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यथा हि कश्चित्पुरुषोऽर्थार्थी प्रयत्नेन प्रथममेव राजानं जानीते, ततस्तमेव श्रद्धत्ते, ततस्तमेवानुचरति, तथात्मना मोक्षार्थिना प्रथममेवात्मा ज्ञातव्यः, ततः स एव श्रद्धातव्यः, ततः स एवानुचरितव्यश्च, साध्यसिद्धेस्तथान्यथोपपत्त्यनुपपत्तिभ्याम् ।
तत्र यदात्मनोऽनुभूयमानानेकभावसङ्करेऽपि परमविवेककौशलेनायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानेन
सङ्गच्छमानमेव तथेतिप्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशङ्कमवस्थातुं शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तिः । [राजानं] राजाने [ज्ञात्वा] जाणीने [श्रद्दधाति] श्रद्धा करे छे, [ततः पुनः] त्यार बाद [तं
प्रयत्नेन अनुचरति] तेनुं प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करे छे अर्थात् तेनी सुंदर रीते सेवा करे छे,
[एवं हि] एवी ज रीते [मोक्षकामेन] मोक्षनी इच्छावाळाए [जीवराजः] जीवरूपी राजाने
[ज्ञातव्यः] जाणवो, [पुनः च] पछी [तथा एव] ए रीते ज [श्रद्धातव्यः] तेनुं श्रद्धान करवुं
[तु च] अने त्यार बाद [स एव अनुचरितव्यः] तेनुं ज अनुचरण करवुं अर्थात् अनुभव
वडे तन्मय थई जवुं.
टीकाः — निश्चयथी जेम कोई धन-अर्थी पुरुष बहु उद्यमथी प्रथम तो राजाने जाणे के आ राजा छे, पछी तेनुं ज श्रद्धान करे के ‘आ अवश्य राजा ज छे, तेनुं सेवन करवाथी अवश्य धननी प्राप्ति थशे’ अने त्यार पछी तेनुं ज अनुचरण करे, सेवन करे, आज्ञामां रहे, तेने प्रसन्न करे; तेवी रीते मोक्षार्थी पुरुषे प्रथम तो आत्माने जाणवो, पछी तेनुं ज श्रद्धान करवुं के ‘आ ज आत्मा छे, तेनुं आचरण करवाथी अवश्य कर्मोथी छूटी शकाशे’ अने त्यार पछी तेनुं ज आचरण करवुं — अनुभव वडे तेमां लीन थवुं; कारण के साध्य जे निष्कर्म अवस्थारूप अभेद शुद्धस्वरूप तेनी सिद्धिनी ए रीते उपपत्ति छे, अन्यथा अनुपपत्ति छे (अर्थात् साध्यनी सिद्धि ए रीते थाय छे, बीजी रीते थती नथी).
(ते वात विशेष समजावे छेः — ) ज्यारे आत्माने, अनुभवमां आवता जे अनेक पर्यायरूप भेदभावो तेमनी साथे मिश्रितपणुं होवा छतां पण सर्व प्रकारे भेदज्ञानमां प्रवीणपणाथी ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं’ एवा आत्मज्ञानथी प्राप्त थतुं, आ आत्मा जेवो जाण्यो तेवो ज छे एवी प्रतीति जेनुं लक्षण छे एवुं, श्रद्धान उदय थाय छे त्यारे समस्त अन्यभावोनो भेद थवाथी निःशंक ठरवाने समर्थ थवाने लीधे आत्मानुं आचरण उदय थतुं आत्माने साधे छे. आम साध्य आत्मानी सिद्धिनी ए रीते उपपत्ति छे.
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यदा त्वाबालगोपालमेव सकलकालमेव स्वयमेवानुभूयमानेऽपि भगवत्यनुभूत्यात्म- न्यात्मन्यनादिबन्धवशात् परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोत्प्लवते, तदभावादज्ञातखरशृङ्गश्रद्धानसमानत्वात् श्रद्धानमपि नोत्प्लवते, तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशङ्कमवस्थातुमशक्यत्वादात्मानुचरणमनुत्प्लवमानं नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेरन्यथानुपपत्तिः ।
अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् ।
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।।२०।।
परंतु ज्यारे आवो अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाळगोपाळ सौने सदाकाळ पोते ज अनुभवमां आवतो होवा छतां पण अनादि बंधना वशे पर (द्रव्यो) साथे एकपणाना निश्चयथी मूढ जे अज्ञानी तेने ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं’ एवुं आत्मज्ञान उदय थतुं नथी अने तेना अभावने लीधे, नहि जाणेलानुं श्रद्धान गधेडानां शिंगडांना श्रद्धान समान होवाथी, श्रद्धान पण उदय थतुं नथी त्यारे समस्त अन्यभावोना भेद वडे आत्मामां निःशंक ठरवाना असमर्थपणाने लीधे आत्मानुं आचरण उदय नहि थवाथी आत्माने साधतुं नथी. आम साध्य आत्मानी सिद्धिनी अन्यथा अनुपपत्ति छे.
भावार्थः — साध्य आत्मानी सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी ज छे, बीजी रीते नथी. कारण केः — पहेलां तो आत्माने जाणे के आ जाणनारो अनुभवमां आवे छे ते हुं छुं. त्यार बाद तेनी प्रतीतिरूप श्रद्धान थाय; विना जाण्ये श्रद्धान कोनुं? पछी समस्त अन्यभावोथी भेद करीने पोतामां स्थिर थाय. — ए प्रमाणे सिद्धि छे. पण जो जाणे ज नहि, तो श्रद्धान पण न थई शके; तो स्थिरता शामां करे? तेथी बीजी रीते सिद्धि नथी एवो निश्चय छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — आचार्य कहे छे केः [अनन्तचैतन्यचिह्नं] अनंत (अविनश्वर) चैतन्य जेनुं चिह्न छे एवी [इदम् आत्मज्योतिः] आ आत्मज्योतिने [सततम् अनुभवामः] अमे निरंतर अनुभवीए छीए [यस्मात्] कारण के [अन्यथा साध्यसिद्धिः न खलु न खलु] तेना अनुभव विना अन्य रीते साध्य आत्मानी सिद्धि नथी. केवी छे आत्मज्योति? [कथम् अपि
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ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मा ज्ञानं नित्यमुपास्त एव, कुतस्तदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेत्, तन्न, यतो न खल्वात्मा ज्ञानतादात्म्येऽपि क्षणमपि ज्ञानमुपास्ते, स्वयम्बुद्धबोधितबुद्धत्वकारण- पूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्तेः । तर्हि तत्कारणात्पूर्वमज्ञान एवात्मा नित्यमेवाप्रतिबुद्धत्वात् ? एवमेतत् ।
समुपात्तत्रित्वम् अपि एकतायाः अपतितम्] जेणे कोई प्रकारे त्रणपणुं अंगीकार कर्युं छे तोपण जे एकपणाथी च्युत थई नथी अने [अच्छम् उद्गच्छत्] जे निर्मळपणे उदय पामी रही छे.
