Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 3-12 ; Kalash: 4-6.

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अथैतद्बाध्यते
एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुंदरो लोगे
बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि ।।३।।
एकत्वनिश्चयगतः समयः सर्वत्र सुन्दरो लोके
बन्धकथैकत्वे तेन विसंवादिनी भवति ।।३।।

समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते, समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्तेः ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावन्तः केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचुम्बिनोऽपि परस्परमचुम्बन्तोऽत्यन्त-

भावार्थजीव नामनी वस्तुने पदार्थ कहेल छे. ‘जीव’ एवो अक्षरोनो समूह ते ‘पद’ छे अने ते पदथी जे द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतस्वरूपपणुं निश्चित करवामां आवे ते पदार्थ छे. ए जीवपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप छे, दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप छे, अनंतधर्म- स्वरूप द्रव्य छे, द्रव्य होवाथी वस्तु छे, गुणपर्यायवाळो छे, तेनुं स्वपरप्रकाशकज्ञान अनेकाकाररूप एक छे, वळी ते (जीवपदार्थ) आकाशादिथी भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप छे अने अन्य द्रव्यो साथे एक क्षेत्रमां रहेवा छतां पोताना स्वरूपने छोडतो नथी. आवो जीव नामनो पदार्थ समय छे. ज्यारे ते पोताना स्वभावमां स्थित होय त्यारे तो स्वसमय छे अने परस्वभाव रागद्वेषमोहरूप थईने रहे त्यारे परसमय छे. ए प्रमाणे जीवने द्विविधपणुं आवे छे.

हवे, समयना द्विविधपणामां आचार्य बाधा बतावे छेः

एकत्वनिश्चय-गत समय सर्वत्र सुंदर लोकमां;
तेथी बने विखवादिनी बंधनकथा एकत्वमां. ३.

गाथार्थ[एकत्वनिश्चयगतः] एकत्वनिश्चयने प्राप्त जे [समयः] समय छे ते [लोके] लोकमां [सर्वत्र] बधेय [सुन्दरः] सुंदर छे [तेन] तेथी [एक त्वे] एकत्वमां [बन्धकथा] बीजाना साथे बंधनी कथा [विसंवादिनी] विसंवादविरोध करनारी [भवति] छे.

टीकाअहीं ‘समय’ शब्दथी सामान्यपणे सर्व पदार्थ कहेवामां आवे छे कारण के व्युत्पत्ति प्रमाणे ‘समयते’ एटले एकीभावे (एकत्वपूर्वक) पोताना गुणपर्यायोने प्राप्त थई जे परिणमन करे ते समय छे. तेथी धर्म-अधर्म-आकाश-काळ-पुद्गल-जीवद्रव्यस्वरूप लोकमां सर्वत्र जे कोई जेटला जेटला पदार्थो छे ते बधाय निश्चयथी (नक्की) एकत्वनिश्चयने प्राप्त होवाथी


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प्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतन्तः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानन्तव्यक्तित्वाट्टङ्कोत्कीर्णा इव तिष्ठन्तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौन्दर्यमापद्यन्ते, प्रकारान्तरेण सर्वसङ्करादिदोषापत्तेः एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति जीवाह्वयस्य समयस्य बन्धकथाया एव विसंवादापत्तिः कुतस्तन्मूलपुद्गलकर्मप्रदेश- स्थितत्वमूलपरसमयत्वोत्पादितमेतस्य द्वैविध्यम् अतः समयस्यैकत्वमेवावतिष्ठते

अथैतदसुलभत्वेन विभाव्यते

सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।४।।

ज सुंदरता पामे छे कारण के अन्य प्रकारे तेमां सर्वसंकर आदि दोषो आवी पडे. केवा छे ते सर्व पदार्थो? पोताना द्रव्यमां अंतर्मग्न रहेल पोताना अनंत धर्मोना चक्रने (समूहने) चुंबे छेस्पर्शे छे तोपण जेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी, अत्यंत निकट एकक्षेत्रावगाहरूपे रह्या छे तोपण जेओ सदाकाळ पोताना स्वरूपथी पडता नथी, पररूपे नहि परिणमवाने लीधे अनंत व्यक्तिता नाश पामती नथी माटे जेओ टंकोत्कीर्ण जेवा (शाश्वत) स्थित रहे छे अने समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्यना हेतुपणाथी जेओ हंमेशां विश्वने उपकार करे छेटकावी राखे छे. आ प्रमाणे सर्व पदार्थोनुं भिन्न भिन्न एकपणुं सिद्ध थवाथी जीव नामना समयने बंधकथाथी ज विसंवादनी आपत्ति आवे छे; तो पछी बंध जेनुं मूळ छे एवुं जे पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित थवुं, ते जेनुं मूळ छे एवुं परसमयपणुं, तेनाथी उत्पन्न थतुं (परसमय-स्वसमयरूप) द्विविधपणुं तेने (जीव नामना समयने) क्यांथी होय? माटे समयनुं एकपणुं होवुं ज सिद्ध थाय छे.

भावार्थनिश्चयथी सर्व पदार्थ पोतपोताना स्वभावमां स्थित रह्ये ज शोभा पामे छे. परंतु जीव नामना पदार्थनी अनादि काळथी पुद्गलकर्म साथे निमित्तरूप बंध-अवस्था छे; ते बंधावस्थाथी आ जीवमां विसंवाद खडो थाय छे तेथी ते शोभा पामतो नथी. माटे वास्तविक रीते विचारवामां आवे तो एकपणुं ज सुंदर छे; तेनाथी आ जीव शोभा पामे छे.

हवे ते एकत्वनी असुलभता बतावे छे

श्रुत-परिचित-अनुभूत सर्वने कामभोगबंधननी कथा;
परथी जुदा एकत्वनी उपलब्धि केवळ सुलभ ना. ४.

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श्रुतपरिचितानुभूता सर्वस्यापि कामभोगबन्धकथा
एकत्वस्योपलम्भः केवलं न सुलभो विभक्तस्य ।।४।।

इह किल सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपितस्याश्रान्तमनन्तद्रव्यक्षेत्र- कालभवभावपरावर्तैः समुपक्रान्तभ्रान्तेरेकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव वाह्यमानस्य प्रसभोज्जृम्भिततृष्णातङ्कत्वेन व्यक्तान्तराधेरुत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुन्धानस्य परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनन्तशः श्रुतपूर्वानन्तशः परिचितपूर्वानन्तशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुद्धत्वेना- त्यन्तविसंवादिन्यपि कामभोगानुबद्धा कथा इदं तु नित्यव्यक्ततयान्तःप्रकाशमानमपि कषायचक्रेण सहैकीक्रियमाणत्वादत्यन्ततिरोभूतं सत् स्वस्यानात्मज्ञतया परेषामात्मज्ञानामनुपासनाच्च न

गाथार्थ[सर्वस्य अपि] सर्व लोकने [कामभोगबन्धकथा] कामभोगसंबंधी बंधनी कथा तो [श्रुतपरिचितानुभूता] सांभळवामां आवी गई छे, परिचयमां आवी गई छे अने अनुभवमां पण आवी गई छे तेथी सुलभ छे; पण [विभक्तस्य] भिन्न आत्मानुं [एकत्वस्य उपलम्भः] एकपणुं होवुं कदी सांभळ्युं नथी, परिचयमां आव्युं नथी अने अनुभवमां आव्युं नथी तेथी [केवलं] एक ते [न सुलभः] सुलभ नथी.

