Page 70 of 642
PDF/HTML Page 101 of 673
single page version
यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यावर्तनेन हठान्मोहं न्यक्कृत्योपरतसमस्तभाव्यभावकसङ्करदोषत्वेनैकत्वे टङ्कोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यान्तरस्वभावभाविभ्यः सर्वेभ्यो भावान्तरेभ्यः परमार्थ- तोऽतिरिक्तमात्मानं सञ्चेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः ।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकाय- सूत्राण्येकादश पञ्चानां श्रोत्रचक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणामिन्द्रियसूत्रेण पृथग्व्याख्या-
गाथार्थः — [यः तु] जे मुनि [मोहं] मोहने [जित्वा] जीतीने [आत्मानम्] पोताना आत्माने [ज्ञानस्वभावाधिकं] ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्यभावोथी अधिक [जानाति] जाणे छे [तं साधुं] ते मुनिने [परमार्थविज्ञायकाः] परमार्थना जाणनाराओ [जितमोहं] जितमोह [ब्रुवन्ति] कहे छे.
टीकाः — मोहकर्म फळ देवाना सामर्थ्य वडे प्रगट उदयरूप थईने भावकपणे प्रगट थाय छे तोपण तेना अनुसारे जेनी प्रवृत्ति छे एवो जे पोतानो आत्मा — भाव्य, तेने भेदज्ञानना बळ वडे दूरथी ज पाछो वाळवाथी ए रीते बळपूर्वक मोहनो तिरस्कार करीने, समस्त भाव्यभावक-संकरदोष दूर थवाथी एकत्वमां टंकोत्कीर्ण (निश्चल) अने ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्योना स्वभावोथी थता सर्व अन्यभावोथी परमार्थे जुदा एवा पोताना आत्माने जे (मुनि) अनुभवे छे ते निश्चयथी ‘जितमोह जिन’ (जेणे मोहने जीत्यो छे एवो जिन) छे. केवो छे ते ज्ञानस्वभाव? आ समस्त लोकना उपर तरतो, प्रत्यक्ष उद्योतपणाथी सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान, अविनाशी, पोताथी ज सिद्ध अने परमार्थसत् एवो भगवान ज्ञानस्वभाव छे.
आ रीते भाव्यभावक भावना संकरदोषने दूर करी बीजी निश्चयस्तुति छे. आ गाथासूत्रमां एक मोहनुं ज नाम लीधुं छे; तेमां ‘मोह’ पदने बदलीने तेनी जग्याए राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय मूकीने अगियार सूत्रो व्याख्यानरूप करवां अने श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन — ए पांचनां सूत्रो इंद्रियसूत्र द्वारा जुदां व्याख्यानरूप करवां; एम सोळ सूत्रो जुदां जुदां व्याख्यानरूप
Page 71 of 642
PDF/HTML Page 102 of 673
single page version
तत्वाद्वयाख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
इह खलु पूर्वप्रक्रान्तेन विधानेनात्मनो मोहं न्यक्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावातिरिक्ता-
त्मसञ्चेतनेन जितमोहस्य सतो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टम्भात्तत्सन्तानात्यन्तविनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टङ्कोत्कीर्णं
करवां अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
भावार्थः — भावक जे मोह तेना अनुसार प्रवृत्तिथी पोतानो आत्मा भाव्यरूप थाय छे तेने भेदज्ञानना बळथी जुदो अनुभवे ते जितमोह जिन छे. अहीं एवो आशय छे के श्रेणी चडतां मोहनो उदय जेने अनुभवमां न रहे अने जे पोताना बळथी उपशमादि करी आत्माने अनुभवे छे तेने जितमोह कह्यो छे. अहीं मोहने जीत्यो छे; तेनो नाश थयो नथी.
हवे, भाव्यभावक भावना अभावथी निश्चयस्तुति कहे छेः —
गाथार्थः — [जितमोहस्य तु साधोः] जेणे मोहने जीत्यो छे एवा साधुने [यदा] ज्यारे [क्षीणः मोहः] मोह क्षीण थई सत्तामांथी नाश [भवेत्] थाय [तदा] त्यारे [निश्चयविद्भिः] निश्चयना जाणनारा [खलु] निश्चयथी [सः] ते साधुने [क्षीणमोहः] ‘क्षीणमोह’ एवा नामथी [भण्यते] कहे छे.
टीकाः — आ निश्चयस्तुतिमां, पूर्वोक्त विधानथी आत्मामांथी मोहनो तिरस्कार करी, जेवो (पूर्वे) कह्यो तेवा ज्ञानस्वभाव वडे अन्यद्रव्यथी अधिक आत्मानो अनुभव करवाथी जे जितमोह थयो, तेने ज्यारे पोताना स्वभावभावनी भावनानुं सारी रीते अवलंबन करवाथी मोहनी संततिनो अत्यंत विनाश एवो थाय के फरी तेनो उदय न थाय — एम भावकरूप
Page 72 of 642
PDF/HTML Page 103 of 673
single page version
परमात्मानमवाप्तः क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः ।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र- चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
न्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः ।
न्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्माङ्गयोः ।।२७।।
मोह क्षीण थाय, त्यारे (भावक मोहनो क्षय थवाथी आत्माना विभावरूप भाव्यभावनो पण अभाव थाय छे अने ए रीते) भाव्यभावक भावनो अभाव थवाने लीधे एकपणुं थवाथी टंकोत्कीर्ण (निश्चल) परमात्माने प्राप्त थयेलो ते ‘क्षीणमोह जिन’ कहेवाय छे. आ त्रीजी निश्चयस्तुति छे.
अहीं पण पूर्वे कह्युं हतुं तेम ‘मोह’ पदने बदली राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन — ए पदो मूकी सोळ सूत्रो (भणवां अने) व्याख्यान करवां अने आ प्रकारना उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
भावार्थः — साधु पहेलां पोताना बळथी उपशम भाव वडे मोहने जीती, पछी ज्यारे पोताना महा सामर्थ्यथी मोहनो सत्तामांथी नाश करी ज्ञानस्वरूप परमात्माने प्राप्त थाय त्यारे ते क्षीणमोह जिन कहेवाय छे.
