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ननु वर्णादयो यद्यमी न सन्ति जीवस्य तदा तन्त्रान्तरे कथं सन्तीति प्रज्ञाप्यन्ते इति चेत् —
इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्ध-
बन्धपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कार्पासिकवासस इवौपाधिकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य
दृष्टाः स्युः] ए बधा देखाता नथी, [ एकं परं दृष्टं स्यात् ] मात्र एक सर्वोपरी
तत्त्व ज देखाय
छे — केवळ एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ज देखाय छे.
भावार्थः — परमार्थनय अभेद ज छे तेथी ते द्रष्टिथी जोतां भेद नथी देखातो; ते नयनी द्रष्टिमां पुरुष चैतन्यमात्र ज देखाय छे. माटे ते बधाय वर्णादिक तथा रागादिक भावो पुरुषथी भिन्न ज छे.
आ वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत जे भावो छे तेमनुं स्वरूप विशेषताथी जाणवुं होय तो गोम्मटसार आदि ग्रंथोमांथी जाणी लेवुं. ३७.
हवे शिष्य पूछे छे के जो आ वर्णादिक भावो जीवना नथी तो अन्य सिद्धांतग्रंथोमां ‘ते जीवना छे’ एम केम कह्युं छे? तेनो उत्तर गाथामां कहे छेः —
गाथार्थः — [एते] आ [वर्णाद्याः गुणस्थानान्ताः भावाः] वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यन्त भावो कहेवामां आव्या ते [व्यवहारेण तु] व्यवहारनयथी तो [जीवस्य भवन्ति] जीवना छे (माटे सूत्रमां कह्या छे), [तु] परंतु [निश्चयनयस्य] निश्चयनयना मतमां [केचित् न] तेमनामांना कोई पण जीवना नथी.
टीकाः — अहीं, व्यवहारनय पर्यायाश्रित होवाथी, सफेद रूनुं बनेलुं वस्त्र जे कसुंबा वडे रंगायेलुं छे एवा वस्त्रना औपाधिक भाव( – लाल रंग)नी जेम, पुद्गलना संयोगवशे अनादि
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विदधाति; निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति । ततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति, निश्चयेन तु न सन्तीति युक्ता प्रज्ञप्तिः ।
यथा खलु सलिलमिश्रितस्य क्षीरस्य सलिलेन सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे
सत्यपि स्वलक्षणभूतक्षीरत्वगुणव्याप्यतया सलिलादधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह
काळथी जेनो बंधपर्याय प्रसिद्ध छे एवा जीवना औपाधिक भाव(-वर्णादिक)ने अवलंबीने प्रवर्ततो थको, (ते व्यवहारनय) बीजाना भावने बीजानो कहे छे; अने निश्चयनय द्रव्यना आश्रये होवाथी, केवळ एक जीवना स्वाभाविक भावने अवलंबीने प्रवर्ततो थको, बीजाना भावने जरा पण बीजानो नथी कहेतो, निषेध करे छे. माटे वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत जे भावो छे ते व्यवहारथी जीवना छे अने निश्चयथी जीवना नथी एवुं (भगवाननुं स्याद्वादवाळुं) कथन योग्य छे.
हवे वळी पूछे छे के वर्णादिक निश्चयथी जीवना केम नथी तेनुं कारण कहो. ते प्रश्ननो उत्तर कहे छेः —
गाथार्थः — [एतैः च सम्बन्धः] आ वर्णादिक भावो साथे जीवनो संबंध [क्षीरोदकं यथा एव] जळने अने दूधने एकक्षेत्रावगाहरूप संयोगसंबंध छे तेवो [ज्ञातव्यः] जाणवो [च] अने [तानि] तेओ [तस्य तु न भवन्ति] ते जीवना नथी [यस्मात्] कारण के जीव [उपयोगगुणाधिकः] तेमनाथी उपयोगगुणे अधिक छे (-उपयोगगुण वडे जुदो जणाय छे).
टीकाः — जेम — जळमिश्रित दूधनो, जळ साथे परस्पर अवगाहस्वरूप संबंध होवा छतां, स्वलक्षणभूत जे दूधपणुं-गुण ते वडे व्याप्त होवाने लीधे दूध जळथी अधिकपणे प्रतीत
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तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात् न निश्चयेन सलिलमस्ति; तथा वर्णादिपुद्गलद्रव्यपरिणाममिश्रित- स्यास्यात्मनः पुद्गलद्रव्येण सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोग- गुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धा- भावात् न निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः सन्ति ।
थाय छे; तेथी, जेवो अग्निनो उष्णता साथे तादात्म्यस्वरूप संबंध छे तेवो जळ साथे दूधनो संबंध नहि होवाथी, निश्चयथी जळ दूधनुं नथी; तेवी रीते — वर्णादिक पुद्गलद्रव्यना परिणामो साथे मिश्रित आ आत्मानो, पुद्गलद्रव्य साथे परस्पर अवगाहस्वरूप संबंध होवा छतां, स्वलक्षणभूत उपयोगगुण वडे व्याप्त होवाने लीधे आत्मा सर्व द्रव्योथी अधिकपणे प्रतीत थाय छे; तेथी, जेवो अग्निनो उष्णता साथे तादात्म्यस्वरूप संबंध छे तेवो वर्णादिक साथे आत्मानो संबंध नहि होवाथी, निश्चयथी वर्णादिक पुद्गलपरिणामो आत्माना नथी.
