एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि, “मा अन्यान् प्राक्षीः ।
श्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात् ।
ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ।।१४४।।
कुतो ज्ञानी परं न परिगृह्णातीति चेत् — तृप्त एवा तने वचनथी अगोचर एवुं सुख थशे; अने ते सुख ते क्षणे ज तुं ज स्वयमेव देखशे, *बीजाओने न पूछ. (ते सुख पोताने ज अनुभवगोचर छे, बीजाने शा माटे पूछवुं पडे?)
भावार्थः — ज्ञानमात्र आत्मामां लीन थवुं, तेनाथी ज संतुष्ट थवुं अने तेनाथी ज तृप्त थवुं — ए परम ध्यान छे. तेनाथी वर्तमान आनंद अनुभवाय छे अने थोडा ज काळमां ज्ञानानंदस्वरूप केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. आवुं करनार पुरुष ज ते सुखने जाणे छे, बीजानो एमां प्रवेश नथी.
हवे ज्ञानानुभवना महिमानुं अने आगळनी गाथानी सूचनानुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ यस्मात् ] कारण के [ एषः ] आ (ज्ञानी) [ स्वयम् एव ] पोते ज [ अचिन्त्यशक्तिः देवः ] अचिंत्य शक्तिवाळो देव छे अने [ चिन्मात्र-चिन्तामणिः ] चिन्मात्र चिंतामणि छे (अर्थात् चैतन्यरूप चिंतामणि रत्न छे), माटे [ सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया ] जेना सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध छे एवा स्वरूपे होवाथी [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ अन्यस्य परिग्रहेण ] अन्यना परिग्रहथी [ किम् विधत्ते ] शुं करे? (कांई ज करवानुं नथी.)
भावार्थः — आ ज्ञानमूर्ति आत्मा पोते ज अनंत शक्तिनो धारक देव छे अने पोते ज चैतन्यरूपी चिंतामणि होवाथी वांछित कार्यनी सिद्धि करनारो छे; माटे ज्ञानीने सर्व प्रयोजन सिद्ध होवाथी तेने अन्य परिग्रहनुं सेवन करवाथी शुं साध्य छे? अर्थात् कांई ज साध्य नथी. आम निश्चयनयनो उपदेश छे. १४४.
हवे पूछे छे के ज्ञानी परने केम ग्रहतो नथी? तेनो उत्तर कहे छेः —
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*मा अन्यान् प्राक्षीः (बीजाओने न पूछ) नो पाठान्तर — माऽतिप्राक्षीः (अतिप्रश्नो न कर)