हवे अहीं आ निश्चय-व्यवहाररूप स्तुतिना अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं] शरीरने अने आत्माने व्यवहारनयथी एकपणुं छे [तु पुनः] पण [निश्चयात् न] निश्चयनयथी एकपणुं नथी; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं व्यवहारतः अस्ति] माटे शरीरना स्तवनथी आत्मा – पुरुषनुं स्तवन व्यवहारनयथी थयुं कहेवाय छे, अने [तत्त्वतः तत् न] निश्चयनयथी नहि; [निश्चयतः] निश्चयथी तो [चित्स्तुत्या एव] चैतन्यना स्तवनथी ज [चितः स्तोत्रं भवति] चैतन्यनुं स्तवन थाय छे. [सा एवं भवेत्] ते चैतन्यनुं स्तवन अहीं जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह — एम (उपर) कह्युं तेम छे. [अतः तीर्थकरस्तवोत्तरबलात्] अज्ञानीए तीर्थंकरना स्तवननो जे प्रश्न कर्यो हतो तेनो आम
Page 73 of 642
PDF/HTML Page 104 of 673
single page version
नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम् ।
स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फु टन्नेक एव ।।२८।।
एवमयमनादिमोहसन्ताननिरूपितात्मशरीरैकत्वसंस्कारतयात्यन्तमप्रतिबुद्धोऽपि प्रसभोज्जृम्भित- नयविभागथी उत्तर दीधो; ते उत्तरना बळथी एम सिद्ध थयुं के [आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न] आत्माने अने शरीरने एकपणुं निश्चयथी नथी. २७.
हवे वळी, आ अर्थने जाणवाथी भेदज्ञाननी सिद्धि थाय छे एवा अर्थवाळुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [परिचित-तत्त्वैः] जेमणे वस्तुना यथार्थ स्वरूपने परिचयरूप कर्युं छे एवा मुनिओए [आत्म-काय-एकतायां] ज्यारे आत्मा अने शरीरना एकपणाने [इति नय-विभजन- युक्त्या] आम नयना विभागनी युक्ति वडे [अत्यन्तम् उच्छादितायाम्] जडमूळथी उखेडी नाख्युं छे — अत्यंत निषेध्युं छे, त्यारे [कस्य] कया पुरुषने [बोधः] ज्ञान [अद्य एव] तत्काळ [बोधं] यथार्थपणाने [न अवतरति] न पामे? अवश्य पामे ज. केवुं थईने? [स्व-रस-रभस-कृष्टः प्रस्फु टन् एकः एव] पोताना निजरसना वेगथी खेंचाई प्रगट थतुं एकस्वरूप थईने.
भावार्थः — निश्चय-व्यवहारनयना विभाग वडे आत्मानो अने परनो अत्यंत भेद बताव्यो छे; तेने जाणीने, एवो कोण पुरुष छे के जेने भेदज्ञान न थाय? थाय ज; कारण के ज्यारे ज्ञान पोताना स्वरसथी पोते पोतानुं स्वरूप जाणे त्यारे अवश्य ते ज्ञान पोताना आत्माने परथी भिन्न ज जणावे छे. अहीं कोई दीर्घसंसारी ज होय तो तेनी कांई वात नथी. २८.
आ प्रमाणे, अप्रतिबुद्धे जे एम कह्युं हतुं के ‘‘अमारो तो ए निश्चय छे के देह छे ते ज आत्मा छे’’, तेनुं निराकरण कर्युं.
आ रीते आ अज्ञानी जीव अनादि मोहना संतानथी निरूपण करवामां आवेलुं जे आत्मा ने शरीरनुं एकपणुं तेना संस्कारपणाथी अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो ते हवे तत्त्वज्ञान -
Page 74 of 642
PDF/HTML Page 105 of 673
single page version
तत्त्वज्ञानज्योतिर्नेत्रविकारीव प्रकटोद्घाटितपटलष्टसितिप्रतिबुद्धः (?) साक्षात् द्रष्टारं स्वं स्वयमेव हि विज्ञाय श्रद्धाय च तं चैवानुचरितुकामः स्वात्मारामस्यास्यान्यद्रव्याणां प्रत्याख्यानं किं स्यादिति पृच्छन्नित्थं वाच्यः —
यतो हि द्रव्यान्तरस्वभावभाविनोऽन्यानखिलानपि भावान् भगवज्ज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभाव- भावाव्याप्यतया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्टे, ततो य एव पूर्वं जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे, स्वरूप ज्योतिनो प्रगट उदय थवाथी अने नेत्रना विकारीनी माफक (जेम कोई पुरुषनां नेत्रमां विकार हतो त्यारे वर्णादिक अन्यथा देखातां हतां अने ज्यारे विकार मट्यो त्यारे जेवां हतां तेवां ज देखवा लाग्यो तेम) पडळ समान आवरणकर्म सारी रीते ऊघडी जवाथी प्रतिबुद्ध थयो अने साक्षात् द्रष्टा (देखनार) एवा पोताने पोताथी ज जाणी, श्रद्धान करी, तेनुं ज आचरण करवानो इच्छक थयो थको पूछे छे के ‘आ स्वात्मारामने अन्य द्रव्योनुं प्रत्याख्यान (त्यागवुं) ते शुं छे?’ तेने आचार्य आ प्रमाणे कहे छेः —
गाथार्थः — [यस्मात्] जेथी [सर्वान् भावान्] ‘पोताना सिवाय सर्व पदार्थो [परान्] पर छे’ [इति ज्ञात्वा] एम जाणीने [प्रत्याख्याति] प्रत्याख्यान करे छे — त्यागे छे, [तस्मात्] तेथी, [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [ज्ञानं] ज्ञान ज छे [नियमात्] एम नियमथी [ज्ञातव्यम्] जाणवुं. पोताना ज्ञानमां त्यागरूप अवस्था ते ज प्रत्याख्यान छे, बीजुं कांई नथी.
