Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 7-19 ; Gatha: 13-18.

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(अनुष्टुभ्)
अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्
नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति ।।७।।

अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के नय छे ते श्रुतप्रमाणनो अंश छे तेथी शुद्धनय पण श्रुतप्रमाणनो ज अंश थयो. श्रुतप्रमाण छे ते परोक्ष प्रमाण छे कारण के वस्तुने सर्वज्ञनां आगमनां वचनथी जाणी छे; तेथी आ शुद्धनय सर्व द्रव्योथी जुदा, आत्माना सर्व पर्यायोमां व्याप्त, पूर्ण चैतन्य केवळज्ञानरूपसर्व लोकालोकने जाणनार, असाधारण चैतन्यधर्मने परोक्ष देखाडे छे. आ व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगमने प्रमाण करी, शुद्धनये दर्शावेला पूर्ण आत्मानुं श्रद्धान करे ते श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन छे. ज्यां सुधी केवळ व्यवहारनयना विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोनुं ज श्रद्धान रहे त्यां सुधी निश्चय सम्यग्दर्शन नथी. तेथी आचार्य कहे छे के ए नव तत्त्वोनी संततिने (परिपाटीने) छोडी शुद्धनयनो विषयभूत एक आत्मा ज अमने प्राप्त हो; बीजुं कांई चाहता नथी. आ वीतराग अवस्थानी प्रार्थना छे, कोई नयपक्ष नथी. जो सर्वथा नयोनो पक्षपात ज थया करे तो मिथ्यात्व ज छे.

अहीं कोई प्रश्न करे केआत्मा चैतन्य छे एटलुं ज अनुभवमां आवे, तो एटली श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे के नहि? तेनुं समाधानःचैतन्यमात्र तो नास्तिक सिवाय सर्व मतवाळाओ आत्माने माने छे; जो एटली ज श्रद्धाने सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे तो तो सौने सम्यक्त्व सिद्ध थई जशे. तेथी सर्वज्ञनी वाणीमां जेवुं पूर्ण आत्मानुं स्वरूप कह्युं छे तेवुं श्रद्धान थवाथी ज निश्चय सम्यक्त्व थाय छे एम समजवुं. ६.

हवे, ‘त्यार पछी शुद्धनयने आधीन, सर्व द्रव्योथी भिन्न, आत्मज्योति प्रगट थई जाय छे’ एम आ श्लोकमां टीकाकार आचार्य कहे छेः

श्लोकार्थ[अतः] त्यार बाद [शुद्धनय-आयत्तं] शुद्धनयने आधीन [प्रत्यग्ज्योतिः] जे भिन्न आत्मज्योति छे [तत्] ते [चकास्ति] प्रगट थाय छे [यद्] के जे [नव-तत्त्व- गतत्वे अपि] नवतत्त्वमां प्राप्त थवा छतां [एकत्वं] पोताना एकपणाने [न मुञ्चति] छोडती नथी.

भावार्थनवतत्त्वमां प्राप्त थयेलो आत्मा अनेकरूप देखाय छे; जो तेनुं भिन्न स्वरूप विचारवामां आवे तो ते पोतानी चैतन्य-चमत्कारमात्र ज्योतिने छोडतो नथी. ७.


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भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।१३।।
भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च
आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ।।१३।।

अमूनि हि जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनं सम्पद्यन्त एव, अमीषु तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तमभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणेषु नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुभूतेरात्म- ख्यातिलक्षणायाः सम्पद्यमानत्वात् तत्र विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यास्रावको- भयमास्रवः, संवार्यसंवारकोभयं संवरः, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बन्ध्यबन्धकोभयं बन्धः,

ए प्रमाणे ज शुद्धनयथी जाणवुं ते सम्यक्त्व छे एम सूत्रकार गाथामां कहे छे

भूतार्थथी जाणेल जीव, अजीव, वळी पुण्य, पाप ने
आसरव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ते सम्यक्त्व छे. १३.

गाथार्थ[भूतार्थेन अभिगताः] भूतार्थ नयथी जाणेल [जीवाजीवौ] जीव, अजीव [च] वळी [पुण्यपापं] पुण्य, पाप [च] तथा [आस्रवसंवरनिर्जराः] आस्रव, संवर, निर्जरा, [बन्धः] बंध [च] अने [मोक्षः] मोक्ष [सम्यक्त्वम्]ए नव तत्त्व सम्यक्त्व छे.

टीकाआ जीवादि नवतत्त्वो भूतार्थनयथी जाण्ये सम्यग्दर्शन ज छे (ए नियम कह्यो); कारण के तीर्थनी (व्यवहारधर्मनी) प्रवृत्ति अर्थे अभूतार्थ(व्यवहार)नयथी कहेवामां आवे छे एवां आ नव तत्त्वोजेमनां लक्षण जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष छेतेमनामां एकपणुं प्रगट करनार भूतार्थनयथी एकपणुं प्राप्त करी, शुद्धनयपणे स्थपायेला आत्मानी अनुभूतिके जेनुं लक्षण आत्मख्याति छेतेनी प्राप्ति होय छे. (शुद्धनयथी नवतत्त्वने जाणवाथी आत्मानी अनुभूति थाय छे ते हेतुथी आ नियम कह्यो.) त्यां, विकारी थवा योग्य अने विकार करनारए बन्ने पुण्य छे, तेम ज ए बन्ने पाप छे, आस्रव थवा योग्य अने आस्रव करनारए बन्ने आस्रव छे, संवररूप थवा योग्य (संवार्य) अने संवर करनार (संवारक)ए बन्ने संवर छे, निर्जरवा योग्य अने निर्जरा करनारए बन्ने निर्जरा छे, बंधावा योग्य अने बंधन करनारए बन्ने


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मोच्यमोचकोभयं मोक्षः, स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः तदुभयं च जीवाजीवाविति बहिर्दृष्टया नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबन्धपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूय- मानतायां भूतार्थानि, अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि ततोऽमीषु नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते तथान्तर्दृष्टया ज्ञायको भावो जीवो, जीवस्य विकारहेतुरजीवः केवलजीवविकाराश्च पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणाः, केवलाजीवविकार- हेतवः पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षा इति नवतत्त्वान्यमून्यपि जीवद्रव्यस्वभावमपोह्य स्वपरप्रत्ययैकद्रव्यपर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ च सकलकालमेवास्खलन्तमेकं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि ततोऽमीष्वपि नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते एवमसावेकत्वेनद्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव या त्वनुभूतिः सात्मख्याति- रेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शनमेव इति समस्तमेव निरवद्यम्


बंध छे अने मोक्ष थवा योग्य अने मोक्ष करनारए बन्ने मोक्ष छे; कारण के एकने ज पोतानी मेळे पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्षनी उपपत्ति (सिद्धि) बनती नथी. ते बन्ने जीव अने अजीव छे (अर्थात् ते बब्बेमां एक जीव छे ने बीजुं अजीव छे).

