मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः ।
ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ।।१११।।
कांई पण क्षति अर्थात् विरोध नथी. [ किन्तु ] परंतु [ अत्र अपि ] अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के आत्मामां [ अवशतः यत् कर्म समुल्लसति ] अवशपणे ( – जबरदस्तीथी) जे कर्म प्रगट थाय छे अर्थात् उदय थाय छे [ तत् बन्धाय ] ते तो बंधनुं कारण थाय छे, अने [ मोक्षाय ] मोक्षनुं कारण तो, [ एकम् एव परमं ज्ञानं स्थितम् ] जे एक परम ज्ञान छे ते एक ज थाय छे — [ स्वतः विमुक्तं ] के जे ज्ञान स्वतः विमुक्त छे (अर्थात् त्रणे काळे परद्रव्य-भावोथी भिन्न छे).
भावार्थः — ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्र थतुं नथी त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टिने बे धारा रहे छे — शुभाशुभ कर्मधारा अने ज्ञानधारा. ते बन्ने साथे रहेवामां कांई पण विरोध नथी. (जेम मिथ्याज्ञानने अने सम्यग्ज्ञानने परस्पर विरोध छे तेम कर्मसामान्यने अने ज्ञानने विरोध नथी.) ते स्थितिमां कर्म पोतानुं कार्य करे छे अने ज्ञान पोतानुं कार्य करे छे. जेटला अंशे शुभाशुभ कर्मधारा छे तेटला अंशे कर्मबंध थाय छे अने जेटला अंशे ज्ञानधारा छे तेटला अंशे कर्मनो नाश थतो जाय छे. विषय-कषायना विकल्पो के व्रतनियमना विकल्पो — शुद्ध स्वरूपनो विचार सुद्धां — कर्मबंधनुं कारण छे; शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ज मोक्षनुं कारण छे. ११०. हवे कर्म अने ज्ञाननो नयविभाग बतावे छेः —
श्लोकार्थः — [ कर्मनयावलम्बनपराः मग्नाः ] कर्मनयना आलंबनमां तत्पर (अर्थात् कर्मनयना पक्षपाती) पुरुषो डूबेला छे [ यत् ] कारण के [ ज्ञानं न जानन्ति ] तेओ ज्ञानने जाणता नथी. [ ज्ञाननय-एषिणः अपि मग्नाः ] ज्ञाननयना इच्छक (अर्थात् पक्षपाती) पुरुषो पण डूबेला छे [ यत् ] कारण के [ अतिस्वच्छन्दमन्द-उद्यमाः ] तेओ स्वच्छंदथी अति मंद-उद्यमी छे (स्वरूपप्राप्तिनो पुरुषार्थ करता नथी, प्रमादी छे अने विषयकषायमां वर्ते छे). [ ते विश्वस्य उपरि तरन्ति ] ते जीवो विश्वना उपर तरे छे के [ ये स्वयं सततं ज्ञानं भवन्तः कर्म न कुर्वन्ति ] जेओ पोते निरंतर ज्ञानरूप थता – परिणमता थका कर्म करता नथी [ च ] अने [ जातु प्रमादस्य वशं न यान्ति ] क्यारेय प्रमादने वश पण थता नथी ( – स्वरूपमां उद्यमी रहे छे).
भावार्थः — अहीं सर्वथा एकांत अभिप्रायनो निषेध कर्यो छे कारण के सर्वथा एकांत अभिप्राय ज मिथ्यात्व छे.
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