टीकाआ समस्त जीवलोकने, कामभोगसंबंधी कथा एकपणाथी विरुद्ध होवाथी अत्यंत विसंवादी छे (आत्मानुं अत्यंत बूरुं करनारी छे) तोपण, पूर्वे अनंत वार सांभळवामां आवी छे, अनंत वार परिचयमां आवी छे अने अनंत वार अनुभवमां पण आवी चूकी छे. केवो छे जीवलोक? जे संसाररूपी चक्रना मध्यमां स्थित छे, निरंतरपणे द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव अने भावरूप अनंत परावर्तोने लीधे जेने भ्रमण प्राप्त थयुं छे, समस्त विश्वने एकछत्र राज्यथी वश करनार मोटुं मोहरूपी भूत जेनी पासे बळदनी जेम भार वहेवडावे छे, जोरथी फाटी नीकळेला तृष्णारूपी रोगना दाहथी जेने अंतरंगमां पीडा प्रगट थई छे, आकळो बनी बनीने मृगजळ जेवा विषयग्रामने (इन्द्रियविषयोना समूहने) जे घेरो घाले छे अने जे परस्पर आचार्यपणुं पण करे छे (अर्थात् बीजाने कही ते प्रमाणे अंगीकार करावे छे). तेथी कामभोगनी कथा तो सौने सुलभ (सुखे प्राप्त) छे. पण निर्मळ भेदज्ञानरूप प्रकाशथी स्पष्ट भिन्न देखवामां आवे छे एवुं मात्र आ भिन्न आत्मानुं एकपणुं जजे सदा प्रगटपणे अंतरंगमां प्रकाशमान छे तोपण कषायचक्र (कषायसमूह) साथे एकरूप जेवुं करवामां आवतुं होवाथी अत्यंत तिरोभाव पाम्युं छे (ढंकाई रह्युं छे) तेपोतामां अनात्मज्ञपणुं होवाथी (पोते आत्माने नहि जाणतो होवाथी) अने बीजा आत्माने जाणनाराओनी संगतिसेवा


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कदाचिदपि श्रुतपूर्वं, न कदाचिदपि परिचितपूर्वं, न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं च निर्मलविवेकालोक- विविक्तं केवलमेकत्वम् अत एकत्वस्य न सुलभत्वम्

अत एवैतदुपदर्श्यते
तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण
जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।।५।।
तमेकत्वविभक्तं दर्शयेऽहमात्मनः स्वविभवेन
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम् ।।५।।

नहि करी होवाथी, नथी पूर्वे कदी सांभळवामां आव्युं, नथी पूर्वे कदी परिचयमां आव्युं अने नथी पूर्वे कदी अनुभवमां आव्युं. तेथी भिन्न आत्मानुं एकपणुं सुलभ नथी.

भावार्थआ लोकमां सर्व जीवो संसाररूपी चक्र पर चडी पांच परावर्तनरूप भ्रमण करे छे. त्यां तेमने मोहकर्मना उदयरूप पिशाच धोंसरे जोडे छे, तेथी तेओ विषयोनी तृष्णारूप दाहथी पीडित थाय छे अने ते दाहनो इलाज इन्द्रियोना रूपादि विषयोने जाणीने ते पर दोडे छे; तथा परस्पर पण विषयोनो ज उपदेश करे छे. ए रीते काम (विषयोनी इच्छा) तथा भोग (तेमने भोगववुं)ए बेनी कथा तो अनंत वार सांभळी, परिचयमां लीधी अने अनुभवी तेथी सुलभ छे. पण सर्व परद्रव्योथी भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप पोताना आत्मानी कथानुं ज्ञान पोताने तो पोताथी कदी थयुं नहि, अने जेमने ते ज्ञान थयुं हतुं तेमनी सेवा कदी करी नहि; तेथी तेनी कथा (वात) न कदी सांभळी, न तेनो परिचय कर्यो के न तेनो अनुभव थयो. माटे तेनी प्राप्ति सुलभ नथी, दुर्लभ छे.

हवे आचार्य कहे छे के, तेथी ज जीवोने ते भिन्न आत्मानुं एकत्व अमे दर्शावीए छीए

दर्शावुं एक विभक्त ए, आत्मा तणा निज विभवथी;
दर्शावुं तो करजो प्रमाण, न दोष ग्रह स्खलना यदि. ५.

गाथार्थ[तम्] ते [एकत्वविभक्त] एकत्वविभक्त आत्माने [अहं] हुं [आत्मनः] आत्माना [स्वविभवेन] निज वैभव वडे [दर्शये] देखाडुं छुं; [यदि] जो हुं [दर्शयेयं] देखाडुं तो [प्रमाणं] प्रमाण (स्वीकार) करवुं अने [स्खलेयं] जो कोई ठेकाणे चूकी जाउं तो [छलं] छळ [न][गृहीतव्यम्] ग्रहण करवुं.


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इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा, समस्तविपक्षक्षोदक्षमाति- निस्तुषयुक्त्यवलम्बनजन्मा, निर्मलविज्ञानघनान्तर्निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृ तशुद्धात्मतत्त्वानुशासन- जन्मा, अनवरतस्यन्दिसुन्दरानन्दमुद्रितामन्दसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्वो विभवस्तेन समस्तेनाप्ययं तमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेऽहमिति बद्धव्यवसायोऽस्मि किन्तु यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यम् यदि तु स्खलेयं तदा तु न छलग्रहणजागरूकैर्भवितव्यम्

टीकाआचार्य कहे छे के जे कांई मारा आत्मानो निजवैभव छे ते सर्वथी हुं आ एकत्व-विभक्त आत्माने दर्शावीश एवो में व्यवसाय (उद्यम, निर्णय) कर्यो छे. केवो छे मारा आत्मानो निजविभव? आ लोकमां प्रगट समस्त वस्तुओनो प्रकाश करनार अने ‘स्यात्’ पदनी मुद्रावाळो जे शब्दब्रह्मअर्हंतनां परमागमतेनी उपासनाथी जेनो जन्म छे. (‘स्यात्’नो अर्थ ‘कथंचित्’ छे एटले के ‘कोई प्रकारथी कहेवुं’. परमागमने शब्दब्रह्म कह्यां तेनुं कारणः अर्हंतनां परमागममां सामान्य धर्मोवचनगोचर सर्व धर्मोनां नाम आवे छे; अने वचनथी अगोचर जे कोई विशेष धर्मो छे तेमनुं अनुमान कराववामां आवे छे; ए रीते ते सर्व वस्तुओनां प्रकाशक छे माटे सर्वव्यापी कहेवामां आवे छे, अने तेथी तेमने शब्दब्रह्म कहे छे.) वळी ते निजविभव केवो छे? समस्त जे विपक्षअन्यवादीओथी ग्रहण करवामां आवेल सर्वथा एकांतरूप नयपक्षतेमना निराकरणमां समर्थ जे अतिनिस्तुष निर्बाध युक्ति तेना अवलंबनथी जेनो जन्म छे. वळी ते केवो छे? निर्मळविज्ञानघन जे आत्मा तेमां अंतर्निमग्न परमगुरुसर्वज्ञदेव अने अपरगुरुगणधरादिकथी मांडीने अमारा गुरु पर्यंत, तेमनाथी प्रसादरूपे अपायेल जे शुद्धात्मतत्त्वनो अनुग्रहपूर्वक उपदेश, तेनाथी जेनो जन्म छे. वळी ते केवो छे? निरंतर झरतोआस्वादमां आवतो, सुंदर जे आनंद तेनी छापवाळुं जे प्रचुरसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन, तेनाथी जेनो जन्म छे. एम जे जे प्रकारे मारा ज्ञाननो विभव छे ते समस्त विभवथी दर्शावुं छुं. जो दर्शावुं तो स्वयमेव (पोते ज) पोताना अनुभव-प्रत्यक्षथी परीक्षा करी प्रमाण करवुं; जो क्यांय अक्षर, मात्रा, अलंकार, युक्ति आदि प्रकरणोमां चूकी जाउं तो छल (दोष) ग्रहण करवामां सावधान न थवुं. शास्त्रसमुद्रनां प्रकरण बहु छे माटे अहीं स्वसंवेदनरूप अर्थ प्रधान छे; तेथी अर्थनी परीक्षा करवी.