भावार्थः — आचार्य कहे छे के जेने कोई प्रकारे पर्यायद्रष्टिथी त्रणपणुं प्राप्त छे तोपण शुद्धद्रव्यद्रष्टिथी जे एकपणाथी रहित नथी थई तथा जे अनंत चैतन्यस्वरूप निर्मळ उदयने प्राप्त थई रही छे एवी आत्मज्योतिनो अमे निरंतर अनुभव करीए छीए. आम कहेवाथी एवो आशय पण जाणवो के जे सम्यग्द्रष्टि पुरुष छे ते, जेवो अमे अनुभव करीए छीए तेवो अनुभव करे. २०.
टीकाः — हवे, कोई तर्क करे के आत्मा तो ज्ञान साथे तादात्म्यस्वरूपे छे, जुदो नथी, तेथी ज्ञानने नित्य सेवे ज छे; तो पछी तेने ज्ञाननी उपासना करवानी शिक्षा केम आपवामां आवे छे? तेनुं समाधानः ते एम नथी. जोके आत्मा ज्ञान साथे तादात्म्यस्वरूप छे तोपण एक क्षणमात्र पण ज्ञानने सेवतो नथी; कारण के स्वयंबुद्धत्व (पोते पोतानी मेळे जाणवुं ते) अथवा बोधितबुद्धत्व (बीजाना जणाववाथी जाणवुं ते) — ए कारणपूर्वक ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे. (कां तो काळलब्धि आवे त्यारे पोते ज जाणी ले अथवा तो कोई उपदेश देनार मळे त्यारे जाणे — जेम सूतेलो पुरुष कां तो पोते ज जागे अथवा तो कोई जगाडे त्यारे जागे.) अहीं फरी पूछे छे के जो एम छे तो जाणवाना कारण पहेलां शुं आत्मा अज्ञानी ज छे केम के तेने सदाय अप्रतिबुद्धपणुं छे? तेनो उत्तरः ए वात एम ज छे, ते अज्ञानी ज छे.
वळी फरी पूछे छे के आ आत्मा केटला वखत सुधी (क्यां सुधी) अप्रतिबुद्ध छे ते कहो. तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः —
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यथा स्पर्शरसगन्धवर्णादिभावेषु पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कन्धेषु घटोऽयमिति, घटे च स्पर्शरसगन्धवर्णादिभावाः पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कन्धाश्चामी इति वस्त्वभेदेनानु- भूतिस्तथा कर्मणि मोहादिष्वन्तरङ्गेषु नोकर्मणि शरीरादिषु बहिरङ्गेषु चात्मतिरस्कारिषु पुद्गल- परिणामेष्वहमित्यात्मनि च कर्म मोहादयोऽन्तरङ्गा नोकर्म शरीरादयो बहिरङ्गाश्चात्मतिरस्कारिणः पुद्गलपरिणामा अमी इति वस्त्वभेदेन यावन्तं कालमनुभूतिस्तावन्तं कालमात्मा भवत्यप्रतिबुद्धः । यदा कदाचिद्यथा रूपिणो दर्पणस्य स्वपराकारावभासिनी स्वच्छतैव वह्नेरौष्ण्यं ज्वाला च तथा नीरूपस्यात्मनः स्वपराकारावभासिनी ज्ञातृतैव पुद्गलानां कर्म नोकर्म चेति स्वतः परतो वा भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पत्स्यते तदैव प्रतिबुद्धो भविष्यति ।
गाथार्थः — [यावत्] ज्यां सुधी आ आत्माने [कर्मणि] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म [च] अने [नोकर्मणि] शरीर आदि नोकर्ममां [अहं] ‘आ हुं छुं’ [च] अने [अहकं कर्म नोकर्म इति] हुंमां (-आत्मामां) ‘आ कर्म-नोकर्म छे’ — [एषा खलु बुद्धिः] एवी बुद्धि छे, [तावत्] त्यां सुधी [अप्रतिबुद्धः] आ आत्मा अप्रतिबुद्ध [भवति] छे.
टीकाः — जेवी रीते स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावोमां तथा पहोळुं तळियुं, पेटाळ आदिना आकारे परिणत थयेल पुद्गलना स्कंधोमां ‘आ घडो छे’ एम, अने घडामां ‘आ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावो तथा पहोळुं तळियुं, पेटाळ आदिना आकारे परिणत पुद्गल-स्कंधो छे’ एम वस्तुना अभेदथी अनुभूति थाय छे, तेवी रीते कर्म – मोह आदि अंतरंग परिणामो तथा नोकर्म – शरीर आदि बाह्य वस्तुओ — के जेओ (बधां) पुद्गलना परिणाम छे अने आत्मानो तिरस्कार करनारा छे — तेमनामां ‘आ हुं छुं’ एम अने आत्मामां ‘आ कर्म – मोह आदि अंतरंग तथा नोकर्म – शरीर आदि बहिरंग, आत्म-तिरस्कारी (आत्मानो तिरस्कार करनारा) पुद्गल-परिणामो छे’ एम वस्तुना अभेदथी ज्यां सुधी अनुभूति छे त्यां सुधी आत्मा अप्रतिबुद्ध छे; अने ज्यारे कोई वखते, जेम रूपी दर्पणनी स्व-परना आकारनो प्रतिभास करनारी स्वच्छता ज छे अने उष्णता तथा ज्वाळा अग्निनी छे तेवी रीते अरूपी आत्मानी तो पोताने ने परने जाणनारी ज्ञातृता (ज्ञातापणुं) ज छे अने कर्म तथा नोकर्म पुद्गलनां छे एम पोताथी ज अथवा परना उपदेशथी जेनुं मूळ भेदविज्ञान छे एवी अनुभूति उत्पन्न थशे त्यारे ज (आत्मा) प्रतिबुद्ध थशे.