हवे वळी पूछे छे के आ रीते तो व्यवहारनय अने निश्चयनयने विरोध आवे छे; अविरोध कई रीते कहेवामां आवे छे? तेनो उत्तर द्रष्टांत द्वारा त्रण गाथाओमां कहे छेः —
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यथा पथि प्रस्थितं कञ्चित्सार्थं मुष्यमाणमवलोक्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण मुष्यत एष पन्था इति व्यवहारिणां व्यपदेशेऽपि न निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपि पन्था मुष्यते, तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितकर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति । एवं गन्धरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म-
गाथार्थः — [पथि मुष्यमाणं] जेम मार्गमां चालनारने लूंटातो [दृष्टवा] देखीने ‘[एषः पन्था] आ मार्ग [मुष्यते] लूंटाय छे’ एम [व्यवहारिणः] व्यवहारी [लोकाः] लोको [भणन्ति] कहे छे; त्यां परमार्थथी विचारवामां आवे तो [कश्चित् पन्था] कोई मार्ग तो [न च मुष्यते] नथी लूंटातो, मार्गमां चालनार माणस ज लूंटाय छे; [तथा] तेवी रीते [जीवे] जीवमां [कर्मणां नोकर्मणां च] कर्मोनो अने नोकर्मोनो [वर्णम्] वर्ण [दृष्टवा] देखीने ‘[जीवस्य] जीवनो [एषः वर्णः] आ वर्ण छे’ एम [जिनैः] जिनदेवोए [व्यवहारतः] व्यवहारथी [उक्तः] कह्युं छे. [गन्धरसस्पर्शरूपाणि] ए प्रमाणे गंध, रस, स्पर्श, रूप, [देहः संस्थानादयः] देह, संस्थान आदि [ये च सर्वे] जे सर्व छे, [व्यवहारस्य] ते सर्व व्यवहारथी [निश्चयद्रष्टारः] निश्चयना देखनारा [व्यपदिशन्ति] कहे छे.
टीकाः — जेम व्यवहारी लोको, मार्गे नीकळेला कोई सार्थने (संघने) लूंटातो देखीने, सार्थनी मार्गमां स्थिति होवाथी तेनो उपचार करीने, ‘आ मार्ग लूंटाय छे’ एम कहे छे, तोपण निश्चयथी जोवामां आवे तो, जे आकाशना अमुक भागस्वरूप छे एवो मार्ग तो कोई लूंटातो नथी; तेवी रीते भगवान अर्हंतदेवो, जीवमां बंधपर्यायथी स्थिति पामेलां (रहेलां) कर्मनो अने नोकर्मनो वर्ण देखीने, कर्म-नोकर्मनी (बंधपर्यायथी) जीवमां स्थिति होवाथी तेनो उपचार करीने, ‘जीवनो आ वर्ण छे’ एम व्यवहारथी जणावे छे, तोपण निश्चयथी, सदाय जेनो अमूर्त स्वभाव छे अने जे उपयोगगुण वडे अन्यद्रव्योथी अधिक छे एवा
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वर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबन्धस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबन्धस्थान- संक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणेनाधिकस्य जीवस्य सर्वाण्यपि न सन्ति, तादात्म्य- लक्षणसम्बन्धाभावात्
जीवनो कोई पण वर्ण नथी. ए प्रमाणे गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान अने गुणस्थान — ए बधाय (भावो) व्यवहारथी अर्हंतदेवो जीवना कहे छे, तोपण निश्चयथी, सदाय जेनो अमूर्त स्वभाव छे अने जे उपयोगगुणवडे अन्यथी अधिक छे एवा जीवना ते सर्व नथी, कारण के ए वर्णादि भावोने अने जीवने तादात्म्यलक्षण संबंधनो अभाव छे.
भावार्थः — आ वर्णथी मांडीने गुणस्थान पर्यंत भावो सिद्धांतमां जीवना कह्या छे ते व्यवहारनयथी कह्या छे; निश्चयनयथी तेओ जीवना नथी कारण के जीव तो परमार्थे उपयोगस्वरूप छे.
अहीं एम जाणवुं के — पहेलां व्यवहारनयने असत्यार्थ कह्यो हतो त्यां एम न समजवुं के ते सर्वथा असत्यार्थ छे, कथंचित् असत्यार्थ जाणवो; कारण के ज्यारे एक द्रव्यने जुदुं, पर्यायोथी अभेदरूप, तेना असाधारण गुणमात्रने प्रधान करीने कहेवामां आवे त्यारे परस्पर द्रव्योनो निमित्तनैमित्तिकभाव तथा निमित्तथी थता पर्यायो — ते सर्व गौण थई जाय छे, एक अभेदद्रव्यनी द्रष्टिमां तेओ प्रतिभासता नथी. माटे ते सर्व ते द्रव्यमां नथी एम कथंचित् निषेध करवामां आवे छे. जो ते भावोने ते द्रव्यमां कहेवामां आवे तो ते व्यवहारनयथी कही शकाय छे. आवो नयविभाग छे.
अहीं शुद्धनयनी द्रष्टिथी कथन छे तेथी एम सिद्ध कर्युं छे के आ सर्व भावोने सिद्धान्तमां जीवना कह्या छे ते व्यवहारथी कह्या छे. जो निमित्तनैमित्तिकभावनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो ते व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ पण कही शकाय छे. जो सर्वथा असत्यार्थ ज कहेवामां आवे तो सर्व व्यवहारनो लोप थाय अने सर्व व्यवहारनो लोप थतां परमार्थनो पण लोप थाय. माटे जिनदेवनो उपदेश स्याद्वादरूप समज्ये ज सम्यग्ज्ञान छे, सर्वथा एकांत ते मिथ्यात्व छे.
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यत्किल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन व्याप्तं भवति तदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति, तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः स्यात् । ततः सर्वास्वप्यवस्थासु वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः स्यात्; संसारावस्थायां कथञ्चिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्ति- शून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्य भवतो वर्णाद्यात्म-
हवे पूछे छे के वर्णादिक साथे जीवनो तादात्म्यलक्षण संबंध केम नथी? तेनो उत्तर कहे छेः —
गाथार्थः — [वर्णादयः] वर्णादिक छे ते [संसारस्थानां] संसारमां स्थित [जीवानां] जीवोने [तत्र भवे] ते संसारमां [भवन्ति] होय छे अने [संसारप्रमुक्तानां] संसारथी मुक्त थयेला जीवोने [खलु] निश्चयथी [ वर्णादयः केचित् ] वर्णादिक कोई पण (भावो) [न सन्ति] नथी; (माटे तादात्म्यसंबंध नथी).