बाह्य (स्थूल) द्रष्टिथी जोईए तोजीव-पुद्गलना अनादि बंधपर्यायनी समीप जईने एकपणे अनुभव करतां आ नव तत्त्वो भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे, अने एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां तेओ अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे; (जीवना एकाकार स्वरूपमां तेओ नथी;) तेथी आ नव तत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक जीव ज प्रकाशमान छे. एवी रीते अंतर्द्रष्टिथी जोईए तोज्ञायक भाव जीव छे अने जीवना विकारनो हेतु अजीव छे; वळी पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षए जेमनां लक्षण छे एवा तो केवळ जीवना विकारो छे अने पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षए विकारहेतुओ केवळ अजीव छे. आवां आ नव तत्त्वो, जीवद्रव्यना स्वभावने छोडीने, पोते अने पर जेमनां कारण छे एवा एक द्रव्यना पर्यायोपणे अनुभव करवामां आवतां भूतार्थ छे अने सर्व काळे अस्खलित एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करवामां आवतां तेओ अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. तेथी आ नवे तत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक जीव ज प्रकाशमान छे. एम ते, एकपणे प्रकाशतो, शुद्धनयपणे अनुभवाय छे. अने जे आ अनुभूति ते आत्मख्याति (आत्मानी ओळखाण) ज छे, ने आत्मख्याति ते सम्यग्दर्शन ज छे. आ रीते आ सर्व कथन निर्दोष छेबाधा रहित छे.


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(मालिनी)
चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं
कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे
अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम्
।।८।।

अथैवमेकत्वेन द्योतमानस्यात्मनोऽधिगमोपायाः प्रमाणनयनिक्षेपाः ये ते खल्वभूतार्था-

भावार्थःआ नव तत्त्वोमां, शुद्धनयथी जोईए तो, जीव ज एक चैतन्यचमत्कार- मात्र प्रकाशरूप प्रगट थई रह्यो छे, ते सिवाय जुदां जुदां नव तत्त्वो कांई देखातां नथी. ज्यां सुधी आ रीते जीवतत्त्वनुं जाणपणुं जीवने नथी त्यां सुधी ते व्यवहारद्रष्टि छे, जुदां जुदां नव तत्त्वोने माने छे. जीव-पुद्गलना बंधपर्यायरूप द्रष्टिथी आ पदार्थो जुदा जुदा देखाय छे; पण ज्यारे शुद्धनयथी जीव-पुद्गलनुं निजस्वरूप जुदुं जुदुं जोवामां आवे त्यारे ए पुण्य, पाप आदि सात तत्त्वो कांई पण वस्तु नथी; निमित्त-नैमित्तिक भावथी थयां हतां ते निमित्त-नैमित्तिक भाव ज्यारे मटी गयो त्यारे जीव-पुद्गल जुदां जुदां होवाथी बीजी कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध थई शकती नथी. वस्तु तो द्रव्य छे ने द्रव्यनो निजभाव द्रव्यनी साथे ज रहे छे तथा निमित्त- नैमित्तिक भावनो तो अभाव ज थाय छे, माटे शुद्धनयथी जीवने जाणवाथी ज सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थई शके छे. ज्यां सुधी जुदा जुदा नव पदार्थो जाणे, शुद्धनयथी आत्माने जाणे नहि त्यां सुधी पर्यायबुद्धि छे.

अहीं, ए अर्थनुं कलशरूप काव्य कहे छे

श्लोकार्थ[इति] आ रीते [चिरम् नव-तत्त्व-च्छन्नम् इदम् आत्मज्योतिः] नव तत्त्वोमां घणा काळथी छुपायेली आ आत्मज्योतिने, [वर्णमाला-कलापे निमग्नं कनकम् इव] जेम वर्णोना समूहमां छुपायेला एकाकार सुवर्णने बहार काढे तेम, [उन्नीयमानं] शुद्धनयथी बहार काढी प्रगट करवामां आवी छे. [अथ] माटे हवे हे भव्य जीवो! [सततविविक्तं] हंमेशां आने अन्य द्रव्योथी तथा तेमनाथी थता नैमित्तिक भावोथी भिन्न, [एकरूपं] एकरूप [द्रश्यताम्] देखो. [प्रतिपदम् उद्योतमानम्] आ (ज्योति), पदे पदे अर्थात् पर्याये पर्याये एकरूप चित्चमत्कारमात्र उद्योतमान छे.

भावार्थःआ आत्मा सर्व अवस्थाओमां विधविध रूपे देखातो हतो तेने शुद्धनये एक चैतन्य-चमत्कारमात्र देखाड्यो छे; तेथी हवे सदा एकाकार ज अनुभव करो, पर्यायबुद्धिनो एकांत न राखोएम श्री गुरुओनो उपदेश छे. ८.

टीकाहवे, जेम नव तत्त्वोमां एक जीवने ज जाणवो भूतार्थ कह्यो तेम, एकपणे

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स्तेष्वप्ययमेक एक भूतार्थः प्रमाणं तावत्परोक्षं प्रत्यक्षं च तत्रोपात्तानुपात्तपरद्वारेण प्रवर्तमानं परोक्षं, केवलात्मप्रतिनियतत्वेन प्रवर्तमानं प्रत्यक्षं च तदुभयमपि प्रमातृप्रमाणप्रमेयभेदस्यानुभूय- मानतायां भूतार्थम्, अथ च व्युदस्तसमस्तभेदैकजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् नयस्तु द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च तत्र द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिकः, पर्यायं मुख्यतयानुभावयतीति पर्यायार्थिकः तदुभयमपि द्रव्यपर्याययोः पर्यायेणानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च द्रव्यपर्यायानालीढशुद्धवस्तुमात्रजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् निक्षेपस्तु नाम स्थापना द्रव्यं भावश्च तत्रातद्गुणे वस्तुनि संज्ञाकरणं नाम सोऽयमित्यन्यत्र प्रतिनिधि- व्यवस्थापनं स्थापना वर्तमानतत्पर्यायादन्यद् द्रव्यम् वर्तमानतत्पर्यायो भावः तच्चतुष्टयं


प्रकाशमान आत्माना अधिगमना उपायो जे प्रमाण, नय, निक्षेप छे तेओ पण निश्चयथी अभूतार्थ छे, तेमां पण आत्मा एक ज भूतार्थ छे (कारण के ज्ञेय अने वचनना भेदोथी प्रमाणादि अनेक भेदरूप थाय छे). तेमां पहेलां, प्रमाण बे प्रकारे छेपरोक्ष अने प्रत्यक्ष. उपात्त अने अनुपात्त पर (पदार्थो) द्वारा प्रवर्ते ते परोक्ष छे अने केवळ आत्माथी ज प्रतिनिश्चितपणे प्रवर्ते ते प्रत्यक्ष छे. (प्रमाण ज्ञान छे. ते ज्ञान पांच प्रकारनुं छेमति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ने केवळ. तेमां मति ने श्रुत ए बे ज्ञान परोक्ष छे, अवधि ने मनःपर्यय ए बे विकल-प्रत्यक्ष छे अने केवळज्ञान सकल-प्रत्यक्ष छे. तेथी ए बे प्रकारनां प्रमाण छे.) ते बन्ने प्रमाता, प्रमाण, प्रमेयना भेदने अनुभवतां तो भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; अने जेमां सर्व भेदो गौण थई गया छे एवा एक जीवना स्वभावनो अनुभव करतां तेओ अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे.

