Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 148-149.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(स्वागता)
ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं
कर्म रागरसरिक्त तयैति
रङ्गयुक्ति रकषायितवस्त्रे-
ऽस्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह
।।१४८।।
(स्वागता)
ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात्
सर्वरागरसवर्जनशीलः
लिप्यते सकलकर्मभिरेषः
कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न
।।१४९।।

ज्ञानीने राग नथी; कारण के तेओ बधाय नाना द्रव्योना स्वभाव होवाथी, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवा ज्ञानीने तेमनो निषेध छे.

भावार्थःजे अध्यवसानना उदयो संसार संबंधी छे अने बंधननां निमित्त छे तेओ तो राग, द्वेष, मोह इत्यादि छे तथा जे अध्यवसानना उदयो देह संबंधी छे अने उपभोगनां निमित्त छे तेओ सुख, दुःख इत्यादि छे. ते बधाय (अध्यवसानना उदयो), नाना द्रव्योना (अर्थात् पुद्गलद्रव्य अने जीवद्रव्य के जेओ संयोगरूपे छे तेमना) स्वभाव छे; ज्ञानीनो तो एक ज्ञायकस्वभाव छे. माटे ज्ञानीने तेमनो निषेध छे; तेथी ज्ञानीने तेमना प्रत्ये रागप्रीति नथी. परद्रव्य, परभाव संसारमां भ्रमणनां कारण छे; तेमना प्रत्ये प्रीति करे तो ज्ञानी शानो?

हवे आ अर्थना कळशरूपे तथा आगळना कथननी सूचनारूपे श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[ इह अकषायितवस्त्रे ] जेम लोधर, फटकडी वगेरेथी जे कषायित करवामां न आव्युं होय एवा वस्त्रमां [ रङ्गयुक्तिः ] रंगनो संयोग, [ अस्वीकृता ] वस्त्र वडे अंगीकार नहि करायो थको, [ बहिः एव हि लुठति ] बहार ज लोटे छेअंदर प्रवेश करतो नथी, [ ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न हि एति ] तेम ज्ञानी रागरूपी रसथी रहित होवाथी तेने कर्म परिग्रहपणाने धारतुं नथी.

भावार्थःजेम लोधर, फटकडी वगेरे लगाड्या विना वस्त्र पर रंग चडतो नथी तेम रागभाव विना ज्ञानीने कर्मना उदयनो भोग परिग्रहपणाने पामतो नथी. १४८.

फरी कहे छे केः

श्लोकार्थः[ यतः ] कारण के [ ज्ञानवान् ] ज्ञानी [ स्वरसतः अपि ] निज रसथी ज

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