टीकाः — जे निश्चयथी बधीये अवस्थाओमां यद्-आत्मकपणाथी अर्थात् जे-स्वरूप- पणाथी व्याप्त होय अने तद्-आत्मकपणानी अर्थात् ते-स्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित न होय, तेनो तेमनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध होय छे. (जे वस्तु सर्व अवस्थाओमां जे भावोस्वरूप होय अने कोई अवस्थामां ते भावोस्वरूपपणुं छोडे नहि, ते वस्तुनो ते भावोनी साथे तादात्म्यसंबंध होय छे.) माटे बधीये अवस्थाओमां जे वर्णादिस्वरूपपणाथी व्याप्त होय छे अने वर्णादिस्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित होतुं नथी एवा पुद्गलनो वर्णादिभावोनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध छे; अने जोके संसार-अवस्थामां कथंचित् वर्णादिस्वरूपपणाथी व्याप्त
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क त्वव्याप्तस्याभवतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो न कथञ्चनापि स्यात् ।
यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिः होय छे अने वर्णादिस्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित होतो नथी तोपण मोक्ष-अवस्थामां जे सर्वथा वर्णादिस्वरूपपणानी व्याप्तिथी रहित होय छे अने वर्णादिस्वरूपपणाथी व्याप्त होतो नथी एवा जीवनो वर्णादिभावोनी साथे तादात्म्यलक्षण संबंध कोई पण प्रकारे नथी.
भावार्थः — द्रव्यनी सर्व अवस्थाओने विषे द्रव्यमां जे भावो व्यापे ते भावो साथे द्रव्यनो तादात्म्यसंबंध कहेवाय छे. पुद्गलनी सर्व अवस्थाओने विषे पुद्गलमां वर्णादिभावो व्यापे छे तेथी वर्णादिभावो साथे पुद्गलनो तादात्म्यसंबंध छे. संसार-अवस्थाने विषे जीवमां वर्णादिभावो कोई प्रकारे कही शकाय छे पण मोक्ष-अवस्थाने विषे जीवमां वर्णादिभावो सर्वथा नथी तेथी वर्णादिभावो साथे जीवनो तादात्म्यसंबंध नथी ए न्याय छे.
हवे, जीवनुं वर्णादिक साथे तादात्म्य छे एवो मिथ्या अभिप्राय कोई करे तो तेमां आ दोष आवे छे एम गाथामां बतावे छेः —
गाथार्थः — वर्णादिकनी साथे जीवनुं तादात्म्य माननारने कहे छे केः हे मिथ्या अभिप्रायवाळा! [यदि हि च] जो तुं [इति मन्यसे] एम माने के [एते सर्वे भावाः] आ वर्णादिक सर्व भावो [जीवः एव हि] जीव ज छे, [तु] तो [ते] तारा मतमां [जीवस्य च अजीवस्य] जीव अने अजीवनो [ कश्चित् ] कांई [विशेषः] भेद [नास्ति] रहेतो नथी.
टीकाः — जेम वर्णादिक भावो, क्रमे आविर्भाव (प्रगट थवुं, ऊपजवुं) अने तिरोभाव (ढंकावुं, नाश थवुं) पामती एवी ते ते व्यक्तिओ वडे (अर्थात् पर्यायो वडे) पुद्गलद्रव्यनी
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पुद्गलद्रव्यमनुगच्छन्तः पुद्गलस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्ति, तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छन्तो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्तीति यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गललक्षणस्य जीवेन स्वीकरणा- ज्जीवपुद्गलयोरविशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।
साथे साथे रहेता थका, पुद्गलनुं वर्णादि साथे तादात्म्य जाहेर करे छे — विस्तारे छे, तेवी रीते वर्णादिक भावो, क्रमे आविर्भाव अने तिरोभाव पामती एवी ते ते व्यक्तिओ वडे जीवनी साथे साथे रहेता थका, जीवनुं वर्णादि साथे तादात्म्य जाहेर करे छे, विस्तारे छे — एम जेनो अभिप्राय छे तेना मतमां, अन्य बाकीनां द्रव्योथी असाधारण एवुं वर्णादिस्वरूपपणुं — के जे पुद्गलद्रव्यनुं लक्षण छे — तेनो जीव वडे अंगीकार करवामां आवतो होवाथी, जीव-पुद्गलना अविशेषनो प्रसंग आवे छे, अने एम थतां, पुद्गलोथी भिन्न एवुं कोई जीवद्रव्य नहि रहेवाथी, जीवनो जरूर अभाव थाय छे.
भावार्थः — जेम वर्णादिक भावो पुद्गलद्रव्य साथे तादात्म्यस्वरूपे छे तेम जीव साथे पण तादात्म्यस्वरूपे होय तो जीव-पुद्गलमां कांई पण भेद न रहे अने तेथी जीवनो ज अभाव थाय ए मोटो दोष आवे.