नय बे प्रकारे छेद्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक. त्यां द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तुमां द्रव्यनो मुख्यपणे अनुभव करावे ते द्रव्यार्थिक नय छे अने पर्यायनो मुख्यपणे अनुभव करावे ते पर्यायार्थिक नय छे. ते बंने नयो द्रव्य अने पर्यायनो पर्यायथी (भेदथी, क्रमथी) अनुभव करतां तो भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; अने द्रव्य तथा पर्याय ए बन्नेथी नहि आलिंगन करायेला एवा शुद्धवस्तुमात्र जीवना (चैतन्यमात्र) स्वभावनो अनुभव करतां तेओ अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे.

निक्षेप चार प्रकारे छेनाम, स्थापना, द्रव्य ने भाव. वस्तुमां जे गुण न होय ते गुणना नामथी (व्यवहार माटे) वस्तुनी संज्ञा करवी ते नाम निक्षेप छे. ‘आ ते छे’ एम अन्य वस्तुमां अन्य वस्तुनुं प्रतिनिधित्व स्थापवुं (प्रतिमारूप स्थापन करवुं) ते स्थापना १. उपात्त = मेळवेला. (इंद्रिय, मन वगेरे उपात्त पर पदार्थो छे.) २. अनुपात्त = अणमेळवेला. (प्रकाश, उपदेश वगेरे अनुपात्त पर पदार्थो छे.)


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स्वस्वलक्षणवैलक्षण्येनानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च निर्विलक्षणस्वलक्षणैकजीवस्वभावस्यानुभूय- मानतायामभूतार्थम् अथैवममीषु प्रमाणनयनिक्षेपेषु भूतार्थत्वेनैको जीव एव प्रद्योतते

(मालिनी)
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं
क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वङ्कषेऽस्मि-
न्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव
।।९।।

निक्षेप छे. वर्तमानथी अन्य एटले के अतीत अथवा अनागत पर्यायथी वस्तुने वर्तमानमां कहेवी ते द्रव्य निक्षेप छे. वर्तमान पर्यायथी वस्तुने वर्तमानमां कहेवी ते भाव निक्षेप छे. ए चारेय निक्षेपोनो पोतपोताना लक्षणभेदथी (विलक्षणरूपेजुदा जुदा रूपे) अनुभव करवामां आवतां तेओ भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; अने भिन्न लक्षणथी रहित एक पोताना चैतन्यलक्षणरूप जीवस्वभावनो अनुभव करतां ए चारेय अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. आ रीते आ प्रमाण-नय-निक्षेपोमां भूतार्थपणे एक जीव ज प्रकाशमान छे.

भावार्थआ प्रमाण, नय, निक्षेपोनुं विस्तारथी व्याख्यान ते विषयना ग्रंथोमांथी जाणवुं; तेमनाथी द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुनी सिद्धि थाय छे. तेओ साधक अवस्थामां तो सत्यार्थ ज छे कारण के ते ज्ञानना ज विशेषो छे. तेमना विना वस्तुने गमे तेम साधवामां आवे तो विपर्यय थई जाय छे. अवस्था अनुसार व्यवहारना अभावनी त्रण रीति छेः पहेली अवस्थामां प्रमाणादिथी यथार्थ वस्तुने जाणी ज्ञानश्रद्धाननी सिद्धि करवी; ज्ञान-श्रद्धान सिद्ध थया पछी श्रद्धान माटे तो प्रमाणादिनी कांई जरूर नथी. पण हवे ए बीजी अवस्थामां प्रमाणादिना आलंबन द्वारा विशेष ज्ञान थाय छे अने राग-द्वेष-मोहकर्मना सर्वथा अभावरूप यथाख्यात चारित्र प्रगटे छे; तेथी केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. केवळज्ञान थया पछी प्रमाणादिनुं आलंबन रहेतुं नथी. त्यार पछी त्रीजी साक्षात् सिद्ध अवस्था छे त्यां पण कांई आलंबन नथी. ए रीते सिद्ध अवस्थामां प्रमाण-नय-निक्षेपोनो अभाव ज छे.

ए अर्थनो कलशरूप श्लोक कहे छे

श्लोकार्थआचार्य शुद्धनयनो अनुभव करी कहे छे के[अस्मिन् सर्वङ्कषे धाम्नि अनुभवम् उपयाते] आ सर्व भेदोने गौण करनार जे शुद्धनयनो विषयभूत चैतन्य-चमत्कारमात्र तेजःपुंज आत्मा, तेनो अनुभव थतां [ नयश्रीः न उदयति ] नयोनी लक्ष्मी उदय पामती नथी,


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(उपजाति)
आत्मस्वभावं परभावभिन्न-
मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम्
विलीनसङ्कल्पविक ल्पजालं
प्रकाशयन्
शुद्धनयोऽभ्युदेति ।।१०।।

[ प्रमाणं अस्तम् एति ] प्रमाण अस्तने प्राप्त थाय छे [ अपि च ] अने [ निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः ] निक्षेपोनो समूह क्यां जतो रहे छे ते अमे जाणता नथी. [ किम् अपरम् अभिदध्मः] आथी अधिक शुं कहीए? [ द्वैतम् एव न भाति ] द्वैत ज प्रतिभासित थतुं नथी.

भावार्थभेदने अत्यंत गौण करीने कह्युं छे केप्रमाण, नयादि भेदनी तो वात ज शी? शुद्ध अनुभव थतां द्वैत ज भासतुं नथी, एकाकार चिन्मात्र ज देखाय छे.

अहीं विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदांती कहे छे केछेवट परमार्थरूप तो अद्वैतनो ज अनुभव थयो. ए ज अमारो मत छे; तमे विशेष शुं कह्युं? एनो उत्तरःतमारा मतमां सर्वथा अद्वैत मानवामां आवे छे. जो सर्वथा अद्वैत मानवामां आवे तो बाह्य वस्तुनो अभाव ज थई जाय, अने एवो अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध छे. अमारा मतमां नयविवक्षा छे ते बाह्य वस्तुनो लोप करती नथी. ज्यारे शुद्ध अनुभवथी विकल्प मटी जाय छे त्यारे आत्मा परमानंदने पामे छे तेथी अनुभव कराववा माटे ‘‘शुद्ध अनुभवमां द्वैत भासतुं नथी’’ एम कह्युं छे. जो बाह्य वस्तुनो लोप करवामां आवे तो आत्मानो पण लोप थई जाय अने शून्यवादनो प्रसंग आवे. माटे तमे कहो छो ते प्रमाणे वस्तुस्वरूपनी सिद्धि थई शकती नथी, अने वस्तुस्वरूपनी यथार्थ श्रद्धा विना जे शुद्ध अनुभव करवामां आवे ते पण मिथ्यारूप छे; शून्यनो प्रसंग होवाथी तमारो अनुभव पण आकाशना फूलनो अनुभव छे. ९.