टीकाः — आ भगवान ज्ञाता-द्रव्य (आत्मा) छे ते अन्यद्रव्यना स्वभावथी थता अन्य समस्त परभावोने, तेओ पोताना स्वभावभाव वडे नहि व्याप्त होवाथी परपणे जाणीने, त्यागे छे; तेथी जे पहेलां जाणे छे ते ज पछी त्यागे छे, बीजो तो कोई त्यागनार नथी — एम
Page 75 of 642
PDF/HTML Page 106 of 673
single page version
न पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रवर्तितकर्तृत्वव्यपदेशत्वेऽपि परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात् प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम् ।
यथा हि कश्चित्पुरुषः सम्भ्रान्त्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीयप्रतिपत्त्या परिधाय आत्मामां निश्चय करीने, प्रत्याख्यानना (त्यागना) समये प्रत्याख्यान करवायोग्य जे परभाव तेनी उपाधिमात्रथी प्रवर्तेलुं त्यागना कर्तापणानुं नाम (आत्माने) होवा छतां पण, परमार्थथी जोवामां आवे तो परभावना त्यागकर्तापणानुं नाम पोताने नथी, पोते तो ए नामथी रहित छे कारण के ज्ञानस्वभावथी पोते छूट्यो नथी, माटे प्रत्याख्यान ज्ञान ज छे — एम अनुभव करवो.
भावार्थः — आत्माने परभावना त्यागनुं कर्तापणुं छे ते नाममात्र छे. पोते तो ज्ञानस्वभाव छे. परद्रव्यने पर जाण्युं, पछी परभावनुं ग्रहण नहि ते ज त्याग छे. ए रीते, स्थिर थयेलुं ज्ञान ते ज प्रत्याख्यान छे, ज्ञान सिवाय कोई बीजो भाव नथी.
हवे पूछे छे के ज्ञातानुं प्रत्याख्यान ज्ञान ज कह्युं तेनुं द्रष्टांत शुं छे? तेना उत्तररूप द्रष्टांत-दार्ष्टांतनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यथा नाम] जेम लोकमां [कः अपि पुरुषः] कोई पुरुष [परद्रव्यम् इदम् इति ज्ञात्वा] परवस्तुने ‘आ परवस्तु छे’ एम जाणे त्यारे एवुं जाणीने [त्यजति] परवस्तुने त्यागे छे, [तथा] तेवी रीते [ज्ञानी] ज्ञानी [सर्वान्] सर्व [परभावान्] परद्रव्योना भावोने [ज्ञात्वा] ‘आ परभाव छे’ एम जाणीने [विमुञ्चति] तेमने छोडे छे.
टीकाः — जेम — कोई पुरुष धोबीना घरेथी भ्रमथी बीजानुं वस्त्र लावी, पोतानुं जाणी
Page 76 of 642
PDF/HTML Page 107 of 673
single page version
शयानः स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदञ्चलमालम्ब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुञ्चति तच्चीवरमचिरात्, तथा ज्ञातापि सम्भ्रान्त्या परकीयान्भावा- नादायात्मीयप्रतिपत्त्यात्मन्यध्यास्य शयानः स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्वैकीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुञ्चति सर्वान्परभावानचिरात् ।
दनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः ।
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ।।२९।।
ओढीने सूतो छे ने पोतानी मेळे अज्ञानी ( – आ वस्त्र बीजानुं छे एवा ज्ञान विनानो) थई रह्यो छे; ज्यारे बीजो ते वस्त्रनो खूणो पकडी, खेंची तेने नग्न करे छे अने कहे छे के ‘तुं शीघ्र जाग, सावधान था, आ मारुं वस्त्र बदलामां आवी गयुं छे ते मारुं मने दे’, त्यारे वारंवार कहेलुं ए वाक्य सांभळतो ते, (ए वस्त्रनां) सर्व चिह्नोथी सारी रीते परीक्षा करीने, ‘जरूर आ वस्त्र पारकुं ज छे’ एम जाणीने, ज्ञानी थयो थको, ते (परना) वस्त्रने जलदी त्यागे छे. तेवी रीते — ज्ञाता पण भ्रमथी परद्रव्योना भावोने ग्रहण करी, पोताना जाणी, पोतामां एकरूप करीने सूतो छे ने पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे; ज्यारे श्री गुरु परभावनो विवेक (भेदज्ञान) करी तेने एक आत्मभावरूप करे अने कहे के ‘तुं शीघ्र जाग, सावधान था, आ तारो आत्मा खरेखर एक (ज्ञानमात्र) ज छे, (अन्य सर्व परद्रव्यना भावो छे),’ त्यारे वारंवार कहेलुं ए आगमनुं वाक्य सांभळतो ते, समस्त (स्व-परनां) चिह्नोथी सारी रीते परीक्षा करीने, ‘जरूर आ परभावो ज छे, (हुं एक ज्ञानमात्र ज छुं)’ एम जाणीने, ज्ञानी थयो थको, सर्व परभावोने तत्काळ छोडे छे.
भावार्थः — ज्यां सुधी परवस्तुने भूलथी पोतानी जाणे त्यां सुधी ज ममत्व रहे; अने ज्यारे यथार्थ ज्ञान थवाथी परवस्तुने पारकी जाणे त्यारे बीजानी वस्तुमां ममत्व शानुं रहे? अर्थात् न रहे ए प्रसिद्ध छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
Page 77 of 642
PDF/HTML Page 108 of 673
single page version
अथ कथमनुभूतेः परभावविवेको भूत इत्याशङ्कय भावकभावविवेकप्रकारमाह —
इह खलु फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गलद्रव्येणाभिनिर्वर्त्य-
श्लोकार्थः — [अपर-भाव-त्याग-दृष्टान्त-दृष्टिः] आ परभावना त्यागना द्रष्टांतनी द्रष्टि, [अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति] जूनी न थाय ए रीते अत्यंत वेगथी ज्यां सुधी प्रवृत्तिने पामे नहि, [तावत्] ते पहेलां ज [झटिति] तत्काळ [सकल-भावैः अन्यदीयैः विमुक्ता] सकल अन्यभावोथी रहित [स्वयम् इयम् अनुभूतिः] पोते ज आ अनुभूति तो [आविर्बभूव] प्रगट थई गई.
भावार्थः — आ परभावना त्यागनुं द्रष्टांत कह्युं ते पर द्रष्टि पडे ते पहेलां समस्त अन्यभावोथी रहित पोताना स्वरूपनुं अनुभवन तो तत्काळ थई गयुं; कारण के ए प्रसिद्ध छे के वस्तुने परनी जाण्या पछी ममत्व रहेतुं नथी. २९.