हवे, ‘मात्र संसार-अवस्थामां ज जीवने वर्णादिक साथे तादात्म्य छे’ एवा अभिप्रायमां पण आ ज दोष आवे छे एम कहे छेः —
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यस्य तु संसारावस्थायां जीवस्य वर्णादितादात्म्यमस्तीत्यभिनिवेशस्तस्य तदानीं स जीवो रूपित्वमवश्यमवाप्नोति । रूपित्वं च शेषद्रव्यासाधारणं कस्यचिद्द्रव्यस्य लक्षणमस्ति । ततो रूपित्वेन लक्ष्यमाणं यत्किञ्चिद्भवति स जीवो भवति । रूपित्वेन लक्ष्यमाणं पुद्गलद्रव्यमेव भवति । एवं पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि । तथा च सति, मोक्षावस्थायामपि नित्यस्वलक्षणलक्षितस्य द्रव्यस्य सर्वास्वप्यवस्थास्वनपायित्वादनादिनिधनत्वेन पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि । तथा च सति, तस्यापि पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य
गाथार्थः — [अथ] अथवा जो [तव] तारो मत एम होय के [ संसारस्थानां जीवानां ] संसारमां स्थित जीवोने ज [वर्णादयः] वर्णादिक (तादात्म्यस्वरूपे) [भवन्ति] छे, [ तस्मात् ] तो ते कारणे [संसारस्थाः जीवाः] संसारमां स्थित जीवो [रूपित्वम् आपन्नाः] रूपीपणाने पाम्या; [एवं] एम थतां, [तथालक्षणेन] तेवुं लक्षण तो (अर्थात् रूपीपणुं लक्षण तो) पुद्गलद्रव्यनुं होवाथी, [मूढमते] हे मूढबुद्धि! [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्य ते ज [जीवः] जीव ठर्युं [च] अने (मात्र संसार- अवस्थामां ज नहि पण) [निर्वाणम् उपगतः अपि] निर्वाण पाम्ये पण [पुद्गलः] पुद्गल ज [जीवत्वं] जीवपणाने [प्राप्तः] पाम्युं!
टीकाः — वळी, संसार-अवस्थामां जीवने वर्णादिभावो साथे तादात्म्यसंबंध छे एवो जेनो अभिप्राय छे, तेना मतमां संसार-अवस्था वखते ते जीव अवश्य रूपीपणाने पामे छे; अने रूपीपणुं तो कोई द्रव्यनुं, बाकीनां द्रव्योथी असाधारण एवुं लक्षण छे. माटे रूपीपणा(लक्षण)थी लक्षित (लक्ष्यरूप थतुं, ओळखातुं) जे कांई होय ते जीव छे. रूपीपणाथी लक्षित तो पुद्गलद्रव्य ज छे. ए रीते पुद्गलद्रव्य ज पोते जीव छे, पण ते सिवाय बीजो कोई जीव नथी. आम थतां, मोक्ष-अवस्थामां पण पुद्गलद्रव्य ज पोते जीव (ठरे) छे, पण ते सिवाय बीजो कोई जीव (ठरतो) नथी; कारण के सदाय पोताना स्वलक्षणथी लक्षित एवुं द्रव्य बधीये अवस्थाओमां हानि अथवा घसारो नहि पामतुं होवाथी अनादि- अनंत होय छे. आम थवाथी, तेना मतमां पण (अर्थात् संसार-अवस्थामां ज जीवनुं वर्णादि साथे तादात्म्य माननारना मतमां पण); पुद्गलोथी भिन्न एवुं कोई जीवद्रव्य नहि
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जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।
रहेवाथी, जीवनो जरूर अभाव थाय छे.
भावार्थः — जो एम मानवामां आवे के संसार-अवस्थामां जीवनो वर्णादिक साथे तादात्म्यसंबंध छे तो जीव मूर्तिक थयो; अने मूर्तिकपणुं तो पुद्गलद्रव्यनुं लक्षण छे; माटे पुद्गलद्रव्य ते ज जीवद्रव्य ठर्युं, ते सिवाय कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य न रह्युं. वळी मोक्ष थतां पण ते पुद्गलोनो ज मोक्ष थयो; तेथी मोक्षमां पण पुद्गलो ज जीव ठर्यां, अन्य कोई चैतन्यरूप जीव न रह्यो. आ रीते संसार तेम ज मोक्षमां पुद्गलथी भिन्न एवुं कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य नहि रहेवाथी जीवनो ज अभाव थयो. माटे मात्र संसार-अवस्थामां ज वर्णादिभावो जीवना छे एम मानवाथी पण जीवनो अभाव ज थाय छे.
आ रीते ए सिद्ध थयुं के वर्णादिक भावो जीव नथी, एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [एकं वा] एकेंद्रिय, [द्वे] द्वींद्रिय, [त्रीणि च] त्रींद्रिय, [चत्वारि च]
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निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव, न त्वन्यत्, तथा जीवस्थानानि बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिय- पर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुद्गल एव, न तु जीवः । नामकर्मप्रकृतीनां पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्धं दृश्यमानशरीरादिमूर्तकार्यानुमेयं च । एवं गन्धरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननान्यपि पुद्गलमयनामकर्मप्रकृतिनिर्वृत्तत्वे सति तदव्यतिरेका- ज्जीवस्थानैरेवोक्तानि । ततो न वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धान्तः ।
तदेव तत्स्यान्न कथञ्चनान्यत् ।
चतुरिंद्रिय, [पञ्चेन्द्रियाणि] पंचेंद्रिय, [बादरपर्याप्तेतराः] बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त अने अपर्याप्त [जीवाः] जीव — ए [नामकर्मणः] नामकर्मनी [प्रकृतयः] प्रकृतिओ छे; [एताभिः च] आ [प्रकृतिभिः] प्रकृतिओ [पुद्गलमयीभिः ताभिः] के जेओ पुद्गलमय तरीके प्रसिद्ध छे तेमना वडे [करणभूताभिः] करणस्वरूप थईने [निर्वृत्तानि] रचायेलां [जीवस्थानानि] जे जीवस्थानो (जीवसमास) छे तेओ [जीवः] जीव [कथं] केम [भण्यते] कहेवाय?
टीकाः — निश्चयनये कर्म अने करणनुं अभिन्नपणुं होवाथी, जे जेना वडे कराय छे (-थाय छे) ते ते ज छे — एम समजीने (निश्चय करीने), जेम सुवर्णनुं पानुं सुवर्ण वडे करातुं ( – थतुं) होवाथी सुवर्ण ज छे, बीजुं कांई नथी, तेम जीवस्थानो बादर, सूक्ष्म, एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय, पर्याप्त अने अपर्याप्त नामनी पुद्गलमयी नामकर्मनी प्रकृतिओ वडे करातां ( – थतां) होवाथी पुद्गल ज छे, जीव नथी. अने नामकर्मनी प्रकृतिओनुं पुद्गलमयपणुं तो आगमथी प्रसिद्ध छे तथा अनुमानथी पण जाणी शकाय छे कारण के प्रत्यक्ष देखवामां आवता शरीर आदि जे मूर्तिक भावो छे ते कर्मप्रकृतिओनां कार्य होवाथी कर्मप्रकृतिओ पुद्गलमय छे एम अनुमान थई शके छे.