आगळ शुद्धनयनो उदय थाय छे तेनी सूचनारूप श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति] शुद्धनय आत्माना स्वभावने प्रगट करतो उदयरूप थाय छे. ते आत्मस्वभावने केवो प्रगट करे छे? [परभावभिन्नम्] परद्रव्य, परद्रव्यना भावो तथा परद्रव्यना निमित्तथी थता पोताना विभावोएवा परभावोथी भिन्न प्रगट करे छे. वळी ते, [आपूर्णम्] आत्मस्वभाव समस्तपणे पूर्ण छेसमस्त लोकालोकने जाणनार छेएम प्रगट करे छे; (कारण के ज्ञानमां भेद कर्मसंयोगथी छे, शुद्धनयमां कर्म गौण छे). वळी ते, [आदि-अन्त-विमुक्तम्] आत्मस्वभावने आदि-अंतथी रहित प्रगट करे छे (अर्थात् कोई आदिथी मांडीने जे कोईथी उत्पन्न करवामां आव्यो नथी अने क्यारेय कोईथी


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जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।।१४।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतम्
अविशेषमसंयुक्तं तं शुद्धनयं विजानीहि ।।१४।।

या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनयः, सा त्वनुभूतिरात्मैव; इत्यात्मैक एव प्रद्योतते कथं यथोदितस्यात्मनोऽनुभूतिरिति चेद्बद्ध- स्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात् तथाहि


जेनो विनाश नथी एवा पारिणामिक भावने ते प्रगट करे छे). वळी ते, [एकम्] आत्मस्वभावने एकसर्व भेदभावोथी (द्वैतभावोथी) रहित एकाकारप्रगट करे छे, अने [विलीनसङ्कल्प- विकल्प-जालं] जेमां समस्त संकल्प-विकल्पना समूहो विलय थई गया छे एवो प्रगट करे छे. (द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्योमां पोतानी कल्पना करवी तेने संकल्प कहे छे अने ज्ञेयोना भेदथी ज्ञानमां भेद मालूम थवो तेने विकल्प कहे छे.) आवो शुद्धनय प्रकाशरूप थाय छे. १०.

ए शुद्धनयने गाथासूत्रथी कहे छेः

अबद्धस्पृष्ट, अनन्य ने जे नियत देखे आत्मने,
अविशेष, अणसंयुक्त, तेने शुद्धनय तुं जाणजे. १४.

गाथार्थ[यः] जे नय [आत्मानम्] आत्माने [अबद्धस्पृष्टम्] बंध रहित ने परना स्पर्श रहित, [अनन्यकं] अन्यपणा रहित, [नियतम्] चळाचळता रहित, [अविशेषम्] विशेष रहित, [असंयुक्तं] अन्यना संयोग रहितएवा पांच भावरूप [पश्यति] देखे छे [तं] तेने, हे शिष्य! तुं [शुद्धनयं] शुद्धनय [विजानीहि] जाण.

टीकानिश्चयथी अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्तएवा आत्मानी जे अनुभूति ते शुद्धनय छे, अने ए अनुभूति आत्मा ज छे; ए रीते आत्मा एक ज प्रकाशमान छे. (शुद्धनय कहो या आत्मानी अनुभूति कहो या आत्मा कहोएक ज छे, जुदां नथी.) अहीं शिष्य पूछे छे के जेवो उपर कह्यो तेवा आत्मानी अनुभूति केम थई शके? तेनुं समाधानबद्धस्पृष्टत्व आदि भावो अभूतार्थ होवाथी ए अनुभूति थई शके छे. आ वातने द्रष्टांतथी प्रगट करवामां आवे छे


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यथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां सलिलस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः सलिलास्पृश्यं बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायाम- भूतार्थम्, तथात्मनोऽनादिबद्धस्य बद्धस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्ये- कान्ततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्

यथा च मृत्तिकायाः करककरीरकर्करीकपालादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेकं मृत्तिकास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्, तथात्मनो नारकादि- पर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेक मात्मस्वभावमुपेत्यानुभूय- मानतायामभूतार्थम्

यथा च वारिधेर्वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितं

जेम कमलिनीनुं पत्र जळमां डूबेलुं होय तेनो जळथी स्पर्शावारूप अवस्थाथी अनुभव करतां जळथी स्पर्शावापणुं भूतार्थ छेसत्यार्थ छे, तोपण जळथी जराय नहि स्पर्शावायोग्य एवा कमलिनी-पत्रना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां जळथी स्पर्शावापणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे; एवी रीते अनादि काळथी बंधायेला आत्मानो, पुद्गलकर्मथी बंधावा- स्पर्शावारूप अवस्थाथी अनुभव करतां बद्धस्पृष्टपणुं भूतार्थ छेसत्यार्थ छे, तोपण पुद्गलथी जराय नहि स्पर्शावायोग्य एवा आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां बद्धस्पृष्टपणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे.

वळी, जेम माटीनो, कमंडळ, घडो, झारी, रामपात्र आदि पर्यायोथी अनुभव करतां अन्यपणुं भूतार्थ छेसत्यार्थ छे, तोपण सर्वतः अस्खलित (सर्व पर्यायभेदोथी जराय भेदरूप नहि थता एवा) एक माटीना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अन्यपणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे; एवी रीते आत्मानो, नारक आदि पर्यायोथी अनुभव करतां (पर्यायोना बीजा-बीजापणारूप) अन्यपणुं भूतार्थ छेसत्यार्थ छे, तोपण सर्वतः अस्खलित (सर्व पर्यायभेदोथी जराय भेदरूप नहि थता एवा) एक चैतन्याकार आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अन्यपणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे.

जेम समुद्रनो, वृद्धिहानिरूप अवस्थाथी अनुभव करतां अनियतपणुं (अनिश्चितपणुं) भूतार्थ छेसत्यार्थ छे, तोपण नित्य-स्थिर एवा समुद्रस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अनियतपणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे; एवी रीते आत्मानो, वृद्धिहानिरूप पर्यायभेदोथी अनुभव करतां अनियतपणुं भूतार्थ छेसत्यार्थ छे, तोपण नित्य-स्थिर


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वारिधिस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्, तथात्मनो वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्

यथा च काञ्चनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषं काञ्चनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्, तथात्मनो ज्ञानदर्शनादि- पर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूय- मानतायामभूतार्थम्

यथा चापां सप्तार्चिःप्रत्ययौष्ण्यसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्ये- कान्ततः शीतमप्स्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्, तथात्मनः कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्व- पर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः स्वयं बोधं जीवस्वभावमुपेत्यानुभूय- (निश्चल) एवा आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अनियतपणुं अभूतार्थ छे


असत्यार्थ छे.

जेम सुवर्णनो, चीकणापणुं, पीळापणुं, भारेपणुं आदि गुणरूप भेदोथी अनुभव करतां विशेषपणुं भूतार्थ छेसत्यार्थ छे, तोपण जेमां सर्व विशेषो विलय थई गया छे एवा सुवर्णस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां विशेषपणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे; एवी रीते आत्मानो, ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप भेदोथी अनुभव करतां विशेषपणुं भूतार्थ छे सत्यार्थ छे, तोपण जेमां सर्व विशेषो विलय थई गया छे एवा आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां विशेषपणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे.

जेम जळनो, अग्नि जेनुं निमित्त छे एवी उष्णता साथे संयुक्तपणारूप तप्तपणारूपअवस्थाथी अनुभव करतां (जळने) उष्णपणारूप संयुक्तपणुं भूतार्थ छे सत्यार्थ छे, तोपण एकांत शीतळतारूप जळस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां (उष्णता साथे) संयुक्तपणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे; एवी रीते आत्मानो, कर्म जेनुं निमित्त छे एवा मोह साथे संयुक्तपणारूप अवस्थाथी अनुभव करतां संयुक्तपणुं भूतार्थ छेसत्यार्थ छे, तोपण जे पोते एकांत बोधरूप (ज्ञानरूप) छे एवा जीवस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां संयुक्तपणुं अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे.

