेखर परिणाम छे ते ज निश्चयथी कर्म छे, अने [सः परिणामिनः एव भवेत्, अपरस्य न भवति] परिणाम पोताना आश्रयभूत परिणामीनुं ज होय छे, अन्यनुं नहि (कारण के परिणामो पोतपोताना द्रव्यना आश्रये छे, अन्यना परिणामनो अन्य आश्रय नथी होतो); [इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति] वळी कर्म कर्ता विना होतुं नथी, [च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न] तेम ज वस्तुनी एकरूपे स्थिति (अर्थात् कूटस्थ स्थिति) होती नथी (कारण के वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होवाथी सर्वथा नित्यपणुं बाधासहित छे); [ततः तद् एव कर्तृ भवतु] माटे वस्तु पोते ज पोताना परिणामरूप कर्मनी कर्ता छे ( निश्चय-सिद्धांत छे). २११.

हवे आगळनी गाथाओनी सूचनारूपे काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[स्वयं स्फु टत्-अनन्त-शक्तिः] जेने पोताने अनंत शक्ति प्रकाशमान छे


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(रथोद्धता)
वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो
येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्
निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य कः
किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि
।।२१३।।

एवी वस्तु [बहिः यद्यपि लुठति] अन्य वस्तुनी बहार जोके लोटे छे [तथापि अन्य-वस्तु अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति] तोपण अन्य वस्तु अन्य वस्तुनी अंदर प्रवेशती नथी, [यतः सकलम् एव वस्तु स्वभाव-नियतम् इष्यते] कारण के समस्त वस्तुओ पोतपोताना स्वभावमां निश्चित छे एम मानवामां आवे छे. (आचार्यदेव कहे छे के) [इह] आम होवा छतां, [मोहितः] मोहित जीव, [स्वभाव-चलन-आकुलः] पोताना स्वभावथी चलित थइने आकुळ थतो थको, [किम् क्लिश्यते] शा माटे कलेश पामे छे?

भावार्थःवस्तुस्वभाव तो नियमरूपे एवो छे के कोई वस्तुमां कोई वस्तु मळे नहि. आम होवा छतां, आ मोही प्राणी, ‘परज्ञेयो साथे पोताने पारमार्थिक संबंध छे’ एम मानीने, क्लेश पामे छे, ते मोटुं अज्ञान छे. २१२.

फरी आगळनी गाथाओनी सूचनारूपे बीजुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[इह च] आ लोकमां [येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न] एक वस्तु अन्य वस्तुनी नथी, [तेन खलु वस्तु तत् वस्तु] तेथी खरेखर वस्तु छे ते वस्तु ज छे[अयम् निश्चयः] ए निश्चय छे. [कः अपरः] आम होवाथी कोई अन्य वस्तु [अपरस्य बहिः लुठन् अपि हि] अन्य वस्तुनी बहार लोटतां छतां [किं करोति] तेने शुं करी शके?

भावार्थःवस्तुनो स्वभाव तो एवो छे के एक वस्तु अन्य वस्तुने पलटावी न शके. जो एम न होय तो वस्तुनुं वस्तुपणुं ज न ठरे. आम ज्यां एक वस्तु अन्यने परिणमावी शकती नथी त्यां एक वस्तुए अन्यने शुं कर्युं? कांई न कर्युं. चेतन-वस्तु साथे एकक्षेत्रावगाहरूपे पुद्गलो रहेलां छे तोपण चेतनने जड करीने पोतारूपे तो परिणमावी शक्यां नहि; तो पछी पुद्गले चेतनने शुं कर्युं? कांई न कर्युं.

आ उपरथी एम समजवुं केव्यवहारे परद्रव्योने अने आत्माने ज्ञेयज्ञायक संबंध होवा छतां परद्रव्यो ज्ञायकने कांई करतां नथी अने ज्ञायक परद्रव्योने कांई करतो नथी. २१३.

हवे, ए ज अर्थने द्रढ करतुं त्रीजुं काव्य कहे छेः


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(रथोद्धता)
यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः
किञ्चनापि परिणामिनः स्वयम्
व्यावहारिकद्रशैव तन्मतं
नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ।।२१४।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि
तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सो दु ।।३५६।।

श्लोकार्थः[वस्तु] एक वस्तु [स्वयम् परिणामिनः अन्य-वस्तुनः] स्वयं परिणमती अन्य वस्तुने [किञ्चन अपि कुरुते] कांई पण करी शके छे[यत् तु] एम जे मानवामां आवे छे, [तत् व्यावहारिक- द्रशा एव मतम्] ते व्यवहारद्रष्टिथी ज मानवामां आवे छे. [निश्चयात्] निश्चयथी [इह अन्यत् किम् अपि न अस्ति] आ लोकमां अन्य वस्तुने अन्य वस्तु कांई पण नथी (अर्थात् एक वस्तुने अन्य वस्तु साथे कांई पण संबंध नथी).

