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नान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयमेव जीवः कार्त्स्न्यतः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । अर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोग एव जीवः कर्मसंयोगात्खटवाया इवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । एवमेवंप्रकारा इतरेऽपि बहुप्रकाराः परमात्मेति व्यपदिशन्ति दुर्मेधसः, किन्तु न ते परमार्थवादिभिः परमार्थवादिन इति निर्दिश्यन्ते ।
कुतः — जे कर्मनो अनुभव ते ज जीव छे कारण के सुख-दुःखथी अन्य जुदो कोई जीव देखवामां आवतो नथी. ६. कोई कहे छे के शिखंडनी जेम उभयरूप मळेलां जे आत्मा अने कर्म, ते बन्ने मळेलां ज जीव छे कारण के समस्तपणे (संपूर्णपणे) कर्मथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. ७. कोई कहे छे के अर्थक्रियामां (प्रयोजनभूत क्रियामां) समर्थ एवो जे कर्मनो संयोग ते ज जीव छे कारण के जेम आठ लाकडांना संयोगथी अन्य जुदो कोई खाटलो जोवामां आवतो नथी तेम कर्मना संयोगथी अन्य जुदो कोई जीव जोवामां आवतो नथी. (आठ लाकडां मळी खाटलो थयो त्यारे अर्थक्रियामां समर्थ थयो; ते रीते अहीं पण जाणवुं.) ८. आ प्रमाणे आठ प्रकार तो आ कह्या अने एवा एवा अन्य पण अनेक प्रकारना दुर्बुद्धिओ (अनेक प्रकारे) परने आत्मा कहे छे; परंतु तेमने परमार्थना जाणनाराओ सत्यार्थवादी कहेता नथी.
भावार्थः — जीव-अजीव बन्ने अनादिथी एकक्षेत्रावगाहसंयोगरूप मळी रह्यां छे अने अनादिथी ज जीवनी पुद्गलना संयोगथी अनेक विकारसहित अवस्थाओ थई रही छे. परमार्थद्रष्टिए जोतां, जीव तो पोताना चैतन्यत्व आदि भावोने छोडतो नथी अने पुद्गल पोताना मूर्तिक जडत्व आदिने छोडतुं नथी. परंतु जे परमार्थने जाणता नथी तेओ संयोगथी थयेला भावोने ज जीव कहे छे; कारण के परमार्थे जीवनुं स्वरूप पुद्गलथी भिन्न सर्वज्ञने देखाय छे तेम ज सर्वज्ञनी परंपरानां आगमथी जाणी शकाय छे, तेथी जेमना मतमां सर्वज्ञ नथी तेओ पोतानी बुद्धिथी अनेक कल्पना करी कहे छे. तेमांथी वेदांती, मीमांसक, सांख्य, योग, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतोना आशय लई आठ प्रकार तो प्रगट कह्या; अने अन्य पण पोतपोतानी बुद्धिथी अनेक कल्पना करी अनेक प्रकारे कहे छे ते क्यां सुधी कहेवा?
एवुं कहेनारा सत्यार्थवादी केम नथी ते कहे छेः —
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यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिर्विश्वसाक्षिभिरर्हद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ताः सन्तश्चैतन्यशून्यात्पुद्गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहन्ते; ततो न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः । एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः । इयं तु स्वानुभवगर्भिता युक्तिः — न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवस्तथाविधाध्यवसानात्कार्तस्वरस्येव श्यामिकाया अतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वना-
गाथार्थः — [एते] आ पूर्वे कहेलां अध्यवसान आदि [सर्वे भावाः] भावो छे ते बधाय [पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः] पुद्गलद्रव्यना परिणामथी नीपज्या छे एम [केवलिजिनैः] केवळी सर्वज्ञ जिनदेवोए [भणिताः] कह्युं छे [ते] तेमने [जीवः इति] जीव एम [कथं उच्यन्ते] केम कही शकाय?