एवी रीते गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान अने संहनन — तेओ पण पुद्गलमय नामकर्मनी प्रकृतिओ वडे रचायां (-बन्यां) होवाथी पुद्गलथी अभिन्न छे; तेथी, मात्र जीवस्थानोने पुद्गलमय कहेतां, आ बधां पण पुद्गलमय कह्यां समजवां.
माटे वर्णादिक जीव नथी एम निश्चयनयनो सिद्धांत छे. अहीं आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [येन] जे वस्तुथी [अत्र यद् किञ्चित् निर्वर्त्यते] जे भाव बने, [ तत् ] ते भाव [तद् एव स्यात्] ते वस्तु ज छे [कथञ्चन] कोई रीते [अन्यत् न] अन्य वस्तु नथी;
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पश्यन्ति रुक्मं न कथञ्चनासिम् ।।३८।।
निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य ।
यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः ।।३९।।
[इह] जेम जगतमां [रुक्मेण निर्वृत्तम् असिकोशं] सोनाथी बनेला म्यानने [रुक्मं पश्यन्ति] लोको सोनुं ज देखे छे, [कथञ्चन] कोई रीते [न असिम्] (तेने) तरवार देखता नथी.
भावार्थः — वर्णादिक पुद्गलथी बने छे तेथी पुद्गल ज छे, जीव नथी. ३८.
वळी बीजो कळश कहे छेः —
श्लोकार्थः — अहो ज्ञानी जनो! [इदं वर्णादिसामग्रयम्] आ वर्णादिक गुणस्थानपर्यंत भावो छे ते बधाय [एकस्य पुद्गलस्य हि निर्माणम्] एक पुद्गलनी रचना [विदन्तु] जाणो; [ततः] माटे [इदं] आ भावो [पुद्गलः एव अस्तु] पुद्गल ज हो, [न आत्मा] आत्मा न हो; [यतः] कारण के [सः विज्ञानघनः] आत्मा तो विज्ञानघन छे, ज्ञाननो पुंज छे, [ततः] तेथी [अन्यः] आ वर्णादिक भावोथी अन्य ज छे. ३९.
हवे, आ ज्ञानघन आत्मा सिवाय जे कांई छे तेने जीव कहेवुं ते सर्व व्यवहारमात्र छे एम कहे छेः —
गाथार्थः — [ये] जे [पर्याप्तापर्याप्ताः] पर्याप्त, अपर्याप्त, [सूक्ष्माः बादराः च] सूक्ष्म अने
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यत्किल बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे जीवसंज्ञात्वेनोक्ताः अप्रयोजनार्थः परप्रसिद्धया घृतघटवद्वयवहारः । यथा हि कस्यचिदाजन्म- प्रसिद्धैकघृतकुम्भस्य तदितरकुम्भानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं घृतकुम्भः स मृण्मयो, न घृतमय इति तत्प्रसिद्धया कुम्भे घृतकुम्भव्यवहारः, तथास्याज्ञानिनो लोकस्यासंसारप्रसिद्धाशुद्धजीवस्य शुद्धजीवानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं वर्णादिमान् जीवः स ज्ञानमयो, न वर्णादिमय इति तत्प्रसिद्धया जीवे वर्णादिमद्वयवहारः ।
बादर आदि [ये च एव] जेटली [देहस्य] देहने [जीवसंज्ञाः] जीवसंज्ञा कही छे ते बधी [सूत्रे] सूत्रमां [व्यवहारतः] व्यवहारथी [उक्ताः] कही छे.
टीकाः — बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त — ए देहनी संज्ञाओने (नामोने) सूत्रमां जीवसंज्ञापणे कही छे, ते, परनी प्रसिद्धिने लीधे, ‘घीना घडा’नी जेम व्यवहार छे — के जे व्यवहार अप्रयोजनार्थ छे (अर्थात् तेमां प्रयोजनभूत वस्तु नथी). ते वातने स्पष्ट कहे छेः —
जेम कोई पुरुषने जन्मथी मांडीने मात्र ‘घीनो घडो’ ज प्रसिद्ध (जाणीतो) होय, ते सिवायना बीजा घडाने ते जाणतो न होय, तेने समजाववा ‘‘जे आ ‘घीनो घडो’ छे ते माटीमय छे, घीमय नथी’’ एम (समजावनार वडे) घडामां ‘घीना घडा’नो व्यवहार करवामां आवे छे, कारण के पेला पुरुषने ‘घीनो घडो’ ज प्रसिद्ध (जाणीतो) छे; तेवी रीते आ अज्ञानी लोकने अनादि संसारथी मांडीने ‘अशुद्ध जीव’ ज प्रसिद्ध छे, शुद्ध जीवने ते जाणतो नथी, तेने समजाववा ( – शुद्ध जीवनुं ज्ञान कराववा) ‘‘जे आ ‘वर्णादिमान (वर्णादिवाळो) जीव’ छे ते ज्ञानमय छे, वर्णादिमय नथी’’ एम (सूत्र विषे) जीवमां वर्णादिमानपणानो व्यवहार करवामां आव्यो छे, कारण के ते अज्ञानी लोकने ‘वर्णादिमान जीव’ ज प्रसिद्ध छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [चेत्] जो [घृतकुम्भाभिधाने अपि] ‘घीनो घडो’ एम कहेतां पण [कुम्भः घृतमयः न] घडो छे ते घीमय नथी ( – माटीमय ज छे), [वर्णादिमत्-जीव-जल्पने अपि] तो तेवी रीते ‘वर्णादिवाळो जीव’ एम कहेतां पण [जीवः न तन्मयः] जीव छे ते वर्णादिमय नथी ( – ज्ञानघन ज छे).
