जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि ।।१५४।।
उज्ज्वळताने जाणता नथी. मिथ्याद्रष्टि तो बहिरात्मा छे, बहारथी ज भलुं बूरुं माने छे; अंतरात्मानी गति बहिरात्मा शुं जाणे? १५३.
श्लोकार्थः — [ यत् भय-चलत्-त्रैलोक्य-मुक्त-अध्वनि वज्रे पतति अपि ] जेना भयथी चलायमान थता — खळभळी जता — त्रणे लोक पोतानो मार्ग छोडी दे छे एवो वज्रपात थवा छतां, [ अमी ] आ सम्यग्द्रष्टि जीवो, [ निसर्ग-निर्भयतया ] स्वभावथी ज निर्भय होवाने लीधे, [ सर्वाम् एव शङ्कां विहाय ] समस्त शंका छोडीने, [ स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः ] पोते पोताने (अर्थात् आत्माने) जेनुं ज्ञानरूपी शरीर अवध्य (अर्थात् कोईथी हणी शकाय नहि एवुं) छे एवो जाणता थका, [ बोधात् च्यवन्ते न हि ] ज्ञानथी च्युत थता नथी. [ इदं परं साहसम् सम्यग्द्रष्टयः एव क र्तुं क्षमन्ते ] आवुं परम साहस करवाने मात्र सम्यग्द्रष्टिओ ज समर्थ छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टि निःशंकितगुण सहित होय छे तेथी गमे तेवा शुभाशुभ कर्मना उदय वखते पण तेओ ज्ञानरूपे ज परिणमे छे. जेना भयथी त्रण लोकना जीवो कंपी ऊठे छे — खळभळी जाय छे अने पोतानो मार्ग छोडी दे छे एवो वज्रपात थवा छतां सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना स्वरूपने ज्ञानशरीरवाळुं मानतो थको ज्ञानथी चलायमान थतो नथी. तेने एम शंका नथी थती के आ वज्रपातथी मारो नाश थई जशे; पर्यायनो विनाश थाय तो ठीक ज छे कारण के तेनो तो विनाशिक स्वभाव ज छे. १५४.
हवे आ अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः —
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