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मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा ।
र्मुकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव ।।२१।।
भावार्थः — जेम स्पर्शादिमां पुद्गलनो अने पुद्गलमां स्पर्शादिनो अनुभव थाय छे अर्थात् बन्ने एकरूप अनुभवाय छे, तेम ज्यां सुधी आत्माने, कर्म-नोकर्ममां आत्मानी अने आत्मामां कर्म-नोकर्मनी भ्रांति थाय छे अर्थात् बन्ने एकरूप भासे छे, त्यां सुधी तो ते अप्रतिबुद्ध छे; अने ज्यारे ते एम जाणे के आत्मा तो ज्ञाता ज छे अने कर्म-नोकर्म पुद्गलनां ज छे त्यारे ज ते प्रतिबुद्ध थाय छे. जेम अरीसामां अग्निनी ज्वाळा देखाय त्यां एम जणाय छे के ‘‘ज्वाळा तो अग्निमां ज छे, अरीसामां नथी पेठी, अरीसामां देखाई रही छे ते अरीसानी स्वच्छता ज छे’’; ते प्रमाणे ‘‘कर्म-नोकर्म पोताना आत्मामां नथी पेठां; आत्मानी ज्ञान-स्वच्छता एवी ज छे के जेमां ज्ञेयनुं प्रतिबिंब देखाय; ए रीते कर्म-नोकर्म ज्ञेय छे ते प्रतिभासे छे’’ — एवो भेदज्ञानरूप अनुभव आत्माने कां तो स्वयमेव थाय अथवा उपदेशथी थाय त्यारे ज ते प्रतिबुद्ध थाय छे.
हवे, आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ये] जे पुरुषो [स्वतः वा अन्यतः वा] पोताथी ज अथवा परना उपदेशथी [कथम् अपि हि] कोई पण प्रकारे [भेदविज्ञानमूलाम्] भेदविज्ञान जेनुं मूळ उत्पत्तिकारण छे एवी [अचलितम्] अविचळ (निश्चळ) [अनुभूतिम्] पोताना आत्मानी अनुभूतिने [लभन्ते] पामे छे, [ते एव] ते ज पुरुषो [मुकुरवत्] दर्पणनी जेम [प्रतिफलन- निमग्न-अनन्त-भाव-स्वभावैः] पोतामां प्रतिबिंबित थयेला अनंत भावोना स्वभावोथी [सन्ततं] निरंतर [अविकाराः] विकाररहित [स्युः] होय छे, — ज्ञानमां जे ज्ञेयोना आकार प्रतिभासे छे तेमनाथी रागादि विकारने प्राप्त थता नथी. २१.
हवे शिष्य प्रश्न करे छे के ए अप्रतिबुद्ध कई रीते ओळखी शकाय एनुं चिह्न बतावो; तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः —
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गाथार्थः — [अन्यत् यत् परद्रव्यं] जे पुरुष पोताथी अन्य जे परद्रव्य — [सचित्ताचित्तमिश्रं वा] सचित्त स्त्रीपुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक अथवा मिश्र ग्रामनगरादिक — तेने एम समजे के [अहं एतत्] हुं आ छुं, [एतत् अहम्] आ द्रव्य मुज-स्वरूप छे, [अहम् एतस्य अस्मि] हुं आनो छुं, [एतत् मम अस्ति] आ मारुं छे, [एतत् मम पूर्वम् आसीत्] आ मारुं पूर्वे हतुं, [एतस्य अहम् अपि पूर्वम् आसम्] आनो हुं पण पूर्वे हतो, [एतत् मम पुनः भविष्यति] आ मारुं भविष्यमां थशे, [अहम् अपि एतस्य भविष्यामि] हुं पण आनो भविष्यमां थईश, — [एतत्
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यथाग्निरिन्धनमस्तीन्धनमग्निरस्त्यग्नेरिन्धनमस्तीन्धनस्याग्निरस्ति, अग्नेरिन्धनं पूर्वमासीदि- न्धनस्याग्निः पूर्वमासीत्, अग्नेरिन्धनं पुनर्भविष्यतीन्धनस्याग्निः पुनर्भविष्यतीतीन्धन एवा- सद्भूताग्निविकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धः कश्चिल्लक्ष्येत, तथाहमेतदस्म्येतदहमस्ति ममैतदस्त्येतस्याहमस्मि, ममैतत्पूर्वमासीदेतस्याहं पूर्वमासं, ममैतत्पुनर्भविष्यत्येतस्याहं पुनर्भविष्यामीति परद्रव्य एवासद्भूतात्मविकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्येतात्मा ।
नाग्निरिन्धनमस्ति नेन्धनमग्निरस्त्यग्निरग्निरस्तीन्धनमिन्धनमस्ति नाग्नेरिन्धनमस्ति
नेन्धनस्याग्निरस्त्यग्नेरग्निरस्तीन्धनस्येन्धनमस्ति, नाग्नेरिन्धनं पूर्वमासीन्नेन्धनस्याग्निः पूर्वमासी- दग्नेरग्निः पूर्वमासीदिन्धनस्येन्धनं पूर्वमासीत्, नाग्नेरिन्धनं पुनर्भविष्यति नेन्धनस्याग्निः पुनर्भविष्यत्यग्नेरग्निः पुनर्भविष्यतीन्धनस्येन्धनं पुनर्भविष्यतीति कस्यचिदग्नावेव सद्भूताग्नि- विकल्पवन्नाहमेतदस्मि नैतदहमस्त्यहमहमस्म्येतदेतदस्ति, न ममैतदस्ति नैतस्याहमस्मि ममाहम- तु असद्भूतम्] आवो जूठो [आत्मविकल्पं] आत्मविकल्प [करोति] करे छे ते [सम्मूढः] मूढ छे,
मोही छे, अज्ञानी छे; [तु] अने जे पुरुष [भूतार्थं] परमार्थ वस्तुस्वरूपने [जानन्] जाणतो थको [तम्] एवो जूठो विकल्प [न करोति] नथी करतो ते [असम्मूढः] मूढ नथी, ज्ञानी छे.