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मिथ्यादृष्टयादीनि गुणस्थानानि हि पौद्गलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात्, कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा, यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन, पुद्गल एव, न तु जीवः । गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनो-
भावार्थः — घीथी भरेला घडाने व्यवहारथी ‘घीनो घडो’ कहेवामां आवे छे छतां निश्चयथी घडो घी-स्वरूप नथी; घी घी-स्वरूप छे, घडो माटी-स्वरूप छे; तेवी रीते वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियो इत्यादि साथे एकक्षेत्रावगाहरूप संबंधवाळा जीवने सूत्रमां व्यवहारथी ‘पंचेन्द्रिय जीव, पर्याप्त जीव, बादर जीव, देव जीव, मनुष्य जीव’ इत्यादि कहेवामां आव्यो छे छतां निश्चयथी जीव ते-स्वरूप नथी; वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियो इत्यादि पुद्गलस्वरूप छे, जीव ज्ञानस्वरूप छे. ४०.
हवे कहे छे के (जेम वर्णादि भावो जीव नथी ए सिद्ध थयुं तेम) ए पण सिद्ध थयुं के रागादि भावो पण जीव नथीः —
गाथार्थः — [यानि इमानि] जे आ [गुणस्थानानि] गुणस्थानो छे ते [मोहनकर्मणः उदयात् तु] मोहकर्मना उदयथी थाय छे [वर्णितानि] एम (सर्वज्ञनां आगममां) वर्णववामां आव्युं छे; [तानि] तेओ [जीवाः] जीव [कथं] केम [भवन्ति] होई शके [यानि] के जेओ [नित्यं] सदा [अचेतनानि] अचेतन [उक्तानि] कहेवामां आव्यां छे?
टीकाः — आ मिथ्याद्रष्टि आदि गुणस्थानो पौद्गलिक मोहकर्मनी प्रकृतिना उदयपूर्वक थतां होईने, सदाय अचेतन होवाथी, कारणना जेवां ज कार्यो होय छे एम करीने (समजीने, निश्चय करीने), जवपूर्वक जे जव थाय छे ते जव ज होय छे ए न्याये, पुद्गल ज छे — जीव नथी. अने गुणस्थानोनुं सदाय अचेतनपणुं तो आगमथी सिद्ध थाय छे तेम ज चैतन्यस्वभावथी व्याप्त जे आत्मा तेनाथी भिन्नपणे ते गुणस्थानो भेदज्ञानीओ वडे स्वयं
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ऽतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यम् ।
एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबन्ध- स्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबन्धस्थानसंक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गल- कर्मपूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात्, पुद्गल एव, न तु जीव इति स्वयमायातम् । ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्धम् ।
उपलभ्यमान होवाथी पण तेमनुं सदाय अचेतनपणुं सिद्ध थाय छे.
एवी रीते राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेश- स्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान — तेओ पण पुद्गलकर्मपूर्वक थतां होईने, सदाय अचेतन होवाथी, पुद्गल ज छे — जीव नथी एम आपोआप आव्युं ( – फलित थयुं, सिद्ध थयुं).
माटे रागादि भावो जीव नथी एम सिद्ध थयुं.
भावार्थः — शुद्धद्रव्यार्थिक नयनी द्रष्टिमां चैतन्य अभेद छे अने एना परिणाम पण स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन छे. परनिमित्तथी थता चैतन्यना विकारो, जोके चैतन्य जेवा देखाय छे तोपण, चैतन्यनी सर्व अवस्थाओमां व्यापक नहि होवाथी चैतन्यशून्य छे — जड छे. वळी आगममां पण तेमने अचेतन कह्या छे. भेदज्ञानीओ पण तेमने चैतन्यथी भिन्नपणे अनुभवे छे तेथी पण तेओ अचेतन छे, चेतन नथी.
प्रश्नः — जो तेओ चेतन नथी तो तेओ कोण छे? पुद्गल छे? के अन्य कांई छे? उत्तरः — पुद्गलकर्मपूर्वक थतां होवाथी तेओ निश्चयथी पुद्गल ज छे केम के कारण जेवुं ज कार्य थाय छे.
आ रीते एम सिद्ध कर्युं के पुद्गलकर्मना उदयना निमित्तथी थता चैतन्यना विकारो पण जीव नथी, पुद्गल छे.
हवे पूछे छे के वर्णादिक अने रागादिक जीव नथी तो जीव कोण छे? तेना उत्तररूप श्लोक कहे छेः —
श्लोकार्थः — [अनादि] जे अनादि छे अर्थात् कोई काळे उत्पन्न थयुं नथी, [अनन्तम्] जे
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नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः ।
व्यक्तं व्यञ्जितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम् ।।४२।।
अनंत छे अर्थात् कोई काळे जेनो विनाश नथी, [अचलं] जे अचळ छे अर्थात् जे कदी चैतन्यपणाथी अन्यरूप – चळाचळ – थतुं नथी, [स्वसंवेद्यम्] जे स्वसंवेद्य छे अर्थात् जे पोते पोताथी ज जणाय छे [तु] अने [स्फु टम्] जे प्रगट छे अर्थात् छूपुं नथी — एवुं जे [इदं चैतन्यम्] आ चैतन्य [उच्चैः] अत्यंतपणे [चकचकायते] चकचकाट प्रकाशी रह्युं छे, [स्वयं जीवः] ते पोते ज जीव छे.
भावार्थः — वर्णादि अने रागादि भावो जीव नथी पण उपर कह्यो तेवो चैतन्यभाव ते ज जीव छे. ४१.