टीकाः — आ अध्यवसानादि भावो छे ते बधाय, विश्वने (समस्त पदार्थोने) साक्षात् देखनारा भगवान (वीतराग सर्वज्ञ) अर्हंतदेवो वडे, पुद्गलद्रव्यना परिणाममय कहेवामां आव्या होवाथी, तेओ चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य थवा समर्थ नथी के जे जीवद्रव्य चैतन्यभावथी शून्य एवा पुद्गलद्रव्यथी अतिरिक्त (भिन्न) कहेवामां आव्युं छे; माटे जेओ आ अध्यवसानादिकने जीव कहे छे तेओ खरेखर परमार्थवादी नथी केम के आगम, युक्ति अने स्वानुभवथी तेमनो पक्ष बाधित छे. तेमां, ‘तेओ जीव नथी’ एवुं आ सर्वज्ञनुं वचन छे ते तो आगम छे अने आ (नीचे प्रमाणे) स्वानुभवगर्भित युक्ति छेः — स्वयमेव उत्पन्न थयेला एवा राग-द्वेष वडे मलिन अध्यवसान छे ते जीव नथी कारण के, कालिमा(काळप)थी जुदा सुवर्णनी जेम, एवा अध्यवसानथी जुदो अन्य चित्स्वभावरूप जीव
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द्यनन्तपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणलक्षणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीवः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु तीव्रमन्दानुभवभिद्यमानदुरन्तरागरस- निर्भराध्यवसानसन्तानो जीवस्ततोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्य- मानत्वात् । न खलु नवपुराणावस्थादिभेदेन प्रवर्तमानं नोकर्म जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन्
कर्मविपाको जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्य- मानत्वात् । न खलु सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभवो जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु मज्जिताव-
दुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीवः कार्त्स्न्यतः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः
भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ प्रत्यक्ष चैतन्यभावने जुदो अनुभवे छे. १. अनादि जेनो पूर्व अवयव छे अने अनंत जेनो भविष्यनो अवयव छे एवी जे एक संसरणरूप क्रिया ते-रूपे क्रीडा करतुं कर्म छे ते पण जीव नथी कारण के कर्मथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. २. तीव्र-मंद अनुभवथी भेदरूप थतां, दुरंत रागरसथी भरेलां अध्यवसानोनी संतति पण जीव नथी कारण के ते संततिथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ३. नवी पुराणी अवस्थादिकना भेदथी प्रवर्ततुं जे नोकर्म ते पण जीव नथी कारण के शरीरथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ४. समस्त जगतने पुण्यपापरूपे व्यापतो कर्मनो विपाक छे ते पण जीव नथी कारण के शुभाशुभ भावथी अन्य जुदो चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ५. शाता-अशातारूपे व्याप्त जे समस्त तीव्रमंदपणारूप गुणो ते वडे भेदरूप थतो जे कर्मनो अनुभव ते पण जीव नथी कारण के सुख-दुःखथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ६. शिखंडनी जेम उभयात्मकपणे मळेलां जे आत्मा अने कर्म ते बन्ने मळेलां पण जीव नथी कारण के समस्तपणे (संपूर्णपणे) कर्मथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ७. अर्थक्रियामां समर्थ एवो जे कर्मनो संयोग ते पण जीव नथी कारण के, आठ काष्ठना संयोगथी (-खाटलाथी) जुदो
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स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो जीवः कर्मसंयोगात् खटवाशायिनः पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति ।
स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् ।
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किञ्चोपलब्धिः ।।३४।।
जे खाटलामां सूनारो पुरुष तेनी जेम, कर्मसंयोगथी जुदो अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानीओ वडे स्वयं उपलभ्यमान छे अर्थात् तेओ पोते तेने प्रत्यक्ष अनुभवे छे. ८. (आ ज रीते अन्य कोई बीजा प्रकारे कहे त्यां पण आ ज युक्ति जाणवी.)
[भावार्थः — चैतन्यस्वभावरूप जीव, सर्व परभावोथी जुदो, भेदज्ञानीओने अनुभवगोचर छे; तेथी जेम अज्ञानी माने छे तेम नथी.]
अहीं पुद्गलथी भिन्न आत्मानी उपलब्धि प्रत्ये विरोध करनार (-पुद्गलने ज आत्मा जाणनार) पुरुषने (तेना हितरूप आत्मप्राप्तिनी वात कही) मीठाशथी (अने समभावथी) ज आ प्रमाणे उपदेश करवो एम काव्यमां कहे छेः —
श्लोकार्थः — हे भव्य! तने [अपरेण] बीजो [अकार्य-कोलाहलेन] नकामो कोलाहल करवाथी [किम्] शो लाभ छे? [विरम] ए कोलाहलथी तुं विरक्त था अने [एकम्] एक चैतन्यमात्र वस्तुने [स्वयम् अपि] पोते [निभृतः सन्] निश्चळ लीन थई [पश्य षण्मासम्] देख; एवो छ महिना अभ्यास कर अने जो ( – तपास) के एम करवाथी [हृदय-सरसि] पोताना हृदयसरोवरमां [पुद्गलात् भिन्नधाम्नः] जेनुं तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे एवा [पुंसः] आत्मानी [ननु किम् अनुपलब्धिः भाति] प्राप्ति नथी थती [किं च उपलब्धिः] के थाय छे.
भावार्थः — जो पोताना स्वरूपनो अभ्यास करे तो तेनी प्राप्ति अवश्य थाय; जो परवस्तु होय तो तेनी तो प्राप्ति न थाय. पोतानुं स्वरूप तो मोजूद छे, पण भूली रह्यो छे; जो चेतीने देखे तो पासे ज छे. अहीं छ महिनानो अभ्यास कह्यो तेथी एम न समजवुं के एटलो ज वखत लागे. तेनुं थवुं तो अंतर्मूहूर्तमात्रमां ज छे, परंतु शिष्यने बहु
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अध्यवसानादिभावनिर्वर्तकमष्टविधमपि च कर्म समस्तमेव पुद्गलमयमिति किल सकलज्ञ-
प्रज्ञप्तिः । तस्य तु यद्विपाककाष्ठामधिरूढस्य फलत्वेनाभिलप्यते तदनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्म-
स्वभावविलक्षणत्वात्किल दुःखं । तदन्तःपातिन एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः ।
कठिन लागतुं होय तो तेनो निषेध कर्यो छे. जो समजवामां बहु काळ लागे तो छ महिनाथी अधिक नहि लागे; तेथी अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल छोडी आमां लागवाथी जलदी स्वरूपनी प्राप्ति थशे एवो उपदेश छे. ३४.