भावार्थआचार्य आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परापर गुरुनो उपदेश अने स्वसंवेदनए चार प्रकारे उत्पन्न थयेल पोताना ज्ञानना विभवथी एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मानुं स्वरूप देखाडे छे. तेने सांभळनारा हे श्रोताओ! पोताना स्वसंवेदन-प्रत्यक्षथी प्रमाण करो; क्यांय कोई प्रकरणमां भूलुं तो एटलो दोष ग्रहण न करवो एम कह्युं छे. अहीं पोतानो अनुभव प्रधान छे; तेनाथी शुद्ध स्वरूपनो निश्चय करोएम कहेवानो आशय छे.


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कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चेत्
ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो
एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ।।६।।
नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः
एवं भणन्ति शुद्धं ज्ञातो यः स तु स चैव ।।६।।

यो हि नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनन्तो नित्योद्योतो विशदज्योतिर्ज्ञायक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबन्धपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलैः सममेकत्वेऽपि द्रव्यस्वभाव- निरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिर्वर्तकानामुपात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवति एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते

हवे प्रश्न ऊपजे छे के एवो शुद्ध आत्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए? ए प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छे

नथी अप्रमत्त के प्रमत्त नथी जे एक ज्ञायक भाव छे,
ए रीत ‘शुद्ध’ कथाय, ने जे ज्ञात ते तो ते ज छे. ६.

गाथार्थ[यः तु] जे [ज्ञायकः भावः] ज्ञायक भाव छे ते [अप्रमत्तः अपि] अप्रमत्त पण [न भवति] नथी अने [न प्रमत्तः] प्रमत्त पण नथी, [एवं] ए रीते [शुद्धं] एने शुद्ध [भणन्ति] कहे छे; [च यः] वळी जे [ज्ञातः] ज्ञायकपणे जणायो [सः तु] ते तो [सः एव] ते ज छे, बीजो कोई नथी.

टीकाजे पोते पोताथी ज सिद्ध होवाथी (कोईथी उत्पन्न थयो नहि होवाथी) अनादि सत्तारूप छे, कदी विनाश पामतो नहि होवाथी अनंत छे, नित्यउद्योतरूप होवाथी क्षणिक नथी अने स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति छे एवो जे ज्ञायक एक ‘भाव’ छे, ते संसारनी अवस्थामां अनादि बंधपर्यायनी निरूपणाथी (अपेक्षाथी) क्षीरनीरनी जेम कर्मपुद्गलो साथे एकरूप होवा छतां, द्रव्यना स्वभावनी अपेक्षाथी जोवामां आवे तो दुरंत कषायचक्रना उदयनी (कषाय- समूहना अपार उदयोनी) विचित्रताना वशे प्रवर्तता जे पुण्य-पापने उत्पन्न करनार समस्त अनेकरूप शुभ-अशुभ भावो तेमना स्वभावे परिणमतो नथी (ज्ञायक भावथी जड भावरूप थतो नथी) तेथी प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी; ते ज समस्त अन्यद्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतो ‘शुद्ध’ कहेवाय छे.


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न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धेः दाह्यनिष्ठदहनस्येवाशुद्धत्वं, यतो हि तस्यामवस्थायां ज्ञायकत्वेन यो ज्ञातः स स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात् ज्ञायक एव

वळी दाह्यना (बळवायोग्य पदार्थना) आकारे थवाथी अग्निने दहन कहेवाय छे तोपण दाह्यकृत अशुद्धता तेने नथी, तेवी रीते ज्ञेयाकार थवाथी ते ‘भाव’ने ज्ञायकपणुं प्रसिद्ध छे तोपण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी; कारण के ज्ञेयाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे जे जणायो ते स्वरूप- प्रकाशननी (स्वरूपने जाणवानी) अवस्थामां पण, दीवानी जेम, कर्ता-कर्मनुं अनन्यपणुं होवाथी ज्ञायक ज छेपोते जाणनारो माटे पोते कर्ता अने पोताने जाण्यो माटे पोते ज कर्म. (जेम दीपक घटपटादिने प्रकाशित करवानी अवस्थामांय दीपक छे अने पोतानेपोतानी ज्योतिरूप शिखानेप्रकाशवानी अवस्थामां पण दीपक ज छे, अन्य कांई नथी; तेम ज्ञायकनुं समजवुं.)

भावार्थअशुद्धपणुं परद्रव्यना संयोगथी आवे छे. त्यां मूळ द्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप थतुं ज नथी, मात्र परद्रव्यना निमित्तथी अवस्था मलिन थई जाय छे. द्रव्य-द्रष्टिथी तो द्रव्य जे छे ते ज छे अने पर्याय(अवस्था)-द्रष्टिथी जोवामां आवे तो मलिन ज देखाय छे. ए रीते आत्मानो स्वभाव ज्ञायकपणुं मात्र छे, अने तेनी अवस्था पुद्गलकर्मना निमित्तथी रागादिरूप मलिन छे ते पर्याय छे. पर्यायनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो ते मलिन ज देखाय छे अने द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे, कांई जडपणुं थयुं नथी. अहीं द्रव्यद्रष्टिने प्रधान करी कह्युं छे. जे प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद छे ते तो परद्रव्यना संयोगजनित पर्याय छे. ए अशुद्धता द्रव्यद्रष्टिमां गौण छे, व्यवहार छे, अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे, उपचार छे. द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे, अभेद छे, निश्चय छे, भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे, परमार्थ छे. माटे आत्मा ज्ञायक ज छे; तेमां भेद नथी तेथी ते प्रमत्त-अप्रमत्त नथी. ‘ज्ञायक’ एवुं नाम पण तेने ज्ञेयने जाणवाथी आपवामां आवे छे कारण के ज्ञेयनुं प्रतिबिंब ज्यारे झळके छे त्यारे ज्ञानमां तेवुं ज अनुभवाय छे. तोपण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी कारण के जेवुं ज्ञेय ज्ञानमां प्रतिभासित थयुं तेवो ज्ञायकनो ज अनुभव करतां ज्ञायक ज छे. ‘आ हुं जाणनारो छुं ते हुं ज छुं, अन्य कोई नथी’

एवो पोताने पोतानो अभेदरूप अनुभव थयो

त्यारे ए जाणवारूप क्रियानो कर्ता पोते ज छे अने जेने जाण्युं ते कर्म पण पोते ज छे. आवो एक ज्ञायकपणामात्र पोते शुद्ध छे.आ शुद्धनयनो विषय छे. अन्य परसंयोगजनित भेदो छे ते बधा भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय छे. अशुद्धद्रव्यार्थिकनय पण शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां पर्यायार्थिक ज छे तेथी व्यवहारनय ज छे एम आशय जाणवो.