भावार्थआत्मा पांच प्रकारथी अनेकरूप देखाय छेः (१) अनादि काळथी कर्मपुद्गलना संबंधथी बंधायेलो कर्मपुद्गलना स्पर्शवाळो देखाय छे, (२) कर्मना निमित्तथी थता नर, नारक आदि पर्यायोमां भिन्न भिन्न स्वरूपे देखाय छे, (३) शक्तिना अविभाग


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मानतायामभूतार्थम् प्रतिच्छेद (अंश) घटे पण छे, वधे पण छेए वस्तुनो स्वभाव छे तेथी ते नित्य-नियत एकरूप देखातो नथी, (४) वळी ते दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुणोथी विशेषरूप देखाय छे अने (५) कर्मना निमित्तथी थता मोह, राग, द्वेष आदि परिणामो सहित ते सुखदुःखरूप देखाय छे. आ सौ अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप व्यवहार नयनो विषय छे. ए द्रष्टि(अपेक्षा)थी जोवामां आवे तो ए सर्व सत्यार्थ छे. परंतु आत्मानो एक स्वभाव आ नयथी ग्रहण नथी थतो, अने एक स्वभावने जाण्या विना यथार्थ आत्माने केम जाणी शकाय? आ कारणे बीजा नयनेतेना प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिक नयनेग्रहण करी, एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्मानो भाव लई, तेने शुद्धनयनी द्रष्टिथी सर्व परद्रव्योथी भिन्न, सर्व पर्यायोमां एकाकार, हानिवृद्धिथी रहित, विशेषोथी रहित अने नैमित्तिक भावोथी रहित जोवामां आवे तो सर्व (पांच) भावोथी जे अनेकप्रकारपणुं छे ते अभूतार्थ छेअसत्यार्थ छे.

अहीं एम जाणवुं के वस्तुनुं स्वरूप अनंत धर्मात्मक छे, ते स्याद्वादथी यथार्थ सिद्ध थाय छे. आत्मा पण अनंत धर्मवाळो छे. तेना केटलाक धर्मो तो स्वाभाविक छे अने केटलाक पुद्गलना संयोगथी थाय छे. जे कर्मना संयोगथी थाय छे, तेमनाथी तो आत्माने संसारनी प्रवृत्ति थाय छे अने ते संबंधी सुखदुःख आदि थाय छे तेमने भोगवे छे. ए, आ आत्माने अनादि अज्ञानथी पर्यायबुद्धि छे; अनादिअनंत एक आत्मानुं ज्ञान तेने नथी. ते बतावनार सर्वज्ञनुं आगम छे. तेमां शुद्धद्रव्यार्थिक नयथी ए बताव्युं छे के आत्मानो एक असाधारण चैतन्यभाव छे ते अखंड छे, नित्य छे, अनादिनिधन छे. तेने जाणवाथी पर्यायबुद्धिनो पक्षपात मटी जाय छे. परद्रव्योथी, तेमना भावोथी अने तेमना निमित्तथी थता पोताना विभावोथी पोताना आत्माने भिन्न जाणी तेनो अनुभव जीव करे त्यारे परद्रव्यना भावोरूप परिणमतो नथी; तेथी कर्म बंधातां नथी अने संसारथी निवृत्ति थई जाय छे. माटे पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयने गौण करी अभूतार्थ (असत्यार्थ) कह्यो छे अने शुद्ध निश्चयनयने सत्यार्थ कही तेनुं आलंबन दीधुं छे. वस्तुस्वरूपनी प्राप्ति थया पछी तेनुं पण आलंबन रहेतुं नथी. आ कथनथी एम न समजी लेवुं के शुद्धनयने सत्यार्थ कह्यो तेथी अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ज छे. एम मानवाथी वेदांतमतवाळा जेओ संसारने सर्वथा अवस्तु माने छे तेमनो सर्वथा एकांत पक्ष आवी जशे अने तेथी मिथ्यात्व आवी जशे, ए रीते ए शुद्धनयनुं आलंबन पण वेदान्तीओनी जेम मिथ्याद्रष्टिपणुं लावशे. माटे सर्व नयोना कथंचित् रीते सत्यार्थपणानुं श्रद्धान करवाथी ज सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे. आ रीते स्याद्वादने समजी जिनमतनुं सेवन करवुं, मुख्य-गौण कथन सांभळी सर्वथा एकांत पक्ष न पकडवो. आ गाथासूत्रनुं व्याख्यान करतां


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(मालिनी)
न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी
स्फु टमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम्
अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात्
जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ।।११।।

टीकाकार आचार्ये पण कह्युं छे के आत्मा व्यवहारनयनी द्रष्टिमां जे बद्धस्पृष्ट आदि रूपे देखाय छे ते ए द्रष्टिमां तो सत्यार्थ ज छे परंतु शुद्धनयनी द्रष्टिमां बद्धस्पृष्टादिपणुं असत्यार्थ छे. आ कथनमां टीकाकार आचार्ये स्याद्वाद बताव्यो छे एम जाणवुं.

वळी, अहीं एम जाणवुं के आ नय छे ते श्रुतज्ञान-प्रमाणनो अंश छे; श्रुतज्ञान वस्तुने परोक्ष जणावे छे; तेथी आ नय पण परोक्ष ज जणावे छे. शुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषयभूत, बद्धस्पृष्ट आदि पांच भावोथी रहित आत्मा चैतन्यशक्तिमात्र छे. ते शक्ति तो आत्मामां परोक्ष छे ज. वळी तेनी व्यक्ति कर्मसंयोगथी मति-श्रुतादि ज्ञानरूप छे ते कथंचित् अनुभवगोचर होवाथी प्रत्यक्षरूप पण कहेवाय छे, अने संपूर्णज्ञान जे केवळज्ञान ते जोके छद्मस्थने प्रत्यक्ष नथी तोपण आ शुद्धनय आत्माना केवळज्ञानरूपने परोक्ष जणावे छे. ज्यां सुधी आ नयने जीव जाणे नहि त्यां सुधी आत्माना पूर्ण रूपनुं ज्ञान-श्रद्धान थतुं नथी. तेथी श्री गुरुए आ शुद्धनयने प्रगट करी उपदेश कर्यो के बद्धस्पृष्ट आदि पांच भावोथी रहित पूर्णज्ञानघनस्वभाव आत्माने जाणी श्रद्धान करवुं, पर्यायबुद्धि न रहेवुं. अहीं कोई एवो प्रश्न करे केएवो आत्मा प्रत्यक्ष तो देखातो नथी अने विना देख्ये श्रद्धान करवुं ते जूठुं श्रद्धान छे. तेनो उत्तरःदेखेलानुं ज श्रद्धान करवुं ए तो नास्तिक मत छे. जिनमतमां तो प्रत्यक्ष अने परोक्षबन्ने प्रमाण मानवामां आव्यां छे. तेमां आगमप्रमाण परोक्ष छे. तेनो भेद शुद्धनय छे. आ शुद्धनयनी द्रष्टिथी शुद्ध आत्मानुं श्रद्धान करवुं, केवळ व्यवहार-प्रत्यक्षनो ज एकांत न करवो.