हवे शिष्य पूछे छे के आ अध्यवसानादि भावो जीव न कह्या, अन्य चैतन्यस्वभाव जीव कह्यो; तो आ भावो पण चैतन्य साथे संबंध राखनारा प्रतिभासे छे, (चैतन्य सिवाय जडने तो देखाता नथी,) छतां तेमने पुद्गलना स्वभाव केम कह्या? तेना उत्तरनुं गाथासूत्र कहे छेः —
गाथार्थः — [अष्टविधम् अपि च] आठे प्रकारनुं [कर्म] कर्म छे ते [सर्वं] सर्व [पुद्गलमयं] पुद्गलमय छे एम [जिनाः] जिनभगवान सर्वज्ञदेवो [ब्रुवन्ति] कहे छे – [यस्य विपच्यमानस्य] जे पक्व थई उदयमां आवता कर्मनुं [फलं] फळ [ तत् ] प्रसिद्ध [दुःखम्] दुःख छे [इति उच्यते] एम कह्युं छे.
टीकाः — अध्यवसान आदि समस्त भावोने उत्पन्न करनारुं जे आठे प्रकारनुं ज्ञानावरण आदि कर्म छे ते बधुंय पुद्गलमय छे एवुं सर्वज्ञनुं वचन छे. विपाकनी हदे पहोंचेला ते कर्मना फळपणे जे कहेवामां आवे छे ते (एटले के कर्मफळ), अनाकुळतालक्षण जे सुख नामनो आत्मस्वभाव तेनाथी विलक्षण होवाथी, दुःख छे. ते दुःखमां ज
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ततो न ते चिदन्वयविभ्रमेऽप्यात्मस्वभावाः, किन्तु पुद्गलस्वभावाः ।
सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि
व्यवहारस्यापि दर्शनम् । व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वाद-
परमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो
आकुळतालक्षण अध्यवसान आदि भावो समावेश पामे छे; तेथी, जोके तेओ चैतन्य साथे संबंध होवानो भ्रम उपजावे छे तोपण, तेओ आत्माना स्वभावो नथी पण पुद्गल- स्वभावो छे.
भावार्थः — कर्मनो उदय आवे त्यारे आ आत्मा दुःखरूप परिणमे छे अने दुःखरूप भाव छे ते अध्यवसान छे तेथी दुःखरूप भावमां ( – अध्यवसानमां) चेतनतानो भ्रम ऊपजे छे. परमार्थे दुःखरूप भाव चेतन नथी, कर्मजन्य छे तेथी जड ज छे.
हवे पूछे छे के जो अध्यवसानादि भावो छे ते पुद्गलस्वभावो छे तो सर्वज्ञना आगममां तेमने जीवपणे केम कहेवामां आव्या छे? तेना उत्तरनुं गाथासूत्र कहे छेः —
गाथार्थः — [एते सर्वे] आ सर्व [अध्यवसानादयः भावाः] अध्यवसानादि भावो छे ते [जीवाः] जीव छे एवो [जिनवरैः] जिनवरोए [उपदेशः वर्णितः] जे उपदेश वर्णव्यो छे ते [व्यवहारस्य दर्शनम्] व्यवहारनय दर्शाव्यो छे.
टीकाः — आ बधाय अध्यवसानादि भावो जीव छे एवुं जे भगवान सर्वज्ञदेवोए कह्युं छे ते, जोके व्यवहारनय अभूतार्थ छे तोपण, व्यवहारनयने पण दर्शाव्यो छे; कारण के जेम म्लेच्छभाषा म्लेच्छोने वस्तुस्वरूप जणावे छे तेम व्यवहारनय व्यवहारी जीवोने
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भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशङ्कमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बन्धस्याभावः । तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः ।
परमार्थनो कहेनार छे तेथी, अपरमार्थभूत होवा छतां पण, धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति करवा माटे (व्यवहारनय) दर्शाववो न्यायसंगत ज छे. परंतु जो व्यवहार न दर्शाववामां आवे तो, परमार्थे ( – परमार्थनये) शरीरथी जीव भिन्न दर्शाववामां आवतो होवाथी, जेम भस्मने मसळी नाखवामां हिंसानो अभाव छे तेम, त्रसस्थावर जीवोनुं निःशंकपणे मर्दन (घात) करवामां पण हिंसानो अभाव ठरशे अने तेथी बंधनो ज अभाव ठरशे; वळी परमार्थ द्वारा राग-द्वेष-मोहथी जीव भिन्न दर्शाववामां आवतो होवाथी, ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मथी बंधाय छे तेने छोडाववो’ — एम मोक्षना उपायना ग्रहणनो अभाव थशे अने तेथी मोक्षनो ज अभाव थशे. (आम जो व्यवहारनय न दर्शाववामां आवे तो बंध-मोक्षनो अभाव ठरे छे.)