भावार्थःएक द्रव्यना परिणमनमां अन्य द्रव्य निमित्त देखीने एम कहेवुं के ‘अन्य द्रव्ये आ कर्युं’, ते व्यवहारनयनी द्रष्टिथी ज छे; निश्चयथी तो ते द्रव्यमां अन्य द्रव्ये कांई कर्युं नथी. वस्तुना पर्यायस्वभावने लीधे वस्तुनुं पोतानुं ज एक अवस्थाथी बीजी अवस्थारूप परिणमन थाय छे; तेमां अन्य वस्तु पोतानुं कांई भेळवी शकती नथी.

आ उपरथी एम समजवुं केपरद्रव्यरूप ज्ञेय पदार्थो तेमना भावे परिणमे छे अने ज्ञायक आत्मा पोताना भावे परिणमे छे; तेओ एकबीजाने परस्पर कांई करी शकता नथी. माटे ‘ज्ञायक परद्रव्योने जाणे छे’ एम व्यवहारथी ज मानवामां आवे छे; निश्चयथी ज्ञायक तो बस ज्ञायक ज छे. २१४.

(‘खडी तो खडी ज छे’ए निश्चय छे; ‘खडी-स्वभावे परिणमती खडी भींत-स्वभावे परिणमती भींतने सफेद करे छे’ एम कहेवुं ते पण व्यवहारकथन छे. तेवी रीते ‘ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे’ए निश्चय छे; ‘ज्ञायकस्वभावे परिणमतो ज्ञायक परद्रव्यस्वभावे परिणमतां एवां परद्रव्योने जाणे छे’ एम कहेवुं ते पण व्यवहारकथन छे.) आवा निश्चय-व्यवहार कथनने हवे गाथाओमां द्रष्टांत द्वारा स्पष्ट कहे छेः

ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
ज्ञायक नथी त्यम पर तणो, ज्ञायक खरे ज्ञायक तथा; ३५६.

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जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि
तह पासगो दु ण परस्स पासगो पासगो सो दु ।।३५७।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सडिया य सा होदि
तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सो दु ।।३५८।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि
तह दंसणं तु ण परस्स दंसणं दंसणं तं तु ।।३५९।।
एवं तु णिच्छयणयस्स भासिदं णाणदंसणचरित्ते
सुणु ववहारणयस्स य वत्तव्वं से समासेण ।।३६०।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण
तह परदव्वं जाणदि णादा वि सएण भावेण ।।३६१।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण
तह परदव्वं पस्सदि जीवो वि सएण भावेण ।।३६२।।
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
दर्शक नथी त्यम पर तणो, दर्शक खरे दर्शक तथा; ३५७.
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
संयत नथी त्यम पर तणो, संयत खरे संयत तथा; ३५८.
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
दर्शन नथी त्यम पर तणुं, दर्शन खरे दर्शन तथा. ३५९.
एम ज्ञान-दर्शन-चरितविषयक कथन निश्चयनय तणुं;
सांभळ कथन संक्षेपथी एना विषे व्यवहारनुं. ३६०.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
ज्ञाताय ए रीत जाणतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६१.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
आत्माय ए रीत देखतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६२.

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जह परदव्वं सेडदि दु सेडिया अप्पणो सहावेण
तह परदव्वं विजहदि णादा वि सएण भावेण ।।३६३।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण
तह परदव्वं सद्दहदि सम्मदिट्ठी सहावेण ।।३६४।।
एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते
भणिदो अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णादव्वो ।।३६५।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति
तथा ज्ञायकस्तु न परस्य ज्ञायको ज्ञायकः स तु ।।३५६।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति
तथा दर्शकस्तु न परस्य दर्शको दर्शकः स तु ।।३५७।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति
तथा संयतस्तु न परस्य संयतः संयतः स तु ।।३५८।।
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
ज्ञाताय ए रीत त्यागतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६३.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
सुद्रष्टि ए रीत श्रद्धतो निज भावथी परद्रव्यने. ३६४.
एम ज्ञान-दर्शन-चरितमां निर्णय कह्यो व्यवहारनो,
ने अन्य पर्यायो विषे पण ए ज रीते जाणवो. ३६५.