अहीं, आ शुद्धनयने मुख्य करी कलशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थ[जगत् तम् एव सम्यक्स्वभावम् अनुभवतु] जगतना प्राणीओ ए सम्यक् स्वभावनो अनुभव करो के [यत्र] ज्यां [अमी बद्धस्पृष्टभावादयः] आ बद्धस्पृष्ट आदि भावो [एत्य स्फुटम् उपरि तरन्तः अपि] स्पष्टपणे ते स्वभावना उपर तरे छे तोपण [प्रतिष्ठाम् न हि विदधति] (तेमां) प्रतिष्ठा पामता नथी, कारण के द्रव्यस्वभाव तो नित्य छे, एकरूप छे अने आ भावो अनित्य छे, अनेकरूप छे; पर्यायो द्रव्यस्वभावमां प्रवेश करता नथी, उपर ज रहे छे. [समन्तात् द्योतमानं] आ शुद्ध स्वभाव सर्व अवस्थाओमां प्रकाशमान छे. [अपगतमोहीभूय]

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(शार्दूलविक्रीडित)
भूतं भान्तमभूतमेव रमसान्निर्भिद्य बन्धं सुधी-
र्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः
।।१२।।
(वसंततिलका)
आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या
ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्धवा
आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्प-
मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात्
।।१३।।

एवा शुद्ध स्वभावनो, मोह रहित थईने जगत अनुभव करो; कारण के मोहकर्मना उदयथी उत्पन्न मिथ्यात्वरूप अज्ञान ज्यां सुधी रहे छे त्यां सुधी ए अनुभव यथार्थ थतो नथी.

भावार्थशुद्धनयना विषयरूप आत्मानो अनुभव करो एम उपदेश छे. ११.

हवे, ए ज अर्थनुं कलशरूप काव्य फरीने कहे छे जेमां एम कहे छे के आवो अनुभव कर्ये आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान थाय छेः

श्लोकार्थ[यदि] जो [कः अपि सुधीः] कोई सुबुद्धि (सम्यग्द्रष्टि) [भूतं भान्तम् अभूतम् एव बन्धं] भूत, वर्तमान अने भावी एवा त्रणे काळना (कर्मोना) बंधने पोताना आत्माथी [रभसात्] तत्काळ-शीघ्र [निर्भिद्य] भिन्न करीने तथा [मोहं] ते कर्मना उदयना निमित्तथी थयेल मिथ्यात्व(अज्ञान)ने [हठात्] पोताना बळथी (पुरुषार्थथी) [व्याहत्य] रोकीने अथवा नाश करीने [अन्तः] अंतरंगमां [किल अहो कलयति] अभ्यास करेदेखे तो [अयम् आत्मा] आ आत्मा [आत्म-अनुभव-एक-गम्य-महिमा] पोताना अनुभवथी ज जणावायोग्य जेनो प्रगट महिमा छे एवो [व्यक्तः] व्यक्त (अनुभवगोचर), [ध्रुवं] निश्चल, [शाश्वतः] शाश्वत, [नित्यं कर्म-कलङ्क-पङ्क-विकलः] नित्य कर्मकलंक-कर्दमथी रहित[स्वयं देवः] एवो पोते स्तुति करवा योग्य देव [आस्ते] विराजमान छे.

भावार्थःशुद्धनयनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो सर्व कर्मोथी रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरंगमां पोते विराजी रह्यो छे. आ प्राणीपर्यायबुद्धि बहिरात्मा तेने बहार ढूंढे छे ते मोटुं अज्ञान छे. १२.


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जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं
अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।।१५।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम्
अपदेशसान्तमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वम् ।।१५।।

येयमबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः सा खल्वखिलस्य जिनशासनस्यानुभूतिः, श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात्; ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः किन्तु

हवे, शुद्धनयना विषयभूत आत्मानी अनुभूति छे ते ज ज्ञाननी अनुभूति छे एम आगळनी गाथानी सूचनाना अर्थरूप काव्य कहे छे

श्लोकार्थ[इति] ए रीते [या शुद्धनयात्मिका आत्म-अनुभूतिः] जे पूर्वकथित शुद्धनयस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे [इयम् एव किल ज्ञान-अनुभूतिः] ते ज खरेखर ज्ञाननी अनुभूति छे [इति बुद्ध्वा] एम जाणीने तथा [आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य] आत्मामां आत्माने निश्चळ स्थापीने, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध-घनः अस्ति] ‘सदा सर्व तरफ एक ज्ञानघन आत्मा छे’ एम देखवुं.

भावार्थपहेलां सम्यग्दर्शनने प्रधान करी कह्युं हतुं; हवे ज्ञानने मुख्य करी कहे छे के आ शुद्धनयना विषयस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे ते ज सम्यग्ज्ञान छे. १३.

हवे, आ अर्थरूप गाथा कहे छेः

अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जे अविशेष देखे आत्मने,
ते द्रव्य तेम ज भाव जिनशासन सकल देखे खरे. १५.

गाथार्थ[यः] जे पुरुष [आत्मानम्] आत्माने [अबद्धस्पृष्टम्] अबद्धस्पृष्ट, [अनन्यम्] अनन्य, [अविशेषम्] अविशेष (तथा उपलक्षणथी नियत अने असंयुक्त) [पश्यति] देखे छे ते [सर्वम् जिनशासनं] सर्व जिनशासनने [पश्यति] देखे छे,के जे जिनशासन [अपदेशसान्तमध्यं] बाह्य द्रव्यश्रुत तेम ज अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाळुं छे.

टीकाजे आ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त एवा पांच भावोस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे ते निश्चयथी समस्त जिनशासननी अनुभूति छे, कारण * पाठान्तरः अपदेससुत्तमज्झं१. अपदेश = द्रव्यश्रुत; सान्त = ज्ञानरूप भावश्रुत.


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तदानीं सामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यामनुभूयमानमपि ज्ञानमबुद्धलुब्धानां न स्वदते तथाहि

यथा विचित्रव्यञ्जनसंयोगोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं लवणं लोकानामबुद्धानां व्यञ्जनलुब्धानां स्वदते, न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरो- भावाभ्याम्; अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्याविर्भावेनापि तथा विचित्रज्ञेयाकारकरम्बितत्वोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं ज्ञानमबुद्धानां ज्ञेय- लुब्धानां स्वदते, न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम्; अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं ज्ञान तदेव सामान्याविर्भावेनापि अलुब्धबुद्धानां तु यथा सैन्धवखिल्यो- ऽन्यद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकलवणरसत्वाल्लवणत्वेन स्वदते, तथा-


के श्रुतज्ञान पोते आत्मा ज छे. तेथी ज्ञाननी अनुभूति ते ज आत्मानी अनुभूति छे. परंतु हवे त्यां, सामान्य ज्ञानना आविर्भाव (प्रगटपणुं) अने विशेष (ज्ञेयाकार) ज्ञानना तिरोभाव (आच्छादन)थी ज्यारे ज्ञानमात्रनो अनुभव करवामां आवे त्यारे ज्ञान प्रगट अनुभवमां आवे छे तोपण जेओ अज्ञानी छे, ज्ञेयोमां आसक्त छे तेमने ते स्वादमां आवतुं नथी. ते प्रगट द्रष्टांतथी बतावीए छीए