भावार्थः — परमार्थनय तो जीवने शरीर तथा रागद्वेषमोहथी भिन्न कहे छे. जो तेनो एकांत करवामां आवे तो शरीर तथा रागद्वेषमोह पुद्गलमय ठरे अने तो पछी पुद्गलने घातवाथी हिंसा थती नथी अने रागद्वेषमोहथी बंध थतो नथी. आम, परमार्थथी जे संसार- मोक्ष बन्नेनो अभाव कह्यो छे ते ज एकांते ठरशे. परंतु आवुं एकांतरूप वस्तुनुं स्वरूप नथी; अवस्तुनुं श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ज छे. माटे व्यवहारनयनो उपदेश न्यायप्राप्त छे. आ रीते स्याद्वादथी बन्ने नयोनो विरोध मटाडी श्रद्धान करवुं ते सम्यक्त्व छे.
हवे शिष्य पूछे छे के आ व्यवहारनय कया द्रष्टांतथी प्रवर्त्यो छे? तेनो उत्तर कहे छेः —
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यथैष राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य निष्क्रामतीत्येकस्य पंच योजनान्यभिव्याप्तुम- शक्यत्वाद्वयवहारिणां बलसमुदाये राजेति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव राजा; तथैष जीवः समग्रं रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तत इत्येकस्य समग्रं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद्वयवहारिणामध्यव- सानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव जीवः ।
गाथार्थः — जेम कोई राजा सेना सहित नीकळ्यो त्यां [राजा खलु निर्गतः] ‘आ राजा नीकळ्यो’ [इति एषः] एम आ जे [बलसमुदयस्य] सेनाना समुदायने [आदेशः] कहेवामां आवे छे ते [व्यवहारेण तु उच्यते] व्यवहारथी कहेवामां आवे छे, [तत्र] ते सेनामां (वास्तविकपणे) [एकः निर्गतः राजा] राजा तो एक ज नीकळ्यो छे; [एवम् एव च] तेवी ज रीते [अध्यवसानाद्यन्य- भावानाम्] अध्यवसान आदि अन्यभावोने [जीवः इति] ‘(आ) जीव छे’ एम [सूत्रे] परमागममां कह्युं छे ते [व्यवहारः कृतः] व्यवहार कर्यो छे, [तत्र निश्चितः] निश्चयथी विचारवामां आवे तो तेमनामां [जीवः एकः] जीव तो एक ज छे.
टीकाः — जेम आ राजा पांच योजनना फेलावथी नीकळी रह्यो छे एम कहेवुं ते, एक राजानुं पांच योजनमां फेलावुं अशक्य होवाथी, व्यवहारी लोकोनो सेनासमुदायमां राजा कहेवारूप व्यवहार छे; परमार्थथी तो राजा एक ज छे, (सेना राजा नथी); तेवी रीते आ जीव समग्र रागग्राममां ( – रागनां स्थानोमां) व्यापीने प्रवर्ती रह्यो छे एम कहेवुं ते, एक जीवनुं समग्र रागग्राममां व्यापवुं अशक्य होवाथी, व्यवहारी लोकोनो अध्यवसानादिक अन्यभावोमां जीव कहेवारूप व्यवहार छे; परमार्थथी तो जीव एक ज छे, (अध्यवसानादिक भावो जीव नथी).
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यद्येवं तर्हि किंलक्षणोऽसावेकष्टङ्कोत्कीर्णः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह —
यः खलु पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरसगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरसगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनारसनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनारसनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वा- त्केवलरसवेदनापरिणामापन्नत्वेनारसनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणत-
हवे शिष्य पूछे छे के ए अध्यवसानादि भावो छे ते जीव नथी तो ते एक, टंकोत्कीर्ण, परमार्थस्वरूप जीव केवो छे? तेनुं लक्षण शुं छे? ए प्रश्ननो उत्तर कहे छेः —
गाथार्थः — हे भव्य! तुं [जीवम्] जीवने [अरसम्] रसरहित, [अरूपम्] रूपरहित, [अगन्धम्] गंधरहित, [अव्यक्तं] अव्यक्त अर्थात् इंद्रियोने गोचर नथी एवो, [चेतनागुणम्] चेतना जेनो गुण छे एवो, [अशब्दम्] शब्दरहित, [अलिङ्गग्रहणं] कोई चिह्नथी जेनुं ग्रहण नथी एवो अने [अनिर्दिष्टसंस्थानम्] जेनो कोई आकार कहेवातो नथी एवो [जानीहि] जाण.
टीकाः — जे जीव छे ते खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां रसगुण विद्यमान नथी माटे अरस छे. १. पुद्गलद्रव्यना गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण रसगुण नथी माटे अरस छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण रस चाखतो नथी माटे अरस छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण रस चाखतो नथी माटे अरस छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक रसवेदनापरिणामने पामीने रस चाखतो नथी माटे अरस छे. ५. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो (-एकरूप थवानो) निषेध होवाथी रसना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां
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त्वेऽपि स्वयं रसरूपेणापरिणमनाच्चारसः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरूपगुणत्वात्,
पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरूपगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावा- द्द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनारूपणात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनारूपणात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलरूपवेदनापरिणामापन्नत्वेनारूपणात्, सकलज्ञेय- ज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रूपपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं रूपरूपेणापरिणमनाच्चारूपः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानगन्धगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमगन्धगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनागन्धनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावा- भावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनागन्धनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलगन्धवेदना- परिणामापन्नत्वेनागन्धनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्गन्धपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं
पण पोते रसरूपे परिणमतो नथी माटे अरस छे. ६. आम छ प्रकारे रसना निषेधथी ते अरस छे.
