कहानजैनशास्त्रमाळा ]
येन नित्यमेव सम्यग्द्रष्टयः सकलकर्मफलनिरभिलाषाः सन्तोऽत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते, तेन नूनमेते अत्यन्तनिश्शङ्कदारुणाध्यवसायाः सन्तोऽत्यन्तनिर्भयाः सम्भाव्यन्ते ।
श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः ।
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५५।।
गाथार्थः — [ सम्यग्दृष्टयः जीवाः ] सम्यग्द्रष्टि जीवो [ निश्शङ्काः भवन्ति ] निःशंक होय छे [ तेन ] तेथी [ निर्भयाः ] निर्भय होय छे; [ तु ] अने [ यस्मात् ] कारण के [ सप्तभयविप्रमुक्ताः ] सप्त भयथी रहित होय छे [ तस्मात् ] तेथी [ निश्शङ्काः ] निःशंक होय छे ( – अडोल होय छे).
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टिओ सदाय सर्व कर्मोनां फळ प्रत्ये निरभिलाष होवाथी कर्म प्रत्ये अत्यंत निरपेक्षपणे वर्ते छे, तेथी खरेखर तेओ अत्यंत निःशंक दारुण (द्रढ) निश्चयवाळा होवाथी अत्यंत निर्भय छे एम संभावना करवामां आवे छे (अर्थात् एम योग्यपणे गणवामां आवे छे).
हवे सात भयनां कळशरूप काव्यो कहेवामां आवे छे, तेमां प्रथम आ लोकना तथा परलोकना एम बे भयनुं एक काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ एषः ] आ चित्स्वरूप लोक ज [ विविक्तात्मनः ] भिन्न आत्मानो (अर्थात् परथी भिन्नपणे परिणमता आत्मानो) [ शाश्वतः एक : सक ल-व्यक्त : लोक : ] शाश्वत, एक अने सकलव्यक्त ( – सर्व काळे प्रगट एवो) लोक छे; [ यत् ] कारण के [ के वलम् चित्- लोकं ] मात्र चित्स्वरूप लोकने [ अयं स्वयमेव एक क : लोक यति ] आ ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकलो अवलोके छे — अनुभवे छे. आ चित्स्वरूप लोक ज तारो छे, [ तद्-अपरः ] तेनाथी बीजो कोई लोक — [ अयं लोक : अपरः ] आ लोक के परलोक — [ तव न ] तारो नथी एम ज्ञानी विचारे छे, जाणे छे, [ तस्य तद्-भीः कु तः अस्ति ] तेथी ज्ञानीने आ लोकनो तथा परलोकनो