अहीं एम पण जाणवुं के जिनमतनुं कथन स्याद्वादरूप छे तेथी अशुद्धनयने सर्वथा


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दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत्
ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं
ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ।।७।।
व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्
नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ।।७।।

असत्यार्थ न मानवो; कारण के स्याद्वाद प्रमाणे शुद्धता अने अशुद्धताबन्ने वस्तुना धर्म छे अने वस्तुधर्म छे ते वस्तुनुं सत्त्व छे; अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी थाय छे ए ज फेर छे. अशुद्धनयने अहीं हेय कह्यो छे कारण के अशुद्धनयनो विषय संसार छे अने संसारमां आत्मा क्लेश भोगवे छे; ज्यारे पोते परद्रव्यथी भिन्न थाय त्यारे संसार मटे अने त्यारे क्लेश मटे. ए रीते दुःख मटाडवाने शुद्धनयनो उपदेश प्रधान छे. अशुद्धनयने असत्यार्थ कहेवाथी एम न समजवुं के आकाशना फूलनी जेम ते वस्तुधर्म सर्वथा ज नथी. एम सर्वथा एकांत समजवाथी मिथ्यात्व आवे छे; माटे स्याद्वादनुं शरण लई शुद्धनयनुं आलंबन करवुं जोईए. स्वरूपनी प्राप्ति थया पछी शुद्धनयनुं पण आलंबन नथी रहेतुं. जे वस्तुस्वरूप छे ते छेए प्रमाणद्रष्टि छे. एनुं फळ वीतरागता छे. आ प्रमाणे निश्चय करवो योग्य छे.

अहीं, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नथी एम कह्युं छे त्यां ‘प्रमत्त-अप्रमत्त’ एटले शुं? गुणस्थाननी परिपाटीमां छठ्ठा गुणस्थान सुधी तो प्रमत्त कहेवाय छे अने सातमाथी मांडीने अप्रमत्त कहेवाय छे. परंतु ए सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनी कथनीमां छे; शुद्धनयथी आत्मा ज्ञायक ज छे.

हवे प्रश्न थाय छे के दर्शन, ज्ञान, चारित्रए आत्माना धर्म कहेवामां आव्या छे, तो ए तो त्रण भेद थया; ए भेदरूप भावोथी आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे! आ प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः

चारित्र, दर्शन, ज्ञान पण व्यवहार-कथने ज्ञानीने;
चारित्र नहि, दर्शन नहीं, नहि ज्ञान, ज्ञायक शुद्ध छे. ७.

गाथार्थ[ज्ञानिनः] ज्ञानीने [चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्] चारित्र, दर्शन, ज्ञानए त्रण भाव [व्यवहारेण] व्यवहारथी [उपदिश्यते] कहेवामां आवे छे; निश्चयथी [ज्ञानं अपि न] ज्ञान पण नथी, [चरित्रं न] चारित्र पण नथी अने [दर्शनं न] दर्शन पण नथी; ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः शुद्धः] शुद्ध ज्ञायक ज छे.

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आस्तां तावद्बन्धप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यन्ते; यतो ह्यनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कै श्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां सूरीणां धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीतानन्तपर्यायतयैकं किञ्चिन्मिलितास्वादम- भेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं, ज्ञायक एवैकः शुद्धः

टीकाआ ज्ञायक आत्माने बंधपर्यायना निमित्तथी अशुद्धपणुं तो दूर रहो, पण एने दर्शन, ज्ञान, चारित्र पण विद्यमान नथी; कारण के अनंत धर्मोवाळा एक धर्मीमां जे निष्णात नथी एवा निकटवर्ती शिष्यजनने, धर्मीने ओळखावनारा केटलाक धर्मो वडे, उपदेश करता आचार्योनोजोके धर्म अने धर्मीनो स्वभावथी अभेद छे तोपण नामथी भेद उपजावीव्यवहारमात्रथी ज एवो उपदेश छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे. परंतु परमार्थथी जोवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य पी गयुं होवाथी जे एक छे एवुं कांईकमळी गयेला आस्वादवाळुं, अभेद, एकस्वभावी तत्त्वअनुभवनारने दर्शन पण नथी, ज्ञान पण नथी, चारित्र पण नथी, एक शुद्ध ज्ञायक ज छे.

भावार्थआ शुद्ध आत्माने कर्मबंधना निमित्तथी अशुद्धपणुं आवे छे ए वात तो दूर ज रहो, पण तेने दर्शन, ज्ञान, चारित्रना पण भेद नथी; कारण के वस्तु अनंतधर्मरूप एक धर्मी छे. परंतु व्यवहारी जन धर्मोने ज समजे छे, धर्मीने नथी जाणता; तेथी वस्तुना कोई असाधारण धर्मोने उपदेशमां लई अभेदरूप वस्तुमां पण धर्मोना नामरूप भेदने उत्पन्न करी एवो उपदेश करवामां आवे छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे. आम अभेदमां भेद करवामां आवे छे तेथी ते व्यवहार छे. परमार्थथी विचारवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य अभेदरूपे पीने बेठुं छे तेथी तेमां भेद नथी.

अहीं कोई कहे के पर्याय पण द्रव्यना ज भेद छे, अवस्तु तो नथी; तो तेने व्यवहार केम कही शकाय? तेनुं समाधानःए तो खरुं छे पण अहीं द्रव्यद्रष्टिथी अभेदने प्रधान करी उपदेश छे. अभेदद्रष्टिमां भेदने गौण कहेवाथी ज अभेद सारी रीते मालूम पडी शके छे. तेथी भेदने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो छे. अहीं एवो अभिप्राय छे के भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा नथी थती अने सरागीने विकल्प रह्या करे छे; माटे ज्यां सुधी रागादिक मटे नहि त्यां सुधी भेदने गौण करी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे. वीतराग थया बाद भेदाभेदरूप वस्तुनो ज्ञाता थई जाय छे त्यां नयनुं आलंबन ज रहेतुं नथी.


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तर्हि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत्

जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।।८।।
यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम्
तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम् ।।८।।

यथा खलु म्लेच्छः स्वस्तीत्यभिहिते सति तथाविधवाच्यवाचकसम्बन्धावबोधबहिष्कृतत्वान्न किञ्चिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव, यदा तु स एव तदेतद्भाषा- सम्बन्धैकार्थज्ञेनान्येन तेनैव वा म्लेच्छभाषां समुदाय स्वस्तिपदस्याविनाशो भवतो भवत्वित्यभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमन्दानन्दमयाश्रुझलज्झलल्लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत एव; तथा किल लोकोऽप्यात्मेत्यभिहिते सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानबहिष्कृतत्वान्न किञ्चिदपि प्रतिपद्यमानो

हवे फरी ए प्रश्न ऊठे छे के जो एम छे तो एक परमार्थनो ज उपदेश करवो जोईए; व्यवहार शा माटे कहो छो? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः

भाषा अनार्य विना न समजावी शकाय अनार्यने,
व्यवहार विण परमार्थनो उपदेश एम अशक्य छे. ८.