हवे, ‘आ अनुभूतिथी परभावनुं भेदज्ञान केवा प्रकारे थयुं?’ एवी आशंका करीने, प्रथम तो जे भावकभाव — मोहकर्मना उदयरूप भाव, तेना भेदज्ञाननो प्रकार कहे छेः —
✽गाथार्थः — [बुध्यते] एम जाणे के [मोहः मम कः अपि नास्ति] ‘मोह मारो कांई पण संबंधी नथी, [एकः उपयोगः एव अहम्] एक उपयोग छे ते ज हुं छुं’ — [ तं ] एवुं जे जाणवुं तेने [समयस्य] सिद्धांतना अथवा स्वपरना स्वरूपना [विज्ञायकाः] जाणनारा [मोहनिर्ममत्वं] मोहथी निर्ममत्व [ब्रुवन्ति] कहे छे.
टीकाः — निश्चयथी, (आ मारा अनुभवमां) फळ देवाना सामर्थ्यथी प्रगट थईने ✽आ गाथानो अर्थ आम पण थाय छेः — ‘जराय मोह मारो नथी, हुं एक छुं’ एवुं उपयोग
Page 78 of 642
PDF/HTML Page 109 of 673
single page version
मानष्टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभावभावस्य परमार्थतः परभावेन भावयितुमशक्यत्वात्कतमोऽपि न नाम मम मोहोऽस्ति । किञ्चैतत्स्वयमेव च विश्वप्रकाशचञ्चुरविकस्वरानवरतप्रतापसम्पदा चिच्छक्तिमात्रेण स्वभावभावेन भगवानात्मैवावबुध्यते यत्किलाहं खल्वेकः ततः समस्तद्रव्याणां परस्पर- साधारणावगाहस्य निवारयितुमशक्यत्वात् मज्जितावस्थायामपि दधिखण्डावस्थायामिव परिस्फु टस्वद- मानस्वादभेदतया मोहं प्रति निर्ममत्वोऽस्मि, सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात् ।
इतीत्थं भावकभावविवेको भूतः ।
भावकरूप थतुं जे पुद्गलद्रव्य तेना वडे रचायेलो जे मोह ते मारो कांई पण लागतोवळगतो नथी, कारण के टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावभावनुं परमार्थे परना भाव वडे ✽भाववुं अशक्य छे. वळी अहीं स्वयमेव, विश्वने (समस्त वस्तुओने) प्रकाशवामां चतुर अने विकासरूप एवी जेनी निरंतर शाश्वती प्रतापसंपदा छे एवा चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभाव वडे, भगवान आत्मा ज जाणे छे के — परमार्थे हुं एक छुं तेथी, जोके समस्त द्रव्योना परस्पर साधारण अवगाहनुं ( – एकक्षेत्रावगाहनुं) निवारण करवुं अशक्य होवाथी मारो आत्मा ने जड, शिखंडनी जेम, एकमेक थई रह्यां छे तोपण, शिखंडनी माफक, स्पष्ट अनुभवमां आवता स्वादना भेदने लीधे, हुं मोह प्रति निर्मम ज छुं; कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी समय (आत्मपदार्थ अथवा दरेक पदार्थ) एवो ने एवो ज स्थित रहे छे. (दहीं ने खांड मेळववाथी शिखंड थाय छे तेमां दहीं ने खांड एक जेवां मालूम पडे छे तोपण प्रगटरूप खाटा-मीठा स्वादना भेदथी जुदां जुदां जणाय छे; तेवी रीते द्रव्योना लक्षणभेदथी जड-चेतनना जुदा जुदा स्वादने लीधे जणाय छे के मोहकर्मना उदयनो स्वाद रागादिक छे ते चैतन्यना निजस्वभावना स्वादथी जुदो ज छे.) आ रीते भावकभाव जे मोहनो उदय तेनाथी भेदज्ञान थयुं.
भावार्थः — आ मोहकर्म छे ते जड पुद्गलद्रव्य छे; तेनो उदय कलुष (मलिन) भावरूप छे; ते भाव पण, मोहकर्मनो भाव होवाथी, पुद्गलनो ज विकार छे. आ भावकनो भाव छे ते ज्यारे आ चैतन्यना उपयोगना अनुभवमां आवे छे त्यारे उपयोग पण विकारी थई रागादिरूप मलिन देखाय छे. ज्यारे तेनुं भेदज्ञान थाय के ‘चैतन्यनी शक्तिनी व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोगमात्र छे अने आ कलुषता रागद्वेषमोहरूप छे ते द्रव्यकर्मरूप जड पुद्गलद्रव्यनी छे’, त्यारे भावकभाव जे द्रव्यकर्मरूप मोहनो भाव तेनाथी अवश्य भेदज्ञान थाय छे अने आत्मा अवश्य पोताना चैतन्यना अनुभवरूप स्थित थाय छे. * भाववुं = बनाववुं; भाव्यरूप करवुं.
Page 79 of 642
PDF/HTML Page 110 of 673
single page version
चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम् ।
शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ।।३०।।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र- चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ इह ] आ लोकमां [ अहं ] हुं [ स्वयं ] पोताथी ज [ एकं स्वं ] पोताना एक आत्मस्वरूपने [ चेतये ] अनुभवुं छुं [ सर्वतः स्व-रस-निर्भर-भावं ] के जे स्वरूप सर्वतः पोताना निजरसरूप चैतन्यना परिणमनथी पूर्ण भरेला भाववाळुं छे; माटे [ मोहः ] आ मोह [ मम ] मारो [ कश्चन नास्ति नास्ति ] कांई पण लागतोवळगतो नथी अर्थात् एने अने मारे कांई पण नातो नथी. [ शुद्ध-चिद्-घन-महः-निधिः अस्मि ] हुं तो शुद्ध चैतन्यना समूहरूप तेजःपुंजनो निधि छुं. (भावकभावना भेद वडे आवुं अनुभवन करे.) ३०.
एवी ज रीते, गाथामां ‘मोह’ पद छे तेने बदली, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन — ए सोळ पदनां जुदां जुदां सोळ गाथासूत्रो व्याख्यानरूप करवां अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां.
