विमुक्तमात्मानमवाप्नोति । एष संवरप्रकारः ।
भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः ।
भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ।।१२८।।
परद्रव्यमयपणाथी अतिक्रांत थयो थको, अल्प काळमां ज सर्व कर्मथी रहित आत्माने पामे छे. आ संवरनो प्रकार (रीत) छे.
भावार्थः — जे जीव प्रथम तो रागद्वेषमोह साथे मळेला मनवचनकायाना शुभाशुभ योगोथी पोताना आत्माने भेदज्ञानना बळ वडे चळवा न दे, पछी तेने शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मस्वरूपमां निश्चळ करे अने समस्त बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहथी रहित थईने कर्म-नोकर्मथी भिन्न पोताना स्वरूपमां एकाग्र थई तेने ज अनुभव्या करे अर्थात् तेना ज ध्यानमां रहे, ते जीव आत्माने ध्यावाथी दर्शनज्ञानमय थयो थको अने परद्रव्यमयपणाने ओळंगी गयो थको अल्प काळमां समस्त कर्मथी मुक्त थाय छे. आ संवर थवानी रीत छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ भेदविज्ञानशक्त्या निजमहिमरतानां एषां ] जेओ भेदविज्ञाननी शक्ति वडे निज (स्वरूपना) महिमामां लीन रहे छे तेमने [ नियतम् ] नियमथी (चोक्कस) [ शुद्धतत्त्वोपलम्भः ] शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि [ भवति ] थाय छे; [ तस्मिन् सति च ] शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि थतां, [ अचलितम् अखिल-अन्यद्रव्य-दूरे-स्थितानां ] अचलितपणे समस्त अन्यद्रव्योथी दूर वर्तता एवा तेमने, [ अक्षयः कर्ममोक्षः भवति ] अक्षय कर्ममोक्ष थाय छे (अर्थात् फरीने कदी कर्मबंध न थाय एवो कर्मथी छुटकारो थाय छे). १२८.
हवे पूछे छे के संवर कया क्रमे थाय छे? तेनो उत्तर कहे छेः —
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