टीकाः — (द्रष्टांतथी समजावे छेः) जेम कोई पुरुष इंधन अने अग्निने मळेलां देखी एवो जूठो विकल्प करे के ‘‘अग्नि छे ते इंधन छे, इंधन छे ते अग्नि छे; अग्निनुं इंधन छे, इंधननो अग्नि छे; अग्निनुं इंधन पहेलां हतुं, इंधननो अग्नि पहेलां हतो; अग्निनुं इंधन भविष्यमां थशे, इंधननो अग्नि भविष्यमां थशे’’; — आवो इंधनमां ज अग्निनो विकल्प करे ते जूठो छे, तेनाथी अप्रतिबुद्ध कोई ओळखाय छे, तेवी रीते कोई आत्मा परद्रव्यमां ज असत्यार्थ आत्मविकल्प (आत्मानो विकल्प) करे के ‘‘हुं आ परद्रव्य छुं, आ परद्रव्य मुजस्वरूप छे; मारुं आ परद्रव्य छे, आ परद्रव्यनो हुं छुं; मारुं आ पहेलां हतुं, हुं आनो पहेलां हतो; मारुं आ भविष्यमां थशे, हुं आनो भविष्यमां थईश’’; — आवा जूठा विकल्पथी अप्रतिबुद्ध ओळखाय छे.
वळी अग्नि छे ते इंधन नथी, इंधन छे ते अग्नि नथी, — अग्नि छे ते अग्नि ज छे, इंधन छे ते इंधन ज छे; अग्निनुं इंधन नथी, इंधननो अग्नि नथी, — अग्निनो ज अग्नि छे, इंधननुं इंधन छे; अग्निनुं इंधन पहेलां हतुं नहि, इंधननो अग्नि पहेलां हतो नहि, — अग्निनो अग्नि पहेलां हतो, इंधननुं इंधन पहेलां हतुं; अग्निनुं इंधन भविष्यमां थशे नहि, इंधननो अग्नि भविष्यमां थशे नहि, — अग्निनो अग्नि ज भविष्यमां थशे, इंधननुं इंधन ज भविष्यमां थशे; — आ प्रमाणे जेम कोईने अग्निमां ज सत्यार्थ अग्निनो विकल्प थाय ते
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स्म्येतस्यैतदस्ति, न ममैतत्पूर्वमासीन्नैतस्याहं पूर्वमासं ममाहं पूर्वमासमेतस्यैतत्पूर्वमासीत्, न ममैतत्पुनर्भविष्यति नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं पुनर्भविष्याम्येतस्यैतत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एव सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात् ।
रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।
किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम् ।।२२।।
प्रतिबुद्धनुं लक्षण छे, तेवी ज रीते ‘‘हुं आ परद्रव्य नथी, आ परद्रव्य मुजस्वरूप नथी, — हुं तो हुं ज छुं, परद्रव्य छे ते परद्रव्य ज छे; मारुं आ परद्रव्य नथी, आ परद्रव्यनो हुं नथी, — मारो ज हुं छुं, परद्रव्यनुं परद्रव्य छे; आ परद्रव्य मारुं पहेलां हतुं नहि, आ परद्रव्यनो हुं पहेलां हतो नहि, — मारो हुं ज पहेलां हतो, परद्रव्यनुं परद्रव्य पहेलां हतुं; आ परद्रव्य मारुं भविष्यमां थशे नहि, एनो हुं भविष्यमां थईश नहि, — हुं मारो ज भविष्यमां थईश, आ(परद्रव्य)नुं आ (परद्रव्य) भविष्यमां थशे.’’ — आवो जे स्वद्रव्यमां ज सत्यार्थ आत्मविकल्प थाय छे ते ज प्रतिबुद्धनुं लक्षण छे, तेनाथी ते ओळखाय छे.
भावार्थः — जे परद्रव्यमां आत्मानो विकल्प करे छे ते तो अज्ञानी छे अने जे पोताना आत्माने ज पोतानो माने छे ते ज्ञानी छे — एम अग्नि-इंधनना द्रष्टांत द्वारा द्रढ कर्युं छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [जगत्] जगत अर्थात् जगतना जीवो [आजन्मलीढं मोहम्] अनादि संसारथी मांडीने आज सुधी अनुभव करेला मोहने [इदानीं त्यजतु] हवे तो छोडो अने [रसिकानां रोचनं] रसिक जनोने रुचिकर, [उद्यत् ज्ञानम्] उदय थई रहेलुं जे ज्ञान तेने [रसयतु] आस्वादो; कारण के [इह] आ लोकमां [आत्मा] आत्मा छे ते [किल] खरेखर [कथम् अपि] कोई प्रकारे [अनात्मना साकम्] अनात्मा (परद्रव्य) साथे [क्व अपि काले] कोई काळे पण [तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न] तादात्म्यवृत्ति (एकपणुं) पामतो नथी, केम के [एकः] आत्मा एक छे ते अन्य द्रव्य साथे एकतारूप थतो नथी.
भावार्थः — आत्मा परद्रव्य साथे कोई प्रकारे कोई काळे एकताना भावने पामतो नथी. ए रीते आचार्ये, अनादिथी परद्रव्य प्रत्ये लागेलो जे मोह छे तेनुं भेदविज्ञान बताव्युं
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छे अने प्रेरणा करी छे के ए एकपणारूप मोहने हवे छोडो अने ज्ञानने आस्वादो; मोह छे ते वृथा छे, जूठो छे, दुःखनुं कारण छे. २२.
हवे अप्रतिबुद्धने समजाववा माटे प्रयत्न करे छेः —
गाथार्थः — [अज्ञानमोहितमतिः] जेनी मति अज्ञानथी मोहित छे [बहुभावसंयुक्तः] अने जे मोह, राग, द्वेष आदि घणा भावोथी सहित छे एवो [जीवः] जीव [भणति] एम कहे
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युगपदनेकविधस्य बन्धनोपाधेः सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रो-
पाश्रयोपरक्तः स्फ टिकोपल इवात्यन्ततिरोहितस्वभावभावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिर्महता स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृ त्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाणः पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः । अथायमेव प्रतिबोध्यते — रे दुरात्मन्, आत्मपंसन्,
जहीहि जहीहि परमाविवेकघस्मरसतृणाभ्यवहारित्वम् । दूरनिरस्तसमस्तसन्देहविपर्यासानध्यवसायेन
छे के [इदं] आ [बद्धम् तथा च अबद्धं] शरीरादि बद्ध तेम ज धनधान्यादि अबद्ध [पुद्गलं द्रव्यम्] पुद्गलद्रव्य [मम] मारुं छे. आचार्य कहे छेः [सर्वज्ञज्ञानदृष्टः] सर्वज्ञना ज्ञान वडे देखवामां आवेलो जे [नित्यम्] सदा [उपयोगलक्षणः] उपयोगलक्षणवाळो [जीवः] जीव छे [सः] ते [पुद्गलद्रव्यीभूतः] पुद्गलद्रव्यरूप [कथं] केम थई शके [यत्] के [भणसि] तुं कहे छे के [इदं मम] आ पुद्गलद्रव्य मारुं छे? [यदि] जो [सः] जीवद्रव्य [पुद्गलद्रव्यीभूतः] पुद्गलद्रव्यरूप थई जाय अने [इतरत्] पुद्गलद्रव्य [जीवत्वम्] जीवपणाने [आगतम्] पामे [तत्] तो [वक्तुं शक्तः] तुं कही शके [यत्] के [इदं पुद्गलं द्रव्यम्] आ पुद्गलद्रव्य [मम] मारुं छे. (पण एवुं तो थतुं नथी.)