जेमअनेक तरेहनां शाक आदि भोजनोना संबंधथी ऊपजेल सामान्य लवणना तिरोभाव अने विशेष लवणना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं जे (सामान्यना तिरोभावरूप अने शाक आदिना स्वादभेदे भेदरूपविशेषरूप) लवण तेनो स्वाद अज्ञानी, शाकना लोलुप मनुष्योने आवे छे पण अन्यना संबंधरहितपणाथी ऊपजेल सामान्यना आविर्भाव ने विशेषना तिरोभावथी अनुभवमां आवतुं जे एकाकार अभेदरूप लवण तेनो स्वाद आवतो नथी; वळी परमार्थथी जोवामां आवे तो तो, जे विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं (क्षाररसरूप) लवण छे ते ज सामान्यना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं (क्षाररसरूप) लवण छे. एवी रीतेअनेक प्रकारना ज्ञेयोना आकारो साथे मिश्ररूपपणाथी ऊपजेल सामान्यना तिरोभाव अने विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं जे (विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान ते अज्ञानी, ज्ञेय-लुब्ध जीवोने स्वादमां आवे छे पण अन्य ज्ञेयाकारना संयोगरहितपणाथी ऊपजेल सामान्यना आविर्भाव ने विशेषना तिरोभावथी अनुभवमां आवतुं जे एकाकार अभेदरूप ज्ञान ते स्वादमां आवतुं नथी; वळी परमार्थथी विचारीए तो तो, जे ज्ञान विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवे छे ते ज ज्ञान सामान्यना आविर्भावथी अनुभवमां आवे छे. अलुब्ध ज्ञानीओने तो, जेम सैंधवनी गांगडी, अन्यद्रव्यना संयोगनो व्यवच्छेद करीने केवळ सैंधवनो ज अनुभव करवामां आवतां, सर्वतः


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त्मापि परद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकविज्ञानघनत्वात् ज्ञानत्वेन स्वदते

(पृथ्वी)
अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहि-
र्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा
चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम्
।।१४।।

एक क्षाररसपणाने लीधे क्षारपणे स्वादमां आवे छे तेम आत्मा पण, परद्रव्यना संयोगनो व्यवच्छेद करीने केवळ आत्मानो ज अनुभव करवामां आवतां, सर्वतः एक विज्ञानघनपणाने लीधे ज्ञानपणे स्वादमां आवे छे.

भावार्थअहीं आत्मानी अनुभूति ते ज ज्ञाननी अनुभूति कहेवामां आवी छे. अज्ञानीजन ज्ञेयोमां जइंद्रियज्ञानना विषयोमां जलुब्ध थई रह्या छे; तेओ इंद्रियज्ञानना विषयोथी अनेकाकार थयेल ज्ञानने ज ज्ञेयमात्र आस्वादे छे परंतु ज्ञेयोथी भिन्न ज्ञानमात्रनो आस्वाद नथी लेता. अने जेओ ज्ञानी छे, ज्ञेयोमां आसक्त नथी तेओ ज्ञेयोथी जुदा एकाकार ज्ञाननो ज आस्वाद ले छे,जेम शाकोथी जुदी मीठानी कणीनो क्षारमात्र स्वाद आवे तेवी रीते आस्वाद ले छे, कारण के ज्ञान छे ते आत्मा छे अने आत्मा छे ते ज्ञान छे. आ प्रमाणे गुणी-गुणनी अभेद द्रष्टिमां आवतुं जे सर्व परद्रव्योथी जुदुं, पोताना पर्यायोमां एकरूप, निश्चळ, पोताना गुणोमां एकरूप, परनिमित्तथी उत्पन्न थयेल भावोथी भिन्न पोतानुं स्वरूप, तेनुं अनुभवन ते ज्ञाननुं अनुभवन छे, अने आ अनुभवन ते भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासननुं अनुभवन छे. शुद्धनयथी आमां कांई भेद नथी.

हवे आ ज अर्थनुं कलशरूप काव्य कहे छे

श्लोकार्थआचार्य कहे छे के [परमम् महः नः अस्तु] ते उत्कृष्ट तेजप्रकाश अमने हो [यत् सकलकालम् चिद्-उच्छलन-निर्भरं] के जे तेज सदाकाळ चैतन्यना परिणमनथी भरेलुं छे, [उल्लसत्-लवण-खिल्य-लीलायितम्] जेम मीठानी कांकरी एक क्षाररसनी लीलानुं आलंबन करे छे तेम जे तेज [एक-रसम् आलम्बते] एक ज्ञानरसस्वरूपने अवलंबे छे, [अखण्डितम्] जे तेज अखंडित छेज्ञेयोना आकाररूपे खंडित थतुं नथी, [अनाकुलं] जे अनाकुळ छे जेमां कर्मना निमित्तथी थता रागादिथी उत्पन्न आकुळता नथी, [अनन्तम् अन्तः बहिः ज्वलत्] जे अविनाशीपणे अंतरंगमां अने बहारमां प्रगट देदीप्यमान छेजाणवामां आवे छे, [सहजम्] जे स्वभावथी थयुं छेकोईए रच्युं नथी अने [सदा उद्विलासं] हमेशां जेनो


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(अनुष्टुभ्)
एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः
साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ।।१५।।
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।।१६।।
दर्शनज्ञानचरित्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यम्
तानि पुनर्जानीहि त्रीण्यप्यात्मानं चैव निश्चयतः ।।१६।।

येनैव हि भावेनात्मा साध्यः साधनं च स्यात्तेनैवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां विलास उदयरूप छेजे एकरूप प्रतिभासमान छे.

भावार्थआचार्ये प्रार्थना करी छे के आ ज्ञानानंदमय एकाकार स्वरूपज्योति अमने सदा प्राप्त रहो. १४.

हवे, आगळनी गाथानी सूचनारूपे श्लोक कहे छे

श्लोकार्थ[एषः ज्ञानघनः आत्मा] आ (पूर्वकथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते, [सिद्धिम् अभीप्सुभिः] स्वरूपनी प्राप्तिना इच्छक पुरुषोए [साध्यसाधकभावेन] साध्यसाधकभावना भेदथी [द्विधा] बे प्रकारे, [एकः] एक ज [नित्यम् समुपास्यताम्] नित्य सेववायोग्य छे; तेनुं सेवन करो.

भावार्थआत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ज छे परंतु एनुं पूर्णरूप साध्यभाव छे अने अपूर्णरूप साधकभाव छे; एवा भावभेदथी बे प्रकारे एकने ज सेववो. १५.

हवे, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप साधकभाव छे एम गाथामां कहे छे

दर्शन, वळी नित ज्ञान ने चारित्र साधु सेववां;
पण ए त्रणे आत्मा ज केवळ जाण निश्चयद्रष्टिमां. १६.

गाथार्थ[साधुना] साधु पुरुषे [दर्शनज्ञानचरित्राणि] दर्शन, ज्ञान अने चारित्र [नित्यम्] सदा [सेवितव्यानि] सेववायोग्य छे; [पुनः] वळी [तानि त्रीणि अपि] ते त्रणेने [निश्चयतः] निश्चयनयथी [आत्मानं च एव] एक आत्मा ज [जानीहि] जाणो.

