समररङ्गपरागतमास्रवम् ।
जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः ।।११३।।
थया सिद्ध परमातमा, नमुं तेह, सुख आश.
प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे आस्रव प्रवेश करे छे’. जेम नृत्यना अखाडामां नृत्य करनार माणस स्वांग धारण करीने प्रवेश करे छे तेम अहीं आस्रवनो स्वांग छे. ते स्वांगने यथार्थ जाणनारुं सम्यग्ज्ञान छे; तेना महिमारूप मंगळ करे छेः —
श्लोकार्थः — [ अथ ] हवे [ समररङ्गपरागतम् ] समरांगणमां आवेला, [ महामदनिर्भरमन्थरं ] महा मदथी भरेला मदमाता [ आस्रवम् ] आस्रवने [ अयम् दुर्जयबोधधनुर्धरः ] आ दुर्जय ज्ञान -बाणावळी [ जयति ] जीते छे — [ उदारगभीरमहोदयः ] के जे ज्ञानरूपी बाणावळीनो महान उदय उदार छे (अर्थात् आस्रवने जीतवा माटे जेटलो पुरुषार्थ जोईए तेटलो पूरो पाडे एवो छे) अने गंभीर छे (अर्थात् जेनो पार छद्मस्थ जीवो पामी शकता नथी एवो छे).
भावार्थः — अहीं नृत्यना अखाडामां आस्रवे प्रवेश कर्यो छे. नृत्यमां अनेक रसनुं वर्णन होय छे तेथी अहीं रसवत् अलंकार वडे शान्त रसमां वीर रसने प्रधान करी वर्णन कर्युं छे के ‘ज्ञानरूपी बाणावळी आस्रवने जीते छे’. आखा जगतने जीतीने मदोन्मत्त थयेलो आस्रव संग्रामनी भूमिमां आवीने खडो थयो; परंतु ज्ञान तो तेना करतां वधारे बळवान योद्धो छे तेथी ते आस्रवने जीती ले छे अर्थात् अंतर्मुहूर्तमां कर्मोनो नाश करी केवळज्ञान उपजावे छे. एवुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे. ११३.