टीकाः — एकीसाथे अनेक प्रकारनी बंधननी उपाधिना अति निकटपणाथी वेगपूर्वक वहेता अस्वभावभावोना संयोगवशे जे (अप्रतिबुद्ध जीव) अनेक प्रकारना वर्णवाळा ✽आश्रयनी निकटताथी रंगायेला स्फटिकपाषाण जेवो छे, अत्यंत तिरोभूत (ढंकायेला) पोताना स्वभावभावपणाथी जे जेनी समस्त भेदज्ञानरूप ज्योति अस्त थई गई छे एवो छे, अने महा अज्ञानथी जेनुं हृदय पोते पोताथी ज विमोहित छे — एवो अप्रतिबुद्ध जीव स्वपरनो भेद नहि करीने, पेला अस्वभावभावोने ज (पोताना स्वभाव नथी एवा विभावोने ज) पोताना करतो, पुद्गलद्रव्यने ‘आ मारुं छे’ एम अनुभवे छे. (जेम स्फटिकपाषाणमां अनेक प्रकारना वर्णनी निकटताथी अनेकवर्णरूपपणुं देखाय छे, स्फटिकनो निज श्वेत-निर्मळभाव देखातो नथी तेवी रीते अप्रतिबुद्धने कर्मनी उपाधिथी आत्मानो शुद्ध स्वभाव आच्छादित थई रह्यो छे — देखातो नथी तेथी पुद्गलद्रव्यने पोतानुं माने छे.) एवा अप्रतिबुद्धने हवे समजाववामां आवे छे केः — ए दुरात्मन्! आत्मानो घात करनार! जेम परम अविवेकथी ✽आश्रय = जेमां स्फटिकमणि मूकेलो होय ते वस्तु
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विश्वैकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फु टीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि, यतो यदि कथञ्चनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात् पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभूतं स्यात् तदैव लवणस्योदकमिव ममेदं पुद्गलद्रव्यमित्यनुभूतिः किल
घटेत, तत्तु न कथञ्चनापि स्यात् । तथाहि — यथा क्षारत्वलक्षणं लवणमुदकीभवत्
द्रवत्वलक्षणमुदकं च लवणीभवत् क्षारत्वद्रवत्वसहवृत्त्यविरोधादनुभूयते, न तथा नित्योपयोगलक्षणं
जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभवत् नित्यानुपयोगलक्षणं पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभवत् उपयोगानुपयोगयोः
प्रकाशतमसोरिव सहवृत्तिविरोधादनुभूयते । तत्सर्वथा प्रसीद, विबुध्यस्व, स्वद्रव्यं ममेदमित्यनुभव ।
खानारा हस्ती आदि पशुओ सुंदर आहारने तृण सहित खाई जाय छे एवी रीते खावाना स्वभावने तुं छोड, छोड. जेणे समस्त संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय दूर करी दीधा छे अने जे विश्वने (समस्त वस्तुओने) प्रकाशवाने एक अद्वितीय ज्योति छे एवा सर्वज्ञ- ज्ञानथी स्फुट (प्रगट) करवामां आवेल जे नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य ते केवी रीते पुद्गलद्रव्यरूप थई गयुं के जेथी तुं ‘आ पुद्गलद्रव्य मारुं छे’ एम अनुभवे छे? कारण के जो कोई पण प्रकारे जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप थाय अने पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप थाय तो ज ‘मीठानुं पाणी’ एवा अनुभवनी जेम ‘मारुं आ पुद्गलद्रव्य’ एवी अनुभूति खरेखर व्याजबी छे; पण एम तो कोई रीते बनतुं नथी. ए, द्रष्टांतथी स्पष्ट करवामां आवे छेः जेम खारापणुं जेनुं लक्षण छे एवुं लवण पाणीरूप थतुं देखाय छे अने द्रवत्व (प्रवाहीपणुं) जेनुं लक्षण छे एवुं पाणी लवणरूप थतुं देखाय छे कारण के खारापणुं अने द्रवपणाने साथे रहेवामां अविरोध छे अर्थात् तेमां कोई बाधा नथी, तेवी रीते नित्य उपयोगलक्षणवाळुं जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य थतुं जोवामां आवतुं नथी अने नित्य अनुपयोग (जड) लक्षणवाळुं पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य थतुं जोवामां आवतुं नथी कारण के प्रकाश अने अंधकारनी माफक उपयोग अने अनुपयोगने साथे रहेवामां विरोध छे; जडचेतन कदी पण एक थई शके नहि. तेथी तुं सर्व प्रकारे प्रसन्न था, तारुं चित्त उज्ज्वळ करी सावधान था अने स्वद्रव्यने ज ‘आ मारुं छे’ एम अनुभव. (एम श्री गुरुओनो उपदेश छे.)
भावार्थः — आ अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यने पोतानुं माने छे तेने उपदेश करी सावधान कर्यो छे के जड अने चेतनद्रव्य — ए बन्ने सर्वथा जुदां जुदां छे, कदाचित् कोई पण रीते एकरूप नथी थतां एम सर्वज्ञे दीठुं छे; माटे हे अज्ञानी! तुं परद्रव्यने एकपणे मानवुं छोडी दे; वृथा मान्यताथी बस थाओ.
