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समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः ।
दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः ।।११८।।
सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वनो अने अनंतानुबंधी कषायनो उदय नहि होवाथी तेने ते प्रकारना भावास्रवो तो थता ज नथी अने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषाय संबंधी बंध पण थतो नथी. (क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने सत्तामांथी मिथ्यात्वनो क्षय थती वखते ज अनंतानुबंधी कषायनो तथा ते संबंधी अविरति अने योगभावनो पण क्षय थई गयो होय छे तेथी तेने ते प्रकारनो बंध थतो नथी; औपशमिक सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषायो मात्र उपशममां – सत्तामां – ज होवाथी सत्तामां रहेलुं द्रव्य उदयमां आव्या विना ते प्रकारना बंधनुं कारण थतुं नथी; अने क्षायोपशमिक सम्यग्द्रष्टिने पण सम्यक्त्वमोहनीय सिवायनी छ प्रकृतिओ विपाक-उदयमां आवती नथी तेथी ते प्रकारनो बंध थतो नथी.)
अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने जे चारित्रमोहनो उदय वर्ते छे तेमां जे प्रकारे जीव जोडाय छे ते प्रकारे तेने नवो बंध थाय छे; तेथी गुणस्थानोना वर्णनमां अविरतसम्यग्द्रष्टि आदि गुणस्थानोए अमुक अमुक प्रकृतिनो बंध कह्यो छे. परंतु आ बंध अल्प होवाथी तेने सामान्य संसारनी अपेक्षाए बंधमां गणवामां आवतो नथी. सम्यग्द्रष्टि चारित्रमोहना उदयमां स्वामित्वभावे तो जोडातो ज नथी, मात्र अस्थिरतारूपे जोडाय छे; अने अस्थिरतारूप जोडाण ते निश्चयद्रष्टिमां जोडाण ज नथी. माटे सम्यग्द्रष्टिने रागद्वेषमोहनो अभाव कहेवामां आव्यो छे. ज्यां सुधी कर्मनुं स्वामीपणुं राखीने कर्मना उदयमां जीव परिणमे छे त्यां सुधी ज जीव कर्मनो कर्ता छे; उदयनो ज्ञाताद्रष्टा थईने परना निमित्तथी मात्र अस्थिरतारूपे परिणमे त्यारे कर्ता नथी, ज्ञाता ज छे. आ अपेक्षाए, सम्यग्द्रष्टि थया पछी चारित्रमोहना उदयरूप परिणमवा छतां तेने ज्ञानी अने अबंधक कहेवामां आव्यो छे. ज्यां सुधी मिथ्यात्वनो उदय छे अने तेमां जोडाईने जीव रागद्वेषमोहभावे परिणमे छे त्यां सुधी ज तेने अज्ञानी अने बंधक कहेवामां आवे छे. ज्ञानी-अज्ञानीनो अने बंध-अबंधनो आ विशेष जाणवो. वळी शुद्ध स्वरूपमां लीन रहेवाना अभ्यास द्वारा केवळज्ञान प्रगटवाथी ज्यारे जीव साक्षात् संपूर्णज्ञानी थाय छे त्यारे तो ते सर्वथा निरास्रव थई जाय छे एम पहेलां कहेवाई गयुं छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ यद्यपि ] जोके [ समयम् अनुसरन्तः ] पोतपोताना समयने अनुसरता