Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रान्तम्

इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पुण्यपापप्ररूपकः तृतीयोऽङ्कः ।। वडे [ मूलोन्मूलं कृत्वा ] मूळथी उखेडी नाखीने [ ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे ] ज्ञानज्योति अत्यंत सामर्थ्य सहित प्रगट थई. केवी छे ते ज्ञानज्योति? [ कवलिततमः ] जे अज्ञानरूपी अंधकारने कोळियो करी गई छे अर्थात् जेणे अज्ञानरूपी अंधकारनो नाश कर्यो छे, [ हेला-उन्मिलत् ] जे लीलामात्रथी (सहज पुरुषार्थथी) ऊघडतीविकसती जाय छे अने [ परमकलया सार्धम् आरब्धकेलि ] जेणे परम कळा अर्थात् केवळज्ञान साथे क्रीडा शरू करी छे एवी ते ज्ञानज्योति छे. (ज्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि छद्मस्थ छे त्यां सुधी ज्ञानज्योति केवळज्ञान साथे शुद्धनयना बळथी परोक्ष क्रीडा करे छे, केवळज्ञान थतां साक्षात् थाय छे.)

भावार्थःपोताने (ज्ञानज्योतिने) प्रतिबंधक कर्म के जे शुभ अने अशुभएवा भेदरूप थईने नाचतुं हतुं अने ज्ञानने भुलावी देतुं हतुं तेने पोतानी शक्तिथी उखेडी नाखी ज्ञानज्योति संपूर्ण सामर्थ्य सहित प्रकाशित थई. आ ज्ञानज्योति अथवा ज्ञानकळा केवळ- ज्ञानरूपी परमकळानो अंश छे अने केवळज्ञानना संपूर्ण स्वरूपने ते जाणे छे तेम ज ते तरफ प्रगति करे छे, तेथी एम कह्युं छे के ‘‘ज्ञानज्योतिए केवळज्ञान साथे क्रीडा मांडी छे’’. ज्ञानकळा सहजपणे विकास पामती जाय छे अने छेवटे परमकळा अर्थात् केवळज्ञान थई जाय छे. ११२.

टीकाःपुण्य-पापरूपे बे पात्ररूप थयेलुं कर्म एक पात्ररूप थईने (रंगभूमिमांथी) बहार नीकळी गयुं.

भावार्थःकर्म सामान्यपणे एक ज छे तोपण तेणे पुण्य-पापरूपी बे पात्रोनो स्वांग धारण करीने रंगभूमिमां प्रवेश कर्यो हतो. तेने ज्ञाने यथार्थपणे एक जाणी लीधुं त्यारे ते एक पात्ररूप थईने रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गयुं, नृत्य करतुं अटकी गयुं.

आश्रय, कारण, रूप, सवादसुं भेद विचारी गिने दोऊ न्यारे,
पुण्य रु पाप शुभाशुभभावनि बंध भये सुखदुःखकरा रे;
ज्ञान भये दोऊ एक लखै बुध आश्रय आदि समान विचारे,
बंधके कारण हैं दोऊ रूप, इन्हैं तजि जिनमुनि मोक्ष पधारे.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां पुण्य-पापनो प्ररूपक त्रीजो अंक समाप्त थयो.

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२६०समयसार