हवे ज्ञेयभावना भेदज्ञाननो प्रकार कहे छेः —
Page 80 of 642
PDF/HTML Page 111 of 673
single page version
अमूनि हि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तराणि स्वरसविजृम्भितानिवारितप्रसरविश्व- घस्मरप्रचण्डचिन्मात्रशक्तिकवलिततयात्यन्तमन्तर्मग्नानीवात्मनि प्रकाशमानानि टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायक- स्वभावत्वेन तत्त्वतोऽन्तस्तत्त्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तत्त्वतो बहिस्तत्त्वरूपतां परित्यक्तुम- शक्यत्वान्न नाम मम सन्ति । किञ्चैतत्स्वयमेव च नित्यमेवोपयुक्तस्तत्त्वत एवैकमनाकुलमात्मानं कलयन् भगवानात्मैवावबुध्यते यत्किलाहं खल्वेकः ततः संवेद्यसंवेदकभावमात्रोपजातेतरेतर- संवलनेऽपि परिस्फु टस्वदमानस्वभावभेदतया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तराणि प्रति
✽गाथार्थः — [बुध्यते] एम जाणे के [धर्मादिः] ‘आ धर्म आदि द्रव्यो [मम नास्ति] मारां कांई पण लागतांवळगतां नथी, [एकः उपयोगः एव] एक उपयोग छे ते ज [अहम्] हुं छुं’ — [तं] एवुं जे जाणवुं तेने [समयस्य विज्ञायकाः] सिद्धांतना अथवा स्वपरना स्वरूपरूप समयना जाणनारा [धर्मनिर्ममत्वं] धर्मद्रव्य प्रत्ये निर्ममत्व [ब्रुवन्ति] कहे छे.
टीकाः — पोताना निजरसथी जे प्रगट थयेल छे, निवारण न करी शकाय एवो जेनो फेलाव छे तथा समस्त पदार्थोने ग्रसवानो (गळी जवानो) जेनो स्वभाव छे एवी प्रचंड चिन्मात्रशक्ति वडे ग्रासीभूत करवामां आव्यां होवाथी, जाणे अत्यंत अंतर्मग्न थई रह्यां होय — ज्ञानमां तदाकार थई डूबी रह्यां होय एवी रीते आत्मामां प्रकाशमान छे एवां आ धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल, अन्य जीव — ए सर्व परद्रव्यो मारां संबंधी नथी; कारण के टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावपणाथी परमार्थे अंतरंगतत्त्व तो हुं छुं अने ते परद्रव्यो मारा स्वभावथी भिन्न स्वभाववाळां होवाथी परमार्थे बाह्यतत्त्वपणाने छोडवा असमर्थ छे (केम के पोताना स्वभावनो अभाव करी ज्ञानमां पेसतां नथी). वळी अहीं स्वयमेव, (चैतन्यमां) नित्य उपयुक्त एवो अने परमार्थे एक, अनाकुळ आत्माने अनुभवतो एवो भगवान आत्मा ज जाणे छे के — हुं प्रगट निश्चयथी एक ज छुं माटे, ज्ञेयज्ञायकभावमात्रथी ऊपजेलुं परद्रव्यो साथे परस्पर मळवुं (मिलन) होवा छतां पण, प्रगट स्वादमां आवता स्वभावना भेदने लीधे धर्म, अधर्म, आकाश, काळ, पुद्गल अने अन्य जीवो प्रत्ये हुं निर्मम छुं; कारण के सदाय पोताना एकपणामां प्राप्त होवाथी समय (आत्मपदार्थ अथवा दरेक पदार्थ) एवो ने एवो ज स्थित ✽आ गाथानो अर्थ आम पण थाय छेः — ‘धर्म आदि द्रव्यो मारां नथी, हुं एक छुं’ एवुं उपयोग
Page 81 of 642
PDF/HTML Page 112 of 673
single page version
निर्ममत्वोऽस्मि, सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात् । इतीत्थं ज्ञेयभावविवेको भूतः ।
स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम् ।
कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः ।।३१।।
अथैवं दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यास्यात्मनः कीद्रक् स्वरूपसञ्चेतनं भवतीत्यावेदयन्नुप- संहरति —
रहे छे; (पोताना स्वभावने कोई छोडतुं नथी). आ प्रकारे ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थयुं.
अहीं आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [इति] आम पूर्वोक्त प्रकारे भावकभाव अने ज्ञेयभावोथी भेदज्ञान थतां [सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति] सर्व अन्यभावोथी ज्यारे भिन्नता थई त्यारे [अयं उपयोगः] आ उपयोग छे ते [स्वयं] पोते ज [एकं आत्मानम्] पोताना एक आत्माने ज [बिभ्रत्] धारतो, [प्रकटितपरमार्थैः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः] जेमनो परमार्थ प्रगट थयो छे एवां दर्शनज्ञानचारित्रथी जेणे परिणति करी छे एवो, [आत्म-आरामे एव प्रवृत्तः] पोताना आत्मारूपी बाग(क्रीडावन)मां ज प्रवृत्ति करे छे, अन्य जग्याए जतो नथी.
भावार्थः — सर्व परद्रव्योथी तथा तेमनाथी उत्पन्न थयेला भावोथी ज्यारे भेद जाण्यो त्यारे उपयोगने रमवाने माटे पोतानो आत्मा ज रह्यो, अन्य ठेकाणुं न रह्युं. आ रीते दर्शनज्ञानचारित्र साथे एकरूप थयेलो ते आत्मामां ज रमण करे छे एम जाणवुं. ३१.