गाथार्थः(जोके व्यवहारे परद्रव्योने अने आत्माने ज्ञेय-ज्ञायक, द्रश्य-दर्शक, त्याज्य- त्याजक इत्यादि संबंध छे, तोपण निश्चये तो आ प्रमाणे छेः) [यथा] जेम [सेटिका तु] खडी [परस्य न] परनी (भींत आदिनी) नथी, [सेटिका] खडी [सा च सेटिका भवति] ते तो खडी ज छे, [तथा] तेम [ज्ञायकः तु] ज्ञायक (जाणनारो, आत्मा) [परस्य न] परनो (परद्रव्यनो) नथी, [ज्ञायकः] ज्ञायक [सः तु ज्ञायकः] ते तो ज्ञायक ज छे. [यथा] जेम [सेटिका तु] खडी [परस्य न] परनी नथी, [सेटिका] खडी [सा च सेटिका भवति] ते तो खडी ज छे, [तथा] तेम [दर्शकः तु] दर्शक (देखनारो, आत्मा) [परस्य न] परनो नथी, [दर्शकः] दर्शक [सः तु दर्शकः]


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यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति
तथा दर्शनं तु न परस्य दर्शनं दर्शनं तत्तु ।।३५९।।
एवं तु निश्चयनयस्य भाषितं ज्ञानदर्शनचरित्रे
शृणु व्यवहारनयस्य च वक्तव्यं तस्य समासेन ।।३६०।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन
तथा परद्रव्यं जानाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ।।३६१।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन
तथा परद्रव्यं पश्यति जीवोऽपि स्वकेन भावेन ।।३६२।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन
तथा परद्रव्यं विजहाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ।।३६३।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन
तथा परद्रव्यं श्रद्धत्ते सम्यग्द्रष्टिः स्वभावेन ।।३६४।।

ते तो दर्शक ज छे. [यथा] जेम [सेटिका तु] खडी [परस्य न] परनी (भींत आदिनी) नथी, [सेटिका] खडी [सा च सेटिका भवति] ते तो खडी ज छे, [तथा] तेम [संयतः तु] संयत (त्याग करनारो, आत्मा) [परस्य न] परनो (परद्रव्यनो) नथी, [संयतः] संयत [सः तु संयतः] ते तो संयत ज छे. [यथा] जेम [सेटिका तु] खडी [परस्य न] परनी नथी, [सेटिका] खडी [सा च सेटिका भवति] ते तो खडी ज छे, [तथा] तेम [दर्शनं तु] दर्शन अर्थात् श्रद्धान [परस्य न] परनुं नथी, [दर्शनं तत् तु दर्शनम्] दर्शन ते तो दर्शन ज छे अर्थात् श्रद्धान ते तो श्रद्धान ज छे.

[एवं तु] ए प्रमाणे [ज्ञानदर्शनचरित्रे] ज्ञान-दर्शन-चारित्र विषे [निश्चयनयस्य भाषितम्] निश्चयनयनुं कथन छे. [तस्य च] वळी ते विषे [समासेन] संक्षेपथी [व्यवहारनयस्य वक्तव्यं] व्यवहारनयनुं कथन [शृणु] सांभळ.

[यथा] जेम [सेटिका] खडी [आत्मनः स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] (भींत आदि) परद्रव्यने [सेटियति] सफेद करे छे, [तथा] तेम [ज्ञाता अपि] ज्ञाता पण [स्वकेन भावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [जानाति] जाणे छे. [यथा] जेम [सेटिका] खडी [आत्मनः स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [सेटयति] सफेद करे छे, [तथा] तेम [जीवः अपि] जीव पण [स्वकेन भावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [पश्यति] देखे छे. [यथा] जेम [सेटिका] खडी [आत्मनः स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [सेटयति]

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एवं व्यवहारस्य तु विनिश्चयो ज्ञानदर्शनचरित्रे
भणितोऽन्येष्वपि पर्यायेषु एवमेव ज्ञातव्यः ।।३६५।।

सेटिकात्र तावच्छवेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेण श्वैत्यं कुङ्यादिपरद्रव्यम् अथात्र कुडयादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यतेयदि सेटिका कुडयादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति, यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति सेटिका कुडयादेर्भवन्ती कुडयादिरेव भवेत्; एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः न च द्रव्यान्तरसङ्क्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो न भवति सेटिका कुडयादेः यदि न भवति सेटिका कुडयादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति ननु कतराऽन्या सेटिका सेटिकायाः