गाथार्थ[यथा] जेम [अनार्यः] अनार्य (म्लेच्छ) जनने [अनार्यभाषां विना तु] अनार्यभाषा विना [ग्राहयितुम्] कांई पण वस्तुनुं स्वरूप ग्रहण कराववा [न अपि शक्यः] कोई समर्थ नथी [तथा] तेम [व्यवहारेण विना] व्यवहार विना [परमार्थोपदेशनम्] परमार्थनो उपदेश करवा [अशक्यम्] कोई समर्थ नथी.

टीकाःजेम कोई म्लेच्छने कोई ब्राह्मण ‘स्वस्ति’ एवो शब्द कहे छे त्यारे ते म्लेच्छ ए शब्दना वाच्यवाचक संबंधना ज्ञानथी रहित होवाथी कांई पण न समजतां ब्राह्मण सामे मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे, पण ज्यारे ब्राह्मणनी भाषा अने म्लेच्छनी भाषाए बन्नेनो अर्थ जाणनार अन्य कोई पुरुष अथवा ते ज ब्राह्मण म्लेच्छभाषा बोलीने तेने समजावे छे के ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ ‘‘तारुं अविनाशी कल्याण थाओ’’ एवो छे त्यारे तुरत ज उत्पन्न थता अत्यंत आनंदमय आंसुओथी जेनां नेत्रो भराई जाय छे एवो ते म्लेच्छ ए ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ समजी जाय छे; एवी रीते


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मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव, यदा तु स एव व्यवहारपरमार्थपथप्रस्थापितसम्यग्बोध- महारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमन्दानन्दान्तःसुन्दरबन्धुरबोधतरङ्गस्तत्प्रतिपद्यत एव एवं म्लेच्छ- स्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः अथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्वयवहारनयो नानुसर्तव्यः

कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत्
जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं
तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ।।९।।

व्यवहारीजन पण ‘आत्मा’ एवो शब्द कहेवामां आवतां जेवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ छे ते अर्थना ज्ञानथी रहित होवाथी कांई पण न समजतां मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे, पण ज्यारे व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथने चलावनार सारथी समान अन्य कोई आचार्य अथवा तो ‘आत्मा’ शब्द कहेनार पोते ज व्यवहारमार्गमां रहीने ‘‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हमेशां प्राप्त होय ते आत्मा छे’’ एवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ समजावे छे त्यारे तुरत ज उत्पन्न थता अत्यंत आनंदथी जेना हृदयमां सुंदर बोधतरंगो (ज्ञानतरंगो) ऊछळे छे एवो ते व्यवहारीजन ते ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ सुंदर रीते समजी जाय छे. ए रीते जगत म्लेच्छना स्थाने होवाथी, अने व्यवहारनय पण म्लेच्छभाषाना स्थाने होवाने लीधे परमार्थनो प्रतिपादक (कहेनार) होवाथी व्यवहारनय स्थापन करवायोग्य छे; तेम ज ब्राह्मणे म्लेच्छ न थवुंए वचनथी ते (व्यवहारनय) अनुसरवा योग्य नथी.

भावार्थलोको शुद्धनयने जाणता नथी कारण के शुद्धनयनो विषय अभेद एकरूप वस्तु छे; तेओ अशुद्धनयने ज जाणे छे केम के तेनो विषय भेदरूप अनेकप्रकार छे; तेथी तेओ व्यवहार द्वारा ज परमार्थने समजी शके छे. आ कारणे व्यवहारनयने परमार्थनो कहेनार जाणी तेनो उपदेश करवामां आवे छे. अहीं एम न समजवुं के व्यवहारनुं आलंबन करावे छे पण अहीं तो व्यवहारनुं आलंबन छोडावी परमार्थे पहोंचाडे छे एम समजवुं.

हवे, ए प्रश्न उत्पन्न थाय छे के व्यवहारनय परमार्थनो प्रतिपादक केवी रीते छे? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छे


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जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा
णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ।।१०।। जुम्मं ।।
यो हि श्रुतेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम्
तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकप्रदीपकराः ।।९।।
यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुर्जिनाः
ज्ञानमात्मा सर्वं यस्माच्छ्रुतकेवली तस्मात् ।।१०।। युग्मम्

यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो; यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा ? न तावदनात्मा, समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपञ्चतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति अतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् एवं सति यः

श्रुतथी खरे जे शुद्ध केवळ जाणतो आ आत्मने,
लोकप्रदीपकरा ॠषि श्रुतकेवळी तेने कहे. ९.
श्रुतज्ञान सौ जाणे, जिनो श्रुतकेवळी तेने कहे;
सौ ज्ञान आत्मा होईने श्रुतकेवळी तेथी ठरे. १०.

गाथार्थ[यः] जे जीव [हि] निश्चयथी [श्रुतेन तु] श्रुतज्ञान वडे [इमं] अनुभवगोचर [केवलं शुद्धम्] केवळ एक शुद्ध [आत्मानम्] आत्माने [अभिगच्छति] सन्मुख थई जाणे छे [तं] तेने [लोकप्रदीपकराः] लोकने प्रगट जाणनारा [ऋषयः] ॠषीश्वरो [श्रुतकेवलिनम्] श्रुतकेवळी [भणन्ति] कहे छे; [यः] जे जीव [सर्वं] सर्व [श्रुतज्ञानं] श्रुतज्ञानने [जानाति] जाणे छे [तम्] तेने [जिनाः] जिनदेवो [श्रुतकेवलिनं] श्रुतकेवळी [आहुः] कहे छे, [यस्मात्] कारण के [ज्ञानम् सर्वं] ज्ञान बधुं [आत्मा] आत्मा ज छे [तस्मात्] तेथी [श्रुतकेवली] (ते जीव) श्रुतकेवळी छे.

टीकाःप्रथम, ‘‘जे श्रुतथी केवळ शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे’’ ते तो परमार्थ छे; अने ‘‘जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे’’ ते व्यवहार छे. अहीं बे पक्ष लई परीक्षा करीए छीएःउपर कहेलुं सर्व ज्ञान आत्मा छे के अनात्मा? जो अनात्मानो पक्ष लेवामां आवे तो ते बराबर नथी कारण के समस्त जे जडरूप अनात्मा आकाशादि पांच द्रव्यो छे तेमनुं ज्ञान साथे तादात्म्य बनतुं ज नथी (केम के तेमनामां ज्ञान


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आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु परमार्थ एव एवं ज्ञानज्ञानिनोर्भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किञ्चिदप्यतिरिक्तम् अथ च यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति

कुतो व्यवहारनयो नानुसर्तव्य इति चेत्
ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ।।११।।

सिद्ध ज नथी). तेथी अन्य पक्षनो अभाव होवाथी ज्ञान आत्मा ज छे ए पक्ष सिद्ध थाय छे. माटे श्रुतज्ञान पण आत्मा ज छे. आम थवाथी ‘जे आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे’ एम ज आवे छे; अने ते तो परमार्थ ज छे. आ रीते ज्ञान अने ज्ञानीना भेदथी कहेनारो जे व्यवहार तेनाथी पण परमार्थमात्र ज कहेवामां आवे छे. तेनाथी भिन्न अधिक कांई कहेवामां आवतुं नथी. वळी ‘‘जे श्रुतथी केवळ शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे’’ एवा परमार्थनुं प्रतिपादन करवुं अशक्य होवाथी, ‘‘जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे’’ एवो व्यवहार परमार्थना प्रतिपादकपणाथी पोताने द्रढपणे स्थापित करे छे.