ए रीते, जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां रूपगुण विद्यमान नथी माटे अरूप छे. १. पुद्गलद्रव्यना गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण रूपगुण नथी माटे अरूप छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण रूप देखतो नथी माटे अरूप छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण रूप देखतो नथी माटे अरूप छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक रूपवेदनापरिणामने पामीने रूप देखतो नथी माटे अरूप छे. ५. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी रूपना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते रूपरूपे परिणमतो नथी माटे अरूप छे. ६. आम छ प्रकारे रूपना निषेधथी ते अरूप छे.
ए रीते, जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां गंधगुण विद्यमान नथी माटे अगंध छे. १. पुद्गलद्रव्यना गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण गंधगुण नथी माटे अगंध छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण गंध सूंघतो नथी माटे अगंध छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण गंध सूंघतो नथी माटे अगंध छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक गंधवेदनापरिणामने पामीने गंध
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गन्धरूपेणापरिणमनाच्चागन्धः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानस्पर्शगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो
भिन्नत्वेन स्वयमस्पर्शगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनास्पर्शनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनास्पर्शनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणाम- स्वभावत्वात्केवलस्पर्शवेदनापरिणामापन्नत्वेनास्पर्शनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधात्स्पर्श- परिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं स्पर्शरूपेणापरिणमनाच्चास्पर्शः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमान- शब्दपर्यायत्वात्, पुद्गलद्रव्यपर्यायेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमशब्दपर्यायत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्य- स्वामित्वाभावाद्द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेन शब्दाश्रवणात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावे- न्द्रियावलम्बेन शब्दाश्रवणात्, सकलसाधारणैक संवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलशब्दवेदना- परिणामापन्नत्वेन शब्दाश्रवणात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाच्छब्दपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि
सूंघतो नथी माटे अगंध छे. ५. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे. परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी गंधना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते गंधरूपे परिणमतो नथी माटे अगंध छे. ६. आम छ प्रकारे गंधना निषेधथी ते अगंध छे.
ए रीते, जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां स्पर्शगुण विद्यमान नथी माटे अस्पर्श छे. १. पुद्गलद्रव्यना गुणोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण स्पर्शगुण नथी माटे अस्पर्श छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण स्पर्शने स्पर्शतो नथी माटे अस्पर्श छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण स्पर्शने स्पर्शतो नथी माटे अस्पर्श छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक स्पर्शवेदनापरिणामने पामीने स्पर्शने स्पर्शतो नथी माटे अस्पर्श छे. ५. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी स्पर्शना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते स्पर्शरूपे परिणमतो नथी माटे अस्पर्श छे. ६. आम छ प्रकारे स्पर्शना निषेधथी ते अस्पर्श छे.
ए रीते, जीव खरेखर पुद्गलद्रव्यथी अन्य होवाथी तेमां शब्दपर्याय विद्यमान नथी माटे अशब्द छे. १. पुद्गलद्रव्यना पर्यायोथी पण भिन्न होवाथी पोते पण शब्दपर्याय नथी माटे अशब्द छे. २. परमार्थे पुद्गलद्रव्यनुं स्वामीपणुं पण तेने नहि होवाथी ते द्रव्येन्द्रियना आलंबन वडे पण शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. ३. पोताना स्वभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो क्षायोपशमिक भावनो पण तेने अभाव होवाथी ते भावेन्द्रियना आलंबन वडे पण शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. ४. सकल विषयोना विशेषोमां साधारण
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स्वयं शब्दरूपेणापरिणमनाच्चाशब्दः । द्रव्यान्तरारब्धशरीरसंस्थानेनैव संस्थान इति निर्देष्टुमशक्यत्वात्,
नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानन्तशरीरवर्तित्वात्, संस्थाननामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमान- त्वात्, प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणतसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलितसहजसंवेदनशक्तित्वेऽपि स्वयमखिललोक- संवलनशून्योपजायमाननिर्मलानुभूतितयात्यन्तमसंस्थानत्वाच्चानिर्दिष्टसंस्थानः । षड्द्रव्यात्मकलोका- ज्ज्ञेयाद्वयक्तादन्यत्वात्, कषायचक्राद्भावकाद्वयक्तादन्यत्वात्, चित्सामान्यनिमग्नसमस्तव्यक्तित्वात्, क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात्, व्यक्ताव्यक्तविमिश्रप्रतिभासेऽपि व्यक्तास्पर्शत्वात्, स्वयमेव हि बहिरन्तः स्फु टमनुभूयमानत्वेऽपि व्यक्तोपेक्षणेन प्रद्योतमानत्वाच्चाव्यक्तः । रसरूपगन्धस्पर्शशब्दसंस्थानव्यक्तत्वा- भावेऽपि स्वसंवेदनबलेन नित्यमात्मप्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमात्रत्वाभावादलिङ्गग्रहणः । समस्त-
एवा एक ज संवेदनपरिणामरूप तेनो स्वभाव होवाथी ते केवळ एक शब्दवेदना- परिणामने पामीने शब्द सांभळतो नथी माटे अशब्द छे. ५. (तेने समस्त ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकना तादात्म्यनो निषेध होवाथी शब्दना ज्ञानरूपे परिणमतां छतां पण पोते शब्दरूपे परिणमतो नथी माटे अशब्द छे. ६. आम छ प्रकारे शब्दना निषेधथी ते अशब्द छे.
