उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये, तन्निमित्तः सातासातविकल्पानतिक्रमणेन त्यां सुधी — जेम रोगी रोगनी पीडा सही शके नहि त्यारे तेनो औषधि आदि वडे इलाज करे छे तेम — भोगोपभोगसामग्री वडे विषयरूप इलाज करे छे; परंतु जेम रोगी रोगने के औषधिने भली जाणतो नथी तेम सम्यग्द्रष्टि चारित्रमोहना उदयने के भोगोपभोगसामग्रीने भली जाणतो नथी. वळी निश्चयथी तो, ज्ञातापणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि विरागी उदयमां आवेला कर्मने मात्र जाणी ज ले छे, तेना प्रत्ये तेने रागद्वेषमोह नथी. आ रीते रागद्वेषमोह विना ज तेना फळने भोगवतो होवाथी तेने कर्म आस्रवतुं नथी, आस्रव विना आगामी बंध थतो नथी अने उदयमां आवेलुं कर्म तो पोतानो रस दईने खरी ज जाय छे कारण के उदयमां आव्या पछी कर्मनी सत्ता रही शके ज नहि. आ रीते तेने नवो बंध थतो नथी अने उदयमां आवेलुं कर्म निर्जरी गयुं तेथी तेने केवळ निर्जरा ज थई. माटे सम्यग्द्रष्टि विरागीना भोगोपभोगने निर्जरानुं ज निमित्त कहेवामां आव्यो छे. पूर्व कर्म उदयमां आवीने तेनुं द्रव्य खरी गयुं ते द्रव्यनिर्जरा छे.
हवे भावनिर्जरानुं स्वरूप कहे छेः —
गाथार्थः — [ द्रव्ये उपभुज्यमाने ] वस्तु भोगववामां आवतां, [ सुखं वा दुःखं वा ] सुख अथवा दुःख [ नियमात् ] नियमथी [ जायते ] उत्पन्न थाय छे; [ उदीर्णं ] उदय थयेला अर्थात् उत्पन्न थयेला [ तत् सुखदुःखम् ] ते सुखदुःखने [ वेदयते ] वेदे छे — अनुभवे छे, [ अथ ] पछी [ निर्जरां याति ] ते (सुखदुःखरूप भाव) निर्जरी जाय छे.
टीकाः — परद्रव्य भोगववामां आवतां, तेना निमित्ते सुखरूप अथवा दुःखरूप जीवनो भाव नियमथी ज उदय थाय छे अर्थात् उत्पन्न थाय छे, कारण के वेदन शाता
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