भावार्थजे श्रुतथी अभेदरूप ज्ञायकमात्र शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे ए तो परमार्थ (निश्चय कथन) छे. वळी जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे तेणे पण ज्ञानने जाणवाथी आत्माने ज जाण्यो कारण के ज्ञान छे ते आत्मा ज छे; तेथी ज्ञान-ज्ञानीनो भेद कहेनारो जे व्यवहार तेणे पण परमार्थ ज कह्यो. अन्य कांई न कह्युं. वळी परमार्थनो विषय तो कथंचित् वचनगोचर पण नथी तेथी व्यवहारनय ज आत्माने प्रगटपणे कहे छे एम जाणवुं.

हवे वळी एवो प्रश्न ऊठे छे केपहेलां एम कह्युं हतुं के व्यवहारने अंगीकार न करवो, पण जो ते परमार्थनो कहेनार छे तो एवा व्यवहारने केम अंगीकार न करवो? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छे

व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे;
भूतार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे. ११.

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व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः
भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ।।११।।

व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थं प्रद्योतयति, शुद्धनय एक एव भूतार्थत्वात् भूतमर्थं प्रद्योतयति तथाहियथा प्रबलपङ्कसंवलनतिरोहितसहजैकाच्छभावस्य पयसोऽनुभवितारः पुरुषाः पङ्कपयसोर्विवेकमकुर्वन्तो बहवोऽनच्छमेव तदनुभवन्ति; केचित्तु स्वकरविकीर्णक तकनिपातमात्रोपजनितपङ्कपयोविवेकतया स्वपुरुषकाराविर्भावितसहजैकाच्छभावत्वाद- च्छमेव तदनुभवन्ति; तथा प्रबलकर्मसंवलनतिरोहितसहजैकज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितारः पुरुषा आत्मकर्मणोर्विवेकमकुर्वन्तो व्यवहारविमोहितहृदयाः प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभवन्ति; भूतार्थ- दर्शिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतया स्वपुरुषकाराविर्भावित-

गाथार्थ[व्यवहारः] व्यवहारनय [अभूतार्थः] अभूतार्थ छे [तु] अने [शुद्धनयः] शुद्धनय [भूतार्थः] भूतार्थ छे एम [दर्शितः] ॠषीश्वरोए दर्शाव्युं छे; [जीवः] जे जीव [भूतार्थं] भूतार्थनो [आश्रितः] आश्रय करे छे ते जीव [खलु] निश्चयथी [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [भवति] छे.

टीकाव्यवहारनय बधोय अभूतार्थ होवाथी अविद्यमान, असत्य, अभूत अर्थने प्रगट करे छे; शुद्धनय एक ज भूतार्थ होवाथी विद्यमान, सत्य, भूत अर्थने प्रगट करे छे. आ वात द्रष्टांतथी बतावीए छीएःजेम प्रबळ कादवना मळवाथी जेनो सहज एक निर्मळभाव तिरोभूत (आच्छादित) थई गयो छे एवा जळनो अनुभव करनार पुरुषो जळ अने कादवनो विवेक नहि करनारा घणा तो, तेने (जळने) मलिन ज अनुभवे छे; पण केटलाक पोताना हाथथी नाखेला कतकफळ(निर्मळी औषधि)ना पडवामात्रथी ऊपजेला जळ-कादवना विवेकपणाथी, पोताना पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत करवामां आवेला सहज एक निर्मळभावपणाने लीधे, तेने (जळने) निर्मळ ज अनुभवे छे; एवी रीते प्रबळ कर्मना मळवाथी जेनो सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत थई गयो छे एवा आत्मानो अनुभव करनार पुरुषोआत्मा अने कर्मनो विवेक नहि करनारा, व्यवहारथी विमोहित हृदयवाळाओ तो, तेने (आत्माने) जेमां भावोनुं विश्वरूपपणुं (अनेकरूपपणुं) प्रगट छे एवो अनुभवे छे; पण भूतार्थदर्शीओ (शुद्धनयने देखनाराओ) पोतानी बुद्धिथी नाखेला शुद्धनय अनुसार बोध थवामात्रथी ऊपजेला आत्म-कर्मना विवेकपणाथी, पोताना पुरुषार्थ द्वारा


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सहजैकज्ञायकभावत्वात् प्रद्योतमानैकज्ञायकभावं तमनुभवन्ति तदत्र ये भूतार्थमाश्रयन्ति त एव सम्यक् पश्यन्तः सम्यग्दृष्टयो भवन्ति, न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य अतः प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः

अथ च केषाञ्चित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् यतः आविर्भूत करवामां आवेला सहज एक ज्ञायकभावपणाने लीधे तेने (आत्माने) जेमां एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान छे एवो अनुभवे छे. अहीं, शुद्धनय कतकफळना स्थाने छे तेथी जेओ शुद्धनयनो आश्रय करे छे तेओ ज सम्यक् अवलोकन करता (होवाथी) सम्यग्द्रष्टि छे पण बीजा (जेओ अशुद्धनयनो सर्वथा आश्रय करे छे तेओ) सम्यग्द्रष्टि नथी. माटे कर्मथी भिन्न आत्माना देखनाराओए व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी.

भावार्थअहीं व्यवहारनयने अभूतार्थ अने शुद्धनयने भूतार्थ कह्यो छे. जेनो विषय विद्यमान न होय, असत्यार्थ होय, तेने अभूतार्थ कहे छे. व्यवहारनयने अभूतार्थ कहेवानो आशय एवो छे केशुद्धनयनो विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य छे, तेनी द्रष्टिमां भेद देखातो नथी; माटे तेनी द्रष्टिमां भेद अविद्यमान, असत्यार्थ ज कहेवो जोईए. एम न समजवुं के भेदरूप कांई वस्तु ज नथी. जो एम मानवामां आवे तो तो जेम वेदान्तमतवाळाओ भेदरूप अनित्यने देखी अवस्तु मायास्वरूप कहे छे अने सर्वव्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्मने वस्तु कहे छे एवुं ठरे अने तेथी सर्वथा एकांत शुद्धनयना पक्षरूप मिथ्याद्रष्टिनो ज प्रसंग आवे. माटे अहीं एम समजवुं के जिनवाणी स्याद्वादरूप छे, प्रयोजनवश नयने मुख्य-गौण करीने कहे छे. प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब (सहायक) जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे. शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने एनो उपदेश पण विरल छेक्यांक क्यांक छे. तेथी उपकारी श्री गुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो उपदेश प्रधानताथी (मुख्यताथी) दीधो छे के‘‘शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे; एने जाण्या विना ज्यां सुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यां सुधी आत्मानां ज्ञानश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व थई शकतुं नथी.’’ एम आशय जाणवो.