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त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ।।२३।।
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [अयि] ‘अयि’ ए कोमळ संबोधनना अर्थवाळुं अव्यय छे. आचार्य कोमळ संबोधनथी कहे छे के हे भाई! तुं [कथम् अपि] कोई पण रीते महा कष्टे अथवा [मृत्वा] मरीने पण [तत्त्वकौतूहली सन्] तत्त्वोनो कौतूहली थई [मूर्तेः मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव] आ शरीरादि मूर्त द्रव्यनो एक मुहूर्त (बे घडी) पाडोशी थई [अनुभव] आत्मानो अनुभव कर [अथ येन] के जेथी [स्वं विलसन्तं] पोताना आत्माने विलासरूप, [पृथक्] सर्व परद्रव्योथी जुदो [समालोक्य] देखी [मूर्त्या साकम्] आ शरीरादिक मूर्तिक पुद्गलद्रव्य साथे [एकत्वमोहम्] एकपणाना मोहने [झगिति त्यजसि] तुं तुरत ज छोडशे.
भावार्थः — जो आ आत्मा बे घडी पुद्गलद्रव्यथी भिन्न पोताना शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करे (तेमां लीन थाय), परिषह आव्ये पण डगे नहि, तो घातीकर्मनो नाश करी, केवळज्ञान उत्पन्न करी, मोक्षने प्राप्त थाय. आत्मानुभवनुं एवुं माहात्म्य छे तो मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थवी तो सुगम छे; माटे श्री गुरुओए ए ज उपदेश प्रधानताथी कर्यो छे. २३.
हवे अप्रतिबुद्ध जीव कहे छे तेनी गाथा कहे छेः —
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धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये ।
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।२४।।
— इत्यादिका तीर्थकराचार्यस्तुतिः समस्तापि मिथ्या स्यात् । ततो य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यमिति ममैकान्तिकी प्रतिपत्तिः ।
गाथार्थः — अप्रतिबुद्ध कहे छे केः [यदि] जो [जीवः] जीव छे ते [शरीरं न] शरीर नथी तो [तीर्थकराचार्यसंस्तुतिः] तीर्थंकर अने आचार्योनी स्तुति करी छे ते [सर्वा अपि] बधीये [मिथ्या भवति] मिथ्या (जूठी) थाय छे; [तेन तु] तेथी अमे समजीए छीए के [आत्मा] आत्मा ते [देहः च एव] देह ज [भवति] छे.
टीकाः — जे आत्मा छे ते ज पुद्गलद्रव्यस्वरूप आ शरीर छे. जो एम न होय तो तीर्थंकर-आचार्योनी जे स्तुति करवामां आवी छे ते बधी मिथ्या थाय. ते स्तुति आ प्रमाणे छेः —
श्लोकार्थः — [ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः] ते तीर्थंकर-आचार्यो वांदवायोग्य छे. केवा छे ते? [ये कान्त्या एव दशदिशः स्नपयन्ति] पोताना देहनी कान्तिथी दशे दिशाओने धुए छे — निर्मळ करे छे, [ये धाम्ना उद्दाम-महस्विनां धाम निरुन्धन्ति] पोताना तेज वडे उत्कृष्ट तेजवाळा सूर्यादिकना तेजने ढांकी दे छे, [ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति] पोताना रूपथी लोकोनां मन हरी ले छे, [दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः] दिव्यध्वनि-वाणीथी (भव्योना) कानोमां साक्षात् सुख-अमृत वरसावे छे अने [अष्टसहस्रलक्षणधराः] एक हजार ने आठ लक्षणोने धारण करे छे, — एवा छे. २४.
— इत्यादि तीर्थंकर-आचार्योनी स्तुति छे ते बधीये मिथ्या ठरे छे. तेथी अमारो तो एकांत ए ज निश्चय छे के आत्मा छे ते ज शरीर छे, पुद्गलद्रव्य छे. आ प्रमाणे अप्रतिबुद्धे कह्युं.
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इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयोः समावर्तितावस्थायां कनककलधौतयोरेक- स्कन्धव्यवहारवद्वयवहारमात्रेणैवैकत्वं, न पुनर्निश्चयतः, निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोरुपयोगानुपयोग- स्वभावयोः कनककलधौतयोः पीतपाण्डुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यन्तव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुपपत्तेः नानात्वमेवेति । एवं हि किल नयविभागः । ततो व्यवहारनयेनैव शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमुपपन्नम् ।
त्यां आचार्य कहे छे के एम नथी; तुं नयविभागने जाणतो नथी. ते नयविभाग आ प्रमाणे छे एम गाथामां कहे छेः —
गाथार्थः — [व्यवहारनयः] व्यवहारनय तो [भाषते] एम कहे छे के [जीवः देहः च] जीव अने देह [एकः खलु] एक ज [भवति] छे; [तु] पण [निश्चयस्य] निश्चयनयनुं कहेवुं छे के [जीवः देहः च] जीव अने देह [कदा अपि] कदी पण [एकार्थः] एक पदार्थ [न] नथी.
टीकाः — जेम आ लोकमां सुवर्ण अने चांदीने गाळी एक करवाथी एकपिंडनो व्यवहार थाय छे तेम आत्माने अने शरीरने परस्पर एक क्षेत्रे रहेवानी अवस्था होवाथी एकपणानो व्यवहार छे. आम व्यवहारमात्रथी ज आत्मा अने शरीरनुं एकपणुं छे, परंतु निश्चयथी एकपणुं नथी; कारण के निश्चयथी विचारवामां आवे तो, जेम पीळापणुं आदि अने सफेदपणुं आदि जेमनो स्वभाव छे एवां सुवर्ण अने चांदीने अत्यंत भिन्नपणुं होवाथी एकपदार्थपणानी असिद्धि छे तेथी अनेकपणुं ज छे, तेवी रीते उपयोग अने अनुपयोग जेमनो स्वभाव छे एवां आत्मा अने शरीरने अत्यंत भिन्नपणुं होवाथी एकपदार्थपणानी प्राप्ति नथी तेथी अनेकपणुं ज छे. आवो आ प्रगट नयविभाग छे.
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यथा कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि कार्तस्वरस्य व्यवहारमात्रेणैव पाण्डुरं कार्तस्वरमित्यस्ति व्यपदेशः, तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणैव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलि-
माटे व्यवहारनये ज शरीरना स्तवनथी आत्मानुं स्तवन बने छे.
भावार्थः — व्यवहारनय तो आत्मा अने शरीरने एक कहे छे अने निश्चयनय भिन्न कहे छे. तेथी व्यवहारनये शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन मानवामां आवे छे.