(हवे ‘अनिर्दिष्टसंस्थान’ विशेषण समजावे छेः — ) पुद्गलद्रव्य वडे रचायेलुं जे शरीर तेना संस्थान(आकार)थी जीवने संस्थानवाळो कही शकातो नथी माटे जीव अनिर्दिष्टसंस्थान छे. १. पोताना नियत स्वभावथी अनियत संस्थानवाळा अनंत शरीरोमां रहे छे माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे. २. संस्थान नामकर्मनो विपाक (फळ) पुद्गलोमां ज कहेवामां आवे छे (तेथी तेना निमित्तथी पण आकार नथी) माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे. ३. जुदां जुदां संस्थानरूपे परिणमेली समस्त वस्तुओनां स्वरूप साथे जेनी स्वाभाविक संवेदनशक्ति संबंधित (अर्थात
मिलापथी ( – संबंधथी) रहित निर्मळ (ज्ञानमात्र) अनुभूति थई रही छे एवो होवाथी पोते अत्यंतपणे संस्थान विनानो छे माटे अनिर्दिष्टसंस्थान छे. ४. आम चार हेतुथी संस्थाननो निषेध कह्यो.
(हवे ‘अव्यक्त’ विशेषणने सिद्ध करे छेः — ) छ द्रव्यस्वरूप लोक जे ज्ञेय छे अने व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे. १. कषायोनो समूह जे भावकभाव व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे. २. चित्सामान्यमां चैतन्यनी सर्व व्यक्तिओ निमग्न (अंतर्भूत) छे माटे अव्यक्त छे. ३. क्षणिक व्यक्तिमात्र नथी माटे अव्यक्त छे. ४. व्यक्तपणुं तथा अव्यक्तपणुं भेळां मिश्रितरूपे तेने प्रतिभासवा छतां पण ते व्यक्तपणाने
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विप्रतिपत्तिप्रमाथिना विवेचकजनसमर्पितसर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यन्तसौहित्य- मन्थरेणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्यसाधारणतया स्वभावभूतेन स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुणेन नित्यमेवान्तःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च । स खलु भगवानमलालोक इहैकष्टङ्कोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः ।
स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् ।
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम् ।।३५।।
स्पर्शतो नथी माटे अव्यक्त छे. ५. पोते पोताथी ज बाह्य-अभ्यंतर स्पष्ट अनुभवाई रह्यो होवा छतां पण व्यक्तपणा प्रति उदासीनपणे प्रद्योतमान (प्रकाशमान) छे माटे अव्यक्त छे. ६. आम छ हेतुथी अव्यक्तपणुं सिद्ध कर्युं.
आ प्रमाणे रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान अने व्यक्तपणानो अभाव होवा छतां पण स्वसंवेदनना बळथी पोते सदा प्रत्यक्ष होवाथी अनुमानगोचरमात्रपणाना अभावने लीधे (जीवने) अलिंगग्रहण कहेवामां आवे छे.
पोताना अनुभवमां आवता चेतनागुण वडे सदाय अंतरंगमां प्रकाशमान छे तेथी (जीव) चेतनागुणवाळो छे. केवो छे चेतनागुण? जे समस्त विप्रतिपत्तिओनो (जीवने अन्य प्रकारे मानवारूप झघडाओनो) नाश करनार छे, जेणे पोतानुं सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोने सोंपी दीधुं छे, जे समस्त लोकालोकने ग्रासीभूत करी जाणे के अत्यंत तृप्ति वडे ठरी गयो होय तेम (अर्थात् अत्यंत स्वरूप-सौख्य वडे तृप्त तृप्त होवाने लीधे स्वरूपमांथी बहार नीकळवानो अनुद्यमी होय तेम) सर्व काळे किंचित्मात्र पण चलायमान थतो नथी अने ए रीते सदाय जरा पण नहि चळतुं अन्यद्रव्यथी असाधारणपणुं होवाथी जे (असाधारण) स्वभावभूत छे.
— आवो चैतन्यरूप परमार्थस्वरूप जीव छे. जेनो प्रकाश निर्मळ छे एवो आ भगवान आ लोकमां एक, टंकोत्कीर्ण, भिन्न ज्योतिरूप विराजमान छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कही एवा आत्माना अनुभवनी प्रेरणा करे छेः —
श्लोकार्थः — [ चित्-शक्ति-रिक्तं ] चित्शक्तिथी रहित [ सकलम् अपि ] अन्य सकळ भावोने [अह्नाय] मूळथी [विहाय] छोडीने [च] अने [स्फु टतरम्] प्रगटपणे [स्वं चित्-शक्तिमात्रम्]
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पोताना चित्शक्तिमात्र भावनुं [अवगाह्य] अवगाहन करीने, [आत्मा] भव्य आत्मा [विश्वस्य उपरि] समस्त पदार्थसमूहरूप लोकना उपर [चारु चरन्तं] सुंदर रीते प्रवर्तता एवा [इमम्] आ [परम्] एक केवळ [अनन्तम्] अविनाशी [आत्मानम्] आत्मानो [आत्मनि] आत्मामां ज [साक्षात् कलयतु] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो.