हवे, ‘‘ए व्यवहारनय पण कोई कोईने कोई वखते प्रयोजनवान छे, सर्वथा निषेध करवायोग्य नथी; तेथी तेनो उपदेश छे’’ एम कहे छे


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सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।।१२।।
शुद्धः शुद्धादेशो ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः
व्यवहारदेशिताः पुनर्ये त्वपरमे स्थिता भावे ।।१२।।

ये खलु पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवन्ति तेषां प्रथम- द्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकार्तस्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादेशितया समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः शुद्धनय एवोपरितनैकप्रतिवर्णिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान्; ये तु प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकार्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनु- भवन्ति तेषां पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्यादेशितयोप-

देखे परम जे भाव तेने शुद्धनय ज्ञातव्य छे;
अपरम भावे स्थितने व्यवहारनो उपदेश छे. १२.

गाथार्थ[परमभावदर्शिभिः] परमभावना देखनाराओने तो [शुद्धादेशः] शुद्ध (आत्मा)नो उपदेश करनार [शुद्धः] शुद्धनय [ज्ञातव्यः] जाणवायोग्य छे; [पुनः] वळी [ये तु] जे जीवो [अपरमे भावे] अपरमभावे [स्थिताः] स्थित छे तेओ [व्यवहारदेशिताः] व्यवहार द्वारा उपदेश करवायोग्य छे.

टीकाजे पुरुषो छेल्ला पाकथी ऊतरेला शुद्ध सुवर्ण समान (वस्तुना) उत्कृष्ट भावने अनुभवे छे तेमने प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकोनी परंपराथी पच्यमान (पकाववामां आवता) अशुद्ध सुवर्ण समान जे अनुत्कृष्ट (मध्यम) भाव तेनो अनुभव नथी होतो; तेथी, शुद्धद्रव्यने कहेनार होवाथी जेणे अचलित अखंड एकस्वभावरूप एक भाव प्रगट कर्यो छे एवो शुद्धनय ज, सौथी उपरनी एक प्रतिवर्णिका (सुवर्णना वर्ण) समान होवाथी, जाणेलो प्रयोजनवान छे. परंतु जे पुरुषो प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकोनी परंपराथी पच्यमान अशुद्ध सुवर्ण समान जे (वस्तुनो) अनुत्कृष्ट (मध्यम) भाव तेने अनुभवे छे तेमने छेल्ला पाकथी ऊतरेला शुद्ध सुवर्ण समान उत्कृष्ट भावनो अनुभव नथी होतो; तेथी, अशुद्ध द्रव्यने कहेनार होवाथी जेणे जुदा जुदा एक एक भावस्वरूप अनेक भावो देखाड्या छे एवो व्यवहारनय, विचित्र (अनेक) वर्णमाळा समान होवाथी, जाणेलो ते काळे प्रयोजनवान छे.

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दर्शितप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्; तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् उक्तं च

‘‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।’’

ए रीते पोतपोताना समयमां बन्ने नयो कार्यकारी छे कारण के तीर्थ अने तीर्थना फळनी एवी ज व्यवस्थिति छे. (जेनाथी तराय ते तीर्थ छे; एवो व्यवहारधर्म छे. पार थवुं ते व्यवहारधर्मनुं फळ छे; अथवा पोताना स्वरूपने पामवुं ते तीर्थफळ छे.) बीजी जग्याए पण कह्युं छे के

‘‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।’’

[ अर्थःआचार्य कहे छे के हे भव्य जीवो ! जो तमे जिनमतने प्रवर्ताववा चाहता हो तो व्यवहार अने निश्चयए बन्ने नयोने न छोडो; कारण के व्यवहारनय विना तो तीर्थव्यवहारमार्गनो नाश थई जशे अने निश्चयनय विना तत्त्व(वस्तु)नो नाश थई जशे.]

भावार्थलोकमां सोनाना सोळ वाल प्रसिद्ध छे. पंदर-वला सुधी तेमां चूरी आदि परसंयोगनी कालिमा रहे छे तेथी अशुद्ध कहेवाय छे; अने ताप देतां देतां छेल्ला तापथी ऊतरे त्यारे सोळ-वलुं शुद्ध सुवर्ण कहेवाय छे. जे जीवोने सोळ-वला सोनानुं ज्ञान, श्रद्धान तथा प्राप्ति थई तेमने पंदर-वला सुधीनुं कांई प्रयोजनवान नथी अने जेमने सोळ-वला शुद्ध सोनानी प्राप्ति नथी थई तेमने त्यां सुधी पंदर-वला सुधीनुं पण प्रयोजनवान छे. एवी रीते आ जीव नामनो पदार्थ छे ते पुद्गलना संयोगथी अशुद्ध अनेकरूप थई रह्यो छे. तेना, सर्व परद्रव्योथी भिन्न, एक ज्ञायकपणामात्रनुं ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्तिए त्रणे जेमने थई गयां तेमने तो पुद्गलसंयोगजनित अनेकरूपपणाने कहेनारो अशुद्धनय कांई प्रयोजनवान (कोई मतलबनो) नथी; पण ज्यां सुधी शुद्ध भावनी प्राप्ति नथी थई त्यां सुधी जेटलुं अशुद्धनयनुं कथन छे तेटलुं यथापदवी प्रयोजनवाळुं छे. ज्यां सुधी यथार्थ ज्ञान-श्रद्धाननी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शननी प्राप्ति न थई होय त्यां सुधी तो जेमनाथी यथार्थ उपदेश मळे छे एवां जिनवचनोनुं सांभळवुं, धारण करवुं तथा जिनवचनोने कहेनारा श्री जिन-गुरुनी भक्ति, जिनबिंबनां दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्गमां प्रवृत्त थवुं प्रयोजनवान छे; अने जेमने श्रद्धान- ज्ञान तो थयां छे पण साक्षात् प्राप्ति नथी थई तेमने पूर्वकथित कार्य, परद्रव्यनुं आलंबन


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(मालिनी)
उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै-
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव
।।४।।

छोडवारूप अणुव्रत-महाव्रतनुं ग्रहण, समिति, गुप्ति, पंच परमेष्ठीना ध्यानरूप प्रवर्तन, ए प्रमाणे प्रवर्तनाराओनी संगति करवी अने विशेष जाणवा माटे शास्त्रोनो अभ्यास करवो इत्यादि व्यवहारमार्गमां पोते प्रवर्तवुं अने बीजाने प्रवर्ताववुंएवो व्यवहारनयनो उपदेश अंगीकार करवो प्रयोजनवान छे. व्यवहारनयने कथंचित् असत्यार्थ कहेवामां आव्यो छे; पण जो कोई तेने सर्व असत्यार्थ जाणी छोडी दे तो शुभोपयोगरूप व्यवहार छोडे अने शुद्धोपयोगनी साक्षात् प्राप्ति तो थई नथी, तेथी ऊलटो अशुभोपयोगमां ज आवी, भ्रष्ट थई, गमे तेम स्वेच्छारूप प्रवर्ते तो नरकादि गति तथा परंपरा निगोदने प्राप्त थई संसारमां ज भ्रमण करे. माटे शुद्धनयनो विषय जे साक्षात् शुद्ध आत्मा तेनी प्राप्ति ज्यां सुधी न थाय त्यां सुधी व्यवहार पण प्रयोजनवान छेएवो स्याद्वादमतमां श्री गुरुओनो उपदेश छे.