आ ज वात हवेनी गाथामां कहे छेः —
गाथार्थः — [जीवात् अन्यत्] जीवथी भिन्न [इदम् पुद्गलमयं देहं] आ पुद्गलमय देहनी [स्तुत्वा] स्तुति करीने [मुनिः] साधु [मन्यते खलु] एम माने छे के [मया] में [केवली भगवान्] केवळी भगवाननी [स्तुतः] स्तुति करी, [वन्दितः] वंदना करी.
टीकाः — जेम, परमार्थथी श्वेतपणुं सुवर्णनो स्वभाव नहि होवा छतां पण, चांदीनो गुण जे श्वेतपणुं, तेना नामथी सुवर्णनुं ‘श्वेत सुवर्ण’ एवुं नाम कहेवामां आवे छे ते व्यवहारमात्रथी ज कहेवामां आवे छे; तेवी रीते, परमार्थथी शुक्ल-रक्तपणुं तीर्थंकर- केवळीपुरुषनो स्वभाव नहि होवा छतां पण, शरीरना गुणो जे शुक्ल-रक्तपणुं वगेरे, तेमना स्तवनथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं ‘शुक्ल-रक्त तीर्थंकर-केवळीपुरुष’ एवुं स्तवन करवामां आवे छे ते व्यवहारमात्रथी ज करवामां आवे छे. परंतु निश्चयनये शरीरनुं स्तवन करवाथी आत्मानुं स्तवन बनतुं ज नथी.
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पुरुष इत्यस्ति स्तवनम् । निश्चयनयेन तु शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमनुपपन्नमेव ।
यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्याभावान्न निश्चयतस्तद्वयपदेशेन व्यपदेशः,
भावार्थः — अहीं कोई प्रश्न करे के व्यवहारनय तो असत्यार्थ कह्यो छे अने शरीर जड छे तो व्यवहारना आश्रये जडनी स्तुतिनुं शुं फळ छे? तेनो उत्तरः — व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नथी, निश्चयने प्रधान करी असत्यार्थ कह्यो छे. वळी छद्मस्थने पोतानो, परनो आत्मा साक्षात् देखातो नथी, शरीर देखाय छे, तेनी शांतरूप मुद्राने देखी पोताने पण शान्त भाव थाय छे. आवो उपकार जाणी शरीरना आश्रये पण स्तुति करे छे; तथा शान्त मुद्रा देखी अंतरंगमां वीतराग भावनो निश्चय थाय छे ए पण उपकार छे.
उपरनी वातने गाथाथी कहे छेः —
गाथार्थः — [तत्] ते स्तवन [निश्चये] निश्चयमां [न युज्यते] योग्य नथी [हि] कारण के [शरीरगुणाः] शरीरना गुणो [केवलिनः] केवळीना [न भवन्ति] नथी; [यः] जे [केवलिगुणान्] केवळीना गुणोनी [स्तौति] स्तुति करे छे [सः] ते [तत्त्वं] परमार्थथी [केवलिनं] केवळीनी [स्तौति] स्तुति करे छे.
टीकाः — जेम चांदीनो गुण जे सफेदपणुं, तेनो सुवर्णमां अभाव छे माटे निश्चयथी सफेदपणाना नामथी सोनानुं नाम नथी बनतुं, सुवर्णना गुण जे पीळापणुं आदि छे तेमना नामथी ज सुवर्णनुं नाम थाय छे; तेवी रीते शरीरना गुणो जे शुक्ल-रक्तपणुं वगेरे, तेमनो तीर्थंकर-केवळीपुरुषमां अभाव छे माटे निश्चयथी शरीरना शुक्ल-रक्तपणुं वगेरे गुणोनुं स्तवन
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कार्तस्वरगुणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य व्यपदेशात्; तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य शुकॢलोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं, तीर्थकरकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनेनैव तीर्थकर-केवलिपुरुषस्य स्तवनात् ।
करवाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन नथी थतुं, तीर्थंकर-केवळीपुरुषना गुणोनुं स्तवन करवाथी ज तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन थाय छे.
हवे शिष्यनो प्रश्न छे के आत्मा तो शरीरनो अधिष्ठाता छे तेथी शरीरना स्तवनथी आत्मानुं स्तवन निश्चये केम युक्त नथी? एवा प्रश्नना उत्तररूपे द्रष्टांत सहित गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यथा] जेम [नगरे] नगरनुं [वर्णिते अपि] वर्णन करतां छतां [राज्ञः वर्णना] राजानुं वर्णन [न कृता भवति] करातुं (थतुं) नथी, तेम [देहगुणे स्तूयमाने] देहना गुणनुं स्तवन करतां [केवलिगुणाः] केवळीना गुणोनुं [स्तुताः न भवन्ति] स्तवन थतुं नथी.
टीकाः — उपरना अर्थनुं (टीकामां) काव्य कहे छेः —
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– इति नगरे वर्णितेऽपि राज्ञः तदधिष्ठातृत्वेऽपि प्राकारोपवनपरिखादिमत्त्वाभावाद्वर्णनं न स्यात् ।
– इति शरीरे स्तूयमानेऽपि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य तदधिष्ठातृत्वेऽपि सुस्थितसर्वाङ्गत्व- लावण्यादिगुणाभावात्स्तवनं न स्यात् ।
अथ निश्चयस्तुतिमाह । तत्र ज्ञेयज्ञायकसङ्करदोषपरिहारेण तावत् —
श्लोकार्थः — [इदं नगरम् हि] आ नगर एवुं छे के जेणे [प्राकार-कवलित-अम्बरम्] कोट वडे आकाशने ग्रस्युं छे (अर्थात् तेनो गढ बहु ऊंचो छे), [उपवन-राजी-निगीर्ण-भूमितलम्] बगीचाओनी पंक्तिओथी जे भूमितळने गळी गयुं छे (अर्थात् चारे तरफ बगीचाओथी पृथ्वी ढंकाई गई छे) अने [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव] कोटनी चारे तरफ खाईनां घेराथी जाणे के पाताळने पी रह्युं छे (अर्थात् खाई बहु ऊंडी छे). २५.
आम नगरनुं वर्णन करवा छतां तेनाथी राजानुं वर्णन थतुं नथी कारण के, जोके राजा तेनो अधिष्ठाता छे तोपण, कोट-बाग-खाई-आदिवाळो राजा नथी.