भावार्थः — आ आत्मा परमार्थे समस्त अन्यभावोथी रहित चैतन्यशक्तिमात्र छे; तेना अनुभवनो अभ्यास करो एम उपदेश छे. ३५.
हवे चित्शक्तिथी अन्य जे भावो छे ते बधा पुद्गलद्रव्यसंबंधी छे एवी आगळनी (छ) गाथानी सूचनिकारूपे श्लोक कहे छेः –
श्लोकार्थः — [चित्-शक्ति-व्याप्त-सर्वस्व-सारः] चैतन्यशक्तिथी व्याप्त जेनो सर्वस्व-सार छे एवो [अयम् जीवः] आ जीव [इयान्] एटलो ज मात्र छे; [अतः अतिरिक्ताः] आ चित्शक्तिथी शून्य [अमी भावाः] जे आ भावो छे [सर्वे अपि] ते बधाय [पौद्गलिकाः] पुद्गलजन्य छे — पुद्गलना ज छे. ३६.
एवा ए भावोनुं व्याख्यान छ गाथाओमां करे छेः —
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गाथार्थः — [जीवस्य] जीवने [वर्णः] वर्ण [नास्ति] नथी, [न अपि गन्धः] गंध पण नथी, [रसः अपि न] रस पण नथी [च] अने [स्पर्शः अपि न] स्पर्श पण नथी, [रूपं अपि न] रूप पण नथी, [न शरीरं] शरीर पण नथी, [संस्थानं अपि न] संस्थान पण नथी, [संहननम् न] संहनन पण नथी; [जीवस्य] जीवने [रागः नास्ति] राग पण नथी, [द्वेषः अपि न] द्वेष
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यः कृष्णो हरितः पीतो रक्तः श्वेतो वा वर्णः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गल-
द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः सुरभिर्दुरभिर्वा गन्धः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य,
पण नथी, [मोहः] मोह पण [न एव विद्यते] विद्यमान नथी, [प्रत्ययाः नो] प्रत्ययो (आस्रवो) पण नथी, [कर्म न] कर्म पण नथी [च] अने [नोकर्म अपि] नोकर्म पण [तस्य नास्ति] तेने नथी; [जीवस्य] जीवने [वर्गः नास्ति] वर्ग नथी, [वर्गणा न] वर्गणा नथी, [कानिचित् स्पर्धकानि न एव] कोई स्पर्धको पण नथी, [अध्यात्मस्थानानि नो] अध्यात्मस्थानो पण नथी [च] अने [अनुभागस्थानानि] अनुभागस्थानो पण [न एव] नथी; [जीवस्य] जीवने [कानिचित् योगस्थानानि] कोई योगस्थानो पण [न सन्ति] नथी [वा] अथवा [बन्धस्थानानि न] बंधस्थानो पण नथी, [च] वळी [उदयस्थानानि] उदयस्थानो पण [न एव] नथी, [कानिचित् मार्गणास्थानानि न] कोई मार्गणास्थानो पण नथी; [जीवस्य] जीवने [स्थितिबन्धस्थानानि नो] स्थितिबंधस्थानो पण नथी [वा] अथवा [संक्लेशस्थानानि न] संक्लेशस्थानो पण नथी, [विशुद्धिस्थानानि] विशुद्धिस्थानो पण [न एव] नथी [वा] अथवा [संयमलब्धिस्थानानि] संयमलब्धिस्थानो पण [नो] नथी; [च] वळी [जीवस्य] जीवने [जीवस्थानानि] जीवस्थानो पण [न एव] नथी [वा] अथवा [गुणस्थानानि] गुणस्थानो पण [न सन्ति] नथी; [येन तु] कारण के [एते सर्वे] आ बधा [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यना [परिणामाः] परिणाम छे.