सफेद करे छे, [तथा] तेम [ज्ञाता अपि] ज्ञाता पण [स्वकेन भावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [विजहाति] त्यागे छे. [यथा] जेम [सेटिका] खडी [आत्मनः स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [सेटयति] सफेद करे छे, [तथा] तेम [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [स्वभावेन] पोताना स्वभावथी [परद्रव्यं] परद्रव्यने [श्रद्धत्ते] श्रद्धे छे. [एवं तु] आ प्रमाणे [ज्ञानदर्शनचरित्रे] ज्ञान-दर्शन-चारित्र विषे [व्यवहारनयस्य विनिश्चयः] व्यवहारनयनो निर्णय [भणितः] कह्यो; [अन्येषु पर्यायेषु अपि] बीजा पर्यायो विषे पण [एवम् एव ज्ञातव्यः] ए रीते ज जाणवो.

टीकाःआ जगतमां खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. भींत -आदि परद्रव्य व्यवहारे ते खडीनुं श्वैत्य छे (अर्थात् खडी वडे श्वेत करावायोग्य पदार्थ छे). हवे, ‘श्वेत करनारी खडी, श्वेत करावायोग्य जे भींत-आदि परद्रव्य तेनी छे के नथी?’ एम ते बन्नेनो तात्त्विक (पारमार्थिक) संबंध अहीं विचारवामां आवे छेःजो खडी भींत-आदि परद्रव्यनी होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे (जुदुं द्रव्य नथी);’आवो तात्त्विक संबंध जीवंत (अर्थात् विद्यमान) होवाथी, खडी जो भींत-आदिनी होय तो खडी ते भींत -आदि ज होय (अर्थात् खडी भींत-आदिस्वरूप ज होवी जोईए, भींत-आदिथी जुदुं द्रव्य न होवुं जोईए); एम होतां, खडीना स्वद्रव्यनो उच्छेद (नाश) थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो


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यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः यथायं द्रष्टान्तस्तथायं दार्ष्टान्तिक :चेतयितात्र तावद् ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेण ज्ञेयं पुद्गलादिपरद्रव्यम् अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्य ज्ञेयस्य ज्ञायकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्व- सम्बन्धो मीमांस्यतेयदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः न च द्रव्यान्तर- सङ्क्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न


छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) खडी भींत-आदिनी नथी. (आगळ विचारीएः) जो खडी भींत -आदिनी नथी, तो खडी कोनी छे? खडीनी ज खडी छे. (आ) खडीथी जुदी एवी बीजी कई खडी छे के जेनी (आ) खडी छे? (आ) खडीथी जुदी अन्य कोई खडी नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी खडी कोईनी नथी, खडी खडी ज छेए निश्चय छे. (ए प्रमाणे द्रष्टांत कह्युं.) जेम आ द्रष्टांत छे, तेम आ (नीचे प्रमाणे) दार्ष्टांत छेःआ जगतमां चेतयिता (चेतनारो अर्थात् आत्मा) छे ते ज्ञानगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते चेतयितानुं (आत्मानुं) ज्ञेय छे. हवे, ‘ज्ञायक (अर्थात् जाणनारो) चेतयिता, ज्ञेय (अर्थात् जणावायोग्य) जे पुद्गलादि परद्रव्य तेनो छे के नथी?’ एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेःजो चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;’आवो तात्त्विक संबंध जीवंत (अर्थात् छतो) होवाथी, चेतयिता जो पुद्गलादिनो होय तो चेतयिता ते पुद्गलादि ज होय (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ज होवो जोईए, पुद्गलादिथी जुदुं द्रव्य न होवुं जोईए); एम होतां, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) चेतयिता पुद्गलादिनो नथी. (आगळ विचारीएः) जो चेतयिता पुद्गलादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? चेतयितानो ज चेतयिता छे. (आ) चेतयिताथी जुदो एवो बीजो कयो चेतयिता छे


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खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंश- व्यवहारेण ? न किमपि तर्हि न कस्यापि ज्ञायकः, ज्ञायको ज्ञायक एवेति निश्चयः

किञ्च सेटिकात्र तावच्छवेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेण श्वैत्यं कुडयादिपरद्रव्यम् अथात्र कुडयादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यतेयदि सेटिका कुडयादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति सेटिका कुडयादेर्भवन्ती कुडयादिरेव भवेत्; एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः न च द्रव्यान्तरसङ्क्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो न भवति सेटिका कुडयादेः यदि न भवति सेटिका कुडयादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति ननु कतराऽन्या सेटिका सेटिकायाः यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या


के जेनो (आ) चेतयिता छे? (आ) चेतयिताथी जुदो अन्य कोई चेतयिता नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी ज्ञायक कोईनो नथी, ज्ञायक ज्ञायक ज छेए निश्चय छे.