हवे, ए रीते दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत थयेला आ आत्माने स्वरूपनुं संचेतन केवुं होय छे एम कहेतां आचार्य आ कथनने संकोचे छे, समेटे छेः —
Page 82 of 642
PDF/HTML Page 113 of 673
single page version
यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यन्तमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रति- बोध्यमानः कथञ्चनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्तविस्मृतचामीकरावलोकनन्यायेन परमेश्वर- मात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगेकात्मारामो भूतः स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रं ज्योतिः, समस्तक्रमाक्रमप्रवर्तमानव्यावहारिकभावैश्चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेकः, नारकादि- जीवविशेषाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणव्यावहारिकनवतत्त्वेभ्यष्टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभाव- भावेनात्यन्तविविक्तत्वाच्छुद्धः, चिन्मात्रतया सामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणाद्दर्शनज्ञानमयः, स्पर्शरसगन्धवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतत्वेऽपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात्परमार्थतः सदैवारूपी, इति प्रत्यगयं स्वरूपं सञ्चेतयमानः प्रतपामि । एवं प्रतपतश्च मम बहिर्विचित्रस्वरूपसम्पदा विश्वे
गाथार्थः — दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमेलो आत्मा एम जाणे छे केः [खलु] निश्चयथी [अहम्] हुं [एकः] एक छुं, [शुद्धः] शुद्ध छुं, [दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय छुं, [सदा अरूपी] सदा अरूपी छुं; [किञ्चित् अपि अन्यत्] कांई पण अन्य परद्रव्य [परमाणुमात्रम् अपि] परमाणुमात्र पण [मम न अपि अस्ति] मारुं नथी ए निश्चय छे.
टीकाः — जे, अनादि मोहरूप अज्ञानथी उन्मत्तपणाने लीधे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो अने विरक्त गुरुथी निरंतर समजाववामां आवतां जे कोई प्रकारे (महाभाग्यथी) समजी, सावधान थई, जेम कोई मूठीमां राखेलुं सुवर्ण भूली गयो होय ते फरी याद करीने ते सुवर्णने देखे ते न्याये, पोताना परमेश्वर (सर्व सामर्थ्यना धरनार) आत्माने भूली गयो हतो तेने जाणीने, तेनुं श्रद्धान करीने तथा तेनुं आचरण करीने ( – तेमां तन्मय थईने) जे सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम थयो, ते हुं एवो अनुभव करुं छुं केः हुं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा छुं के जे मारा ज अनुभवथी प्रत्यक्ष जणाय छे; चिन्मात्र आकारने लीधे हुं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तता व्यावहारिक भावोथी भेदरूप थतो नथी माटे हुं एक छुं; नारक आदि जीवना विशेषो, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षस्वरूप जे व्यावहारिक नव तत्त्वो तेमनाथी, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भाव वडे, अत्यंत जुदो छुं माटे हुं शुद्ध छुं; चिन्मात्र होवाथी सामान्य-विशेष उपयोगात्मकपणाने उल्लंघतो नथी माटे हुं दर्शनज्ञानमय छुं; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जेनुं निमित्त छे एवा संवेदनरूपे परिणम्यो होवा छतां पण स्पर्शादिरूपे पोते परिणम्यो नथी माटे परमार्थे हुं सदाय अरूपी छुं. आम सर्वथी
Page 83 of 642
PDF/HTML Page 114 of 673
single page version
परिस्फु रत्यपि न किञ्चनाप्यन्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति यद्भावकत्वेन ज्ञेयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति, स्वरसत एवापुनःप्रादुर्भावाय समूलं मोहमुन्मूल्य महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फु रितत्वात् ।
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः ।
जुदा एवा स्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो. एम प्रतापवंत वर्तता एवा मने, जोके (मारी) बहार अनेक प्रकारनी स्वरूपनी संपदा वडे समस्त परद्रव्यो स्फुरायमान छे तोपण, कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे भासतुं नथी के जे मने भावकपणे तथा ज्ञेयपणे मारी साथे एक थईने फरी मोह उत्पन्न करे; कारण के निजरसथी ज मोहने मूळथी उखाडीने — फरी अंकुर न ऊपजे एवो नाश करीने, महान ज्ञानप्रकाश मने प्रगट थयो छे.
भावार्थः — आत्मा अनादि काळथी मोहना उदयथी अज्ञानी हतो, ते श्री गुरुओना उपदेशथी अने पोतानी काळलब्धिथी ज्ञानी थयो अने पोताना स्वरूपने परमार्थथी जाण्युं के हुं एक छुं, शुद्ध छुं, अरूपी छुं, दर्शनज्ञानमय छुं. आवुं जाणवाथी मोहनो समूळ नाश थयो, भावकभाव ने ज्ञेयभावथी भेदज्ञान थयुं, पोतानी स्वरूपसंपदा अनुभवमां आवी; हवे फरी मोह केम उत्पन्न थाय? न थाय.
हवे, एवो आत्मानो अनुभव थयो तेनो महिमा कही प्रेरणारूप काव्य आचार्य कहे छे के आवा ज्ञानस्वरूप आत्मामां समस्त लोक निमग्न थाओः —
श्लोकार्थः — [एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः] आ ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम- तिरस्करिणीं भरेण आप्लाव्य] विभ्रमरूप आडी चादरने समूळगी डुबाडी दईने (दूर करीने) [प्रोन्मग्नः] पोते सर्वांग प्रगट थयो छे; [अमी समस्ताः लोकाः] तेथी हवे आ समस्त लोक [शान्तरसे] तेना शांत रसमां [समम् एव] एकीसाथे ज [निर्भरम्] अत्यन्त [मज्जन्तु] मग्न थाओ. केवो छे शांत रस? [आलोकम् उच्छलति] समस्त लोक पर्यंत ऊछळी रह्यो छे.
भावार्थः — जेम समुद्रनी आडुं कांई आवी जाय त्यारे जळ नथी देखातुं अने ज्यारे आड दूर थाय त्यारे जळ प्रगट थाय; प्रगट थतां, लोकने प्रेरणायोग्य थाय के ‘आ जळमां सर्व लोक स्नान करो’; तेवी रीते आ आत्मा विभ्रमथी आच्छादित हतो त्यारे तेनुं स्वरूप नहोतुं देखातुं; हवे विभ्रम दूर थयो त्यारे यथास्वरूप (जेवुं छे तेवुं स्वरूप) प्रगट थयुं;
Page 84 of 642
PDF/HTML Page 115 of 673
single page version
प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ।।३२।।
तेथी ‘हवे तेना वीतराग विज्ञानरूप शांतरसमां एकीवखते सर्व लोक मग्न थाओ’ एम आचार्ये प्रेरणा करी छे. अथवा एवो पण अर्थ छे के ज्यारे आत्मानुं अज्ञान दूर थाय त्यारे केवळज्ञान प्रगट थाय अने केवळज्ञान प्रगट थतां समस्त लोकमां रहेला पदार्थो एकीवखते ज ज्ञानमां आवी झळके छे तेने सर्व लोक देखो. ३२.