टीकाआ आत्मा जे भावथी साध्य तथा साधन थाय ते भावथी ज नित्य


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व्यवहारेण साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते तानि पुनस्त्रीण्यपि परमार्थेनात्मैक एव, वस्त्वन्तराभावात् यथा देवदत्तस्य कस्यचित् ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं च देवदत्तस्वभावानतिक्रमाद्देवदत्त एव, न वस्त्वन्तरम्; तथात्मन्यप्यात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावानतिक्रमादात्मैव, न वस्त्वन्तरम् तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते स किल

(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम्
मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः ।।१६।।

सेववायोग्य छे एम पोते इरादो राखीने बीजाओने व्यवहारथी प्रतिपादन करे छे के ‘साधु पुरुषे दर्शन, ज्ञान, चारित्र सदा सेववायोग्य छे’. पण परमार्थथी जोवामां आवे तो ए त्रणेय एक आत्मा ज छे कारण के तेओ अन्य वस्तु नथीआत्माना ज पर्यायो छे. जेम कोई देवदत्त नामना पुरुषनां ज्ञान, श्रद्धान अने आचरण, देवदत्तना स्वभावने उल्लंघता नहि होवाथी, (तेओ) देवदत्त ज छेअन्य वस्तु नथी, तेम आत्मामां पण आत्मानां ज्ञान, श्रद्धान अने आचरण, आत्माना स्वभावने उल्लंघतां नहि होवाथी, (तेओ) आत्मा ज छेअन्य वस्तु नथी. माटे एम स्वयमेव सिद्ध थाय छे के एक आत्मा ज सेवन करवा योग्य छे.

भावार्थदर्शन, ज्ञान, चारित्रत्रणे आत्माना ज पर्यायो छे, कोई जुदी वस्तु नथी; तेथी साधु पुरुषोए एक आत्मानुं ज सेवन करवुं ए निश्चय छे अने व्यवहारथी अन्यने पण ए ज उपदेश करवो.

हवे, ए ज अर्थनो कलशरूप श्लोक कहे छे

श्लोकार्थ[प्रमाणतः] प्रमाणद्रष्टिथी जोईए तो [आत्मा] आ आत्मा [समम् मेचकः अमेचकः च अपि] एकीसाथे अनेक अवस्थारूप (‘मेचक’) पण छे अने एक अवस्थारूप (‘अमेचक’) पण छे, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रित्वात्] कारण के एने दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी तो त्रणपणुं छे अने [स्वयम् एकत्वतः] पोताथी पोताने एकपणुं छे.

भावार्थप्रमाणद्रष्टिमां त्रिकाळस्वरूप वस्तु द्रव्यपर्यायरूप जोवामां आवे छे, तेथी आत्मा पण एकीसाथे एकानेकस्वरूप देखवो. १६.

हवे नयविवक्षा कहे छे


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(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः
एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाद्वयवहारेण मेचकः ।।१७।।
(अनुष्टुभ्)
परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः
सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ।।१८।।
(अनुष्टुभ्)
आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः
दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ।।१९।।

श्लोकार्थ[एकः अपि] आत्मा एक छे तोपण [व्यवहारेण] व्यवहारद्रष्टिथी जोईए तो [त्रिस्वभावत्वात्] त्रण-स्वभावपणाने लीधे [मेचकः] अनेकाकाररूप (‘मेचक’) छे, [दर्शन-ज्ञान- चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः] कारण के दर्शन, ज्ञान अने चारित्रए त्रण भावे परिणमे छे.

भावार्थशुद्धद्रव्यार्थिक नये आत्मा एक छे; आ नयने प्रधान करी कहेवामां आवे त्यारे पर्यायार्थिक नय गौण थयो तेथी एकने त्रणरूप परिणमतो कहेवो ते व्यवहार थयो, असत्यार्थ पण थयो. एम व्यवहारनये आत्माने दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणामोने लीधे ‘मेचक’ कह्यो छे. १७.

हवे परमार्थनयथी कहे छे

श्लोकार्थ[परमार्थेन तु] शुद्ध निश्चयनयथी जोवामां आवे तो [व्यक्त-ज्ञातृत्व-ज्योतिषा] प्रगट ज्ञायकताज्योतिमात्रथी [एककः] आत्मा एकस्वरूप छे [सर्व-भावान्तर-ध्वंसि-स्वभावत्वात्] कारण के शुद्धद्रव्यार्थिक नयथी सर्व अन्यद्रव्यना स्वभावो तथा अन्यना निमित्तथी थता विभावोने दूर करवारूप तेनो स्वभाव छे, [अमेचकः] तेथी ते ‘अमेचक’ छेशुद्ध एकाकार छे.

भावार्थभेदद्रष्टिने गौण करी अभेदद्रष्टिथी जोवामां आवे तो आत्मा एकाकार ज छे, ते ज अमेचक छे. १८.

आत्माने प्रमाण-नयथी मेचक, अमेचक कह्यो, ते चिंताने मटाडी जेम साध्यनी सिद्धि थाय तेम करवुं एम हवे कहे छे

श्लोकार्थ[आत्मनः] आ आत्मा [मेचक-अमेचकत्वयोः] मेचक छेभेदरूप अनेकाकार छे तथा अमेचक छेअभेदरूप एकाकार छे [चिन्तया एव अलं] एवी चिंताथी


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जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि
तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ।।१७।।
एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो
अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ।।१८।।
यथा नाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति
ततस्तमनुचरति पुनरर्थार्थिकः प्रयत्नेन ।।१७।।
एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः
अनुचरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन ।।१८।।

तो बस थाओ. [साध्यसिद्धिः] साध्य आत्मानी सिद्धि तो [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः] दर्शन, ज्ञान ने चारित्रए त्रण भावोथी ज छे, [न च अन्यथा] बीजी रीते नथी (ए नियम छे).

भावार्थआत्माना शुद्ध स्वभावनी साक्षात् प्राप्ति अथवा सर्वथा मोक्ष ते साध्य छे. आत्मा मेचक छे के अमेचक छे एवा विचारो ज मात्र कर्या करवाथी ते साध्य सिद्ध थतुं नथी; परंतु दर्शन अर्थात् शुद्ध स्वभावनुं अवलोकन, ज्ञान अर्थात् शुद्ध स्वभावनुं प्रत्यक्ष जाणपणुं अने चारित्र अर्थात् शुद्ध स्वभावमां स्थिरतातेमनाथी ज साध्यनी सिद्धि थाय छे. आ ज मोक्षमार्ग छे, ते सिवाय बीजो कोई मोक्षमार्ग नथी.

व्यवहारी लोको पर्यायमांभेदमां समजे छे तेथी अहीं ज्ञान, दर्शन, चारित्रना भेदथी समजाव्युं छे. १९.

हवे, आ ज प्रयोजनने बे गाथाओमां द्रष्टांतथी कहे छे

ज्यम पुरुष कोई नृपतिने जाणे, पछी श्रद्धा करे,
पछी यत्नथी धन-अर्थी ए अनुचरण नृपतिनुं करे; १७.
जीवराज एम ज जाणवो, वळी श्रद्धवो पण ए रीते,
एनुं ज करवुं अनुचरण पछी यत्नथी मोक्षार्थीए. १८.

गाथार्थ[यथा नाम] जेम [कः अपि] कोई [अर्थार्थिकः पुरुषः] धननो अर्थी पुरुष

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