तेवी रीते शरीरनुं स्तवन कर्ये तीर्थंकरनुं स्तवन थतुं नथी तेनो पण श्लोक कहे छेः —
श्लोकार्थः — [जिनेन्द्ररूपं परं जयति] जिनेन्द्रनुं रूप उत्कृष्टपणे जयवंत वर्ते छे. केवुं छे ते? [नित्यम्-अविकार-सुस्थित-सर्वाङ्गम्] जेमां सर्व अंग हंमेशां अविकार अने सुस्थित (सारी रीते सुखरूप स्थित) छे, [अपूर्व-सहज-लावण्यम्] जेमां (जन्मथी ज) अपूर्व अने स्वाभाविक लावण्य छे (अर्थात् जे सर्वने प्रिय लागे छे) अने [समुद्रं इव अक्षोभम्] जे समुद्रनी जेम क्षोभरहित छे, चळाचळ नथी. २६.
आम शरीरनुं स्तवन करवा छतां तेनाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन थतुं नथी कारण के, जोके तीर्थंकर-केवळीपुरुषने शरीरनुं अधिष्ठातापणुं छे तोपण, सुस्थित सर्वांगपणुं, लावण्य आदि आत्माना गुण नहि होवाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषने ते गुणोनो अभाव छे.
हवे, (तीर्थंकर-केवळीनी) निश्चयस्तुति कहे छे. तेमां पहेलां ज्ञेय-ज्ञायकना संकरदोषनो परिहार करी (निश्चय) स्तुति कहे छेः —
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यः खलु निरवधिबन्धपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्तस्वपरविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौश- लोपलब्धान्तःस्फु टातिसूक्ष्मचित्स्वभावावष्टम्भबलेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येन्द्रियाणि, प्रति- विशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया खण्डशः आकर्षन्ति प्रतीयमानाखण्डैकचिच्छक्तितया भावेन्द्रियाणि, ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धप्रत्यासत्तिवशेन सह संविदा परस्परमेकीभूतानिव चिच्छक्तेः स्वयमेवानु-
गाथार्थः — [यः] जे [इन्द्रियाणि] इंद्रियोने [जित्वा] जीतीने [ज्ञानस्वभावाधिकं] ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्यथी अधिक [आत्मानम्] आत्माने [जानाति] जाणे छे [तं] तेने, [ये निश्चिताः साधवः] जे निश्चयनयमां स्थिति साधुओ छे [ते] तेओ, [खलु] खरेखर [जितेन्द्रियं] जितेंद्रिय [भणन्ति] कहे छे.
टीकाः — (जे मुनि द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रियो तथा इंद्रियोना विषयभूत पदार्थो — ए त्रणेयने पोतानाथी जुदां करीने सर्व अन्यद्रव्योथी भिन्न पोताना आत्माने अनुभवे छे ते मुनि निश्चयथी जितेन्द्रिय छे.) अनादि अमर्यादरूप बंधपर्यायना वशे जेमां समस्त स्वपरनो विभाग अस्त थई गयो छे (अर्थात् जेओ आत्मानी साथे एवी एक थई रही छे के भेद देखातो नथी) एवी शरीरपरिणामने प्राप्त जे द्रव्येन्द्रियो तेमने तो निर्मळ भेद-अभ्यासनी प्रवीणताथी प्राप्त जे अंतरंगमां प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव तेना अवलंबनना बळ वडे सर्वथा पोताथी जुदी करी; ए, द्रव्येन्द्रियोनुं जीतवुं थयुं. जुदा जुदा पोतपोताना विषयोमां व्यापारपणाथी जेओ विषयोने खंडखंड ग्रहण करे छे (अर्थात् ज्ञानने खंडखंडरूप जणावे छे) एवी भावेन्द्रियोने, प्रतीतिमां आवता अखंड एक चैतन्यशक्तिपणा वडे सर्वथा पोताथी जुदी जाणी; ए, भावेन्द्रियोनुं जीतवुं थयुं. ग्राह्यग्राहकलक्षणवाळा संबंधनी निकटताने लीधे जेओ पोताना संवेदन (ज्ञान) साथे परस्पर एक जेवा थई गयेला देखाय छे एवा, भावेन्द्रियो वडे ग्रहवामां आवता जे इंद्रियोना विषयभूत स्पर्शादि पदार्थो तेमने, पोतानी चैतन्यशक्तिनुं स्वयमेव
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भूयमानासङ्गतया भावेन्द्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिन्द्रियार्थांश्च सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसङ्करदोषत्वेनैकत्वे टङ्कोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षो- द्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन सर्वेभ्यो द्रव्यान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं सञ्चेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः ।
अनुभवमां आवतुं जे असंगपणुं ते वडे सर्वथा पोताथी जुदा कर्या; ए, इंद्रियोना विषयभूत पदार्थोनुं जीतवुं थयुं. आम जे (मुनि) द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रियो तथा इंद्रियोना विषयभूत पदार्थो — ए त्रणेने जीतीने, ज्ञेयज्ञायक-संकर नामनो दोष आवतो हतो ते सघळो दूर थवाथी एकत्वमां ✽टंकोत्कीर्ण अने ज्ञानस्वभाव वडे सर्व अन्यद्रव्योथी परमार्थे जुदा एवा पोताना आत्माने अनुभवे छे ते निश्चयथी ‘जितेन्द्रिय जिन’ छे. (ज्ञानस्वभाव अन्य अचेतन द्रव्योमां नथी तेथी ते वडे आत्मा सर्वथी अधिक, जुदो ज छे.) केवो छे ते ज्ञानस्वभाव? आ विश्वनी (समस्त पदार्थोनी) उपर तरतो (अर्थात् तेमने जाणतां छतां ते-रूप नहि थतो), प्रत्यक्ष उद्योतपणाथी सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वतःसिद्ध अने परमार्थसत् — एवो भगवान ज्ञानस्वभाव छे.
आ रीते एक निश्चयस्तुति तो आ थई. (ज्ञेय तो द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रियो तथा इंद्रियोना विषयभूत पदार्थो अने ज्ञायक पोते आत्मा — ए बन्नेनुं अनुभवन, विषयोनी आसक्तताथी, एक जेवुं थतुं हतुं; भेदज्ञानथी भिन्नपणुं जाण्युं त्यारे ते ज्ञेयज्ञायक-संकरदोष दूर थयो एम अहीं जाणवुं.)
हवे भाव्यभावक-संकरदोष दूर करी (निश्चय) स्तुति कहे छेः —
✽टंकोत्कीर्ण = पथ्थरमां टांकणाथी कोरेली मूर्तिनी जेम एकाकार जेवो ने तेवो स्थित.