टीकाः — जे काळो, लीलो, पीळो, रातो अथवा धोळो वर्ण छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १. जे सुरभि
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पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः कटुकः कषायः तिक्तोऽम्लो मधुरो वा रसः
स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः स्निग्धो
रूक्षः शीतः उष्णो गुरुर्लघुर्मृदुः कठिनो वा स्पर्शः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यत्स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्रं रूपं तन्नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यदौदारिकं वैक्रियिकमाहारकं तैजसं
कार्मणं वा शरीरं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् ।
सत्समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं स्वाति कुब्जं वामनं हुण्डं वा संस्थानं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यद्वज्रर्षभनाराचं वज्रनाराचं नाराचमर्धनाराचं कीलिका असम्प्राप्तासृपाटिका वा संहननं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । योऽप्रीतिरूपो द्वेषः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य,
अथवा दुरभि गंध छे ते बधीये जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २. जे कडवो, कषायलो, तीखो, खाटो अथवा मीठो रस छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ३. जे चीकणो, लूखो, शीत, उष्ण, भारे, हलको, कोमळ अथवा कठोर स्पर्श छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ४. जे स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्र रूप छे ते जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ५. जे औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण शरीर छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ६. जे समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडळ, स्वातिक, कुब्जक, वामन अथवा हुंडक संस्थान छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ७. जे वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका अथवा असंप्राप्तासृपाटिका संहनन छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ८. जे प्रीतिरूप राग छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ९. जे अप्रीतिरूप द्वेष छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १०. जे यथार्थ तत्त्वनी अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप)
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पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । ये मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणाः प्रत्ययास्ते
सर्वेऽपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यद् ज्ञानावरणीय-
दर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायरूपं कर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गल- द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यः शक्तिसमूहलक्षणो वर्गः स
सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । या वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा
सा सर्वापि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि
मन्दतीव्ररसकर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्धकानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गल- द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि स्वपरैकत्वाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामाति- रिक्तत्वलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि तानि सर्वाण्यपि
मोह छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. ११. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग जेमनां लक्षण छे एवा जे प्रत्ययो ते बधाय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १२. जे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतरायरूप कर्म छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १३. जे छ पर्याप्तियोग्य अने त्रण शरीरयोग्य वस्तु(-पुद्गलस्कंध)रूप नोकर्म छे ते बधुंय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १४. जे कर्मना रसनी शक्तिओना (अर्थात् अविभाग परिच्छेदोना) समूहरूप वर्ग छे ते बधोय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १५. जे वर्गोना समूहरूप वर्गणा छे ते बधीये जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १६. जे मंदतीव्र रसवाळां कर्मदळोना विशिष्ट न्यास(-जमाव)रूप (अर्थात् वर्गणाओना समूहरूप) स्पर्धको छे ते बधाय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १७. स्वपरना एकपणानो अध्यास होय त्यारे (वर्ततां), विशुद्ध चैतन्यपरिणामथी जुदापणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे अध्यात्मस्थानो छे ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १८. जुदी जुदी प्रकृतिओना रसना परिणाम जेमनुं लक्षण एवां जे अनुभागस्थानो ते बधांय जीवने
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न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि कायवाङ्मनोवर्गणा-
परिस्पन्दलक्षणानि योगस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिपरिणामलक्षणानि बन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि स्वफलसम्पादन-
समर्थकर्मावस्थालक्षणान्युदयस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्व- संज्ञाहारलक्षणानि मार्गणास्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिकालान्तरसहत्वलक्षणानि स्थितिबन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि
कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गल- द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि कषायविपाकानुद्रेकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि चारित्रमोह-
नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. १९. कायवर्गणा, वचनवर्गणा अने मनोवर्गणानुं कंपन जेमनुं लक्षण छे एवां जे योगस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २०. जुदी जुदी प्रकृतिओना परिणाम जेमनुं लक्षण छे एवां जे बंधस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २१. पोतानुं फळ उत्पन्न करवामां समर्थ कर्म-अवस्था जेमनुं लक्षण छे एवां जे उदयस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २२. गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा अने आहार जेमनां लक्षण छे एवां जे मार्गणास्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २३. जुदी जुदी प्रकृतिओनुं अमुक मुदत सुधी साथे रहेवुं ते जेमनुं लक्षण छे एवां जे स्थितिबंधस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २४. कषायना विपाकनुं अतिशयपणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे संक्लेशस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २५. कषायना विपाकनुं मंदपणुं जेमनुं लक्षण छे एवां जे विशुद्धिस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २६. चारित्रमोहना
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विपाकक्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयमलब्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्य- परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि पर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्या- दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणोपशमकक्षपकानिवृत्तिबादरसाम्प- रायोपशमकक्षपकसूक्ष्मसाम्परायोपशमकक्षपकोपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगकेवलि- लक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् ।
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।३७।।
विपाकनी क्रमशः निवृत्ति जेमनुं लक्षण छे एवां जे संयमलब्धिस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २७. पर्याप्त तेम ज अपर्याप्त एवां बादर ने सूक्ष्म एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय अने संज्ञी तथा असंज्ञी पंचेंद्रिय जेमनां लक्षण छे एवां जे जीवस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २८. मिथ्याद्रष्टि, सासादन सम्यग्द्रष्टि, सम्यग्मिथ्याद्रष्टि, असंयतसम्यग्द्रष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण -उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादरसांपराय-उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसांपराय-उपशमक तथा क्षपक, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवळी अने अयोगकेवळी जेमनां लक्षण छे एवां जे गुणस्थानो ते बधांय जीवने नथी कारण के ते पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी (पोतानी) अनुभूतिथी भिन्न छे. २९. (आ प्रमाणे आ बधाय पुद्गलद्रव्यना परिणाममय भावो छे; ते बधा, जीवना नथी. जीव तो परमार्थे चैतन्यशक्तिमात्र छे.)
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [वर्ण-आद्याः] जे वर्णादिक [वा] अथवा [राग-मोह-आदयः वा] राग- मोहादिक [भावाः] भावो कह्या [सर्वे एव] ते बधाय [अस्य पुंसः] आ पुरुषथी (आत्माथी) [भिन्नाः] भिन्न छे [तेन एव] तेथी [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः] अंतर्द्रष्टि वडे जोनारने [अमी नो