आ रीते आ समयप्राभृतग्रंथनी आत्मख्याति नामनी टीकामां टीकाकारे पूर्वरंगस्थळ कह्युं.
अहीं टीकाकारनो एवो आशय छे के आ ग्रंथने अलंकारथी नाटकरूपे वर्णव्यो छे. नाटकमां पहेलां रंगभूमि रचवामां आवे छे. त्यां जोनारां नायक तथा सभा होय छे अने नृत्य (नाट्य, नाटक) करनारा होय छे के जेओ अनेक स्वांग धारे छे तथा शृंगारादिक आठ रसनुं रूप बतावे छे. त्यां शृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, बीभत्स अने अद्भुत — ए आठ रस छे ते लौकिक रस छे; नाटकमां तेमनो ज अधिकार छे. नवमो शांतरस छे ते अलौकिक छे; नृत्यमां तेनो अधिकार नथी. आ रसोना स्थायी भाव, सात्त्विक भाव, अनुभावी भाव, व्यभिचारी भाव अने तेमनी द्रष्टि आदिनुं वर्णन रसग्रंथोमां छे त्यांथी जाणवुं. अने सामान्यपणे रसनुं ए स्वरूप छे के ज्ञानमां जे ज्ञेय आव्युं तेमां ज्ञान तदाकार थयुं, तेमां पुरुषनो भाव लीन थई जाय अने अन्य ज्ञेयनी इच्छा न रहे ते रस छे. ते आठ रसनुं रूप नृत्यमां नृत्य करनारा बतावे छे; अने तेमनुं वर्णन करतां कवीश्वर ज्यारे अन्य रसने अन्य रसनी समान करीने पण वर्णन करे छे त्यारे अन्य रसनो अन्य रस अंगभूत थवाथी तथा अन्यभाव रसोनुं अंग होवाथी, रसवत् आदि अलंकारथी तेने नृत्यना रूपे वर्णववामां आवे छे.
अहीं प्रथम रंगभूमिस्थळ कह्युं. त्यां जोनारा तो सम्यग्द्रष्टि पुरुष छे तेम ज बीजा मिथ्याद्रष्टि पुरुषोनी सभा छे, तेमने बतावे छे. नृत्य करनारा जीव-अजीव पदार्थ छे अने बन्नेनुं एकपणुं, कर्ताकर्मपणुं आदि तेमना स्वांग छे. तेमां तेओ परस्पर अनेकरूप थाय छे, — आठ रसरूप थई परिणमे छे, ते नृत्य छे. त्यां सम्यग्द्रष्टि जोनार जीव-अजीवना भिन्न स्वरूपने जाणे छे; ते तो आ सर्व स्वांगोने कर्मकृत जाणी शांत रसमां ज मग्न छे अने मिथ्याद्रष्टि जीव-अजीवनो भेद नथी जाणता तेथी आ स्वांगोने ज साचा जाणी एमां लीन थई जाय छे. तेमने सम्यग्द्रष्टि यथार्थ स्वरूप बतावी, तेमनो भ्रम मटाडी, शांत
Page 85 of 642
PDF/HTML Page 116 of 673
single page version
इति श्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पूर्वरङ्गः समाप्तः । रसमां तेमने लीन करी सम्यग्द्रष्टि बनावे छे. तेनी सूचनारूपे रंगभूमिना अंतमां आचार्ये ‘मज्जन्तु’ इत्यादि आ श्लोक रच्यो छे. ते, हवे जीव-अजीवनो स्वांग वर्णवशे तेनी सूचनारूपे छे एवो आशय सूचित थाय छे. आ रीते अहीं सुधी तो रंगभूमिनुं वर्णन कर्युं.
निजानंद रसमें छको, आन सबै छिटकाय.
आ प्रमाणे (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसार शास्त्रनी (श्रीमद् अमृत- चंद्राचार्यदेवविरचित) आत्मख्याति नामनी टीकामां पूर्वरंग समाप्त थयो.
Page 86 of 642
PDF/HTML Page 117 of 673
single page version
धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत् ।।३३।।
के सर्व वस्तुओने जाणनारुं आ ज्ञान छे ते जीव-अजीवना सर्व स्वांगोने सारी रीते पिछाणे छे. एवुं (सर्व स्वांगोने पिछाणनारुं) सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे — ए अर्थरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ज्ञानं] ज्ञान छे ते [मनो ह्लादयत् ] मनने आनंदरूप करतुं [विलसति] प्रगट थाय छे. केवुं छे ते? [पार्षदान्] जीव-अजीवना स्वांगने जोनारा महापुरुषोने [जीव- अजीव-विवेक-पुष्कल-दृशा] जीव-अजीवनो भेद देखनारी अति उज्ज्वळ निर्दोष द्रष्टि वडे [प्रत्याययत् ] भिन्न द्रव्यनी प्रतीति उपजावी रह्युं छे; [आसंसार-निबद्ध-बन्धन-विधि-ध्वंसात्] अनादि संसारथी जेमनुं बंधन द्रढ बंधायुं छे एवां ज्ञानावरणादि कर्मोना नाशथी [विशुद्धं] विशुद्ध थयुं छे, [स्फु टत् ] स्फुट थयुं छे – जेम फूलनी कळी खीले तेम विकासरूप छे. वळी ते केवुं छे? [आत्म-आरामम्] जेनुं रमवानुं क्रीडावन आत्मा ज छे अर्थात् जेमां अनंत ज्ञेयोना आकार आवीने झळके छे तोपण पोते पोताना स्वरूपमां ज रमे छे; [अनन्तधाम] जेनो प्रकाश अनंत छे; [अध्यक्षेण महसा नित्य-उदितं] प्रत्यक्ष तेजथी जे नित्य उदयरूप छे. वळी केवुं छे? [धीरोदात्तम्] धीर छे, उदात्त (उच्च) छे अने तेथी [अनाकुलं] अनाकुळ छे — सर्व इच्छाओथी
Page 87 of 642
PDF/HTML Page 118 of 673
single page version
रहित निराकुळ छे. (अहीं धीर, उदात्त, अनाकुळ — ए त्रण विशेषणो शांतरूप नृत्यनां आभूषण जाणवां.) एवुं ज्ञान विलास करे छे.
