विरागस्योपभोगो निर्जरायै एव । रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बन्धनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितम् ।
भावार्थः — संवर थया पछी नवां कर्म तो बंधातां नथी. जे पूर्वे बंधायां हतां ते कर्मो ज्यारे निर्जरे छे त्यारे ज्ञाननुं आवरण दूर थवाथी ज्ञान एवुं थाय छे के फरीने रागादिरूपे परिणमतुं नथी — सदा प्रकाशरूप ज रहे छे. १३३.
हवे द्रव्यनिर्जरानुं स्वरूप कहे छेः —
गाथार्थः — [ सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्द्रष्टि जीव [ यत् ] जे [ इन्द्रियैः ] इन्द्रियो वडे [ अचेतनानाम् ] अचेतन तथा [ इतरेषाम् ] चेतन [ द्रव्याणाम् ] द्रव्योनो [ उपभोगम् ] उपभोग [ करोति ] करे छे [ तत् सर्वं ] ते सर्व [ निर्जरानिमित्तम् ] निर्जरानुं निमित्त छे.
टीकाः — विरागीनो उपभोग निर्जरा माटे ज छे (अर्थात् निर्जरानुं कारण थाय छे). रागादिभावोना सद्भावथी मिथ्याद्रष्टिने अचेतन तथा चेतन द्रव्योनो उपभोग बंधनुं निमित्त ज थाय छे; ते ज (उपभोग), रागादिभावोना अभावथी सम्यग्द्रष्टिने निर्जरानुं निमित्त ज थाय छे. आथी (आ कथनथी) द्रव्यनिर्जरानुं स्वरूप कह्युं.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कह्यो छे अने ज्ञानीने रागद्वेषमोहनो अभाव कह्यो छे; माटे सम्यग्द्रष्टि विरागी छे. तेने इन्द्रियो वडे भोग होय तोपण तेने भोगनी सामग्री प्रत्ये राग नथी. ते जाणे छे के ‘‘आ (भोगनी सामग्री) परद्रव्य छे, मारे अने तेने कांई नातो नथी; कर्मना उदयना निमित्तथी तेनो अने मारो संयोग-वियोग छे’’. ज्यां सुधी तेने चारित्रमोहनो उदय आवीने पीडा करे छे अने पोते बळहीन होवाथी पीडा सही शकतो नथी