कहानजैनशास्त्रमाळा ]
रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च ।
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ।।१२६।।
आ प्रमाणे (ज्ञाननुं अने क्रोधादिक तेम ज कर्म-नोकर्मनुं) भेदविज्ञान भली रीते सिद्ध थयुं.
भावार्थः — उपयोग तो चैतन्यनुं परिणमन होवाथी ज्ञानस्वरूप छे अने क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म — ए बधांय पुद्गलद्रव्यना परिणाम होवाथी जड छे; तेमने अने ज्ञानने प्रदेशभेद होवाथी अत्यंत भेद छे. माटे उपयोगमां क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नथी अने क्रोधादिकमां, कर्ममां तथा नोकर्ममां उपयोग नथी. आ रीते तेमने पारमार्थिक आधाराधेयसंबंध नथी; दरेक वस्तुने पोतपोतानुं आधाराधेयपणुं पोतपोतामां ज छे. माटे उपयोग उपयोगमां ज छे, क्रोध क्रोधमां ज छे. आ रीते भेदविज्ञान बराबर सिद्ध थयुं. (भावकर्म वगेरेनो अने उपयोगनो भेद जाणवो ते भेदविज्ञान छे.)
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च ] चिद्रूपता (चैतन्यरूपता) धरतुं ज्ञान अने जडरूपता धरतो राग — [ द्वयोः ] ए बन्नेनो, [ अन्तः ] अंतरंगमां [ दारुण- दारणेन ] दारुण विदारण वडे (अर्थात् भेद पाडवाना उग्र अभ्यास वडे), [ परितः विभागं कृत्वा ] चोतरफथी विभाग करीने ( — समस्त प्रकारे बन्नेने जुदां करीने — ), [ इदं निर्मलम् भेदज्ञानम् उदेति ] आ निर्मळ भेदज्ञान उदय पाम्युं छे; [ अधुना ] माटे हवे [ एकम् शुद्ध-ज्ञानघन- ओघम् अध्यासिताः ] एक शुद्ध विज्ञानघनना पुंजमां स्थित अने [ द्वितीय-च्युताः ] बीजाथी एटले रागथी रहित एवा [ सन्तः ] हे सत्पुरुषो! [ मोदध्वम् ] तमे मुदित थाओ.
भावार्थः — ज्ञान तो चेतनास्वरूप छे अने रागादिक पुद्गलविकार होवाथी जड छे; परंतु अज्ञानथी, जाणे के ज्ञान पण रागादिरूप थई गयुं होय एम भासे छे अर्थात् ज्ञान अने रागादिक बन्ने एकरूप – जडरूप – भासे छे. ज्यारे अंतरंगमां ज्ञान अने रागादिनो भेद पाडवानो तीव्र अभ्यास करवाथी भेदज्ञान प्रगट थाय छे त्यारे एम जणाय छे के ज्ञाननो स्वभाव तो मात्र जाणवानो ज छे, ज्ञानमां जे रागादिकनी कलुषता — आकुळतारूप संकल्प- विकल्प — भासे छे ते सर्व पुद्गलविकार छे, जड छे. आम ज्ञान अने रागादिकना भेदनो