भावभावपरमार्थतयैकम् ।
चेतये समयसारमपारम् ।।९२।।
त्यारे नयपक्षना स्वरूपनो ज्ञाता ज छे. एक नयनो सर्वथा पक्ष ग्रहण करे तो मिथ्यात्व साथे मळेलो राग थाय; प्रयोजनना वशे एक नयने प्रधान करी तेनुं ग्रहण करे तो मिथ्यात्व सिवाय मात्र चारित्रमोहनो राग रहे; अने ज्यारे नयपक्षने छोडी वस्तुस्वरूपने केवळ जाणे ज त्यारे ते वखते श्रुतज्ञानी पण केवळीनी माफक वीतराग जेवो ज होय छे एम जाणवुं.
श्लोकार्थः — [ चित्स्वभाव-भर-भावित-भाव-अभाव-भाव-परमार्थतया एकम् ] चित्स्वभावना पुंज वडे ज पोतानां उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य भवाय छे ( – कराय छे) — एवुं जेनुं परमार्थ स्वरूप होवाथी जे एक छे एवा [ अपारम् समयसारम् ] अपार समयसारने हुं, [ समस्तां बन्धपद्धतिम् ] समस्त बंधपद्धतिने [ अपास्य ] दूर करीने अर्थात् कर्मना उदयथी थता सर्व भावोने छोडीने, [ चेतये ] अनुभवुं छुं.
भावार्थः — निर्विकल्प अनुभव थतां, जेना केवळज्ञानादि गुणोनो पार नथी एवा समयसाररूपी परमात्मानो अनुभव ज वर्ते छे, ‘हुं अनुभवुं छुं’ एवो पण विकल्प होतो नथी — एम जाणवुं. ९२.
पक्षातिक्रांत ज समयसार छे एम नियमथी ठरे छे — एम हवे कहे छेः —
गाथार्थः — [ यः ] जे [ सर्वनयपक्षरहितः ] सर्व नयपक्षोथी रहित [ भणितः ] कहेवामां
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