भावार्थः — आ ज्ञाननो महिमा कह्यो. जीव-अजीव एक थई रंगभूमिमां प्रवेश करे छे तेमने आ ज्ञान ज भिन्न जाणे छे. जेम नृत्यमां कोई स्वांग आवे तेने जे यथार्थ जाणे तेने स्वांग करनारो नमस्कार करी पोतानुं रूप जेवुं होय तेवुं ज करी ले छे तेवी रीते अहीं पण जाणवुं. आवुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टि पुरुषोने होय छे; मिथ्याद्रष्टि आ भेद जाणता नथी. ३३.
हवे जीव-अजीवनुं एकरूप वर्णन करे छेः —
Page 88 of 642
PDF/HTML Page 119 of 673
single page version
गाथार्थः — [आत्मानम् अजानन्तः] आत्माने नहि जाणता थका [परात्मवादिनः] परने आत्मा कहेनारा [केचित् मूढाः तु] कोई मूढ, मोही, अज्ञानीओ तो [अध्यवसानं] अध्यवसानने [तथा च] अने कोई [कर्म] कर्मने [जीवम् प्ररूपयन्ति] जीव कहे छे. [अपरे] बीजा कोई [अध्यवसानेषु] अध्यवसानोमां [तीव्रमन्दानुभागगं] तीव्रमंद अनुभागगतने [जीवं मन्यन्ते] जीव माने छे [तथा] अने [अपरे] बीजा कोई [नोकर्म अपि च] नोकर्मने [जीवः इति] जीव माने छे. [अपरे] अन्य कोई [कर्मणः उदयं] कर्मना उदयने [जीवम्] जीव माने छे, कोई ‘[यः] जे [तीव्रत्वमन्दत्वगुणाभ्यां] तीव्रमंदपणारूप गुणोथी भेदने प्राप्त थाय छे [सः] ते [जीवः भवति] जीव छे’ एम [कर्मानुभागम्] कर्मना अनुभागने [इच्छन्ति] जीव इच्छे छे ( – माने छे). [केचित्] कोई [जीवकर्मोभयं] जीव अने कर्म [द्वे अपि खलु] बन्ने मळेलांने ज [जीवम् इच्छन्ति] जीव माने छे [तु] अने [अपरे] अन्य कोई [कर्मणां संयोगेन] कर्मना संयोगथी ज [जीवम् इच्छन्ति] जीव माने छे. [एवंविधाः] आ प्रकारना तथा [बहुविधाः] अन्य पण घणा प्रकारना [दुर्मेधसः] दुर्बुद्धिओ – मिथ्याद्रष्टिओ [परम्] परने [आत्मानं] आत्मा [वदन्ति] कहे छे. [ते]
Page 89 of 642
PDF/HTML Page 120 of 673
single page version
इह खलु तदसाधारणलक्षणाकलनात्क्लीबत्वेनात्यन्तविमूढाः सन्तस्तात्त्विकमात्मान-
मजानन्तो बहवो बहुधा परमप्यात्मानमिति प्रलपन्ति । नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषित-
मध्यवसानमेव जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अङ्गारस्येव कार्ष्ण्यादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुप-
लभ्यमानत्वादिति केचित् । अनाद्यनन्तपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव
जीवः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । तीव्रमन्दानुभवभिद्यमानदुर-
न्तरागरसनिर्भराध्यवसानसन्तान एव जीवस्ततोऽतिरिक्तस्यान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् ।
नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्तमानं नोकर्मैव जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानु- पलभ्यमानत्वादिति केचित् । विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाक एव जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । सातासातरूपेणाभि-
व्याप्तसमस्ततीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभव एव जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वे-
तेमने [निश्चयवादिभिः] निश्चयवादीओए ( – सत्यार्थवादीओए) [परमार्थवादिनः] परमार्थवादी ( – सत्यार्थ कहेनारा) [न निर्दिष्टाः] कह्या नथी.
टीकाः — आ जगतमां आत्मानुं असाधारण लक्षण नहि जाणवाने लीधे नपुंसकपणे अत्यंत विमूढ थया थका, तात्त्विक (परमार्थभूत) आत्माने नहि जाणता एवा घणा अज्ञानी जनो बहु प्रकारे परने पण आत्मा कहे छे, बके छे. कोई तो एम कहे छे के स्वाभाविक अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न थयेला रागद्वेष वडे मेलुं जे अध्यवसान (अर्थात् मिथ्या अभिप्राय सहित विभावपरिणाम) ते ज जीव छे कारण के जेम काळापणाथी अन्य जुदो कोई कोलसो जोवामां आवतो नथी तेम एवा अध्यवसानथी जुदो अन्य कोई आत्मा जोवामां आवतो नथी. १. कोई कहे छे के अनादि जेनो पूर्व अवयव छे अने अनंत जेनो भविष्यनो अवयव छे एवी जे एक संसरणरूप (भ्रमणरूप) क्रिया ते-रूपे क्रीडा करतुं जे कर्म ते ज जीव छे कारण के कर्मथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. २. कोई कहे छे के तीव्र- मंद अनुभवथी भेदरूप थतां, दुरंत (जेनो अंत दूर छे एवा) रागरूप रसथी भरेलां अध्यवसानोनी जे संतति (परिपाटी) ते ज जीव छे कारण के तेनाथी अन्य जुदो कोई जीव देखवामां आवतो नथी. ३. कोई कहे छे के नवी ने पुराणी अवस्था इत्यादि भावे प्रवर्ततुं जे नोकर्म ते ज जीव छे कारण के शरीरथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. ४. कोई एम कहे छे के समस्त लोकने पुण्यपापरूपे व्यापतो जे कर्मनो विपाक ते ज जीव छे कारण के शुभाशुभ भावथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. ५. कोई कहे छे के शाता-अशातारूपे व्याप्त जे समस्त तीव्र-मंदत्वगुणो ते वडे भेदरूप थतो