हवे, चेतनपणुं ज जीवनुं योग्य लक्षण छे एम काव्य द्वारा समजावे छेः —
श्लोकार्थः — [यतः अजीवः अस्ति द्वेधा] अजीव बे प्रकारे छे — [वर्णाद्यैः सहितः] वर्णादिसहित [तथा विरहितः] अने वर्णादिरहित; [ततः] माटे [अमूर्तत्वम् उपास्य] अमूर्तपणानो आश्रय करीने पण (अर्थात् अमूर्तपणाने जीवनुं लक्षण मानीने पण) [जीवस्य तत्त्वं] जीवना यथार्थ स्वरूपने [जगत् न पश्यति] जगत देखी शकतुं नथी; — [इति आलोच्य] आम परीक्षा करीने [विवेचकैः] भेदज्ञानी पुरुषोए [न अव्यापि अतिव्यापि वा] अव्याप्ति अने अतिव्याप्ति दूषणोथी रहित [चैतन्यम्] चेतनपणाने जीवनुं लक्षण कह्युं छे [समुचितं] ते योग्य छे. [व्यक्तं] ते चैतन्यलक्षण प्रगट छे, [व्यञ्जित-जीव-तत्त्वम्] तेणे जीवना यथार्थ स्वरूपने प्रगट कर्युं छे अने [अचलं] ते अचळ छे — चळाचळता रहित, सदा मोजूद छे. [आलम्ब्यताम्] जगत तेनुं ज अवलंबन करो! (तेनाथी यथार्थ जीवनुं ग्रहण थाय छे.)
भावार्थः — निश्चयथी वर्णादिभावो — वर्णादिभावोमां रागादिभावो आवी गया — जीवमां कदी व्यापता नथी तेथी तेओ निश्चयथी जीवनां लक्षण छे ज नहि; व्यवहारथी तेमने जीवनां लक्षण मानतां पण अव्याप्ति नामनो दोष आवे छे कारण के सिद्ध जीवोमां ते भावो व्यवहारथी पण व्यापता नथी. माटे वर्णादिभावोनो आश्रय करवाथी जीवनुं यथार्थ स्वरूप ओळखातुं ज नथी.
अमूर्तपणुं जोके सर्व जीवोमां व्यापे छे तोपण तेने जीवनुं लक्षण मानतां अतिव्याप्ति नामनो दोष आवे छे, कारण के पांच अजीव द्रव्योमांना एक पुद्गलद्रव्य सिवाय धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ — ए चार द्रव्यो अमूर्त होवाथी, अमूर्तपणुं जीवमां व्यापे छे तेम ज चार
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ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम् ।
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ।।४३।।
वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः ।
चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।४४।।
अजीव द्रव्योमां पण व्यापे छे; ए रीते अतिव्याप्ति दोष आवे छे. माटे अमूर्तपणानो आश्रय करवाथी पण जीवनुं यथार्थ स्वरूप ग्रहण थतुं नथी.
चैतन्यलक्षण सर्व जीवोमां व्यापतुं होवाथी अव्याप्तिदोषथी रहित छे, अने जीव सिवाय कोई द्रव्यमां नहि व्यापतुं होवाथी अतिव्याप्तिदोषथी रहित छे; वळी ते प्रगट छे; तेथी तेनो ज आश्रय करवाथी जीवना यथार्थ स्वरूपनुं ग्रहण थई शके छे. ४२.
हवे, ‘जो आवा लक्षण वडे जीव प्रगट छे तोपण अज्ञानी लोकोने तेनुं अज्ञान केम रहे छे?’ — एम आचार्य आश्चर्य तथा खेद बतावे छेः —
श्लोकार्थः — [इति लक्षणतः] आम पूर्वोक्त जुदां लक्षणने लीधे [जीवात् अजीवम् विभिन्नं] जीवथी अजीव भिन्न छे [स्वयम् उल्लसन्तम्] तेने (अजीवने) तेनी मेळे ज ( – स्वतंत्रपणे, जीवथी भिन्नपणे) विलसतुं — परिणमतुं [ज्ञानी जनः] ज्ञानी पुरुष [अनुभवति] अनुभवे छे, [तत्] तोपण [अज्ञानिनः] अज्ञानीने [निरवधि-प्रविजृम्भितः अयं मोहः तु] अमर्यादपणे फेलायेलो आ मोह (अर्थात् स्वपरना एकपणानी भ्रान्ति) [कथम् नानटीति] केम नाचे छे — [अहो बत] ए अमने महा आश्चर्य अने खेद छे! ४३.
वळी फरी मोहनो प्रतिषेध करे छे अने कहे छे के ‘जो मोह नाचे छे तो नाचो! तोपण आम ज छे’ः —
श्लोकार्थः — [अस्मिन् अनादिनि महति अविवेक-नाटये] आ अनादि काळना मोटा
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जीवाजीवौ स्फु टविघटनं नैव यावत्प्रयातः ।
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ।।४५।।
अविवेकना नाटकमां अथवा नाचमां [वर्णादिमान् पुद्गलः एव नटति] वर्णादिमान पुद्गल ज नाचे छे, [न अन्यः] अन्य कोई नहि; (अभेद ज्ञानमां पुद्गल ज अनेक प्रकारनुं देखाय छे, जीव तो अनेक प्रकारनो छे नहि;) [च] अने [अयं जीवः] आ जीव तो [रागादि-पुद्गल-विकार-विरुद्ध- शुद्ध-चैतन्यधातुमय-मूर्तिः] रागादिक पुद्गलविकारोथी विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति छे.
भावार्थः — रागादि चिद्दविकारने ( – चैतन्यविकारोने) देखी एवो भ्रम न करवो के ए पण चैतन्य ज छे, कारण के चैतन्यनी सर्व अवस्थाओमां व्यापे तो चैतन्यना कहेवाय. रागादि विकारो तो सर्व अवस्थाओमां व्यापता नथी — मोक्ष-अवस्थामां तेमनो अभाव छे. वळी तेमनो अनुभव पण आकुळतामय दुःखरूप छे. माटे तेओ चेतन नथी, जड छे. चैतन्यनो अनुभव निराकुळ छे, ते ज जीवनो स्वभाव छे एम जाणवुं. ४४.
