यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सकृद्विश्लिष्टं सत् न पुनर्वृन्तसम्बन्धमुपैति, तथा क र्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृ द्विश्लिष्टः सन् न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसङ्कीर्णो भावः सम्भवति ।
भावार्थः — रागादिक साथे मळेलो अज्ञानमय भाव ज बंधनो करनार छे, रागादिक साथे नहि मळेलो ज्ञानमय भाव बंधनो करनार नथी — ए नियम छे.
हवे रागादि साथे नहि मळेला भावनी उत्पत्ति बतावे छेः —
गाथार्थः — [ यथा ] जेम [ पक्वे फले ] पाकुं फळ [ पतिते ] खरी पडतां [ पुनः ] फरीने [ फलं ] फळ [ वृन्तैः ] डींटा साथे [ न बध्यते ] जोडातुं नथी, तेम [ जीवस्य ] जीवने [ कर्मभावे ] कर्मभाव [ पतिते ] खरी जतां (अर्थात् छूटो थतां) [ पुनः ] फरीने [ उदयम् न उपैति ] उत्पन्न थतो नथी (अर्थात् जीव साथे जोडातो नथी).
टीकाः — जेम पाकुं फळ डींटाथी एकवार छूटुं पड्युं थकुं फरीने डींटा साथे संबंध पामतुं नथी, तेम कर्मना उदयथी उत्पन्न थतो भाव जीवभावथी एकवार छूटो पड्यो थको फरीने जीवभावने पामतो नथी. आ रीते ज्ञानमय एवो, रागादिक साथे नहि मळेलो भाव उत्पन्न थाय छे.
भावार्थः — जो ज्ञान एकवार (अप्रतिपाती भावे) रागादिकथी जुदुं परिणमे तो फरीने ते कदी रागादिक साथे भेळसेळ थई जतुं नथी. आ रीते उत्पन्न थयेलो, रागादिक साथे नहि मळेलो ज्ञानमय भाव सदाकाळ रहे छे. पछी जीव अस्थिरतारूपे रागादिकमां जोडाय ते निश्चयद्रष्टिमां जोडाण छे ज नहि अने तेने जे अल्प बंध थाय ते पण निश्चयद्रष्टिमां बंध छे ज नहि, कारण के अबद्धस्पृष्टरूपे परिणमन निरंतर वर्त्या ज करे छे. वळी तेने मिथ्यात्वनी साथे रहेनारी प्रकृतिओनो बंध थतो नथी अने अन्य प्रकृतिओ सामान्य संसारनुं
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