ए अर्थनुं कलशरूप काव्य टीकाकार कहे छे

श्लोकार्थ[उभय-नय-विरोध-ध्वंसिनि] निश्चय अने व्यवहारए बे नयोने विषयना भेदथी परस्पर विरोध छे; ए विरोधने नाश करनारुं [स्यात्-पद-अङ्के] ‘स्यात्’पदथी चिह्नित [जिनवचसि] जे जिन भगवाननुं वचन (वाणी) तेमां [ये रमन्ते] जे पुरुषो रमे छे (-प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करे छे) [ते] ते पुरुषो [स्वयं] पोतानी मेळे (अन्य कारण विना) [वान्तमोहाः] मिथ्यात्वकर्मना उदयनुं वमन करीने [उच्चैः परं ज्योतिः समयसारं] आ अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्माने [सपदि] तुरत [ईक्षन्ते एव] देखे ज छे. केवो छे समयसाररूप शुद्ध आत्मा? [अनवम्] नवीन उत्पन्न थयो नथी, पहेलां कर्मथी आच्छादित हतो ते प्रगट व्यक्तिरूप थई गयो छे. वळी केवो छे? [अनय-पक्ष-अक्षुण्णम्] सर्वथा एकांतरूप कुनयना पक्षथी खंडित थतो नथी, निर्बाध छे. व्यवहारनयना उपदेशथी एम न समजवुं के आत्मा परद्रव्यनी क्रिया करी शके छे, पण एम समजवुं के व्यवहारोपदिष्ट शुभ भावोने आत्मा व्यवहारे करी शके छे. वळी ते उपदेशथी एम पण न समजवुं के आत्मा शुभ भावो करवाथी शुद्धताने पामे छे, परंतु एम समजवुं के साधक दशामां भूमिका अनुसार शुभ भावो आव्या विना रहेता नथी.


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(मालिनी)
व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या-
मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किञ्चित्
।।५।।

भावार्थजिनवचन (वाणी) स्याद्वादरूप छे. ज्यां बे नयोने विषयनो विरोध छे जेम केः जे सत्-रूप होय ते असत्-रूप न होय, एक होय ते अनेक न होय, नित्य होय ते अनित्य न होय, भेदरूप होय ते अभेदरूप न होय, शुद्ध होय ते अशुद्ध न होय इत्यादि नयोना विषयोमां विरोध छेत्यां जिनवचन कथंचित् विवक्षाथी सत्-असत्रूप, एक- अनेकरूप, नित्य-अनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जे रीते विद्यमान वस्तु छे ते रीते कहीने विरोध मटाडी दे छे, जूठी कल्पना करतुं नथी. ते जिनवचन द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक ए बे नयोमां, प्रयोजनवश शुद्धद्रव्यार्थिक नयने मुख्य करीने तेने निश्चय कहे छे अने अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिकनयने गौण करी तेने व्यवहार कहे छे.आवा जिनवचनमां जे पुरुष रमण करे छे ते आ शुद्ध आत्माने यथार्थ पामे छे; अन्य सर्वथा-एकान्ती सांख्यादिक ए आत्माने पामता नथी, कारण के वस्तु सर्वथा एकांत पक्षनो विषय नथी तोपण तेओ एक ज धर्मने ग्रहण करी वस्तुनी असत्य कल्पना करे छेजे असत्यार्थ छे, बाधा सहित मिथ्या द्रष्टि छे. ४.

आ रीते बार गाथाओमां पीठिका (भूमिका) छे. हवे आचार्य शुद्धनयने प्रधान करी निश्चय सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे छे. अशुद्धनयनी (व्यवहारनयनी) प्रधानतामां जीवादि तत्त्वोना श्रद्धानने सम्यक्त्व कह्युं छे तो अहीं ए जीवादि तत्त्वोने शुद्धनय वडे जाणवाथी सम्यक्त्व थाय छे एम कहे छे. त्यां टीकाकार एनी सूचनारूपे त्रण श्लोक कहे छे; तेमां पहेला श्लोकमां एम कहे छे के व्यवहारनयने कथंचित् प्रयोजनवान कह्यो तोपण ते कांई वस्तुभूत नथीः

श्लोकार्थ[व्यवहरण-नयः] जे व्यवहारनय छे ते [यद्यपि] जोके [इह प्राक्-पदव्यां] पहेली पदवीमां (ज्यां सुधी शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति न थई होय त्यां सुधी) [निहित-पदानां] जेमणे पोतानो पग मांडेलो छे एवा पुरुषोने, [हन्त] अरेरे! [हस्तावलम्बः स्यात्] हस्तावलंब तुल्य कह्यो छे, [तद्-अपि] तोपण [चित्-चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं अन्तः पश्यतां] जे पुरुषो चैतन्य-चमत्कार-मात्र, परद्रव्यभावोथी रहित (शुद्धनयना विषयभूत) परम ‘अर्थ’ने


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(शार्दूलविक्रीडित)
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः
।।६।।

अंतरंगमां अवलोके छे, तेनी श्रद्धा करे छे तथा तद्रूप लीन थई चारित्रभावने प्राप्त थाय छे तेमने [एषः] ए व्यवहारनय [किञ्चित् न] कांई पण प्रयोजनवान नथी.

भावार्थशुद्ध स्वरूपनुं ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण थया बाद अशुद्धनय कांई पण प्रयोजनकारी नथी. ५.

हवे पछीना श्लोकमां निश्चय सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे छे

श्लोकार्थ[अस्य आत्मनः] आ आत्माने [यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् दर्शनम्] अन्य द्रव्योथी जुदो देखवो (श्रद्धवो) [एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम्] ते ज नियमथी सम्यग्दर्शन छे. केवो छे आत्मा? [व्याप्तुः] पोताना गुण-पर्यायोमां व्यापनारो छे. वळी केवो छे? [शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य] शुद्धनयथी एकपणामां निश्चित करवामां आव्यो छे. वळी केवो छे? [पूर्ण-ज्ञान-घनस्य] पूर्णज्ञानघन छे. [च] वळी [तावान् अयं आत्मा] जेटलुं सम्यग्दर्शन छे तेटलो ज आ आत्मा छे. [तत्] तेथी आचार्य प्रार्थना करे छे के ‘‘[इमाम् नव-तत्त्व-सन्ततिं मुक्त्वा] नवतत्त्वनी परिपाटीने छोडी, [अयम् आत्मा एकः अस्तु नः] आ आत्मा एक ज अमने प्राप्त हो.’’

भावार्थसर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक पोतानी अवस्थारूप गुणपर्यायभेदोमां व्यापनारो आ आत्मा शुद्धनयथी एकपणामां निश्चित करवामां आव्योशुद्धनयथी ज्ञायकमात्र एक-आकार देखाडवामां आव्यो, तेने सर्व अन्यद्रव्यो अने अन्यद्रव्योना भावोथी न्यारो देखवो, श्रद्धवो ते नियमथी सम्यग्दर्शन छे. व्यवहारनय आत्माने अनेक भेदरूप कही सम्यग्दर्शनने अनेक भेदरूप कहे छे त्यां व्यभिचार (दोष) आवे छे, नियम रहेतो नथी. शुद्धनयनी हदे पहोंचतां व्यभिचार रहेतो नथी तेथी नियमरूप छे. केवो छे शुद्धनयनो विषयभूत आत्मा? पूर्णज्ञानघन छेसर्व लोकालोकने जाणनार ज्ञानस्वरूप छे. एवा आत्माना श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन छे. ते कांई जुदो पदार्थ नथीआत्माना ज परिणाम छे, तेथी आत्मा ज छे. माटे सम्यग्दर्शन छे ते आत्मा छे, अन्य नथी.