हवे, भेदज्ञाननी प्रवृत्ति द्वारा आ ज्ञाताद्रव्य पोते प्रगट थाय छे एम कळशमां महिमा करी अधिकार पूर्ण करे छेः —
श्लोकार्थः — [इत्थं] आ प्रमाणे [ज्ञान-क्रकच-कलना-पाटनं] ज्ञानरूपी करवतनो जे वारंवार अभ्यास तेने [नाटयित्वा] नचावीने [यावत्] ज्यां [जीवाजीवौ] जीव अने अजीव बन्ने [स्फु ट-विघटनं न एव प्रयातः] प्रगटपणे जुदा न थया, [ तावत् ] त्यां तो [ज्ञातृद्रव्य] ज्ञाताद्रव्य, [प्रसभ-विकसत्-व्यक्त-चिन्मात्रशक्त्या] अत्यंत विकासरूप थती पोतानी प्रगट चिन्मात्रशक्ति वडे [विश्वं व्याप्य] विश्वने व्यापीने, [स्वयम्] पोतानी मेळे ज [ अतिरसात् ] अति वेगथी [उच्चैः] उग्रपणे अर्थात् अत्यंतपणे [चकाशे] प्रकाशी नीकळ्युं.
भावार्थः — आ कळशनो आशय बे रीते छेः —
उपर कहेला ज्ञाननो अभ्यास करतां करतां ज्यां जीव अने अजीव बन्ने स्पष्ट भिन्न समजाया के तुरत ज आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थयो — सम्यग्दर्शन थयुं. (सम्यग्द्रष्टि आत्मा श्रुतज्ञान वडे विश्वना समस्त भावोने संक्षेपथी अथवा विस्तारथी जाणे छे अने निश्चयथी विश्वने प्रत्यक्ष जाणवानो तेनो स्वभाव छे; माटे ते विश्वने जाणे छे एम कह्युं.) एक आशय तो ए प्रमाणे छे.
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इति जीवाजीवौ पृथग्भूत्वा निष्क्रान्तौ ।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ जीवाजीवप्ररूपकः प्रथमोऽङ्कः ।।
बीजो आशय आ प्रमाणे छेः जीव-अजीवनो अनादि जे संयोग ते केवळ जुदो पड्या पहेलां अर्थात् जीवनो मोक्ष थया पहेलां, भेदज्ञान भावतां भावतां अमुक दशा थतां निर्विकल्प धारा जामी — जेमां केवळ आत्मानो अनुभव रह्यो; अने ते श्रेणि अत्यंत वेगथी आगळ वधतां वधतां केवळज्ञान प्रगट थयुं. पछी अघातीकर्मनो नाश थतां जीवद्रव्य अजीवथी केवळ भिन्न थयुं. जीव-अजीवना भिन्न थवानी आ रीत छे. ४५.
टीकाः — आ प्रमाणे जीव अने अजीव जुदा जुदा थईने (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गया.
भावार्थः — समयसारनी आ ‘आत्मख्याति’ टीकाना प्रारंभमां पहेलां रंगभूमिस्थळ कहीने त्यार पछी टीकाकार आचार्ये एम कह्युं हतुं के नृत्यना अखाडामां जीव-अजीव बन्ने एक थईने प्रवेश करे छे अने बन्नेए एकपणानो स्वांग रच्यो छे. त्यां, भेदज्ञानी सम्यग्द्रष्टि पुरुषे सम्यग्ज्ञान वडे ते जीव-अजीव बन्नेनी तेमना लक्षणभेदथी परीक्षा करीने बन्नेने जुदा जाण्या तेथी स्वांग पूरो थयो अने बन्ने जुदा जुदा थईने अखाडानी बहार नीकळी गया. आम अलंकार करीने वर्णन कर्युं.
सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावैं;
श्री गुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावैं,
ते जगमांहि महंत कहाय वसैं शिव जाय सुखी नित थावैं.
आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां जीव-अजीवनो प्ररूपक पहेलो अंक समाप्त थयो.
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इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् ।
साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम् ।।४६।।
कर्म नाशी शिवमां वसे, नमुं तेह, मद खोय.
प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे जीव-अजीव ज एक कर्ताकर्मना वेशे प्रवेश करे छे’. जेम बे पुरुषो मांहोमांहे कोई एक स्वांग करी नृत्यना अखाडामां प्रवेश करे तेम जीव-अजीव बन्ने एक कर्ताकर्मनो स्वांग करी प्रवेश करे छे एम अहीं टीकाकारे अलंकार कर्यो छे.
हवे प्रथम, ते स्वांगने ज्ञान यथार्थ जाणी ले छे ते ज्ञानना महिमानुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — ‘[ इह ] आ लोकमां [ अहम् चिद् ] हुं चैतन्यस्वरूप आत्मा तो [ एकः कर्ता ] एक कर्ता छुं अने [ अमी कोपादयः ] आ क्रोधादि भावो [ मे कर्म ] मारां कर्म छे’ [ इति अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् ] एवी अज्ञानीओने जे कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे तेने [ अभितः शमयत् ] बधी तरफथी शमावती (-मटाडती) [ ज्ञानज्योतिः ] ज्ञानज्योति [ स्फु रति ] स्फुरायमान थाय छे. केवी छे ते ज्ञानज्योति? [ परम-उदात्तम् ] जे परम उदात्त छे अर्थात् कोईने आधीन नथी, [ अत्यन्तधीरं ] जे अत्यंत धीर छे अर्थात् कोई प्रकारे आकुळतारूप नथी अने [ निरुपधि-पृथग्द्रव्य- निर्भासि ] परनी सहाय विना जुदां जुदां द्रव्योने प्रकाशवानो जेनो स्वभाव होवाथी [ विश्वम् साक्षात् कुर्वत् ] जे समस्त लोकालोकने साक्षात् करे छे — प्रत्यक्ष जाणे छे.