(आ रीते अहीं एम बताव्युं केः ‘आत्मा परद्रव्यने जाणे छे’ए व्यवहारकथन छे; ‘आत्मा पोताने जाणे छे’एम कहेवामां पण स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहार छे; ‘ज्ञायक ज्ञायक ज छे’ए निश्चय छे.)

वळी (जेवी रीते ज्ञायक विषे द्रष्टांत-दार्ष्टांतथी कह्युं) एवी रीते दर्शक विषे कहेवामां आवे छेःआ जगतमां खडी छे ते श्वेतगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. भींत-आदि परद्रव्य व्यवहारे ते खडीनुं श्वैत्य छे (अर्थात् खडी वडे श्वेत करावायोग्य पदार्थ छे). हवे, ‘श्वेत करनारी खडी, श्वेत करावायोग्य जे भींत-आदि परद्रव्य तेनी छे के नथी?’एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेःजो खडी भींत-आदि परद्रव्यनी होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;’आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, खडी जो भींत-आदिनी होय तो खडी ते भींत-आदि ज होय (अर्थात् खडी भींत-आदिस्वरूप ज होवी जोईए); एम होतां, खडीना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) खडी भींत-आदिनी नथी. (आगळ विचारीएः) जो खडी भींत-आदिनी नथी तो खडी


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सेटिका सेटिकायाः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः यथायं द्रष्टान्तस्तथायं दार्ष्टान्तिकःचेतयितात्र तावद्दर्शनगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेण द्रश्यं पुद्गलादिपरद्रव्यम् अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्य द्रश्यस्य दर्शकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यतेयदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः न च द्रव्यान्तरसङ्क्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि


कोनी छे? खडीनी ज खडी छे. (आ) खडीथी जुदी एवी बीजी कई खडी छे के जेनी (आ) खडी छे? (आ) खडीथी जुदी अन्य कोई खडी नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज छे. अहीं स्व-स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं साध्य छे? कांई साध्य नथी. तो पछी खडी कोईनी नथी, खडी खडी ज छेए निश्चय छे. जेम आ द्रष्टांत छे, तेम आ (नीचे प्रमाणे) दार्ष्टांत छेःआ जगतमां चेतयिता छे ते दर्शनगुणथी भरेला स्वभाववाळुं द्रव्य छे. पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारे ते चेतयितानुं द्रश्य छे. हवे, ‘दर्शक (देखनारो अथवा श्रद्धनारो) चेतयिता, द्रश्य (देखावायोग्य अथवा श्रद्धावायोग्य) जे पुद्गलादि परद्रव्य तेनो छे के नथी?’एम ते बन्नेनो तात्त्विक संबंध अहीं विचारवामां आवे छेःजो चेतयिता पुद्गलादिनो होय तो शुं थाय ते प्रथम विचारीएः ‘जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे;’आवो तात्त्विक संबंध जीवंत होवाथी, चेतयिता जो पुद्गलादिनो होय तो चेतयिता ते पुद्गलादि ज होय (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ज होवो जोईए); एम होतां, चेतयिताना स्वद्रव्यनो उच्छेद थाय. परंतु द्रव्यनो उच्छेद तो थतो नथी, कारण के एक द्रव्यनुं अन्य द्रव्यरूपे संक्रमण थवानो तो पूर्वे ज निषेध कर्यो छे. माटे (ए सिद्ध थयुं के) चेतयिता पुद्गलादिनो नथी. (आगळ विचारीएः) जो चेतयिता पुद्गलादिनो नथी तो चेतयिता कोनो छे? चेतयितानो ज चेतयिता छे. (आ) चेतयिताथी जुदो एवो बीजो कयो चेतयिता छे के जेनो (आ) चेतयिता छे? (आ) चेतयिताथी जुदो अन्य कोई चेतयिता नथी, परंतु तेओ बे स्व-स्वामीरूप अंशो ज